जॉन डीवी के शैक्षिक विचार | जॉन डीवी के शिक्षा का अर्थ | जॉन डीवी के शिक्षा के आधार

जॉन डीवी के शैक्षिक विचार | जॉन डीवी के शिक्षा का अर्थ | जॉन डीवी के शिक्षा के आधार | Educational Thoughts of John Dewey in Hindi | John Dewey’s Meaning of Education in Hindi | John Dewey’s Foundations of Education in Hindi

जॉन डीवी के शैक्षिक विचार

डीवी के शैक्षिक विचार उसकी प्रयोजनवादी दार्शनिक विचारधारा पआवश्यकता के अनुसा शिक्षा के विभिन्न पहलुओं-अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, अनुशासन, शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षालय आदि के सम्बन्ध में जो भी विचार प्रकट किये हैं उन सभी पर उसकी दार्शनिक विचारधारा की गहरी छाप देखने को मिलती है। इन सबके सम्बन्ध में उसके विचारों का अध्ययन हम नीचे क्रम से करेंगे-

डीवी के शिक्षा का अर्थ

डीवी ने ज्ञान का स्रोत ‘अनुभव’ माना है। व्यक्ति अनुभव समाज में रह कर प्राप्त करता है। ये अनुभव उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्रिया में होते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति होने से ही उसे भायी विकास के लिए मार्ग दिखलाई पड़ता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रख कर उसने शिक्षा के अर्थ के सम्बन्ध में निम्नलिखित पाँच विचार प्रस्तुत किये हैं-

(1) शिक्षा अनुभवों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है- डीवी का मत है कि ‘ज्ञान’ अनुभव से प्राप्त होता है। व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर कुछ क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। किन्तु व्यक्ति की आवश्यकताएँ सदा एक-सी नहीं होतीं उनमें परिवर्तन होता रहता है; अतएव उसे नित्य नवीन अनुभव होते हैं। यह अपने पूर्व सचित अनुभवों के आधार पर नदीन अनुभवों में संशोधन करता है और उनका हितकर दिशाएँ फिर से निर्माण करता है। अनुभवों के इसी निर्माण की प्रक्रिया को शिक्षा कहते हैं। यह निर्माण की प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है। इस सम्बन्ध में डीवी का कथन है कि हमारे अनुभव के परिवर्तित एवं संशोधित होने का नाम ही शिक्षा है। उसने लिखा है-“शिक्षा अनुभवों के अनवरत पुनर्निर्माण एवं पुनर्संगठन की एक प्रक्रिया है।”

(2) शिक्षा स्वयं जीवन है- स्पेन्सर तथा अन्य शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को जीवन की तैयारी माना है, किन्तु डीवी का विचार है कि शिक्षा स्वयं जीवन है। उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डेमोक्रेसी एन्ड एजूकेशन’ के पहले अध्याय में ही लिखा है कि शिक्षा जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि इसके बिना जीवन की प्रगति नहीं हो सकती। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए डीवी का कथन है कि बालक वर्तमान में निवास करता है और वर्तमान से ही सम्बन्धित उसकी अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। वह आगे आने वाले समय के लिए चिंतित नहीं रहता और न ही सुदूर भविष्य में उसकी कोई रुचि होती है; अतः बालक की शिक्षा में उसके भविष्य की अपेक्षा वर्तमान को अधिक महत्व देना चाहिए। वर्तमान में बालक की रुचि अधिक होती है। अतः क्रिया के परिणामस्वरूप अनुभवों का परिवर्तन, संशोधन और पुनर्निर्माण करता है। इसलिए शिक्षा स्वयं जीवन है। डीवी ने इस तथ्य को सामाजिक दृष्टिकोण से भी सिद्ध करने का प्रयास किया है। उसका कहना है कि शिक्षा समाज की संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण और दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरण करके सामाजिक जीवन की निरन्तरता को बनाये रखती है। शिक्षा के अभाव में सामाजिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती; इसलिए भी शिक्षा स्वयं जीवन है।

(3) शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है- ऊपर के विचारों से यह स्पष्ट है कि मानव समाज की सभ्यता और संस्कृति का संरक्षण और विकास शिक्षा के द्वारा ही होता है। दूसरे शब्दों में बालक अपनी सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा समाज में रह कर ही प्राप्त करता है। उसकी शक्तियों का विकास केवल सभ्य जीवन के आधार पर सामाजिक वातावरण के बीच होता है। बालक अपने चरित्र का निर्माण भी सामाजिक वातावरण में ही करता है। इस दृष्टि से शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समाज में बालक को अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं। अनुभव ज्ञान के स्रोत और शिक्षा के आधार हैं; अतः समाज के कार्यों में भाग लेना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में डीवी ने लिखा है-“समस्त शिक्षा व्यक्ति द्वारा प्रजाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से आगे बढ़ती है।”

(4) शिक्षा मार्गदर्शन है-‌ डीवी के मतानुसार बालकों का उचित अनुभवों के कार्य में मार्गदर्शन करना ही शिक्षा है। इसके द्वारा बालकों की अन्तर्निहित शक्तियों, योग्यताओं, अभिक्षमताओं और रुचियों को ऐसी अनुकूल और उचित दिशा की ओर इस प्रकार निर्देशित करना चाहिए कि उनके आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण हो। यह मार्ग-दर्शन अथवा निर्देशन का कार्य बालकों के आदेगों को सामाजिक क्रियाओं तथा सहयोगी अनुभवों के क्रियाशील रहने के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान करके ही उचित ढंग से किया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षा मार्गदर्शन है।

(5) शिक्षा विकास है- ऊपर अभी वर्णन किया जा चुका है कि व्यक्ति अपने जीवन में अनेक प्रकार की क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ करता रहता है और अनुभवों का निर्माण करता रहता है। ये क्रियाएँ और अनुभव व्यक्ति को विकास की ओर ले जाते हैं; इसीलिए इन्हें शिक्षा की प्रक्रिया कहा जाता है। अस्तु शिक्षा विकास है। डीवी का विचार है कि शिक्षा बालक की शक्तियों एवं क्रियाओं को मार्गदर्शन कराते हुए उचित विकास की ओर ते जाती है। उसने लिखा है-“शिक्षा व्यक्ति में उन सभी क्षमताओं का विकास है जो उसे अपने वातावरण पर नियन्त्रण करने तथा सम्भावनाओं की पूर्ति के योग्य बनावे।”

शिक्षा विकास है। इसकी पुष्टि करते हुए डीवी ने पुनः लिखा है-“चूँकि विकास जीवन की विशेषता है, अतएव शिक्षा पूर्णरूपेण विकास से सम्बन्धित है। विद्यालय की शिक्षा के मूल्य की परख इस बात में है कि वह किस सीमा तक लगातार विकास की छा उत्पन्न करती है और कहाँ तक इच्छा को वास्तव में प्रभावशाली बनाने के लिए साधन प्रदान करती है।”

डीवी के शिक्षा के आधार

डीवी के शैक्षिक विचारों का गहन अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उसने शिक्षा के निम्नलिखित दो प्रमुख आधार बतलाये हैं-

(1) मनोवैज्ञानिक आधार- डीवी के अनुसार मुख्य रूप से शिक्षा के दो पक्ष-मनोवैज्ञानिक और सामाजिक होते हैं। बालक की शिक्षा दोनों पक्षों पर निर्भर करती है। मनोवैज्ञानिक पक्ष शिक्षा का आधार है। इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षा बालक की मूल- प्रवृत्तियों, शारीरिक और मानसिक क्षमताओं, योग्यताओं, आवश्यकताओं और रुचियों के अनुसार होनी चाहिए। शिक्षक इनसे भलीभाँति परिचित होकर और इन्हीं के आधार पर शिक्षा प्रारम्भ करके बालक के उचित विकास में सहायता पहुँचा सकता है। बालक की भावी शिक्षा के निर्धारण में इन्हीं मनोवैज्ञानिक तत्वों को आधार बनाना चाहिए। बालक की रुचि के अनुकूल दी जाने वाली शिक्षा ही वास्तव में उपयोगी होती है। इस सम्बन्ध में डीवी ने लिखा है-“शिक्षा का प्रारंभ बालक की योग्यताओं, रुचियों तथा आदतों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने के बाद होना चाहिए।” डीवी ने चार प्रकार की रुचियाँ बतलायी हैं; यथा-(1) बातचीत तथा विचारों के आदान-प्रदान में रुचि, (2) खोज में रुचि, (3) सृजन या निर्माण में रुचि और (4) कलात्मक अभिव्यक्ति में रुचि। इन चार प्रकार की रुचियों का बालक के संपूर्ण जीवन से सम्बन्ध होता है; अतः इन्हीं के आधार पर शिक्षा का कार्यक्रम निश्चित किया जाना चाहिए।

(2) सामाजिक आधार- शिक्षा के सामाजिक आधार से डीबी का अभिप्राय यह है कि शिक्षा सामाजिक वातावरण में होनी चाहिए। बालक एक सामाजिक प्राणी है, वह हर समय समाज से कुछ न कुछ सीखता रहता है। वह अपने सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत माता- पिता, भाई-बहन, संगी-साथी तथा समाज के अन्दर से जो कुछ भी सीखता है वही उसकी शिक्षा है। बालक में अज्ञात रूप से विद्यमान सामाजिक भावना उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती रहती है; अतः उसकी शिक्षा उसी सामाजिक बातावरण में होनी चाहिए जिसमें वह रहता है। सामाजिक वातावरण में ही बालक अपने जीवन के मूल्यों का निर्माण करता है। डीवी का विचार है कि सामाजिक वातावरण के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। क्योंकि सामाजिक वातावरण ही बालक के सामने वे परिस्थितियों समस्याएँ, आवश्यकताएँ और बाधाएँ प्रस्तुत करता है जिनके समाधान के लिए व्यक्ति चिंतन करता है, हल ढूँढ निकालता है, क्रियाएँ करता है और अनुभवों का परिवर्तन, संशोधन और पुनर्निर्माण करता है। ये अनुभव ही बालक को ज्ञान प्रदान करते हैं। डीबी ने शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार की अपेक्षा सामाजिक आधार को अधिक महत्वपूर्ण माना है। उसने लिखा है- “समस्त शिक्षा व्यक्ति द्वारा प्रजाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से आगे बढ़ती है।”

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