निर्मला उपन्यास की चारित्रिक विशेषताएं | ‘निर्मला’ उपन्यास के आधार पर प्रेमचन्द की उपन्यास दृष्टि पर विचार | औपचारिक तत्वों के आधार पर निर्भला की समीक्षा
निर्मला उपन्यास की चारित्रिक विशेषताएं
प्रस्तावना –
‘निर्मला’ दहेज की वेदी पर मिटने वाली भारतीय नारी का प्रतीक है। जब-तक सम्पत्ति का दिखावा और दहेजरूपी सक्षस जीवित हैं, तब-तक कितनी ही निर्मलाएँ घुटन में जीते हुए दम तोड़ती रहेंगी। नारी-पीड़ित भारतीय समाज में निर्मला जैसी नारियों की घुट-घुटकर मर जाने के अतिरिक्त और स्थिति हो भी क्या सकती है? निर्मला उपन्यास की रूक्मिणी विधवा होने के बाद अपने भाई मुंशी तोताराम के घर आश्रय लेती है। मुंशी तोताराम विधवा बहन का पालन-पोषण परिवार के सदस्य की तरह नहीं करते। वे निर्मला से रूम्मिणी के विषय में कहते हैं- “मैंने तो सोचा था कि विधवा है, अनाथ है, पाव भर आटा खायेगी, पड़ी रहेगी। जब नौकर-चाकर खा रहे हैं तो वह तो अपनी बहन है। लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की जरूरत भी थी। रख लिया, लेकिन इसके यह माने नहीं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करे।”
प्रस्तुत उपन्यास की नायिका स्वयं निर्मला है और यह उसके चरित्र की महत्ता को ही दिग्दर्शित करता है कि लेखक ने उसी के नाम पर उपन्यास का नामकरण कर डाला है। उपन्यास के अन्य पात्रों की तुलना में उसका चरित्र एवं व्यक्तित्व उपन्यास में सर्वोपरि स्थान रखता है। उसका चरित्र ही उपन्यास का केन्द्र-बिन्दु है और समस्त घटनाओं का विकास उसी के कारण होता है।
‘निर्मला की चारित्रिक विशेषताएँ –
निर्मला की चारित्रिक विशेषताएं इस प्रकार हैं-
(1) पतिव्रता एवं साध्वी नारी –
निर्मला के शील, पतिव्रत एवं साध्वीपन का बखान करते हुए स्वयं सुधा अपने पति सिन्हा से कहती है- सुधा – आज अगर उसे मालूम हो जाय कि आप वही महापुरूश है, तो शायद फिर इस घर में कदम न रखें। ऐसी सुशीला, घर के कामों में ऐसी निपूर्ण और ऐसी परम सुन्दरी स्त्री इस शहर में दो-चार ही होंगी। तुम मेरा बखान करते हो, मैं उसकी लौंडी बनने योग्य भी नहीं हूँ। घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है, जब प्राणी ही मेल का नहीं तो और सब रहकर क्या करेगा? धन्य है उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है। मैंने तो कब का जहर खा लिया होता। मगर मन ही व्यथा कहने से ही थोड़े प्रक्ट होती है। हँसती है, बोलती है, गहने-कपड़े पहनती है, पर रोयाँ-रोयाँ रोया करता है।
सिन्हा – वकील साहब की खूब शिकायत करती होंगी?
सुधा – शिकायत क्यों करेंगी?” क्या वह उसके पति नहीं हैं? संसार में अब उसके लिए जो कुछ हैं, वकील साहब हैं। वह बुढे हों या रोगी, पर हैं तो उसके स्वामी ही। कुलवन्ती स्त्रियाँ पति की निन्दा नहीं करतीं, यह कुलटाओं का काम है। वह उनकी दशा देखकर कुढ़ती हैं, पर मुँह से कुछ नहीं कहती।
(2) भावुक एवं संवेदनशील –
निर्मला के भावुक एवं संवेदनशील होने के विषय में निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
“वह रो पड़ी और बड़ी देर तक सिसकती रही। तब बड़ी मुश्किल से उठकर सुधा के पास जाने को तैयार हुई। पाँव थर-थर काँप रहे थे, दीवार थामे खड़ी थी, पर जी न मानता था। न जाने सुधा ने यहाँ से जाकर पति से क्या कहा? मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं, न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलब समझी? हाय! ऐसे रूपवान् दयालु, ऐसे सुशील प्राणी का यह अन्त! अगर निर्मला को मालूम होता उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा, तो वह जहर का पूंट पीकर भी उस बात को हँसी में उड़ा देती।”
यह सोचकर कि मेरी निष्ठुरता के कारण डॉक्टर साहब का यह हाल हुआ, निर्मला के हृदय के टुकड़े होने लगे। ऐसी वेदना होने लगी, मानो हृदय में शूल उठ रहा हो।
(3) ममतामयी–
निर्मला विमाता होते हुए भी ममतामयी माँ और स्नेहसिक्ता नारी है। एक बार किसी बात पर बालक सियाराम के कान तोताराम ने उमेठ दिये। बच्चा जोर से चीख मारकर रोने लगा। निर्मला उन्हें छुड़ाने गयी तो तोताराम की वृद्ध बहिन रूक्मिणी ने उल्टे निर्मला पर व्यंग्य-बाण बरसाने शुरू कर दिये। बच्चा रो रहा था-
“निर्मला बच्चे को रोता देखकर विह्वल हो उठी। उसने उसे छाती से लगा लिया और गोद में लिए हुए अपने कमरे में लाकर उसे चुमकारने लगी, लेकिन बालक और भी सिसक-सिसक कर रोने लगा। उसका बोध हृदय इस प्यार में वह मातृ-स्नेह न पाता था, जिससे दैव ने उसे वंचित कर दिया था। यह वात्सल्य न था, केवल दया थी। यह वह वस्तु थी, जिस पर उसका कोई अधिकार न था, जो केवल भिक्षा के रूप में उसे दी जा रही थी। पिता ने पहले भी एक-दो बार मारा था, जब उसकी माँ जीवित थी, लेकिन तब उसकी माँ उसे छाती से लगाकर रोती न थी। वह अप्रसन्न होकर उससे बोलना छोडन देती, यहाँ तक कि वह स्वयं थोड़ी ही देर के बाद सब कुछ भूलकर फिर माता के पास दौड़ जाता था। शरारत के लिए सजा पाना तो उसकी समझ में आता था, लेकिन मार खाने पर चुमकारा जाना उसकी समझ में न आता था।”
(4) परिस्थितिवश कर्कश स्वभाव एवं स्वार्थी हृदय –
परिस्थितियों ने निर्मला को अत्यन्त कर्कशा एवं स्वार्थिनी बना दिया। परिस्थितियाँ विराट रूप लेती जा रही थी और उसी अनुपात में निर्मला के चरित्र की यह विशिष्टता भी उग्र रूप धारण करती जा रही थी। प्रेमचन्द्र ने स्वयं उपन्यास के अन्त में उसके चरित्र के विषय में लिखा है- “निर्मला को अब नित्य यही चिन्ता बनी रहती कि वह लौटकर न आये तो क्या होगा? उसे इसकी चिन्ता न होती थी कि उन पर क्या बीत रही होगी, वह कहाँ मारे-मारे फिरते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपनी और उससे भी बढ़कर बच्ची की चिन्ता थी। गृहस्थी का निर्वाह कैसे होगा ? ईश्वर बेड़ा पार लगाएंगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतर-व्योंत करके जो रूपये जमा कर रखे थे, उनमें कुछ न कुछ रोज ही कमी होती जाती थी। निर्मला को उनमें से एक-एक पैसा निकालते इतनी अखर होती थी, मानो कोई उसकी देह से रक्त निकाल रहा हो। झुंझलाकर मुंशीजी को कोसती। लड़की किसी चीज के लिए रोती, तो उसे अभागिन, कलमुंही कहकर झल्लाती। यही नहीं, रूम्मिणी का घर में रहना उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो गर्दन पर सवार है। जब हृदय जलता है तो वाणी भी अग्निमय हो जाती है। निर्मला बड़ी मधुरभाषिणी स्त्री थी, पर अब उसकी गणना कर्कशाओं में की जा सकती थी। दिनभर उसके मुख से जली-कटी बातें निकला करती थीं। उसके शब्दों की कोमलता को न जाने क्या हो गई थी? पावों के माधुर्य का कहीं नाम नहीं। मूंगी बहुत दिनों से इस घर में नौकर थी। स्वभाव की सहनशील थी, पर आठों पहर की बक-बक उससे भी न सही गई। एक दिन उसने भी अपने घर की राह ली। यहाँ तक कि जिस बच्चों को प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से भी उसे घृणा हो गई। बात-बात पर घुड़क पड़ती, कभी-कभी मार भी बैठती। रूक्मिणी रोती हुई बालिका को गोद में बैठा लेती और चुमकार-दुलालकर चुप करती। उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया था।
उपसंहार –
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि निर्मला का चरित्र आदर्शवाद से चलकर यथार्थवाद तक की दूरी तय करता हुआ जीवन्त रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होता है।
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