अर्थशास्त्र

लघु एवं कुटीर उद्योगों से आशय | कुटीर उद्योग की परिभाषा | लघु उद्योगों की समस्याएँ | लघु उद्योगों में सुधार के उपाय | भारत में आर्थिक विकास में लघु एवं कुटीर उद्योगों की भूमिका | भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग की वृद्धि पर उदारीकरण की नीति के प्रभाव

लघु एवं कुटीर उद्योगों से आशय | कुटीर उद्योग की परिभाषा | लघु उद्योगों की समस्याएँ | लघु उद्योगों में सुधार के उपाय | भारत में आर्थिक विकास में लघु एवं कुटीर उद्योगों की भूमिका | भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग की वृद्धि पर उदारीकरण की नीति के प्रभाव| Meaning of small and cottage industries. Definition of cottage industry in Hindi  | Problems of Small Scale Industries in Hindi  | Measures to improve small scale industries in Hindi | Role of small and cottage industries in economic development in India in Hindi | Effects of liberalization policy on the growth of small and cottage industries in India in Hindi 

लघु एवं कुटीर उद्योगों से आशय

भारत में समय-समय पर लघु एवं कुटीर उद्योगों की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी गयी हैं। वर्तमान समय में लघु स्तरीय औद्योगिक इकाई से आशय ऐसी औद्योगिक इकाई से है जिसमें स्थायी सम्पत्तियां (भवन, प्लाण्ट और मशीनरी आदि) में विनियोग की राशि 60 लाख रूपये से अधिक हो। सहायक (अनुषंगी) औद्योगिक इकाई अर्थात् मशीनों तथा उपकरणों आदि के निर्माण करने वाली औद्योगिक इकाई की दशा में स्थायी सम्पत्तियों में विनियोग की राशि 75 लाख रूपये से अधिक न हो। यह सीमा ऐसी औद्योगिक इकाइयों के लिए भी है जो उत्पादन प्रारम्भ करने से तीन वर्ष के अन्दर अपने उत्पादन का कम से कम 30 प्रतिशत भाग निर्यात करने की जिम्मेदारी  लें। जिन औद्योगिक इकाइयों में संयन्त्र एवं मशीनों के रूप में 5 लाख रूपये या इससे कम की पूँजी विनियोग है उन्हें पिछी इकाइयों अर्थात् अत्यन्त छोटी इकाइयों (Tiny Units) के अन्तर्गत रखा गया है।

कुटीर उद्योग के अन्तर्गत ऐसे उद्योग ऐसे उद्योग को सम्मिलित किया गया है जो कि पूर्णतः या मुख्यतः परिवार सदस्यों की सहायता से चलाया जाता है।

कुटीर उद्योग की परिभाषा

कुटीर उद्योग की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) राजकोषीय आयोग के अनुसार, “सन् 1949-50 में कुटीर उद्योग उस उद्योग को कहा जो पूर्णतः अथवा अंशतः कारीगर के परिवार की सहायता से पूर्णकालीन अथवा अल्पकालीन व्यवसाय के रूप में चलाया जाता हो।”

(2) बम्बई आर्थिक एवं औद्योगिक सर्वेक्षण समिति ने कुटीर उद्योग उन उद्योगों को कहा है जहाँ पर शक्ति का प्रयोग नहीं होता तथा उत्पादन साधारणतया कारीगर के घर पर ही होता हो।

(3) भारतीय औद्योगिक समिति के अनुसार, “कुटीर उद्योग वे उद्योग हैं जो कि श्रमिकों के घर पर चलाये जाते हैं जहाँ कि उत्पादन का स्तर छोटा होता है और जहाँ न्यनतम संगठन होता है। “

उपर्युक्त परिभाषाओं से कुटीर उद्योग का अर्थ ठीक से स्पष्ट नहीं होता है। कुटीर उद्योग की एक उपयुक्त परिभाषा हम इस प्रकार दे सकते हैं-

“कुटीर उद्योग वे हैं जो पूर्ण रूप से या मुख्य रूप से परिवार के सदस्यों की सहायता से या तो पूर्णकालिक व्यवसाय के रूप में या अंशकालिक व्यवसाय के रूप में चलाये जाते हैं जिनमें परम्परागत विधियों तथा स्थानीय कच्चे माल का प्रयोग होता है और जिनमें प्रायः स्थानीय बाजारों में बिक्री के लिए माल तैयार रहता है।

उपर्युक्त परिभाषा से कुटीर उद्योग की निम्नलिखित विशेषताओं का आभास होता है

(1) ये उद्योग पूर्णतः या मुख्यतः परिवार के सदस्यों की सहायता से चलाये जाते हैं।

(2) ये पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक व्यवसाय के रूप में चलाये जाते हैं।

(3) इन उद्योगों में प्रायः परम्परागत विधियों से परम्परागत वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है।

(4) इनमें स्थानीय कच्चे माल व कुशलता का प्रयोग होता है।

(5) इनसे प्रायः स्थानीय बाजार की मांग की पूर्ति की जाती है।

कुटीर उद्योगों में सूत कातना, गुड़ बनाना, बीड़ी बाँधना, रस्सी और चटाई बुनना, रंग और छपाई, हस्तशिल्प आदि को शामिल किया जाता है।

लघु उद्योगों की समस्याएँ

लघु एवं कुटीर उद्योगों की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

(1) कच्चे माल की समस्या-लघु एवं कुटीर उद्योगों की कच्चे माल से सम्बन्धित समस्याएँ इस प्रकार हैं-(1) स्थानीय व्यापारियों द्वारा इनको घटिया किस्म का ही माल मिलता है। (2) कम मात्रा में क्रय करने के कारण इन्हें ऊँचा मूल्य चुकाना पड़ता है। (3) कभी-कभी कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता है। (4) कच्चे माल के आयात करने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। (5) सरकार द्वारा कच्चा माल आवंटित करने में इन उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में माल आवंटित किया जाता।

(2) वित्त की समस्या- भारत का शिल्पकार निर्धनता के कारण आवश्यक औजार व कच्चा माल अपने निजी साधनों से क्रय नहीं कर सकता। बैंक उसे ऋण देने में हिचकते हैं। सहकारी समितियों का कारीगरों में प्रचार का अभाव है। अतः शिल्पकार बाध्य होकर अपने वित्त की आवश्यकता की पूर्ति महाजन से ऋण लेकर करते हैं जो उनका शोषण करता है।

(3) तकनीकी समस्या- भारतीय कारीगर आज अपने उत्पादन में परम्परागत तकनीक को अपनाये हुए हैं जिससे उत्पादन की किस्म और उत्पादन लागत अधिक होती है।

(4) बड़े पैमाने के उद्योगों में प्रतियोगिता- बड़े पैमाने के उद्योगों में वस्तुएं आधुनिक विधियों द्वारा तैयार की जाती है जिससे उनका लागत व्यय घट जाता है। अतः उनके द्वारा उत्पादित वस्तुयें सस्ती होती है। लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित माल का लागत व्यय अधिक होता है। अतः लघु एवं कुटीर उद्योगों को बड़े पैमाने के उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है। इस प्रतिस्पर्द्धा में लघु एवं कुटीर उद्योग टिक नहीं पाते और उनका पतन हो जाता है।

(5) यन्त्र सम्बन्धी शिक्षा का अभाव- भारतीय कारीगर अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें प्रशिक्षण देने में कठिनाई होती है। दूसरे यहाँ पर यन्त्र सम्बन्धी शिक्षा का भी अभाव है। प्रशिक्षण के अभाव में वे नये यन्त्रों का प्रयोग नहीं कर पाते।

लघु उद्योगों में सुधार के उपाय

लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

(1) सहकारी समितियों का विकास- लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याओं को हल करने के लिए सहकारी समितियों का विकास किया जाये जिससे इनकी समस्याओं, जैसे-कच्चे माल की समस्या, वित्त की समस्या तथा विपणन की समस्या आदि का समाधान हो जाये।

(2) उत्पादन तकनीक में सुधार लघु एवं कुटीर उद्योगों को परम्परागत तकनीक को छोड़कर नवीन तकनीक अपनानी चाहिए जिससे वस्तु की किस्म में सुधार हो जाये और उत्पादन लागत व्यय घट जाये।

(3) सलाहकारी संस्थाओं का विस्तार- लघु उद्योग सेवा संस्थान एवं राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम इन उद्योगों की स्थापना, विकास तथा समस्याओं के समाधान के लिए सुझाव देते रहते हैं। कुछ ऐसी नयी संस्थाएं स्थापित की जायें तथा इनकी सेवाओं में विस्तार किया जाये।

(4) वृहद-स्तरीय एवं लघु-स्तरीय उद्योगों में समन्वय-वृहद्-स्तरीय लघुस्तरीय उद्योगों में प्रतियोगिता के स्थान पर समन्वय होना चाहिए। छोटे-छोटे पुर्जों का निर्माण लघु उद्योगों में हो और इनका प्रयोग बड़े उद्योगों में कच्चे माल के रूप में हो।

(5) किस्म नियन्त्रण- कुटीर एवं लघु उद्योगों को अपनी वस्तुओं के प्रमाणीकरण के साथ-साथ किस्म नियन्त्रण भी करना चाहिए वे समान आकार एवं गुण वाली वस्तु बना सके और उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकें।

(6) अनुसन्धान कार्यक्रम का विस्तार- लघु एवं कुटीर उद्योगों से सम्बन्धित कार्यों के अनुसन्धान कार्यक्रम को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिससे उनकी उत्पादन लागत कम हो जाये, बेकार कतरनों को काम में लाया जा सके तथा वस्तुओं को आकर्षक बनाया जा सके।

(7) वित्तीय सुविधाओं का विस्तार- यद्यपि आजकल बैंक, सहकारी साख समितियाँ, राज्य वित्त निगम आदि लघु उद्योगों की वित्त की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं फिर भी इन सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। 1977 ई., 1980 ई., 1985 ई. एवं 1991 ई. की औद्योगिक नीतियों में इस दिशा में आवश्यक पग उठाये गये हैं।

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Pankaja Singh

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