विदेशी विनिमय दर तथा अवमूल्यन | अवमूल्यन | अवमूल्यन का प्रभाव | अवमूल्यन की सीमायें | Foreign exchange rate and devaluation in Hindi | devaluation in Hindi | Effect of devaluation in Hindi | depreciation limits in Hindi
विदेशी विनिमय दर तथा अवमूल्यन
(Rate of Exchange and Devaluation) –
लोचशील या स्वतंत्र विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर में परिवर्तन विदेशी विनिमय बाजार में विदेशी विनिमय की मांग एवं पूर्ति में परिवर्तन के साथ स्वायत्त रूप से होते रहते हैं। उस स्थिति में जबकि विदेशी विनिमय दर स्वतंत्र रूप से निर्धारित हो तथा परिवर्तनीय हो तो विदेशी विनिमय दर में यह परिवर्तन भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन दूर करने के स्वतः तरीके के रूप में कार्य करता है। भुगतान सन्तुलन को असंस्थिति का समायोजन उस समय भी स्वतः रूप से हो सकता है जबकि मूल्य, ब्याज दर, आय का स्तर तथा पूँजी का प्रवाह स्वतंत्र रूप से हो। पर सामान्यया जो स्थिति पायी जाती है उसमें समायोजन स्वतः या स्वचालित नहीं होता है बल्कि सरकार या मौद्रिक अधिकारी को कुछ नीतियों तथा नियमनों के द्वारा हस्तक्षेप करना पड़ता है। इनमें मुख्य रूप से तीन हस्तक्षेपक नीतियां हैं-
(क) मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियाँ या व्यय परिवर्तक नीतियाँ (expenditure changing policy)
(ख) अवमूल्यन (Devaluation) या व्यय आपवर्तक नीतियाँ (expenditure switch- ing policy)
(ग) विनियम नियंत्रण (exchange control)
अवमूल्यन जो सरकार की एक हस्तक्षेपक नीति का भाग है तथा जिसका प्रमुख उद्देश्य भुगतान सन्तुलन की असंस्थिति को दूर करना है, की व्याख्या हम यहाँ कर रहे हैं।
अवमूल्यन (Devaluation )-
अवमूल्यन से आशय किसी देश की मुद्रा का विदेशी मुद्रा, स्वर्ण या SDR के रूप में मूल्य में कमी से है जिसे किसी सरकारी आदेश का घोषणा के द्वारा किया जाता है अर्थात् किसी देश की मुद्रा का अवमूल्यन तब कहा जायेगा जबकि एक देश अपनी मुद्रा के बदले किसी देश की पहले से कम मुद्रा स्वीकार कर ले। प्रो० पाल एजिंग के अनुसार, “देश की मुद्रा का अन्य देशों की मुद्राओं के मूल्य के साथ निर्धारित सरकारी समता में कमी करना अवमूल्यन है।” अवमूल्यन जानबूझकर नीति के अन्तर्गत किए गये सरकारी हस्तक्षेप का परिणाम है ओर यह हासीकरण (depreciation) से भिन्न है। हासीकरण करेन्सी के मूल्य में विदेशी विनिमय बाजार में विदेशी विनिमय की पूर्ति के मांग के ऊपर आधिक्य के कारण होगा, यह बाजार की शक्तियों के क्रियाशीलन का परिणाम होगा। स्पष्ट है अवमूल्यन स्थिर विनिमय दर प्रणाली में होगा, जबकि हासीकरण स्वतंत्र विनिमय प्रणाली में होगा। अवमूल्यन को एक सरल उदाहरण से समझाया जा सकता है। मान लीजिये भारत का 1 रूपया 20 सेण्ट के बराबर है। अब यदि भारतीय सरकार दोनों के बीच विनिमय दर 1 रुपया = 15 सेण्ट कर दे तो इस क्रिया को रुपये का अवमूल्यन कहा जायेगा क्योंकि जहाँ पहले 1 रुपया का मूल्य 20 सेण्ट के बराबर था, अब कम होकर 15 सेण्ट ही रह गया है। अवमूल्यन के प्रायः निम्नांकित उद्देश्य हो सकते हैं –
(1) भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करना अवमूल्यन का सबसे प्रमुख उद्देश्य होता है अवमूल्यन के फलस्वरूप अवमूल्यन करने वाले देश की मुद्रा सस्ती हो जाती है, फलस्वरूप विदेशी लोग अवमूल्यन के पहले से कम मुद्रा देकर ही अधिक वस्तुयें क्रय कर सकते हैं, अवमूल्यन करने वाले देश का निर्यात प्रोत्साहित होगा। न केवल निर्यात प्रोत्साहित होगा ‘बल्कि आयात हतोत्साहित होगा क्योंकि वस्तुयें अवमूल्यन वाले देश में महँगी हो जायेगी क्योंकि विदेशी वस्तुओं के लिए अब पहले से अधिक मूल्य देना पड़ेगा। इस प्रकार अवमूल्यन के कारण एक ओर निर्यात में वृद्धि होगी, दूसरी ओर आयात में कमी होगी। फलस्वरूप भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता में कमी आयेगी।
(2) स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण प्रदान करना तथा राशिपतन (Dumping) को रोकना भी अवमूल्यन का उद्देश्य हो सकता है। जब विदेशी वस्तुयें किसी देश के बाजार में बहुत अधिक इकट्ठा होने लगती हैं क्योंकि या तो विदेशी फर्म उत्पादन लागत से कम मूल्य पर वस्तुयें बेचने लगती है या अपने देश की वस्तुओं की तुलना में विदेशी निर्मित वस्तुयें बहुत ही कम लागत वाली हैं, इसके फलस्वरूप देश के उद्योगों को संरक्षण प्रदान करना आवश्यक हो जाता है, हम पहले देश चुकें है कि अवमूल्यन के कारण विदेशी वस्तुयें महंगी हो जाती है, इस प्रकार राशिपतन की क्रिया हतोत्साहित होती है तथा देश के उद्योगों को संरक्षण प्राप्त हो जाता है।
(3) कभी-कभी अधिमूल्यन (Overvaluation) की भी स्थिति को सुधारने के लिए। अवमूल्यन कर दिया जाता है। यदि किसी देश की मुद्रा का बाह्य मूल्य अधिक हो तो इसे ठीक करने के लिए भी अवमूल्यन का सहारा लिया जा सकता है।
अवमूल्यन का प्रभाव-
स्थिर विनियम दर प्रणाली के अन्तर्गत भुगतान सन्तुलन के घाटे के समायोजन का अवमूल्यन एक महत्वपूर्ण आम अस्त्र माना जाता है। यह भुगतान सन्तुलन के व्यापार खाते तथा चालू खाते को एक ओर तथा दूसरी ओर पूँजी खाते को भी प्रभावित करता है। ऐसा माना जाता है कि अवमूल्यन –
(क) निर्यात को प्रोत्साहित करता है तथा आयात को हतोत्साहित करता है, इस प्रकार अवमूल्यन करने वाले देश व्यापार शेष में सुधार लाता है।
(ख) अवमूल्यन करने वाले देश से एकपक्षीय हस्तान्तरण को हतोत्साहित करता है तथा देश के भीतर होने वाले एकपक्षीय हस्तान्तरंण को प्रोत्साहित करता है, इस प्रकार चालू खाते की स्थिति में सुधार लेता है।
(ग) अवमूल्यन करने वाले देश में अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी के अन्तप्रर्वाह को हतोत्साहित करता है, इस प्रकार पूँजी खाते की स्थिति में सुधार लाता है। इस प्रकार अवमूल्यन भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूल स्थिति की सुधार में मदद करता है। इस प्रकार यह एक ओर देश में आयात तथा पूंजी के वृद्धि प्रवाह को हतोत्साहित करता है तथा दूसरी ओर देश के निर्यात तथा पूंजी के अन्तर्प्रवाह को प्रोत्साहित करत है। अवमूल्यन के प्रभाव की व्याख्या मुख्यतया इससे सम्बंधित है कि अवमूल्यन किस प्रकार व्यापार शेष तथा पूंजी के प्रवाह के द्वारा पूंजी खातों के शेष का प्रभावित करता है।
स्पष्ट है कि यदि भारतीय वस्तुओं की विदेशी मांग बेलोज हो तो अवमूल्यन के बाद कीमत की गिरावट के कारण निर्यात के आकार में वृद्धि बहुत कम होगी, फलस्वरूप उसकी विदेशी विनिमय आय में वृद्धि नहीं होगी। अवमूल्यन के कारण कीमत में कमी आय अर्जन में कमी ला सकती है।
अवमूल्यन की सीमायें-
(1) अवमूल्यन की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि पूर्ति अपरमित रूप से लोचशील है अर्थात् निर्यात मांग की पूर्ति के लिए घरेलू क्षेत्र द्वारा निर्यात वस्तुओं की पूर्ति लोच तथा इसी प्रकार आयात मांग की पूर्ति के लिए विदेशी उत्पाद की पूर्ति लोच पूर्णतया लोचदार है।
(2) वस्तुओं, सेवाओं, एकतरफा हस्तान्तरण तथा अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन पूँजी के प्रवाह पर कोई रोक नहीं है।
(3) अवमूल्यन की सफलता तब होगी जबकि भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन की समस्या किसी एक देश की हो। यदि अनेक देश असन्तुलन की स्थिति में एक साथ हों तो अवमूल्यन सफल नहीं होगा क्योंकि अन्य देश प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही करेगे।
(4) अवमूल्यन की सफलता राजकोषीय, मौद्रिक तथा अन्य समष्टि नीतियों की पूरक तथा सहायक भूमिका पर निर्भर करेगी।
(5) यदि किसी देश की विदेशी ऋण की बहुत अधिक हो तो उसे अवमूल्यन का सहारा नहीं लेना चाहिए क्योंकि इस स्थिति उसका ऋणदायित्व एकाएक बहुत अधिक बढ़ जायेगा।
(6) ऐसा देश जो बहुत अधिक मात्रा में आयात पर निर्भर हो और उसके आयात बेलोच हों तो उसे अवमूल्यन का सहारा नहीं लेना चाहिए।
(7) ऐसे देश में जिसमें उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति (c), आयात की सीमान्त प्रवृत्ति (m) तथा विनियोग गुणांक (g) ऊंचा हो वहां अवमूल्यन कम प्रभावी होगा।
उल्लेखनीय यह है कि अवमूल्यन भुगतान सन्तुलन की असंस्थिति को दूर करने का स्थायी समाधान नहीं हैं, समाधान तो वास्तव में उन कारणों के निराकरण में निहित है जिनके परिणामस्वरूप इस प्रकार क असन्तुलन पैदा हुआ है। इसके लिए नीतियों के एक व्यापक पैकेज की आवश्यकता होती है अवमूल्यन इसमें से एक हो सकता है।
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