शिक्षाशास्त्र

जॉन डीवी के शिक्षण विधि | जॉन डीवी के अनुशासन सम्बन्धी विचार | जॉन डीवी के शिक्षक का स्थान | जॉन डीवी के विचारों का मूल्यांकन | आधुनिक शिक्षा पर डीवी का प्रभाव

जॉन डीवी के शिक्षण विधि | जॉन डीवी के अनुशासन सम्बन्धी विचार | जॉन डीवी के शिक्षक का स्थान | जॉन डीवी के विचारों का मूल्यांकन | आधुनिक शिक्षा पर डीवी का प्रभाव | John Dewey’s Teaching Method in Hindi | John Dewey’s Thoughts on Discipline in Hindi | John Dewey’s Teacher’s Place in Hindi | Evaluation of John Dewey’s Ideas in Hindi | Dewey’s influence on modern education in Hindi

जॉन डीवी के शिक्षण विधि

डीवी के शिक्षण विधि के सम्बन्ध में विचार हमें उसके प्रसिद्ध ग्रंथों ‘हाऊ वी थिंक’ तथा ‘इन्ट्रेस्ट एन्ड एफर्ट इन एजूकेशन’ में मिलते हैं। इन विचारों में भी उनकी प्रयोजनवादी विचारधारा की छाप दिखलायी पड़ती है। उसके अनुसार शिक्षा की वही विधि सर्वोत्तम है जो ‘कार्य करके सीखने’ के सिद्धांत पर आधारित हो, जिसमें बालक अपनी रुचि के अनुसार सक्रिय होकर कार्य करें और स्वयं अनुभव प्राप्त करें। इन्हीं तथ्यों को दृष्टि में रख कर उसने शिक्षण विधि के निम्नलिखित सिद्धांतों पर बल दिया है-

(1) कार्य करके सीखना- डीवी ने कार्य करके सीखने की विधि पर अधिक बल दिया है। उसका मत है कि शिक्षण-विधि ऐसी होनी चाहिए जो बालक के जीवन, क्रियाओं तथा पाठ्य-विषयों में समन्वय स्थापित कर सके। इनमें समन्वय स्थापित करने के लिए डीवी का सुझाव है कि क्रियाओं को केन्द्र बनाकर शिक्षा दी जाय। सभी पाठ्य-विषयों को क्रियाओं से इस प्रकार सम्बद्ध कर दिया जाय कि बालक क्रिया द्वारा ही समस्त विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सके। इस सम्बन्ध में डीवी ने लिखा है-“सभी प्रकार का सीखना कार्यों (क्रियाओ) की गौण उपज के रूप में होना चाहिए न कि स्वयं सीधे सीखने के लिए।”-

(2) स्वानुभव द्वारा सीखना- डीवी का विचार है कि बालकों की शिक्षा स्वानुभव द्वारा होनी चाहिए। उनका पाठ्यक्रम पूर्व-निर्धारित नहीं होगा। बालक स्वयं ही क्रियाओं का चुनाव करने के लिए स्वतन्त्र होंगे। उन पर शिक्षक का किसी भी प्रकार का दबाव भय अथवा नियन्त्रण नहीं होगा। इस प्रकार शिक्षक बालकों को इच्छानुकूल कार्य करने का अवसर देगा। और स्वयं उनके कार्यों का निरीक्षण करेगा। इन कार्यों के माध्यम से बालक तथ्यों का स्वयं अनुभव करेगा और उसके ज्ञान में वृद्धि होगी। क्योंकि डीवी ने अनुभव को ज्ञान का स्रोत माना है; अतः उसके अनुसार ‘स्वानुभव द्वारा सीखना’ शिक्षण-विधि का एक उत्तम सिद्धांत है।

(3) प्रयोग द्वारा सीखना- डीवी के मतानुसार किसी भी वस्तु, तथ्य या विचार को तब तक सत्य स्वीकार नहीं करना चाहिए जब तक कि वह प्रयोग द्वारा सिद्ध न हो जाय। यदि शिक्षा द्वारा बालकों को सही ज्ञान प्रदान करना है तो ‘प्रयोग’ द्वारा उसकी सत्यता का परीक्षण करना आवश्यक है। इस प्रकार डीवी ने प्रयोग द्वारा सीखने के सिद्धांत पर बल दिया है।

(4) सह-सम्बन्ध विधि- चूँकि डीवी ने पाठ्यक्रम निर्माण में ‘सानुबंधिता के सिद्धांत पर अधिक बल दिया है। अतः उसने शिक्षण विधि के विषय में भी सुझाव दिया है कि बालक की शिक्षा सह-सम्बन्ध विधि से होना चाहिए, अर्थात् बालक को विभिन्न विषयों का ज्ञान पृथक-पृथक न देकर एकीकृत रूप में देना श्रेयस्कार होता है।

डीवी द्वारा समर्थन प्राप्त उक्त सिद्धांतों एवं विचारों को उसके शिष्य किलपैट्रिक ने एक शिक्षण विधि का रूप दिया जिसे ‘योजना-विधि’ कहते हैं। किलपैट्रिक ने इस विधि के निम्नलिखित पाँच सोपान बतलाया है-

(1) क्रिया या समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न करना, (2) समस्या, (3) सूचना, (4) सम्भावित समाधान (5) परीक्षण एवं प्रयोग।

डीवी ने योजना-विधि का पूर्ण समर्थन किया है।

डीवी के अनुशासन सम्बन्धी विचार

डीवी ने अनुशासनसम्बन्धी प्रचलित विचारों को अत्यन्त दोषपूर्ण बतलाया है, क्योंकि- ये विचार दंड पर आधारित व्यवस्था और आदेश से सम्बन्धित हैं और बालक के वैयक्तिक पक्ष पर ही बल देते हैं। इसके विपरीत डीवी ने सामाजिक अनुशासन और आत्मानुशासन पर बल दिया है, जिसका वर्णन नीचे किया जा रहा है-

(1) सामाजिक अनुशासन पर बल- डीवी ने सामाजिक अनुशासन पर बल दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि अनुशासन सहकारी एवं सहयोगी क्रियाओं के आधार पर स्थापित किया जाना चाहिए। डीवी का विचार है कि सामाजिक जीवन के आधार पर अनुशासन उत्पन्न होता है। विद्यालय के सामूहिक क्रिया-कलापों में भाग लेने से बालक के प्राकृतिक आवेगों का सुधार होता है और वे अनुशासित होते हैं। डीवी का मत है कि यदि विद्यालय के समस्त शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक कार्य उद्देश्यपूर्ण हों और एक-दूसरे के सहयोग से पूर्ण किये जायें तो वे बालकों के ऊपर अनुशासनात्मक प्रभाव डालते हैं। इसी अनुशासन से बालकों के चरित्र-निर्माण में सहायता मिलती है और उनमें नियमित रूप से कार्य करने की आदत का विकास होता है। अतः शिक्षक का कर्तव्य है कि वह विद्यालय में ऐसा वातावरण प्रस्तुत करे जिसमें बालकों को एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर कार्य करने का अवसर प्राप्त हो सके। इसके समर्थन में डीवी ने लिखा है-“कार्य को करने से कुछ का परिणाम निकलते हैं। यदि इन कार्यों को सामाजिक तथा सहकारी ढंग से किया जाय तो उनसे एक अपने (विशेष) प्रकार का अनुशासन उत्पन्न होगा।”

(2) आत्मानुशासन पर बल- डीवी के अनुसार अनुशासन एक प्रकार का आन्तरिक विकास है। जब बालक की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक आदि क्षमताओं में वृद्धि होती है तो अपनी आत्मानुभूति के परिणामस्वरूप वह मूल्यों को आँकता है। इस मूल्यांकन से उसे आत्म-प्रेरणा होती है जिससे वह स्वानुशासन की भावना का विकास करता है। ऐसी दशा उत्पन्न करने के लिए शिक्षक को चाहिए कि वह ऐसा वातावरण प्रस्तुत करे जिसमें बालक स्वतन्त्रता का अनुभव करे और उसे अपनी रुचि के अनुसार सामाजिक और सहकारी ढंग से कार्य करने का अवसर मिल सके।

डीवी के शिक्षक का स्थान

डीवी ने शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक को एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। वह शिक्षक को समाज का सेवक मानता है। उसके विचार से शिक्षक का कर्तव्य सुन्दर सामाजिक जीवन की नींव डालना है; अतः विद्यालय में उसे ऐसा सामाजिक वातावरण उपस्थित करना चाहिए जिसमें बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके। इस दृष्टि से शिक्षक एक सामाजिक वातावरण के निर्माता के रूप में होता है। इसीलिए डीवी ने शिक्षक को ‘चतुर बढ़ई’ कहा है।

(2) निरीक्षक और पथ-प्रदर्शक के रूप में- डीवी का अपना यह विचार है कि शिक्षक को स्वयं को वालक से बड़ा समझकर आज्ञाएँ और उपदेश नहीं देना चाहिए और न ही उसे बालक के ऊपर अपने व्यक्तित्व को थोपने का प्रयास ही करना चाहिए। शिक्षक तो एक निरीक्षक और पथ-प्रदर्शक मात्र होता है। उसका कार्य केवल इतना है कि वह बालकों के कार्यों और गतिविधियों का चुपचाप निरीक्षण करे और उनकी स्वाभाविक रुचियों, योग्यताओं और शक्तियों को देख-समझकर उनके अनुसार उनका उचित पथ-प्रदर्शन करे और आवश्यकतानुसार समस्याओं को हल करने में सहायता करे। इस प्रकार शिक्षक का स्थान एक निरीक्षक, पथ-प्रदर्शक और सहायक के रूप में होता है।

(3) ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में- उक्त बातों के आधार पर स्पष्ट है कि डीवी ने रूसो आदि प्रकृतिवादी विचारकों की भाँति शिक्षक के महत्व को कम नहीं दिया है अपितु बढ़ाया ही है। उसने शिक्षक को ईश्वर का प्रतिनिधि माना है। डीवी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘एजुकेशन ऑव टुडे’ में लिखा है-“शिक्षक सदैव ईश्वर का सस्ता पैगम्बर होता है। वह ईश्वर के राज्य में प्रवेश कराने वाला है।”

डीवी के शिक्षार्थी का स्थान

डीवी ने शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षार्थी को प्रमुख वा केन्द्रीय स्थान दिया है। इसी दृष्टिकोण से उसने पाठ्यक्रम के निर्धारण में तथा शिक्षण-विधि के सम्बन्ध में बालक (शिक्षार्थी) को ही आधार बनाया है। उसने बालकों की चार प्रकार की रुचियाँ बतलायी हैं और उन्हीं के अनुकूल शिक्षा देने को कहा है। डीवी शिक्षा में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता दिये जाने का समर्थन करता है। उसके अनुसार बालक को अपने शिक्षा सम्बन्धी कार्यों को चुनने, उनको पूरा करने एवं प्रयोग करने तथा मूल्यों का निर्माण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। अनुशासन के सम्बन्ध में डीवी बालक के ऊपर बाहरी दबाव या कठोर नियंत्रण का समर्थन नहीं करता अपितु सामाजिक अनुशासन तथा स्वतन्त्रता और बालक की रुत्ति पर आधारित, आत्मानुशासन का समर्थन करता है।

डीवी के विद्यालय सम्बन्धी विचार

डीवी ने अपने समकालीन विद्यालयों को यह कहकर दोषपूर्ण बतलाया कि वे समय की माँग के अनुकूल नहीं थे और उनमें व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा पुस्तकीय ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता था। उनमें बालकों के व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास नहीं हो पाता था। वहाँ बालक एक निष्क्रिय श्रोता की भाँति विषय का क्रमबद्ध और विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करता था। इस प्रकार उस समय के विद्यालय रूढ़िवादिता और निष्क्रियता से परिपूर्ण थे। डीवी ने ऐसे विद्यालयों का विरोध किया और क्रियात्मक तथा प्रयोगात्मक विद्यालयों की स्थापना के लिए जोर दिया जहाँ सामाजिक और व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न क्रियाओं और प्रयोगों के आधार पर शिक्षा दी जाय। उसने अपने इस विचार के अनुकूल ही शिकागो विद्यालय में एक ‘प्रोग्रेसिव स्कूल’ या ‘लैबोरेटरी स्कूल’ की स्थापना की, जिसमें कार्य करके सीखना के सिद्धांत पर शिक्षा दी जाती थी। डीवी ने विद्यालय को निम्नलिखित रूपों में देखना चाहा है-

(1) विद्यालय का वातावरण- डीवी ने विद्यालय को एक ऐसे विशिष्ट वातावरण के रूप में माना है जहाँ बालकों के सर्वामीण विकास के लिए एक विशेष प्रकार के जीवन और कार्यों की सुव्यवस्था होती है। यह व्यवस्था शिक्षक, पाठ्यक्रम, शैक्षिक परिवेश तथा विद्यालय के अन्य कार्यक्रमों के सामूहिक प्रभाव से होती है। डीवी के अनुसार इस प्रकार के वातावरण में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-

(1) शुद्ध वातावरण, (2) सरलीकृत वातावरण, (3) संतुलित वातावरण ।

डीवी ने विद्यालय को शुद्ध वातावरण इसलिए कहा है क्योंकि इसमें बाह्य सामाजिक जीवन से शुद्ध एवं दोषरहित बातों को ग्रहण किया जाता है और दूषित तथा अनुचित बातों कोको छोड़ दिया जाता है। इस शुद्ध एवं पवित्र वातावरण में बालक अपने चरित्र का विकास इस प्रकार करता है कि वह आने वाले समय में एक उत्तम समाज के निर्माण में योगदान कर सके। सरलीकृत वातावरण से डीवी का तात्पर्य यह है कि विद्यालय में वर्तमान जटिल सामाजिक जीवन से वे ही बातें ले ली जाती हैं जो रोचक, सरल तथा स्थायी महत्व वाली होती हैं और जिनके प्रति बालक आसानी से प्रतिक्रिया कर सकते हैं। विद्यालय सामाजिक वातावरण के विभिन्न तत्वों में संतुलन स्थापित करता है जिसका परिणाम यह होता है कि बालक को अपने समूह की भ्रांतियों और सामाजिक संकीर्णताओं से बाहर निकल कर एक व्यापक दृष्टिकोण वाले वातावरण में रहने का अवसर मिलता है। इसलिए डीवी ने लिखा है-“विद्यालय अपनी चहारदीवारी के बाहर के वृहत् समाज की प्रतिच्छाया होगा जिसमें रह कर जीवित रहने की कला को सीखा जा सकता है। परन्तु यह एक शुद्ध सरलीकृत तथा उत्तम रूप से सन्तुलित समाज होगा।”

(2) सामाजिक संस्था- डीवी विद्यालय को एक सामाजिक संस्था के रूप में मानता है। उसके अनुसार विद्यालय में मानव जाति के वे समस्त अनुभव एवं क्रियाएँ केन्द्रित होती हैं जिन्हें बालक अपने पूर्वजों से पैतृक सम्पत्ति अथवा सामाजिक दाय के रूप में प्राप्त करता है। बालक इन क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेकर अपने अंदर सामाजिक गुणों का विकास करता है और समाज कल्याण के कार्यों में योगदान करता है। इस तथ्य के सम्बन्ध में डीवी ने स्वयं लिखा है-“विद्यालय एक सामाजिक संख्या है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया होने के नाते विद्यालय साधारणतया सामुदायिक जीवन का वह रूप है जिसमें वे समस्त साधन केन्द्रित होते हैं जो बालक को प्रजाति की पैतृक सम्पत्ति में अपना हिस्सा प्राप्त करने तथा उसे अपने शक्तियों को सामाजिक हितों के लिए उपयोग करने को तैयार करते हैं।”

(3) एक प्रयोगशाला- डीवी विद्यालय को एक ऐसी प्रयोगशाला मानता है जहाँ बालक सामाजिक अनुभवों, विचारों, आदर्शों और मूल्यों आदि की सत्यता का स्वतन्त्र एवं स्वाभाविक औरपरिस्थितियों में परीक्षण करता है। इस परीक्षण और प्रयोग के आधार पर ही वह उन अनुभवों, आदर्शों, मान्यताओं और मूल्यों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करता है और अपने जीवन-मूल्यों का निर्माण करता है। डीवी ने लिखा है-“विद्यालय को सामाजिक अनुभवों की प्रयोगशाला होनी चाहिए, जिसमें बालक एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर जीवन व्यतीत करने के सर्वोत्तम ढंगों को सीख सके।”

डीवी ने विद्यालय की कुछ विशेषताएँ बालायी हैं जो निम्नलिखित हैं-

(1) विद्यालय को समाज का सच्चा प्रतिनिधि होना चाहिए।

(2) विद्यालय सामुदायिक जीवन का केन्द्रस्वरूप हो।

(3) विद्यालय एक क्रियाशील एवं रचनात्मक वातावरण के रूप में हो।

(4) विद्यालय सामाजिक अनुभवों की प्रयोगशाला के रूप में हो।

(5) विद्यालय समाज के अनुभवों और क्रियाओं को शुद्ध, सरलीकृत और संतुलित रूप में प्रस्तुत करने वाला हो।

(6) विद्यालय ऐसा हो जो सामूहिक एवं सहयोगी क्रियाओं के द्वारा बालकों में उत्तम सामाजिक गुणों का विकास कर सके।

(7) विद्यालय का वातावरण बालकों को स्वानुभव द्वारा सीखने का अवसर प्रदान करता हो।

(8) विद्यालय मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला हो। अर्थात् विद्यालय गृह और समाज दोनों जैसा वातावरण प्रस्तुत करता हो।

(9) विद्यालय ऐसा हो जो बालकों को प्रजाति की सम्पत्ति में भाग लेने तथा उसे समृद्धिशाली बनाने के लिए योग्य बना सके।

(10) विद्यालय बालकों को उनकी व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले व्यवसायों के लिए प्रशिक्षित करे।

(11) विद्यालय उद्योग-धंधों एवं हस्तकलाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान करे।

(12) विद्यालय की शिक्षा कार्य करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित हो।

डीवी के विचारों का मूल्यांकन

डीवी के दार्शनिक एवं शैक्षिक विचारों में कतिपय दोष होते हुए भी वे आज की शिक्षा में बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं। विद्वान् आलोचकों ने डीवी के दार्शनिक और शैक्षिक विचारों में कुछ कमियों अथवा दोषों की ओर संकेत किया है, जिसका उल्लेख हम नीचे करेंगे-

(1) आध्यात्मिकता का अभाव- डीवी की दार्शनिक विचारधारा प्रयोजनवादी है और वह भौतिकवादिता एवं उपयोगिता पर अधिक बल देती है। इसमें आध्यात्मिकता का पूर्णतः अभाव पाया जाता है। उसने आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म आदि के विषय में कोई ठोस विचार नहीं प्रस्तुत किये हैं जबकि इनके विषय में मानव प्राणी के सामने सदैव प्रश्न उपस्थित रहते हैं।

(2) सत्य की परिवर्तनशीलता का विचार पूर्ण- डीवी ने सत्य को परिवर्तनशील माना है। परन्तु उसका वह विचार दोषपूर्ण है। आज तक लगभग सभी विचारकों ने ‘सत्य’ का स्वरूप शाश्वत एवं चिरन्तन माना है। इसकी पुष्टि में क्रासमैन ने लिखा है-“विश्व में शाश्वत वास्तविकताएँ हैं जो परिवर्तित नहीं होती तथा कुछ ऐसी सुन्दरताएँ हैं जो कभी नहीं मुरझातीं।”

(3) ‘प्रत्यक्ष अनुभव ही ज्ञान का एक मात्र स्रोत है’ का विचार दोषपूर्ण- डीवी का विचार है कि प्रत्यक्ष अनुभव ही ज्ञान का एक मात्र या साधन है। परन्तु उसका यह विचार दोषपूर्ण है; क्योंकि हर प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ही नहीं प्राप्त किया जा सकता। प्रत्यक्ष अनुभव के अतिरिक्त पुस्तके, व्याख्यान, विचार-विमर्श आदि भी ज्ञान प्राप्त करने के साधन हैं। इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

(4) उपयोगिता के सिद्धान्त पर अधिक बल- डीवी ने उपयोगिता के सिद्धांत पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। इस कारण उसका दर्शन भौतिकवादिता को अधिक बढ़ावा देता है। भौतिकवादी भावना के कारण मनुष्य में लालच, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, अत्याचार जैसे असामाजिक गुणों की वृद्धि तथा प्रेम, दया, सहानुभूति, सेवा, परोपकार आदि मानवीय गुणों का लोप होता है।

(5) क्रियात्मकता पर अत्यधिक बल- डीवी ने शिक्षा में क्रियात्मकता पर अधिक बल दिया है। किन्तु इस पर आवश्यकता से अधिक बल नहीं दिया जाना चाहिए; क्योंकि क्रिया से पूर्व क्रमबद्ध विचारों का होना भी आवश्यक है। यदि बालक विचाररहित क्रिया करेगा तो उसमें त्रुटियों की संभावना अधिक होगी और वह कार्य को देर से सीख पायेगा।

(6) शिक्षा में पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों का अभाव- डीवी शिक्षा के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों में विश्वात नहीं करता। इसके विपरीत वह तात्कालिक उद्देश्यों को मान्यता प्रदान करता है। किन्तु आलोचकों का मत है कि शिक्षा ही नहीं वरन् समस्त यों के लिए एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य अथवा उद्देश्य होना आवश्यक है। उद्देश्य के अभाव में शिक्षा की सफलता की आशा करना व्यर्थ है।

(7) ‘सह-सम्बन्ध’ के सिद्धांत पर अत्यधिक बल- डीवी के पाठ्यक्रम- निर्माण तथा शिक्षण विधि से सम्बन्धित विचारों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उसने विषयों के सह-सम्बन्ध तथा सानुबंधित शिक्षण-विधि पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। परन्तु वर्तमान समय में यह विचार अधिक उपयोगी और व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि आज विशेषीकरण का युग है। प्रत्येक विषय का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो गया है। सानुबंधित विधि से विषय का परिचय मात्र मिल सकता है, विशेष ज्ञान नहीं।

(8) निगमन-विधि की उपेक्षा- डीवी ने आगमन-विधि पर जोर दिया है अर्थात् वह सामान्य सत्य को प्राप्त करने के लिए विशिष्ट घटनाओं के निरीक्षण और परीक्षण का समर्थन करता है। परन्तु इससे उसने निगमन-विधि की उपेक्षा की है जिसमें सामान्य सत्य से विशिष्ट सत्य की ओर पहुँचना होता है। दोनों विधियाँ एक-दूसरे की पूरक हैं। एक की अनुपस्थिति में दूसरी अपूर्ण है; अतः डीवी ने निगमन विधि की उपेक्षा करके उचित नहीं किया है।

(9) प्रयोग-विधि पर विशेष बल- डीवी ने प्रयोग-विधि पर अधिक बल दिया है। परन्तु यह विधि सभी विषयों के लिए उपयुक्त नहीं है। इसका प्रयोग विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए तो किया जा सकता है किन्तु अन्य विषयों के लिए दूसरी विधियाँ ही अधिक उपयुक्त होती हैं।

(10) वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर शिक्षण एक समस्या है- डीवी ने बालक की रुचि, योग्यता, शक्ति और आवश्यकता के अनुकूल पाठ्यक्रम निर्माण करने तथा शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया है। सिद्धान्ततः उसका यह विचार सर्वोत्तम है। किन्तु इसे व्यवहार में लाना असंभव नहीं तो एक कठिन कार्य अवश्य है। प्रत्येक बालक में विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। सबके लिए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था करना विद्यालय के लिए एक समस्या है।

(11) धार्मिक शिक्षा का अभाव- डीवी की शिक्षा योजना में धार्मिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। यह उसकी शिक्षा योजना की बहुत बड़ी कमी है। क्योंकि मानव- जीवन में धर्म का अपना एक विशेष स्थान होता है। धर्म मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास में सहायक होता है तथा उसे अनुशासित और नियमित रखता है, अतएव धार्मिक शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

(12) नैतिक शिक्षा की उपेक्षा- डीवी ने अपनी शिक्षा-योजना में नैतिक शिक्षा को भी कोई स्थान नहीं दिया है। उसका मत है कि नैतिक शिक्षा को एक अलग विषय के रूप से बढ़ाना अथवा प्रत्यक्ष उपदेश देना ठीक नहीं है। बालक में नैतिकता का विकास तो उद्देश्यपूर्ण क्रियाओं तथा सामूहिक कार्यक्रमों में भाग लेने से अपने-आप ही हो जाता है

(13) उचित-अनुचित में अन्तर करने का कोई मापदंड नहीं- डीवी के दर्शन की आलोचना करते हुए हार्न महोदय ने अपना विचार प्रकट किया है कि उसमें उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, सही गलत, सुन्दर-असुन्दर आदि में अन्तर मालूम करने के लिए काई निश्चित मापदंड नहीं है।

(14) प्रजातीय अनुभवों की उपेक्षा- डीवी ने स्वानुभव और प्रयोग को शिक्षा में अधिक महत्व दिया है। इन्हीं के अनुसार बालक अपने जीवनादर्शों और मूल्यों का स्वयं  निर्माण करता है। उसका विचार है कि जो सामाजिक अनुभव प्रयोग और परीक्षण की कसौटी पर खरे उतरे वे ही सत्य हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि यह प्रजातीय या सामाजिक अनुभवों को, जो कि पूर्वजों द्वारा प्रदान किये गये है संदिग्ध दृष्टि से देखता है। यह सर्वथा उचित नहीं है!

(15) शिक्षा स्वयं जीवन है विचार अस्पष्ट- डीवी ने शिक्षा और जीवन में कोई अन्तर नहीं माना है। उसके अनुसार शिक्षा स्वयं जीवन है’। लेकिन डीवी ने जीवन को कहीं भी कोई निश्चित परिभाषा नहीं दिया है; अतएव उसका यह विचार भी अस्पष्ट है।

आधुनिक शिक्षा पर डीवी का प्रभाव

डीवों के विचारों का वर्तमान शिक्षा के संपूर्ण क्षेत्र पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसके विचारों के परिणामस्वरूप शिक्षा की रूढ़िगत परम्पराओं का जन्त हुआ और शिक्षा का स्वरूप बदल गया। डीवी का प्रभाव विश्व के समस्त देशों की शिक्षा योजना में किसी न किसी रूप में अवश्य दिखलाई पड़ता है। शिक्षा में सक्रियवाद का आंदोलन शुरू हुआ, जिसके अनुसार नये- नये स्कूल खोले गये। इन स्कूलों को क्रियाशील विद्यालय के नाम से जाना जाता है। इसमें योजना-पद्धति को अपनाया गया है। योजना पद्धति के कारण बालकों में नयी स्फूर्ति तथा  चेतना उत्पन्न हो गयी है। इसके अतिरिक्त शिक्षा में अन्य प्रवृत्तियाँ जैसे-नवीन शिक्षा, प्रगतिशील शिक्षा, क्रिया-प्रधान पाठ्यक्रम आदि जो दिखलाई पड़ रही हैं वे सब डीवी के विचारों के परिणाम हैं। उसके शिक्षा के सिद्धांतों के आधार पर आज विश के तमाम देशों की शिक्षा का पुनर्संगठन हो रहा है। शिक्षा पर ही नहीं अपितु समाज तथा शासन पर भी उसके विचारों का प्रभाव पड़ा है। जनतन्त्र की सफलता के लिए सर्वसाधरण की शिक्षा आवश्यक समझी जाने लगी है। घर, विद्यालय और समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया है और विद्यालय ने समाज का लघु रूप धारण कर लिया है। शिक्षा पर डीवी के प्रभाव को नैथेन्सन (Nathenson) के एक छोटे से वाक्य से जाना जा सकता है। उसके शब्दों में-“डीवी के शिक्षा-संबंधी विचारों ने हमारा मार्ग प्रशस्त कर दिया है।” इसी प्रभाव के कारण आज डीवी को महान् दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री माना जाता है।

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Pankaja Singh

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