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भीष्म जी की कहानी-कला का संक्षिप्त वर्णन | भीष्म जी की भाषा शैली का संक्षिप्त वर्णन | भीष्म जी की कहानी-कला तथा भाषा शैली का संक्षिप्त वर्णन

भीष्म जी की कहानी-कला का संक्षिप्त वर्णन | भीष्म जी की भाषा शैली का संक्षिप्त वर्णन | भीष्म जी की कहानी-कला तथा भाषा शैली का संक्षिप्त वर्णन

भीष्म जी की कहानी-कला का संक्षिप्त वर्णन

भीष्म जी मानवीय संवेदनाओं के कलाकार हैं। उनकी कहानियों में निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों के अन्तरंग चित्र मार्मिक रूप में प्रस्तुत हुए हैं। उनकी कहानियों के विषय जाने-पहचाने होते हैं। व्यंग्य और करुणा आपके उपन्यासों के मुख्य गुण हैं। उनकी कथा-शैली में सरलता औश्र सहजता का गुण मिलता है। इनकी कहानियाँ बेजोड़ होती हैं। प्रभाव की दृष्टि से भी उनकी कहानियों की भाषा व्यावहारिक हिन्दी है। उर्दू और अंगरेजी के शब्दों के शब्दों का मिला-जुला प्रयोग भी मिलता है। साहनी जी कहानियों की वस्तु-संयोजना कर्ष में अतिरंजना और कल्पना के स्थान पर अनुभूति की प्रधानता है। वस्तु-संयोजना में एक ऐसी दृढ़ता रहती है कि बीच में न तो शिथिलता आती है और न कथानक की शृंखला ही टूटती हैं। घटनाएँ इसी क्रम से आती हैं कि कथानक में एकरूपता स्थापित हो जाती है। साहनी जी की कहानियों में कथावस्तु से सम्बन्धित निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  1. अनुभूतियों के आधार पर कथावस्तु का संयोजन हुआ है।
  2. घटनाओं की सुनियोजित योजना है।
  3. जिज्ञासा और कुतूहल ने कथावस्तु को आकर्षण प्रदान किया है।
  4. अहिंसा, दया, मानवता, उदारता, विनम्रता आदि का विकास कथानक में सर्वत्र मिलता है।
  5. कथावस्तु में स्तर की दृष्टि से एकरूपता पायी जाती है। उसका क्षेत्र विस्तृत होता जाता है।

कथानक का प्रारम्भ साहनी जी कहीं-कहीं चित्रण उपस्थित कर, कहीं किसी घटना को सामने लाकर और कहीं प्रकृति वर्णन द्वारा करते हैं, परन्तु अधिकांश कहानियों के कथानक का विकास घटना-चित्रण से होता है।

साहनी जी की कहानियों में कथानक का अन्त भी आकर्षणपूर्ण हुआ है। अन्त में सारांश देने की प्रवृत्ति कहीं नहीं मिलती। वे या तो किसी दार्शनिक वाक्य से कथानक की समाप्ति करते हैं या वे कोई ऐसा वाक्य लिख देते हैं कि जिज्ञासा से भरकर पाठक सोचता रह जाता है। तीन-चौथाई कथानक समाप्त होने पर समस्त घटनाएं बड़ी तेजी से समाप्ति की ओर बढ़कर एक हो जाती हैं।

भाषा शैली –

साहनी जी की कहानियाँ भारत के उन साम्प्रदायिक दंगों से सम्बन्धित हैं, जो अंगरेजों के द्वारा कराये गये। ये भीषण साम्प्रदायिक दंगे शहर से लेकर कस्बों और ग्रामों तक पहुंच गये। अत: कथानक में अंगरेजी डिप्टी कमिश्नर, उसकी पत्नी लीजा, काँग्रेस एवं लीगी, हिन्दू मुसलमान, सिख-इसाई, शहरी, ग्रामीण, स्त्री-पुरूष आदि सभी वर्ग के पात्र सम्मिलित हैं। यही कारण है कि आलोच्य कहानी की भाषा में विविधता है। परन्तु वातावरण, कथावस्तु एवं उद्देश्य की दृष्टि से भाषा का प्रवाह इतनी अवैध गति से चलता है कि भाषा में एकरसता आ जाती है। अवसर और परिस्थिति के अनुकूल पात्र भाषा का प्रयोग करते हैं। उर्दू अंगरेजी, देहातों में बोली जाने वाली पंजाबी तथा मुहावरों का प्रयोग भाषा को सहजता एवं प्रवाह प्रदान करता है। इतने पर भी भाषा की दृष्टि से विशुद्ध-हिन्दी की रक्षा का प्रयास सराहनीय है। दृष्टव्य यह है कि कहानी-कल्पना की दृष्टि से साहनी जी जाने-माने कहानीकार है।

इसी प्रकार अंग्रेजी शब्दों में साहनी जी ने निम्नांकित शब्दों का प्रयोग किया है, यथा चीफ, मिस्टर, ड्रेसिंग गाउन, पाउडर, नैपकिन, ड्रिंक, डिनर, साइज, ह्विस्की, सोफा कवर, डिजाइन, सेंट, पूअर दियर, सेठ हो डू दि डू आदि।

कहीं-कहीं देशज शब्दों के माध्यम से यथार्थ वातावरण की सृष्टि करने में साहनी जी सफल हुए हैं। इन शब्दों में टप्पे, दो पत्तर, अनारा दे, टिकटिकी खिसियानी, खर्राटे, लरजती, निरा लंडूस, थमने आदि मुख्य हैं।

इनके साथ ही लोकगीतों की कुछ पंक्तियाँ भी देखी जा सकती हैं।

यथा हरियानी माय, हरियानी भैणे

हरियाते भागी भरिया हैं।

लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा में चुस्ती, प्रवाह एवं सांकेतिकता आ गयी है। जिन मुहावरों का प्रयोग साहनी जी ने किया है, वे इस प्रकार हैं- हाथ झटकना, टाँग अड़ाना, अवाक् रह जाना, उधेड़बुन में पड़ना, जीभे जलना, दिल धक-धक करना, नशा हिरन होना, पाँव लड़खड़ाना, दिल में जल उठना, आँखों में चमक आना आदि।

जहाँ तक शैली का प्रश्न है कहानीकार किसी कहानी में आद्योपान्त एक शैली का प्रयोग करते नहीं देखा गया है। प्रसंगानुसार शैली परिवर्तित होती चलती है इसलिए प्रस्तुत कहानी में जिन मुख्य शैलियों का व्यवहार हुआ है वे हैं- वर्णानात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक, सांकेतिक एवं नाटककार आदि।

व्यंग्यात्मक शैली का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

क्या कहा माँ? वह कौन सा राग तुमने फिर छेड़ दिया। शोभनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था। बोलते गये तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, माँ! जानबूझकर हरिद्वार बैठना चाहती हो,ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।

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Pankaja Singh

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