अर्थशास्त्र

कृषि श्रमिकों की कठिनाइ | भारत में भूमिहीन कृषि | कृषि श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए सुझाव

कृषि श्रमिकों की कठिनाइ | भारत में भूमिहीन कृषि | कृषि श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए सुझाव | The hardship of agricultural workers in Hindi | Landless Agriculture in India in Hindi | Suggestions to improve the condition of agricultural laborers in Hindi

कृषि श्रमिकों की कठिनाइ

भारतीय कृषि श्रमिकों के समक्ष निम्नलिखति समस्याएँ हैं-

  1. मौसमी रोजगार एवं बेरोजगारी- देश में कृषि श्रमिकों को सम्पूर्ण कार्य न मिलकर केवल मौसम में फसल की कटाई करते समय ही कार्य प्राप्त हो पाता है। वर्ष के शेष दिनों में कभी-कभी कुछ दिनों के लिए कार्य मिल पाता है, अतः वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। वर्ष 1956-57 में कृषि श्रमिकों की जाँच समिति के अनुसार पुरूष श्रमिक को वर्ष में केवल 197 दिन काम मिल पाता है और 40 दिन वह अपने स्वयं के कार्य करता है तथा 128 दिन वह बेरोजगार रहता है।
  2. निम्न जीवन- स्तर तथा ऋण का भार भारतीय कृषि श्रमिकों का जीवन स्तर अत्यन निम्न है। इसका प्रमुख कारण उनकी आय का बहुत कम होना है। द्वितीय कृषि श्रमिक जाँच समिति के अनुसार एक कृषक परिवार का औसत व्यय 617 रु. तथा आय 437 रु. प्रतिवर्ष ऋण लेने पड़ते हैं अथवा वह अपनी पूर्व सम्पत्ति से खर्च करता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि कृषकों के ऋण-भार में निरन्तर वृद्धि होती जा रही हैं
  3. कार्य के घण्टे- देश में कृषि श्रमिकों को 10 घण्टे से लेकर 14 घण्टे तक प्रतिदिन कार्य करना पड़ता है, कभी-कभी तो इससे भी अधिक कार्य करना पड़ता है। उनके कार्य के घण्टे देश के किसी भी कानून या अधिनियम द्वारा नियन्त्रित नहीं होते हैं। प्रायः कुछ श्रमिक तो ऐसे हैं, जो 24 घण्टे के लिए ही नौकर होते हैं।
  4. आवास की समस्या- कृषि श्रमिकों की निवास या घरों की व्यवस्था भी अत्यधिक दयनीय है। उनके घर प्रायः कच्चे होते हैं या वे झोपड़ियों में रहते हैं। वर्षा ऋतु में उनमें रहना अधिक कष्टप्रद होता हैं कुछ श्रमिकों के पास तो स्वयं के घर तक भी नहीं होते है। अतः वे अपने मालिकों के घर पर ही रहते हैं।
  5. बेगार- यद्यपि श्रमिकों से बेगार लेना कानून की दृष्टि में एक अपराध है, परन्तु वह आज भी प्रचलित हैं। सेवायोजक श्रमिकों को ऋण, निवास स्थान एवं अन्य अनेक प्रकार के प्रलोभन, आदि देकर उनसे बेगार लेते हैं।
  6. स्त्रियों तथा बच्चों का शोषण- कृषि कार्यों में अनक कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें स्त्रियाँ तथा बच्चे भली प्रकार कर सकते हैं, जैसे-फसल में पानी, फसल की निराई व कटाई, धान की पौध रोपना, धान कूटना, आदि। अतः व्यक्ति ऐसे कार्य स्त्रियों व बच्चों से कराना ही अधिक अच्छा समझते हैं। इसका प्रथम कारण यह है कि उन्हें कम मजदूरी देनी पड़ती है, दूसरा कारण है कि उनसे अधिक घण्टों तक कार्य लिया जा सकता है।
  7. आकस्मिक कृषि- श्रमिक ये वे श्रमिक होते हैं, जो सेवायोजक द्वारा मौसमी कार्यों को करने के लिए अल्प समय के लिए रखे जाते हैं। इन्हें प्रचलित दरों पर दैनिक मजदूरी दी जाती है। ये कहीं भी कार्य करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। उनकी नौकरी की कोई भी सुरक्षा नहीं होती है।

भारत में भूमिहीन कृषि-

श्रमिकों की संख्या में वृद्धि के कारण-भारत में कृषि श्रमिकों की संख्या में निरन्तर हो रही वृद्धि के लिए निम्नांकित कारण उत्तरदायी हैं-

  1. कुटीर एवं हस्तशिल्प उद्योगों की कमी- गाँवों में परम्परा से चले आ रहे कुटीर एवं हस्तशिल्प उद्योगों के धीरे-धीरे बन्द हो जाने के करण इन कुटीर उद्योगों से सम्बद्ध ग्रामीण परिवारों को अन्य रोजगार की व्यवस्था न होने के कारण अपनी जीविका चलाने के लिए कृषि मजदूर के रूप में कार्य करने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार कुटीर एवं हस्तशिल्प उद्योगों की समाप्ति के कारण कृषि-श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हो गई।
  2. ऋण का भार- गांवों में निवास करने वाले वे कृषक परिवार श्रमिक बन गए जो गांव के हूकार और महाजन के ऋण भार से अत्यधिक दबे हुए थे। ऐसे कृषि परिवारों ने या तो अपनी सम्पूर्ण भूमि साहूकार को बेच दी अथवा साहूकार द्वारा कुर्क कर ली गयी। इस कारण ऐसे कृषकों को अपना जीवन निर्वाह करने के लिए कृषि श्रमिक बनना पड़ा और इस प्रकार कृषि-श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हो गई।
  3. अलाभकारी जोतें- भारत में अधिकांशतः अलाभकारी जोतें हैं। ये अलाभकारी जोतें कृषक के सम्पूर्ण परिवार भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं है। अतः परिवार के कुछ सदस्यों को कृषि -श्रमिका के रूप में कार्य करना पड़ता है। यह कारण भी कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि के लिए बहुत कुछ उत्तरदायी है।
  4. जनसंख्या में वृद्धि- देश की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है देश के गांवों में रोजगार के अन्य साधन उपलब्ध न होने के कारण कृषि पर जनसंख्या का दबाव तेजी से बढ़ता जा रहा है। भारत में भूमि व्यवस्था सुधार के बाद भी अत्यन्त दोषपूर्ण है। आज भी भूमि का केन्द्रीकरण सम्पन्न कृषकों के हाथ में ही है। अतः गंव के छोटे व गरीब परिवरों को आज भी कृषि-श्रमिक के रूप में ही कार्य करना पड़ता है।

कृषि श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए सुझाव

कृषि श्रमिकों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा सुधारने के लिए समय-समय पर अनेक सुझाव दिए गए हैं उनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करना- कृषि श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए अन्य उद्योगों के समान उनकी भी न्यूनतम मजदूरी निश्चित की जानी चाहिए तथा ऐसे उपाय भी समय- समय पर किए जाने चाहिए, जिनसे कृषि श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी प्राप्त हो सके। कृषि- श्रमिकों की दयनीय दशा सुधारने के लिए सन् 1948 में ‘न्यूनतम मजदूरी अधिनियम’ बनाया गया था। अब लगभग प्रत्येक राज्य में कानून बनाकर कृषि श्रमिकों की मजदूरी सुनिश्चित कर दी गयी है।

परन्तु इस कानून को उचित प्रकार से लागू करने में निम्न कठिनाइयाँ सम्मुख आती हैं-

  1. श्रम की पूर्ति मांग से अधिक- भारत में जनसंख्या का घनत्व अधिक होने तथा उद्योग-धन्धों का उचित विकास न होने के कारण श्रम की पूर्ति मांग से भी अधिक है। अतः कृषि श्रमिक कुछ भी कार्य न मिलने से कम मजदूरी पर काम करे को तैयार हो जाते हैं।
  2. कृषि श्रमिकों की मांग का मौसमी होना- भारत में कृषि श्रमिकों की मांग प्रायः मौसमी रहती है। अतः श्रमिके बेरोजगार रहने की अपेक्षा कम मजदूरी पर कार्य करना अधिक उचित मानते हैं।
  3. मजूदरों से संगठन का अभाव- मजदूरों में पारस्परिक संगठन का अभाव है। अतः‌वह आपस में मिलकर अधिक मजदूरी तथा अधिक सुविधाओं के विषय में विचार- विमर्श नहीं करते हैं।
  4. अधिकांश श्रमिकों की पिछड़ी जाति का होना- अधिकांश कृषि श्रमिक पिछड़ी जाति से जुड़े हैं। उनका सामाजिक जीवन-स्तर अत्यन्त निम्न है: उनमें अपने उचित अधिकार मांगने की भावना या चेतना नहीं पायी जाती है।
  5. कृषि-श्रमिकों का अन्धविश्वासी होना- भारत के कृषि श्रमिक अन्धविश्वासी हैं। वे सदियों से चली आ रही परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को तोड़ना पसन्द नहीं करते, अतः न्यूनतम मजदूरी का कानून लागू नहीं हो पाता है।
  6. ऋणग्रस्तता- अधिकांश भारतीय कृषि श्रमिक ऋण में ही जन्म लेते हैं, ऋण में ही पलते हैं और ऋण में ही मर जाते हैं।
  7. गतिशीलता का अभाव- भारतीय कृषि श्रमिक में गतिशीलता का अभाव होता है। वह अपने ही गांव में कम मजदूरी पर नौकरी करना अधिक पसन्द करता है, किन्तु दूसरे गांव में अधिक मजदूरी मिलने पर भी नौकरी करना पसन्द नहीं करता है।
  8. विस्तृत क्षेत्र- भारतीय कृषि श्रमिक अशिक्षित हैं जबकि कृषि क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। अतः इस कारण से भी न्यूनतम मजदूरी अधिनियम लागू नहीं हो पाता है।
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Pankaja Singh

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