अर्थशास्त्र

कृषि श्रमिक | कृषि श्रमिक एवं समस्याएँ | कृषि-श्रमिकों का वर्गीकरण

कृषि श्रमिक | कृषि श्रमिक एवं समस्याएँ | कृषि-श्रमिकों का वर्गीकरण | Agricultural Workers in Hindi | Agricultural Labor and Problems in Hindi | classification of agricultural workers in Hindi

कृषि श्रमिक एवं समस्याएँ

भारतीय कृषि में कृषि श्रमिक की स्थिति अत्यधिक दयनीय है। यह भारतीय कृषि व्यवस्था का सर्वाधिक पिछड़ा और उपेक्षित अंग है। इसकी निर्धनता इसके लिए सबसे गम्भीर अभिशाप है। इसके पास न तो नियमित रोजगार की व्यवस्था है और न इसकी इतनी आय ही है कि ये अपने परिवार के लिए दो समय का भोजन सरलता से प्राप्त कर सके। ये श्रमिक कृषि के अतिरिक्त अन्य किसी व्यवसाय में कार्य करने की योग्यता भी नहीं रखते। चूँकि कृषि क्षेत्र में अधिकांश श्रमिक अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग से ही जुड़े हैं, अतः प्रारम्भ से ही ये दलित है और घोर सामाजिक उपेक्ष के शिकार भी है। अतः भारत सरकार ने इन श्रमिकों की दयनीय दशा सुधारने के लिए सुझाव देने हेतु सर्वप्रथम सन् 1950 में ‘खेतिहर मजदूर जाँच समिति’ का गठन किया। इस समिति ने कृषि श्रमिकों की स्थिति सुधारने के सम्बन्ध में अनेक सुझाव दिए, जिन्हें सरकार द्वारा क्रियान्वयन करने का प्रयास किया गया। तत्पश्चात् वर्ष 1956-57 में ‘द्वितीय, खेतिहर मजदूर जाँच समिति’ का गठन किया गया। इस समिति ने कृषि श्रमिक को व्यापक अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया। इस प्रकार कृषि श्रमिक की दशा सुधारने की दिशा में सन् 1950 से भारत सरकार का ध्यान गया।

कृषि श्रमिकों को विभिन्न संगठनों और समितियों द्वारा प्ररिभाषिति करने का प्रयत्न किया गया है। इनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

प्रथम कृषि- श्रमिक जाँच समिति वर्ष 1950-51 द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार, “कृषि श्रमिक से अर्थ उन व्यक्तियों से है, जो कृषि क्षेत्र में किराए के मजदूर के रूप में कार्य करते हो तथा वर्ष में आधे से अधिक दिनों तक जिन्होंने कृषि क्षेत्र में कार्य किया हो।”

द्वितीय कृषि- श्रमिक जाँच समिति वर्ष 1956-57 ने कृषि-श्रमिक की परिभाषा देते लिखा है कि, “कृषि-श्रमिक वह है जिसकी आय का मुख्य साधन कृषि से प्राप्त मजदूरी है।

राष्ट्रीय श्रम आयोग के अनुसार, “कृषि-श्रमिक वह है जो मूलतः अकुशल और अव्यवस्थित है और जिसके पास जीविकोपार्जन के लिए अपने श्रम के अतिरिक्त लगभग और कुछ नहीं होता।”

सन् 1961 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, “कृषि श्रमिक वह है जो दूसरों की भूमि पर मजदूरी करते हैं और जिन्हें नकदी या वस्तु अथवा उत्पादन के भाग के रूप में मजदूरी प्राप्त होती है।”

सन् 1971 की जनगणना रिपोर्ट में कृषि क्षेत्र में मजदूर और गैर-मजदूर में भेद किया गया है। इसमें जो लोग गौण कार्य के रूप में दूसरों के खेतों पर कार्य करते थे उन्हें कृषि श्रमिक की श्रेणी में सम्मिलित नहीं किया गया है।

इस प्रकार कृषि-श्रमिक उन व्यक्तियों को कहते हैं जो दूसरे व्यक्ति की कृषि-भूमि पर एक श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं या उसके द्वारा संचालित किसी अन्य कृषि-उद्योग में एक श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं तथा उन्हें अपने परिश्रम का पुरस्कार नकद या जिन्स के रूप में प्राप्त होता है। यहाँ पर स्मरणीय तथ्य यह है कि कृषि व्यवसाय अथवा कृषि उद्योग में कार्य करने वाले श्रमिक पर जोखिम का भार बिल्कुल भी नहीं होता है। समस्त जोखिम वही व्यक्ति सहन करता है। जो उससे कार्य करवाता है।

कृषि-श्रमिकों का वर्गीकरण

भूमिहीन कृषि श्रमिकों को दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है-

(1) कार्य की दृष्टि से- भूमिहीन कृषि श्रमिक को कार्य की दृष्टि से निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) खेतों पर कार्य करने वाले श्रमिक इस वर्ग के अन्तर्गत वे श्रमिक आते हैं, जो खेतों में हल लचाते हैं, फसल की निराई-गुड़ाई करते हैं, पानी देते हैं तथा फसल को काटते हैं। एक प्रकार से घरेलू कार्य से लेकर पशुओं की देखभाल तथा फसल से सम्बन्धित प्रत्येक कार्य को वही भूमिहीन श्रमिक करते हैं।

(ख) साधारण श्रमिक- खेतों पर प्रत्यक्ष रूप से कार्य करने वाले श्रमिकों के अतिरिक्त कुछ ऐसे श्रमिक होते हैं, जो कृषकों के कुओं को खोदने, खेतों के चारों ओर मेड़ों के बनाने, क्यारियाँ तथा नालियाँ बनाने, नालियों की मिट्टी निकालने, आदि कार्य करते हैं। इन्हें ‘साधारण श्रमिक’ की श्रेणी में रखा जाता है। ये श्रमिक कुछ समय के लिए निश्चित मजदूरी पर रखे जाते हैं।

(ग) कुशल श्रमिक- उपर्युक्त दोनों प्रकार के श्रमिकों के अतिरिक्त कृषकों को कुछ ऐसे व्यक्तियों की सेवाओं की भी आवश्यकता पड़ती है, जो कृषकों को प्रत्यक्ष रूप से कृषि कार्यों में सहायता न देकर प्रत्यक्ष रूप से उनकी सहायता करते हैं, जैसे-लुहार, बढ़ई, धोबी आदि। इन श्रमिकों को मजदूरी पर रखा जाता है या इनसे ठेके पर कार्य करवाया जाता है।

  1. कार्य की अवधि की दृष्टि- कार्य की अवधि की दृष्टि से कृषि श्रमिकों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) संलग्न कृषि श्रमिक- ये वे श्रमिक होते हैं, जो सेवायोजक द्वारा एक लम्बी अवधि के लिए कृषि कार्य के लिए लिखित अथवा मौखिक समझौते के आधार पर रखे जाते हैं प्रायः ये तीन माह से लेकर एक वर्ष या इससे भी लम्बी अवधि के लिए निश्चित वेतन पर रखे जाते हैं। इस अवधि में ये दसरे स्थान परकार्य नहीं कर सकते हैं।

  1. सरकारी कृषि फार्म- पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि में सरकारी कृषि फार्मों की संख्या बढ़ी है। इन कृषि पर कृषि श्रमिको को सरलता से रोजगार प्राप्त हो जाता है। अतः सरकारी कृषि फार्मों के कारण भी कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई है।
  2. बेरोजगारी- देश में तेजी से बढ़ रही बेरोजगारी भी कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। बेरोजगारी के कारण गाँव के लोग कृषि-श्रमिक का कार्य करने के लिए भी तत्पर रहते हैं।
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Pankaja Singh

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