अर्थशास्त्र

भारतवर्ष में हरित क्रान्ति | हरित क्रांति के प्रभाव | हरित क्रांति की समस्याएं | हरित क्रांति की आलोचनाएं

भारतवर्ष में हरित क्रान्ति | हरित क्रांति के प्रभाव | हरित क्रांति की समस्याएं | हरित क्रांति की आलोचनाएं | Green Revolution in India in Hindi | Effects of Green Revolution in Hindi | Green Revolution Problems in Hindi | Criticisms of Green Revolution in Hindi

भारतवर्ष में हरित क्रान्ति

हरित क्रान्ति से तात्पर्य कृषि के क्षेत्र में अपनाये जाने वाले उन कार्यक्रमों एवं तकनीकों से है जिनसे कृषि के उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है। इसके अन्तर्गत उन्नत बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक औषधियां, सिंचाई सुविधाएं, कृषि का यंत्रीकरण आदि तत्व शामिल होते हैं। भारतवर्ष में 1965-66 तथा 66-67 में भयानक सूखे की स्थिति निर्मित होने से खाद्यात्र संकट उत्पन्न हो गया था। इससे निपटने के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कृषि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तनों की पहल की जिसके परिणामस्वरूप 1968-69 में खाद्यान्नों के उत्पादन में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। कृषि के क्षेत्र में मिली इस सफलता को भारतवर्ष में “हरित क्रान्ति” नाम दिया गया। भारत में हरित क्रान्ति के प्रणेता नॉरमन बोरलॉग को माना जाता है।

  1. अधिक उपज देने वाली किस्मों का विकास- अधिक उपज वाले बीजों का प्रयोग हरित क्रान्ति का एक प्रमुख तत्व है। इन बीजों से उगने वाली फसल कम ऊँचाई वाली होती है एवं वह कम समय में पक जाती है। इन बीजों से अधिक उत्पादन के लिए काफी मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग किया जाना आवश्यक होता है।
  2. बहुफसली कार्यक्रम- हरित क्रांति के अंतर्गत बहुफसली कार्यक्रम को भी शामिल किया गया है। अभी तक हमारे देश में गहन खेती के अभाव एवं लम्बे समय में पकने वाली फसलों के कारण बहुफसली खेती का ज्यादा विस्तार नहीं हो पाया था, किन्तु हरित क्रांति के अन्तर्गत कम समय में पकने वाली फसल के विकास के सहारे फसल चक्र में आवश्यक परिवर्तन करके बहुफसली खेती का कार्यक्रम शुरू किया गया।
  3. सिंचाई सुविधाओं का विस्तार- सिंचाई सुविधाओं का विस्तार भी हरित क्रांति का प्रमुख तत्व है, क्योंकि अधिक उपज को प्राप्त करने के लिए उत्तम सिंचाई का प्रबन्ध करना पड़ता है। अतः देश में लघु सिंचाई योजनाओं के माध्यम से सिंचित भूमि के क्षेत्रफल को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। विभिन्न भागों में विद्युत ट्युबवेल लगाने का कार्यक्रम तेजी से चलाया गया है एवं ग्रामीण विद्युतीकरण योजना को प्राथमिकता दी गयी है। सूखे की स्थिति से निबटने के लिए सरकार ने तेजी से सिंचाई योजनाओं को अपने हाथ में ले लिया है।
  4. उर्वरकों का अधिक प्रयोग- उर्वरकों का अधिक प्रयोग हरित क्रांति का एक प्रमुख तत्व है। इसके प्रयोग में वृद्धि करके प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। हरित क्रांति के पहले किसान देशी खाद का प्रयोग ही करते थे, किन्तु तृतीय योजना के बाद रासायनिक खादों के प्रयोग में वृद्धि की गई, क्योंकि अधिक उपज देने वाले बीजों एवं बहुफसल कार्यक्रम के लिए उर्वरकों की आवश्यकता बहुत अधिक होती है।
  5. पौध संरक्षण- पोधों का संरक्षण देना भी हरित क्रांति का प्रमुख तत्व है। इसके अन्दर फसलों को विभिन्न कीटाणुओं से बचाने के लिए दवाओं का छिड़काव एवं खरपतवार पर नियंत्रण किया जाता है। भारत में 1965-66 के बाद से इस कार्यक्रम में बहुत तेजी आयी है।
  6. कृषि मशीनीकरण- कृषि क्षेत्र में औजारों एवं मशीनों का उपयोग हति क्रांति के ही महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं, क्योंकि सभी फसलों का बोने एवं काटने का कार्य तेज गति से किया जा सकता है।
  7. शुष्क भूमि कृषि-विकास- हरित क्रांति के द्वारा सूखे क्षेत्रों में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सूखा प्रतिरोध एवं जल्दी पकने वाली फसलों का विकास किया गया। शुष्क भूमि पर कृषि विकास की ओर चौथी योजना से विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

हरित क्रांति के प्रभाव

भारतीय अर्थव्यवस्था पर हरित क्रांति के जा प्रभाव पड़े है, उन्हें निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. उत्पादन में वृद्धि- हरित क्रांति के परिणास्वरूप देश में खाद्यान्नों के उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई । 1966 के पश्चात् देश में चावल, गेहूँ, ज्वार, मक्का, बाजरा आदि सभी प्रकार के खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ा, परन्तु सबसे अधिक वृद्धि गेहूँ के उत्पादन में हुई। इसलिए इसे गेहूँ क्रांति भी कहा जाता है।
  2. उन्नत बीजों के उपयोग में वृद्धि- हरित क्रांति के परिणामस्वरूप देश में अधिक उपज देने वाले उन्नत बीजों के उपयोग में भारी वृद्धि हुई है। 1966-67 में अधिक उपज देने वाले बीजों को 1.89 मिलियन हेक्टेयर में बोया गया था, यह क्षेत्रफल 1997-98 में बढ़कर 76 मिलियन हेक्टेयर हो गया। वर्तमान में वर्ष 2011-12 में अधिक उपजाऊ किस्म के बीजों का प्रयोग अनुमानतः 283.9 मिलियन हेक्टेयर हो गया है।
  3. प्रति हेक्टेयर उत्पादन में वृद्धि- हरित क्रांति के परिणामस्वरूप देश में विभिन्न फसलों का प्राप्ति हेक्टेयर उत्पादन भी बढ़ा है। 1060-61 में चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1,013 किलोग्राम था जो बढ़कर 1998-99 में 1928 किलोग्राम हो गया। इसी प्रकार गेहूँ का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1960-61 के 851 किलोग्राम की तुलना में 2011-12 में बढ़कर 3114 किलोग्राम हो गया।
  4. रासायनिक खादों के प्रयोग में वृद्धि- हरित क्रांति के पश्चात् देश में रासायनिक खादों के उपयोग में अत्यधिक वृद्धि हुई है। 1965-66 में देश में रासायनिक खादों का कुल उपयोग 7.8 टन था जो बढ़कर 1998-99 में 168 लाख टन, वर्ष 2009-10 में 214.18 लाख टन गया है।
  5. सिंचित क्षेत्र में वृद्धि- हरित क्रांति के पश्चात् देश में सिंचाई सुविधाओं का विस्तार हुआ है। 1970-71 में कुल 380 लाख हेक्टेयर पर सिंचाई होती थी, 1998-99 में यह सिंचित क्षेत्रफल बढ़कर 884 लाख हेक्टेयर हो गया। इस प्रकार इन 28 वर्षों में देश के सिंचित क्षेत्रफल में दुगने से अधिक वृद्धि हुई है।
  6. कृषि यंत्रीकरण- हरित क्रांति के दौरान कृषि क्षेत्र में ट्रेक्टर, थ्रेशर, पम्प सेट आदि यंत्रों के उपयोग पर अत्यधिक जोर दिया गया। इसी के परिणामस्वरूप देश में 1961-62 में 3, 877 ट्रैक्टरों का विक्रय हुआ था जो बढ़कर 2014-15 में 3,10,146 हो गया। वर्तमान में ट्रैक्टरों का विक्रय 5.13 लाख हो गया है।

हरित क्रांति की समस्याएं या आलोचनाएं

हरित क्रांति से उत्पन्न निम्नलिखित समस्याओं का देश को सामना करना पड़ रहा है-

  1. क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि- हरित क्रांति के परिणामस्वरूप देश में क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि हुई है। इसका लाभ पंजाब तथा हरियाणा जैसे उन्हीं प्रदेशों को प्राप्त हुआ है, जिनमें सिंचाई सुविधाएं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। जिन क्षेत्रों में पर्याप्त सिंचाई सुविधाएं नहीं हैं, उनमें आशानुकूल कृषि उत्पादन नहीं बढ़ा है। उदाहरण के लिए, पंजाब तथा बिहार में चावल के प्रति हेक्टेयर उत्पादन का अंतर 1966-97 में 850 किलोग्राम था, वह 1999-2000 में बढ़कर 2445 किलोग्राम हो गया इसी अवधि में गेहूं का अन्तर 1093 किलोग्राम से बढ़कर 1,672 किलोग्राम हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि हरित क्रांति ने देश में क्षेत्रीय विषमताओं को बढ़ाया है।
  2. कृषकों की आय की विषमताओं में वृद्धि- हरित क्रांति के परिणास्वरूप न केवल क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि हुई है, बल्कि सम्पन्न और गरीब किसानों के बीच आय की असमानताएं और बढ़ गई हैं।।

डॉ. वी.के.आर.वी. राव के अनुसार, “यह बात सर्वविदित है कि तथाकथित हरित क्रांति, जिसने देश की खाद्यात्र उत्पादन स्थिति बढ़ाने में सहायता की है, इससे ग्रामीण क्षेत्र की असमानताएं बढ़ाने, काश्तकारों को भूमिहीन मजदूर बनाने एवं ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक तनाव पैदा करने में सहयोग दिया है। भारतीय कृषि के सम्मुख उपस्थित चुनौती केवल उत्पादन बढ़ाने की नहीं है, बल्कि उसका न्यायोचित वितरण करने की भी है। अतः उत्पादन की समस्या पर ध्यान देते समय हमें कृषि विकास के सामाजिक एवं मानवीय पहलुओं को नहीं भुला देनी चाहिए।

  1. कुछ ही फसलों तक सीमित- हरित क्रांति से गेहूं के उत्पादन में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है, परन्तु चावल, दालें तथा अनाजों के उत्पादन में इससे क्रांतिकारी वृद्धि नहीं दिखाई देती हैं।,
  2. पूंजी वादी खेती को प्रोत्साहन- इस क्रांति का लाभ केवल बड़े-बड़े सम्पन्न भूमिपत्तियों को ही मिला है और इसलिए कृषि क्षेत्र की असमानताएं और भी बढ़ गई हैं। चूंकि इस क्रांति के पहले या इसके साथ भूमि सुधार का कार्यक्रम पूरा नहीं किया गया, इसलिए कृषि विकास की इस नयी नीति के अन्तर्गत मिलने वाली सुविधाओं का सम्पूर्ण फायदा धनवानों ने ही उठाया है। अपनी पहुंच और साधनों के बल पर बड़े-बड़े भू-स्वामियों ने ही ऊँची उपज वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों, पम्पसेट एवं ट्रैक्टर आदि की सुविधाएं प्राप्त कर लीं। अशोक रूद्ध के अनुसार, “हरित क्रांति के प्रादुर्भाव के पश्चात् पंजाब में बड़े कृषकों के स्वामित्व की भूमि में 9.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई हैं।”
  3. असंतुलित विकास- हरित क्रांति के परिणामस्वरूप पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में कृषि उत्पादन बढ़ा है, जहां कृषक सम्पन्न है तथा जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हैं। देश के अन्य राज्यों में इसका कोई व्यापक प्रभाव नहीं हुआ है, अतः कहा जा सकता है कि देश में हरित क्रांति की सफलता सीमित ही रही है।
  4. कृषि श्रमिकों की समस्या- हरित क्रांति के अन्तर्गत बड़े-बड़े कृषि फार्मों पर आधुनिक मशीनों से कार्य किया जाता है, जिससे कृषि श्रमिकों की बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। हरित क्रांति के अन्तर्गत भूमि सुधारों की ओर विशेष ध्यान नहीं देने से छोटे काश्तकारों को बड़ी मात्रा में भूमि से बेदखल किया गया, जिससे भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई है।
  5. आधुनिक तकनीको का प्रयोग करने की समस्या-अधिकांश भारतीय कृषकों के पास छोटी-छोटी जोतें हैं, जिन पर आधुनिक तकनीकी से कृषि कार्य करना संभव नहीं होता है। यही नहीं, भारतीय कृषकों के पास आधुनिक कृषि यंत्र, जैसे-ट्रैक्टर थ्रेशर आदि क्रय करने के लिए पर्याप्त साधन भी नहीं हैं।

निष्कर्ष :

यह कहना गलत होगा कि देश में हरित क्रांति आ गई है। हमारा देश मानूसन पर निर्भर रहने के कारण कृषि पर उत्पादन में स्थायी सुधार लाने में समर्थ नहीं है। जिस वर्ष मौसम अनुकूल रहता है उस वर्ष ‘हरित क्रांति’ आ जाती है। देश के खाद्यान्नों के उत्पादन में अवश्य वृद्धि हुई है एवं आत्मनिर्भरता की ओर भी हमने कदम बढ़ा दिया है, लेकिन अभी स्थायित्व नहीं है। 1970-71 में खाद्यान्नों का उत्पादन 10.78 करोड़ टन हुआ था, क्योंकि उस वर्ष मौसम अनुकूल था, किन्तु 1971-72 में मौसम प्रतिकूल हो जाने के कारण 20 लाख टन खाद्यान्न की कमी हो गई।

अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!