अर्थशास्त्र

डॉ० डाल्टन का सार्वजनिक व्यय के प्रभावों का वर्गीकरण | Dr. Dalton’s Classification of Effects of Public Expenditure in Hind

डॉ० डाल्टन का सार्वजनिक व्यय के प्रभावों का वर्गीकरण | Dr. Dalton’s Classification of Effects of Public Expenditure in Hind

डॉ० डाल्टन का सार्वजनिक व्यय के प्रभावों का वर्गीकरण

(1) सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव-

(i) कार्य एवं बचत क्षमता पर प्रभाव

(ii) कार्य एवं बचत इच्छा पर प्रभाव

(iii) आर्थिक साधनों का स्थानान्तरण

(2) सार्वजनिक व्यय का वितरण पर प्रभाव।

(1) सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव-

सार्वजनिक व्यय का उत्पादन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि सरकार के सार्वजनिक व्यय उत्पादक को प्रोत्साहित करने वाले हैं तो राष्ट्रीय उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है। इसके विपरीत अनुत्पादक व्यय अधिक होने की दशा में अप्रत्यक्ष रूप से जनता की आय व व्यय क्षमता प्रेरित होती है। डॉ० डाल्टन ने सार्वजनिक व्यय के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभावों को निम्न प्रकार से बताया है-

(i) कार्य एवं बचत की क्षमता पर प्रभाव- सार्वजनिक व्यय सामान्यतः उत्पादन को प्रभावित करते हुए जनता की कार्य क्षमता को भी प्रभावित करते हैं। डॉ० डाल्टन ने सार्वजनिक व्यय के कार्य व बचत क्षमता पर चार प्रकार के प्रभाव वर्णित किये हैं-

(1) क्रय शक्ति का हस्तान्तरण- सार्वजनिक व्यय का जनता की क्रय-शक्ति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि सार्वजनिक व्यय न्यूनतम है तो जनता की क्रय शक्ति कम हो जायेगी, इसके विपरीत सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होने पर जनता की क्रय-शक्ति भी बढ़ती है। क्योंकि सरकार के सार्वजनिक व्यय जिस क्षेत्र में होते हैं, उस क्षेत्र से सम्बन्धित लोगों की आय प्रभावित होती है। अर्थशास्त्र में व्यय का दूसरा रूप आय है। अतः सरकार का कोई भी व्यय किसी-न-किसी वर्ग के लिये आय अवश्य है, इसलिये सार्वजनिक व्ययों से क्रय शक्ति का हस्तान्तरण होता है। जब जनता की क्रय शक्ति बढ़ती है अर्थात् उन्हें आय प्राप्त होती है तो बाजार में वस्तुओं की माँग ऊँची उठने पर उत्पादन प्रोत्साहित होता है एवं लोगों का रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठने लगता है। इतना ही नहीं, सार्वजनिक व्यय बढ़ने पर गरीब एवं दुर्बल वर्ग की कार्य क्षमता भी बढ़ जाती है। जैसे- सरकार पेन्शन, बीमा, बेकारी भत्ता, मँहगाई भत्ता एवं बीमारी लाभ आदि प्रदान करती है तो सम्बन्धित लोगों की क्रय-क्षमता बढ़ती है।

(2) सेवाओं में वृद्धि का अभाव- सरकार के सार्वजनिक व्यय जब वस्तुओं एवं सेवाओं पर होते हैं तो जनता की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। जैसे- निःशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, कम किराये पर मकान, छूट पर विद्युतं एवं कैन्टीन सुविधा आदि। ऐसे सार्वजनिक व्ययों से जनता की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है। शायद इसी कारण श्रम कल्याण के कार्य निरन्तर बढ़ रहे हैं।

(3) सामाजिक सुविधाएँ- सरकार के सार्वजनिक व्ययों से सामाजिक सुविधाओं का विस्तार होता है। ऐसी क्रियाओं से उत्पादन कार्यों में वृद्धि होती है। अतः सामाजिक सुविधाएँ उत्पादन को प्रभावित करती हैं। जैसे- रेलवे सुविधा व सड़क परिवहन सुविधा ने अविकसित क्षेत्रों के उत्पादन में कई गुनी वृद्धि की है, जहाँ यह सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं, उन क्षेत्रों में उत्पादन शक्ति में सुधार नहीं हो सका है। इसी प्रकार सिंचाई सुविधा एवं विद्युत सुविधा ने कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को बढ़ाया है।

(ii) कार्य एवं बचत की इच्छा पर प्रभाव- सरकार के सार्वजनिक व्यय लोगों की कार्य व बचत सम्बन्धी इच्छा को भी प्रभावित करते हैं। डॉ0 डाल्टन के मतानुसार सार्वजनिक व्यय दो प्रकार के होते हैं- (1) वर्तमान व्यय (2) भविष्य सम्बन्धी व्ययों पर यहाँ पर सार्वजनिक व्यय का लोगों की कार्य एवं बचत सम्बन्धी इच्छा पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव दर्शाया जाता है। यद्यपि ऐसे प्रभावों का मूल्यांकन अपेक्षाकृत कठिन है। क्योंकि लोगों की इच्छाओं का मापन सहज कार्य नहीं है। फिर भी सार्वजनिक व्यय के उपरोक्त दोनों कार्यों को निम्न प्रकार विश्लेषित कर सकते हैं-

(1) वर्तमान व्यय- सार्वजनिक व्यय जो वर्तमान में सम्पन्न किये जा रहे हैं, उनसे लोगों की आय बढ़ती है, उपभोग स्तर ऊँचा होता है, कार्य क्षमता व बचत क्षमता दोनों बढ़ती है। इतना ही नहीं, रोजगार में वृद्धि, उत्पादन में वृद्धि आदि के लाभ मिलते हैं, निश्चय ही वर्तमान लोक व्यय कार्य एवं बचत करने की इच्छा को प्रोत्साहित करते हैं। यद्यपि वर्तमान व्यय को ‘कार्य एवं बचत की क्षमता पर प्रभाव’ में विस्तृत रूप से समझाया जा चुका है। फिर भी कार्य एवं बचत करने की इच्छा के सम्बन्ध में कह सकते हैं कि लोगों में सदैव प्रगति करने की इच्छा रहती है, यदि सरकार के व्यय क्रय शक्ति का न्यूनतम हस्तान्तरण करने वाले हैं तो उनकी क्रय शक्ति कम रह जाती है फलतः लोग अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की भी जब पूर्ति नहीं कर पाते हैं तो उनकी बचत शक्ति न्यूनतम हो जायेगी। अतः भविष्य के प्रति निश्चित न होकर चिन्तित रहेंगे। इसका कार्य क्षमता पर कुप्रभाव पड़ेगा, ऐसी दशा में लोगों को वर्तमान व्यय से कार्य एवं बचत की इच्छा पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

(2) भविष्य सम्बन्धी व्यय- सरकार के सार्वजनिक व्यय जब इस प्रकार से नियोजित किये जायें कि जिनसे भविष्य में अर्थव्यवस्था आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में अग्रसर होगी। इतना ही नहीं, देश की जनता को भारी मात्रा में लाभ पहुँचेगा तो यह जानकार लोक व्यय का कार्य व बचत कभी इच्छा पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।

इसके विपरीत भविष्य सम्बन्धी व्यय, इस प्रकार के हो रहे हैं कि भविष्य में देश की समस्यायें कम होने के बजाय अत्यन्त गहरा जायेगी, ऐसी दशा में लोगों की कार्य एवं बचत की इच्छा पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। यदि लोगों को यह आभास हो जाये कि वे कार्य व बचत करें या नहीं, लेकिन सार्वजनिक व्यय के लाभ उन्हें निश्चित ही मिलेंगे, तो ऐसी दशा में कार्य व बचत करने की इच्छा अवश्य ही हतोत्साहित होगी।

(iii) आर्थिक साधनों का स्थानान्तरण- सार्वजनिक व्यय का आर्थिक साधनों के स्थानान्तरण पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इस परिप्रेक्ष्य में प्रमुख बात यह है कि सार्वजनिक व्यय के माध्यम से आर्थिक साधनों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष स्थानान्तरण किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत एक औद्योगिक उपक्रम से दूसरे उपक्रम, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश, एक प्रबन्ध से दूसरे प्रबन्ध, निजी उपक्रम को सार्वजनिक उपक्रम आदि विभिन्न रूपों में स्थानान्तरण सम्भव है।

(2) सार्वजनिक व्यय का वितरण पर प्रभाव-

सार्वजनिक व्यय वितरण को अत्यन्त प्रभावित करते हैं। अर्थशास्त्र में वितरण का तात्पर्य उत्पादन के साधनों में आय का वितरण करने से लिया जाता है। अतः सार्वजनिक व्यय के माध्यम से भूमि, श्रम, पूँजी, साहस व प्रबन्ध आदि को क्रमशः लगान, मजदूरी, ब्याज, लाभ व वेतन आदि प्रक्रिया को प्रभावित किया जाता है। जब धन का असमान वितरण हो जाता है तो सार्वजनिक व्यय के माध्यम से धन का समान वितरण करके समाजवादी समाज की रचना की जाती है। क्योंकि धन केन्द्रित हो जाता है तो सरकार सार्वजनिक व्यय ऐसे क्षेत्रों में बढ़ा देती है जिससे गरीब वर्ग की आय बढ़ें और धनी वर्ग को उससे कोई विशेष लाभ न मिले। जैसे- ग्रामीण विकास, कृषि विकास आदि के गरीबों की झोपड़ी में चिराग की जगह बिजली के बल्ब जलने लगते हैं तो निर्माण कार्यों में जुड़कर उन्हें मजदूरी प्राप्त होने लगती है। अतः सार्वजनिक व्यय वितरण व्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।

इस प्रकार सार्वजनिक व्यय प्रगतिशील एवं प्रतिगामी होते हैं। सरकार के प्रगतिशील सार्वजनिक व्यय निम्न आय वर्ग पर ऊँचे अनुपात में व्यय किये जाते हैं, जबकि आनुपातिक सार्वजनिक व्ययों में सभी आय वर्ग (निम्न मध्यम व उच्च) को समान अनुपात में लाभ पहुंचाने की व्यवस्था की जाती है। इसके विपरीत प्रतिगामी व्ययों से उच्च आय वर्ग को अपेक्षाकृत ऊँचा लाभ मिलता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय समाज के सभी वर्गों को आय का वितरण करके प्रभावित करते हैं।

प्रगतिशील सार्वजनिक व्यय जो गरीबों को ऊँची आय प्रदान करने का कार्य करते हैं, उन्हें नकद आर्थिक सहायता, निःशुल्क वस्तुएँ एवं सेवाएँ जैसे- शिक्षा, चिकित्सा, मकान आदि इसके अलावा रोजगार उपलब्ध करके आय में वृद्धि की जाती है। वर्तमान युग में विकासशील देश प्रगतिशील व्ययों को प्राथमिकता दे रहे हैं। अतः सार्वजनिक व्यय वितरण में न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करते हैं। यदि सार्वजनिक व्ययों को गरीबों का सच्चा साथी कहें तो कोई अतिश्योक्ति न होगा। क्योंकि इन व्ययों से धनी वर्ग लाभान्वित होता है तो गरीब वर्ग पोषित होता है।

सार्वजनिक व्यय के अन्य प्रभाव-

सार्वजनिक व्यय का आर्थिक जीवन पर संतुलित एवं स्थायी प्रभाव पड़ता है। वहीं सार्वजनिक व्ययों से प्रशासनिक परिस्थितियाँ प्रभावित होती हैं क्योंकि जेल, न्यायालय, पुलिस आदि की व्यवस्था सम्भव होती है। इसी प्रकार सार्वजनिक व्यय देश के आन्तरिक ढाँचे में ही परिवर्तन नहीं करते हैं वरन् व्यापार आदि को भी प्रभावित करके राष्ट्रीय- आय में वृद्धि करते हैं। अतः सार्वजनिक व्यय के प्रभाव चतुर्मुखी हैं।

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Pankaja Singh

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