जॉन डीवी के शिक्षा के उद्देश्य | जॉन डीवी के शिक्षा का पाठ्यक्रम | John Dewey’s Aims of Education in Hindi | John Dewey’s Curriculum of Education in Hindi
जॉन डीवी के शिक्षा के उद्देश्य
डींवी का विचार है कि बालक की शक्तियाँ किस ओर को विकसित होंगी यह पहले से ही निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता; अतएव शिक्षा का उद्देश्य भी पहले से निश्चित नहीं किया जा सकता। बालकों में वैयक्तिक भिन्नता पायी जाती है। यदि शिक्षा का उद्देश्य पहले से ही निश्चित कर लिया जाय और उसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सभी को एक जैसी शिक्षा दी जाय तो लाभ की अपेक्षा हानि ही होने की संभावना रहती है। अतएव शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक की उन शक्तियों और योग्यताओं का पूर्ण विकास हो सके जो उसके लिए उपयोगी हों। इस दृष्टिकोण से डीवी ने शिक्षा के निम्नलिखित सामान्य उद्देश्यों का निर्धारण किया है-
(1) तात्कालिक उद्देश्य- प्रयोजनवादी विचारधारा का समर्थक होने के नाते डीवी किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य को नहीं मानता। उसका कथन है-“शिक्षा का सदैव तात्कालिक उद्देश्य होता है और जहाँ तक क्रिया शिक्षाप्रद होगी, वहाँ तक यह उस लक्ष्य को प्राप्त करेगी।”
(2) गतिशील एवं अभियोजन योग्य मन का निर्माण- के अनुसार शिक्षा का एक तात्कालिक उद्देश्य-गतिशील एवं अभियोजन योग्य अथवा लचील मन का निर्माण करना है। इस उद्देश्य को सामने रखने के लिए डीवी का विचार था कि हमें पूर्व निर्धारित मूल्यों या उद्देश्यों का विरोध करना चाहिए। उसने लिखा है-“यदि हम सामाजिक प्रयोगवादी पद्धति चाहते हैं तो हमें पूर्व निर्धारित मूल्यों को त्यागना होगा।” क्योंकि मूल्य और आदर्श तो व्यक्ति के अनुभवों से निर्मित होते हैं, अतः “शिक्षा का उद्देश्य एक गतिशील एवं अभियोजन योग्य मन का विकास करना है जो सभी स्थितियों में साधनसम्पन्न और साहसयुक्त होगा, ऐसा मन जिसमें अज्ञात भविष्य में मूल्यों का निर्माण कर सकने की शक्ति होगी।”
(3) अनुभवों का अनवरत पुनर्निर्माण- डीवी के मतानुसार व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ क्रियाएँ अवश्य करता है। व्यक्ति अपनी इस क्रिया और प्रक्रिया के फलस्वरूप कुछ ज्ञान प्राप्त करता है। इस ज्ञान के आधार पर पूर्व अनुभवों के संशोधन की प्रक्रिया निरंतर होती रहती है। डीवी के अनुसार यही शिक्षा है और शिक्षा का उद्देश्य है। इसके समर्थन में उसका यह कथन उल्लेखनीय है-‘शिक्षा अनुभवों के अनवरत पुनर्निर्माण एवं पुनर्संगठन की एक प्रक्रिया है।”
(4) वातावरण के साथ समायोजन- डीवी के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह अपने वातावरण के साथ समायोजन स्थापित कर सके। इस सम्बन्ध में उसने लिखा है-“शिक्षा की प्रक्रिया समायोजन एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसका प्रत्येक अवस्था में उद्देश्य होता है-विकास की बढ़ती हुई क्षमता को प्रदान करना ।”
(5) सामाजिक कुशलता- डीवी ने शिक्षा का एक उद्देश्य सामाजिक कुशलता प्रदान करना बतलाया है। सामाजिक कुशलता का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को शिक्षा द्वारा वह सभी प्रकार की योग्यता प्राप्त हो जाय जिससे वह समाज के सभी कार्यों में आवश्यकतानुसार भाग ले सके। इसका एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति पूर्णतया आत्म-निर्भर हो, वह राष्ट्र के ऊपर भार न हो, दूसरों के हित की रक्षा करे और किसी के कार्य में बाधा न डाले तथा समाज की उन्नति में सहायक हो। ऐसे ही व्यक्तियों से जनतंत्र की सफलता, जन-हित एवं राष्ट्रकल्याण की अपेक्षा की जा सकती है। अतः शिक्षा का यह एक उद्देश्य होना चाहिए कि वह व्यक्ति को सामाजिक रूप से कुशल बनाये। इस विचार से डीवी ने सामाजिक कुशलता के अंतर्गत सात प्रकार की योग्यताओं और क्षमताओं को रखा है-(1) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, (2) कार्य करने की क्षमता, (3) योग्य गृहस्थ, (4) व्यावसायिक योग्यता, (5) आदर्श नागरिकता, (6) अवकाश काल के सदुपयोग की योग्यता तथा (7) नैतिकता और चरित्र इस प्रकार हम देखते है कि यह उद्देश्य अत्यन्त व्यापक है। इस उद्देश्य के अंतर्गत सभी प्रकार के व्यक्तिगत और सामाजिक उद्देश्य आ जाते हैं। इस सम्बन्ध में डीवी ने लिखा है-“शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी को सुखी नैतिक एवं कार्यकुशल बनाने में सहायता देना है।”
डीवी के शिक्षा का पाठ्यक्रम
डीवी ने तत्कालीन प्रचलित पाठ्यक्रम का घोर विरोध किया और व्यक्ति तथा समाज दोनों के दृष्टिकोण से उपयोगी एवं व्यावहारिक पाठ्यक्रम के निर्धारण पर जोर दिया। पाठ्यक्रम- निर्माण के लिए उसने जिन सिद्धान्तों का समर्थन किया वे निम्नलिखित हैं।
(1) उपयोगिता का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम-रचना के सिद्धान्तों में भी डीवी के प्रयोजनवादी और जनतांत्रिक विचारों की छाप है। स्पेंसर की भाँति वह भी पाठ्यक्रम का निर्माण उपयोगिता के सिद्धान्त पर करना चाहता है। उसका कथन है-“मानव की आधारभूत सामान्य समस्याएँ भोजन, आवास, वस्त्र, घर की सजावट और उत्पादन, विनिमय तथा उपभोग- सम्बन्धी होती है।”
व्यक्ति इन्हीं समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रयलशील रहता है। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे ही विषयों एवं क्रियाओं को स्थान देना चाहिए जो बालक को इन समस्याओं का समाधान करने योग्य बना सकें।
(2) रुचि का सिद्धान्त- हम अभी इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि डीवी ने चार प्रकार की रुचियाँ बतलायी हैं-बातचीत तथा विचारों के आदान-प्रदान में रुचि, खोज में रुचि, सृजन या निर्माण में रुचि और कलात्मक अभिव्यक्ति में रुचि। डीवी ने प्रारम्भिक कक्षाओं के पाठ्यक्रमों का निर्माण इन्हीं रुचियों के आधार पर करने को कहा है। उसने अपने प्रयोगात्मक स्कूल के लिए इन्हीं के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया। इस पाठ्यक्रम में उसने भाषा, गणित, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, पाकविज्ञान, काष्ठकला, सिलाई, बागवानी, चित्रकारी, कला, संगीत आदि विषयों को रखा।
(3) बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम- डीवी का विचार है कि पाठ्यक्रम का निर्धारण बालक को केन्द्रविन्दु मानकर किया जाना चाहिए अर्थात् उसका निर्माण बालक की आयु, योग्यता, शक्ति, अभिक्षमता, रुचि और आवश्यकता आदि के अनुसार किया जाय। इसमें उन्हीं विषयों का समावेश किया जाय जिनमें बालक की रुचि हो, उसको सीखने की शक्ति और योग्यता हो और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले हों। जो विषय बालक की रुचि, योग्यता और आवश्यकता आदि के अनुकूल होते हैं वे उन विषयों को शीघ्र और सफलतापूर्वक सीख लेते हैं। पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यवस्तु बालक के अनुभव के अनुकूल हो तथा उसे स्वानुभव प्राप्त करने का अवसर प्रदान कर सके तभी शिक्षा लाभप्रद होगी।
(4) क्रियाशीलता का सिद्धान्त- डीवी पुस्तकों से प्राप्त होने वाले अव्यावहारिक और निष्क्रिय ज्ञान के पक्ष में नहीं था। इसलिए उसने पाठ्यक्रम निर्माण में क्रियाशीलता के सिद्धान्त पर बल दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं का समावेश किया जाय जो बालक को अधिक से अधिक क्रियाशील रख सके और उसे अनुभव करा सके जिससे कि वह अपने जीवन-मूल्यों का सृजन करने में समर्थ हो। इसके समर्थन में डीवी ने लिखा है-“यहाँ अब समस्या यह है कि बालक के व्यवसाय, अभिव्यक्ति, बातचीत, रचना तथा प्रयोग की व्यक्तिगत क्रियाओं को अधिक पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाय जिससे उसके व्यक्तित्व, नैतिकता तथा बौद्धिक विकास का दूसरों के अनुपातरहित अनुभव द्वारा, जिसका उसको पुस्तकों द्वारा परिचय दिया जाता है, हनन न हो।”
(5) सानुबन्धिता का सिद्धान्त- डीवी का विचार है कि पाठ्य-विषयों का अलग-अलग ज्ञान प्रदान करना एक त्रुटिपूर्ण और भ्रमोत्पादक ढंग है। ज्ञान एक इकाई है। अतः बालकों को अलग-अलग ज्ञान प्रदान करने की अपेक्षा समस्त विषयों को सानुबन्धित करके एकीकृत रूप में पढ़ाया जाय। विभिन्न पाठ्य-विषय हमारे जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं से सम्बन्धित हैं। जीवन की पूर्णता उसके विभिन्न पहलुओं के संगठन से है। इसीलिए भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, कला, संगीत, हस्तकार्य आदि को एक-दूसरे से सह-सम्बन्धित करके पढ़ाया जाजाना चाहिए।
(6) नभ्यता या लचीलेपन का सिद्धान्त- डीवी ने पाठ्यक्रम निर्माण में नम्यता या लचीलेपन के सिद्धान्त को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है। इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम परिवर्तनशील होना चाहिए। उसमें किसी भी प्रकार की दृढ़ता, रूढ़िवादिता अथवा अपरिवर्तनशीलता नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक बालक में भिन्नता पायी जाती है तथा प्रत्येक की रुचियाँ और आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं इसलिए यदि पाठ्यक्रम अपरिवर्तशील और दृढ़ होगा तो सभी को अपनी व्यक्तिगत रुचि, योग्यता और आवश्यकता के अनुसार ज्ञानार्जन का अवसर नहीं मिल सकेगा। इसीलिए डीवी ने पाठ्यक्रम में विभिन्न विषयों को स्थान देने के लिए कहा है जिससे बालक अपनी इच्छानुसार कोई भी विषय का चुनाव कर सकने के लिए स्वतन्त्र हो ।
(7) सामाजिक अनुभव का सिद्धान्त- डीवी के मतानुसार पाठ्यक्रम का आधार सामाजिक अनुभव होना चाहिए अर्थात् पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो हमारे सामाजिक अनुभवों को प्राप्त कराने में अथवा उनका सम्बर्द्धन कराने में सहायक हों। बालक समाज में जन्म लेता है, समाज में उसका पालन-पोषण होता है इससे सामाजिक जीवन में उसे अनेक प्रकार के अनुभव होंगे। अतः उसके पाठ्यक्रम में दिन-प्रति-दिन के सामाजिक जीवन से सम्बन्धित पाठ्य-वस्तुएँ रखी जानी चाहिए।
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