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दोपहर का भोजन | अमरकांत – दोपहर का भोजन | कहानी कला की दृष्टि से दोपहर के भोजन का मूल्यांकन

दोपहर का भोजन | अमरकांत – दोपहर का भोजन | कहानी कला की दृष्टि से दोपहर के भोजन का मूल्यांकन

दोपहर का भोजन

‘दोपहर का भोजन’ अमरकांत की बहुत चर्चित एवं महत्वपूर्ण कहानी है जो पाठक पर अपने गाम्भीर्य एवं प्रभावमयता का असर डालती है। इस कहानी में अभावग्रस्त मध्यवर्गीय परिवार की भूख और विवशता का बड़ा सशक्त और सहज चित्रण हुआ है। इस कहानी में यह वर्ग परिस्थितियों से जूझकर अघकचरी शिक्षा पाता है और तब जीविका के लिए छोटी-मोटी नौकरी करता है। वेतन उसको इतना ही मिलता है कि किसी तरह अपना पेट तो भर सके, परन्तु इतनी बचत न कर सके कि दो-चार दिन भी बिना काम किये निश्चित रह सके। कहानी का मुंशी चन्द्रिका प्रसाद इसी निम्नमध्य वर्ग का प्रतिनिधि है, जिन्हें छंटनी हो जाने से नौकरी से अलग कर दिया गया है और डेढ़ महीने में ही उसके परिवार को आधा पेट खाना मिलने के और पत्नी को एक मामूली साड़ी पाने के लाले पड़ जाते हैं। उक्त जटिल स्थिति को सूक्ष्म और यथार्थ अंकन कहानी की पहली विशेषता है। लेखक ने स्थिति के चित्रण तक ही अपने को सीमित रखकर कहानी को वस्तुत: कलापूर्ण बना दिया है। इसी कारण यह कहानी पाठक का हृदय छू लेती है।

माता के रूप में भी सिद्धेश्वरी इसलिए सुन्दर है कि वह पुत्रों को भरपेट भोजन कराने में तो लगी ही रहती है, पुत्रों में हेलमेल बढ़ाने के लिए झूठ बोलकर भी एक के प्रति दूसरे की सद्भावना ही बढ़ाती है। अपने किसी पुत्र से वह जीवन की कठिनाइयों या परिस्थिति की जटिलताओं की चर्चा नहीं करती और यही चाहती है कि वे अपने-अपने लक्ष्यों में सफल हों।

सिद्धेश्वरी का चरित्र पत्नी रूप भी बहुत आदर्श है। पति को कसम धरा-धराकर वह खाना खिलाती है और उसको प्रसन्न करने के लिए पुत्रों द्वारा उसको ‘देवता’ कहे जाने का झूठ गढ़ती है। अपनी कठिनाइयों की चर्चा करके वह कभी पति की चिन्ता नहीं बढ़ाना चाहती है, स्वयं भूखी रहती है, परन्तु पति के सामने न अपने भाग्य को कोसती है, न उसकी पत्नी बनने का दुर्भाग्य बताती है।

प्रस्तुत कहानी के अंत में सिद्धेश्वरी का नारी रूप सामने आता है। पुत्रों और पति के सामने वह कितनी भी झूठी बातें गढ़ ले, लेकिन है तो हाड़-मांस की नारी ही जिसे भूख भी लगती है और प्यास भी सताती है। सबेरे से शाम तक बिना कुछ खाये जब लोटा भर पानी पी लेती है, तब खाली पानी उसके कलेजे में जा लगता है और वह ‘हाय राम’ करके जममीन पर आधे घण्टे अधमरी सी पड़ी रहती है। पति और पुत्रों के खा-पी लेने के बाद उसके लिए बचती है सिफ एक जली रोटी, परन्तु कौन तोड़ने से पहले ही उसको अपने सोते हुए बच्चे का ध्यान आ जाता है और उस रोटी में से भी वह आधी तोड़कर रख देती है। दोपहर ढल जाने के बाद भोजन के नाम पर अपने सामने सिर्फ आधी रोटी और जरा सी दाल देखकर हाड़-मांस की इस नारी का भी धीरज डिग जाता है और पहला ग्रास मुंह में रखते-रखते न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टपटप आँसू चूने लगते हैं।

आदर्श माता, आदर्श पत्नी और आदर्श गृहिणी के सम्मिलित चित्र तो अनेक कहानियों में मिल सकते हैं, परन्तु उन रूपों के साथ-साथ हाड़-मांस की नारी रूप के भी सम्मिलित चित्रण ने इस कहानी को अत्यन्त मर्मस्पर्शी बना दिया

इस कहानी की तीसरी विशेषता है अन्य पात्रों के चरित्र-चित्रण में सावधानी। अपने सभी पात्रों से लेखक ने इतनी ही बातें कहलायी हैं जितनी गर्मी की दोपहर में, अपर्याप्त भोजन सामने देखकर खीझे हुए और परिस्थिति की जटिलता को समझने वाले पात्रों से कहलायी जानी चाहिए।

प्रस्तुत कहानी की अन्तिम विशेषता है लेखक की वर्णन- शैली जिसके कारण एक-एक प्रसंग चित्र की तरह सामने आते हैं और अन्त में सब प्रसंग मिलकर दृश्य को सम्पूर्ण कर देते हैं।

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Pankaja Singh

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