करारोपण के आधुनिक सिद्धान्त | modern theories of taxation in Hindi
करारोपण के आधुनिक सिद्धान्त-
एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित करारोपण के चारों सिद्धान्त उत्तम हैं परन्तु पर्याप्त नहीं हैं। गत वर्षों में बदलती हुई परिस्थितियों के साथ-साथ कुछ नये सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है जिनका विवरण निम्नलिखित है-
(1) उत्पादकता का सिद्धान्त (Canon of Productivity)- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बैस्टेबिल द्वारा किया गया है। उसके अनुसार, “सरकार को करों से प्राप्त होने वाली आय इतनी पर्याप्त होनी चाहिये कि वह उसकी सभा आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से कर सके।” इस सिद्धान्त के अनुसार करों से सरकार को पर्याप्त आय प्राप्त हो और भविष्य में भी आय-प्रवाह बना रहे। दूसरे, करों की उत्पादकता बनाये रखने के लिये यह भी आवश्यक है कि करदाताओं की उत्पादन-शक्ति तथा पूँजी संचय कर करों का बुरा प्रभाव न पड़े।
(2) लोच का सिद्धांत (Canon of Elasticity)- इस सिद्धान्त को भी बैस्टेबि द्वारा प्रतिपादित किया गया है। लोच से आशय यह है कि करारोपण का स्वरूप ऐसा होना चाहिये कि करों से प्राप्त होने वाली आय को आवश्यकतानुसार बढ़ाया-घटाया जा सके। यदि कर-प्रणाली लोचपूर्ण नहीं है तो सरकार को अकाल, युद्ध तथा बाढ़ आदि सकट के समय आवश्यक वित्त जुटाने में कठिनाई होगी। लोचपूर्ण कर-प्रणाली द्वारा ही इन कठिनाइयों का निवारण करने के लिये आवश्यक वित्त जुटाया जा सकता है तथा विकास कार्यों को सफल बनाया जा सकता है। हमारे देश में आय- कर लोचपूर्ण है जबकि वस्तु-कर, सम्पत्ति-कर तथा मालगुजारी आदि में लोच का अभाव है।
(3) सरलता का सिद्धांत- यह सिद्धान्त आरमिटेज स्मिथ द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार कर-प्रणाली सीधी तथा सरल होनी चाहिये जिससे करदाता इसे सरलता से समझ सके। यदि कर-प्रणाली सरल नहीं है तो जनता को कानून के पण्डितों की शरण लेनी पड़ेगी और कई प्रकार के दबाव तथा भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ेगा। यदि कर-प्रणाली सरल है तो राज्य को प्राप्त होने वाली आय अधिकतम होगी तथा करों से होने वाली चोरी न्यूनतम होगी। सरल कर-प्रणाली करदाता और राज्य दोनों के लिये लाभदायक होती है।
(4) विविधता का सिद्धांत (Canon of Diversity)- यह सिद्धान्त भी आरमिटेज स्मिथ की देन है। विविधता से आशय यह है कि सरकार अपनी आय प्राप्त करने के लिये विभिन्न प्रकार के कर लगाये। करों में विविधता होना इसलिये आवश्यक है कि जिससे समाज के सभी वर्गों से किसी न किसी प्रकार के कर द्वारा कुछ धन अवश्य प्राप्त किया जा सके। अन्य शब्दों में, कर की एकाकी प्रणाली न बहुकर-प्रणाली (Multiple Tax System) होनी चाहिये।
इस सिद्धान्त के तीन लाभ हैं-(i) कर-प्रणाली लोचपूर्ण हो जाती है, (ii) सरकार को पर्याप्त आय प्राप्त हो जाती है, (iii) अतिरिक्त कर भार वितरण की समस्या सरल हो जाती है। इस प्रकार विविधता का सिद्धांत उत्पादकता, लोचकता, समानता व न्याय सिद्धान्त पर बल देता है। परन्तु यह सिद्धान्त मितव्ययिता सिद्धान्त के प्रतिकूल है क्योंकि बहुसंख्यक करों को वसूल करने में अधिक धन व्यय करना पड़ेगा।
(5) वांछनीयता का सिद्धांत (Canon of Expediency)- किसी भी कर को लगाते समय राज्य को उसके औचित्य पर ध्यान देना चाहिये अर्थात् प्रत्येक कर किसी न किसी आधार पर लगाया जाना चाहिये जिससे उसका औचित्य सिद्ध हो जाए। यदि करदाताओं को कर लगाने का कारण तथा आवश्यकता समझा दी जाये तो वे उसका विरोध नहीं करेंगे और स्वेच्छा से उसका समय पर भुगतान कर देंगे। लोकतन्त्रीय देशों में इस सिद्धान्त का बड़ा महत्व है।
(6) कोमलता तथा पर्याप्तता का सिद्धांत (Canon of Flexibility and Sufficiency)- फ़िण्डले शिराज ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने बताया कि करारोपण के आवश्यक सिद्धान्त कोमल तथा पर्याप्त होने चाहिये। कोमलता का आशय यह है कि कर-प्रणाली ऐसी होनी चाहिये कि बिना किसी परेशानी के नये कर लगाये जा सकें। पर्याप्तता से तात्पर्य यह है कि करारोपण से राज्य को पर्याप्त आय उसकी व्यय पूर्ति के लिये मिल जाये।
(7) एकरूपता का सिद्धांत (Canon of Uniformity)- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो. निट्टी (Nitty) तथा कोनार्ड (Conard) द्वारा किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार करारोपण के अन्तर्गत आने वाले सभी करों में एकरूपता होनी चाहिये। एकरूपता से तात्पर्य यह है कि विभिन्न करों के लगाने, इसकी दर निर्धारित करने तथा इन्हें वसूल करने की विधि में समानता हो जिससे कर-प्रणाली में समानता आ जाये। ऐसा करने से करदाताओं को सुविधा होती है।
(8) सामंजस्य का सिद्धांत (Canon of Co-ordination)- संघीय शासन प्रणाली में केन्द्रीय सरकार, राजकीय सरकारें तथा स्थानीय सरकारें अलग-अलग कर लगाती हैं। अतः कर-प्रणाली ऐसी होनी चाहिये कि करदाता को एक वस्तु पर अनेक स्थानों पर तथा अनेक बार कर चुकाना पड़े। कर-प्रणाली ऐसी हो कि एक कर अधिकारी दूसरे अधिकारी के सीमा क्षेत्र में प्रवेश न करें तथा उनमें आपस में सामंजस्य स्थापित हो जाये।
निष्कर्ष-
एक अच्छी कर-प्रणाली में उपर्युक्त वर्णित सभी सिद्धान्तों का समन्वय होना चाहिये। परन्तु व्यावहारिक रूप से कोई भी कर ऐसा नहीं है जिस पर सभी सिद्धान्त पूर्णरूप से लागू होते हैं। अतः प्रत्येक कर में कोई न कोई कमी अवश्य पाई जाती है। लुट्ज के अनुसार, “न तो कोई कर पूर्ण ही है और न पूर्णतया खराव ही। चाहे राज्य कितना भी प्रयत्न करे सभी सिद्धान्तों का पालन नहीं किया जा सकता हर एक कर में कोई न कोई दोष अवश्य रह जाता है। अतः करारोपण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना परमावश्यक है कि कम महत्वपूर्ण सिद्धान्त की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण सिद्धान्त को अधिक महत्व दिया जाये। दूसरे, अलग-अलग करों पर ध्यान न देकर सम्पूर्ण कर-प्रणाली पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
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