समाज शास्‍त्र

भारत में औद्योगिक समाजशास्त्र के महत्व | उद्योग तथा मानव | मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त | श्रम संघ के उद्देश्य | औद्योगिक प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी से लाभ | सामूहिक सौदेबाजी | औद्योगीकरण के आर्थिक प्रभाव

भारत में औद्योगिक समाजशास्त्र के महत्व | उद्योग तथा मानव | मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त | श्रम संघ के उद्देश्य | औद्योगिक प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी से लाभ | सामूहिक सौदेबाजी | औद्योगीकरण के आर्थिक प्रभाव | Importance of Industrial Sociology in India Industry and humans Human relations theory Objectives of labor union. Benefits of workers’ participation in industrial management. Collective Bargaining economic effects of industrialization

(1) भारत में औद्योगिक समाजशास्त्र के महत्व

(1) नवीन समस्याओं का समाधान- स्वाधीनता के बाद देश में तीव्र गति से औद्योगीकरण हुआ। पाश्चात्य देशों की भाँति भारत में भी एक स्थायी श्रमिक वर्ग का विकास होने लगा है। साथ ही श्रम तथा उद्योग से सम्बन्धित अनेक समस्याएं जन्म लेने लगी है। अतः इन समस्याओं के समाधान की दृष्टि से औद्योगिक समाजशास्त्र का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है।

(2) सामाजिक जीवन में उद्योगों का महत्व- भारत के सामाजिक जीवन में उद्योगों का स्थान महत्वपूर्ण है। औद्योगिक विकास के बिना, देश का आर्थिक विकास नहीं हो सकता। औद्योगिक समाजशास्त्र द्वारा उद्योग तथा उसके सामाजिक परिवेश के बारे में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त होती है। इस दृष्टि से इसका विशेष महत्व है।

(3) सामाजिक परिवर्तन की तीव्र गति- भारत मुख्य रूप से परम्परावादी देश है। कृषि इसके अर्थतन्त्र का मुख्य आधार है। औद्योगिक विकास के कारण परिवर्तन की गति तीव्र हो गई है। नगरीकरण का प्रकार धीरे-धीरे बढ़ रहा है। परम्परात्मकं सामाजिक जीवन के स्थान पर नई समाज व्यवस्था का उदय हो रहा है। बदली हुई परिस्थितियों के साथ समायोजन की दृष्टि से औद्योगिक समाजशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है।

(4) औद्योगिक सम्बन्ध भारत में औद्योगिक विकास के साथ-साथ अनेक समस्यायें उत्पन्न हुई हैं। हड़ताल व तालाबन्दी के फलस्वरूप औद्योगिक सम्बन्ध प्रभावित हुए हैं। अतः श्रम तथा उद्योगों के बीच समन्वय की दृष्टि से औद्योगिक समाजशास्त्र अत्यन्त उपयोगी है। औद्योगिक समाजशास्त्र के अध्ययन से श्रम समस्याओं के समाधान में मदद मिलती है।

(2) उद्योग तथा मानव

यह सम्पूर्ण विकास निरन्तरतापूर्ण तथा विकासवादी रहा है। वास्तव में अभी तक मानव को उत्पादन में एक कारक या इकाई के रूप में होते हुए गैर-मानवीय तरीकों से समझा गया तथा इसी आधार पर उत्पादन बढ़ाने के प्रयत्न किए गए थे। परन्तु श्रमिकों की मानवीय भावनाओं, संवेगों तथा मनोवृत्तियों पर बिल्कुल ध्यान ही नहीं दिया गया था। अतएव नये अनुसन्धानकर्ताओं ने अपने प्रयोगों में मानवीय सम्बन्धों के दृष्टिकोण की खोज की है। विशेष रूप से समाजशास्त्रियों, सामाजिक मनोवैज्ञानिकों तथा मानवशास्त्रियों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम रखा है।

उद्योग से ‘विवेकीकरण’ के अध्ययनों ने स्पष्ट कर दिया है कि उत्पादन प्रक्रिया में सरकारी प्रशासन जैसी नीति से काम नहीं चलता है, इसके विपरीत, इसमें व्यक्ति के भाग लेने को महत्वपूर्ण माना जाता है। उदाहरण के लिए इतिहासकारों ने, जिनका आधुनिक कारखाना व्यवस्था से सम्बन्ध रहा है, बताया है कि इस ओर अनेक बाधाएँ सामने आती हैं, निश्चितता तथा अनुशासन का भी अभाव रहा है। इस विषय में हैमण्ड्स के विचार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शायद ही कारखाना पद्धति का कोई भी दोष पूर्णतया नया दोष हो। इन सभी का पूर्वानुमान लगाया ही जा सकता था। अनेक घरेलू उद्योगों में काम करने का समय काफी लम्बा था, वेतन बहुत कम था, बालक बहुत छोटी आयु से ही कार्य करते थे और उनकी संख्या अधिक होती थी। परन्तु घर पर कार्य करने वाला श्रमिक कम-से-कम स्वयं ही अपना स्वामी तो होता था। चाहे वह अधिक समय तक कार्य करता था परन्तु वे उसके अपने घण्टे होते थे। उसके पत्नी-बच्चे भी काम करते थे, परन्तु उसके पास बैठकर ही उनके जीवन पर कोई बाहरी शक्ति दबाव डालने वाली नहीं थी। उसके भाग्य को नियन्त्रित करने वाली शक्तियों एक प्रकार से उसके दैनिक जीवन के बाहर ही थीं, उन शक्तियों का उसके घर पर कोई प्रभाव नहीं था, न उसके परिवार का, उसकी गतिविधियों तथा आदतों से सम्बन्ध था। नवीन व्यवस्था ने काम करने वाले श्रमिक की इन दशाओं को भी संकीर्णता में परिवर्तित कर दिया। औद्योगिक क्रान्ति उत्पादन प्रतियोगिता में पैदा होने वाली दशाओं का सामना करने के लिए भारी मशीनों तथा अमानवीय व्यवहारों का आश्रय लिया।

(3) मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त

राबर्ट ड्यूबिन ने हॉथॉर्न प्रयोगों पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि छोटे कार्य समूहों पर कई वर्ष तक लगातार किए गए नियन्त्रित अवलोकनों से स्पष्ट होता है कि वास्तव में उत्पादन की सामान्य वृद्धि कार्य समूह के ‘नैतिक-स्तर’ से अधिक घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है, और वह अन्य घटकों जैसे आराम के अवसर प्रातःकालीन भोजन, उच्च वेतन, प्रकाश तथा तापमान के परिवर्तन इत्यादि से कम प्रभावित होती है। यह ‘नैतिक-स्तर’ निरीक्षण के सुधारे हुए तरीके, जाँच समूह के सदस्यों की प्रतिष्ठा स्थिति, उनकी वैयक्तिक समस्याओं के प्रति अधिक ध्यान देना, उनसे मिले हुए विचारों तथा सुझावों पर ध्यान देना इत्यादि से सम्बन्धित होता है। इस बात का समर्थन करते हुए राबर्ट ओवॅन ने पहले ही यह कह दिया है कि उन्हें यह जानकारी थी कि श्रमिकों की सन्तुष्टि तथा उत्पादन प्रक्रिया में उनका पूरा सहयोग श्रमिक को एक उत्तरदायी मनुष्य के रूप में मान्यता देने पर निर्भर होता है और जब तक उसे उत्पादन प्रक्रिया में एक पहिए के दाँते के रूप में समझा जाएगा, इस उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। इसी बात की पुष्टि मार्क्स ने पूँजीवादी प्रबन्ध-व्यवस्था को लेकर की है।

जैसा कि कार्ल मार्क्स ने भी अनुभव किया है, औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादकता वृद्धि की समस्या का समाधान वास्तव में ‘मानवीय समस्या’ को वास्तविक रूप में समझ लेने से सम्बन्धित है। आपके विचार से, “श्रमिकों का सहयोग उनके अपने प्रयत्नों का परिणाम नहीं है बल्कि उन पर किसी ‘बाह्य शक्ति’ का परिणाम है।” वास्तविकता यह है कि प्रबन्धन ही हम स्थिति में होते है जो इस बाह्य शक्ति के माध्यम से श्रमिकों के मध्य सहयोग प्राप्त करने के लिए आकर्षण दशाओं को उपलब्ध कर सकते हैं। इस नवीन विचारधारा में ‘मनुष्यों’ की तथा उनसे व्यवहार करने की क्षमताओं की जानकारी की आवश्यकता होती है जो कि न तो औद्योगिक इन्जीनियरों में पायी जाती है न ही यह औपचारिक संगठनों से सम्बन्धित संगठन में होती है। यह धारणा ‘अभियोजन के द्वारा विचारधारा में ‘मनुष्यों की तथा उनसे व्यवहार करने की क्षमताओं की जानकारी की आवश्यकता होती है जो कि न तो औद्योगिक इन्जीनियरों में पायी जाती है न ही यह औपचारिक संगठनों से सम्बन्धित संगठन में होती है। यह धारणा अभियोजन के द्वारा प्रेरणा पर अधिक बल देती है न कि आदेशों और मौद्रिक पुरस्कारों पर। इसके पीछे यह विचार उपस्थित है, जैसा कि स्पाल्डिंग (Spaulding) ने बताया है कि, ” व्यक्ति की किसी संगठन में, उसकी आवश्यकताओं के साथ समन्वित करके या मिलाकर ही, सम्मिलित किया जा सकता है।”

(4) श्रम संघ के उद्देश्य

श्रमिक संगठनों को समय-समय पर विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों एवं विचारकों ने प्रभावित किया है। अतः श्रमिक संघों की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) श्रमिकों में पारस्परिक भाईचारे एवं सहयोग की भावना का विकास करके उनको संगठित करना।

(2) श्रमिकों के कार्य एवं मजदूरी से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार करना और उन्हें वैधानिक रूप से दूर करना।

(3) श्रमिक एवं मालिकों के बीच सहयोग की भावना उत्पन्न करना।

(4) श्रमिक संघ अपने सदस्यों के बीमारी अथवा अन्य कठिनाइयों हेतु कोष रखने का कार्य भी करते हैं।

(5) सामाजिक सुरक्षा योजनाओं उदाहरणार्थ रोग बीमा, प्रोवीडेन्ट फण्ड, सहकारी साख आदि को प्राप्त करने में मदद करना।

(6) हड़ताल की घोषणा, संगठन और उसे चलाने तथा मालिकों आदि से समझौता वार्ता करना एवं शान्तिपूर्ण झगड़ों का निबटाना।

(7) सदस्यों की आवश्यकता पड़ने पर कानूनी मदद करना।

(8) सदस्यों की सामाजिक, आर्थिक एवं शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करना।

यह आवश्यक नहीं है कि श्रमिक संघों को उपर्युक्त उद्देश्यों के अन्तर्गत ही चलना पड़ता है। श्रमिक संघ के विकास एवं उनके उद्देश्यों को देश के औद्योगिक विकास तथा देश की सामाजिक और राजनैतिक दशाएं भी प्रभावित करती है।

औद्योगिक प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी से लाभ

औद्योगिक प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी से अनेक लाभ हैं। इनमें प्रमुख निम्न प्रकार हैं-

(1) आपसी सद्भाव- प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता से अच्छे मनोवैज्ञानिक वातावरण का विकास होता है। श्रमिक तथा मालिक एक दूसरे के निकट आ जाते हैं और औद्योगिक सम्बन्धों में सुधार होता है।

(2) औद्योगिक तनाव में कमी – इस योजना द्वारा श्रमिक उद्योग के प्रति अपने दायित्व को अनुभव करते हैं। हड़ताल की अपेक्षा वे उत्पादन की वृद्धि को अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं। फलस्वरूप औद्योगिक तनावों में कमी होती है।

(3) औद्योगिक प्रजातन्त्र की स्थापना- इस योजना द्वारा उद्योगों के प्रबन्ध और प्रशासन में मालिकों का एकाधिकार नहीं रहता। प्रबन्ध में श्रमिकों का भी समान योग रहता है। अतः यह योजना औद्योगिक प्रजातन्त्र की स्थापना में सहायक है।

(4) उत्पादन और अनुशासन में वृद्धि यह योजना प्रबन्ध तथा लाभांश में श्रमिकों को हिस्सा देती है, अतः उद्योग के अनुशासन और उत्पादन में वृद्धि होती है।

(5) सामूहिक सौदेबाजी

परिभाषा – डेल योडर के अनुसार, ” सामूहिक सौदेबाजी आवश्यक रूप से वह क्रिया है जिसमें श्रमिक एक समूह के रूप में अपने रोजगार की दशाओं तथा सम्बन्धों को निर्धारित करने की कोशिश करते हैं।” क्रोन टी. डनलप के अनुसार, सामूहिक सौदेबाजी –

(1) एक पद्धति है जो श्रमिकों के काम के स्थान को शासित करने वाले बहुत से नियमों को स्थापित, संशोधित एवं प्रशासित करती है;

(2) एक विधि है जो कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले हर्जाने की मात्रा निश्चित करती है तथा आर्थिक बुराइयों के वितरण को प्रभावित करती है;

(3) एक ढंग है जिसके द्वारा किसी समझौते के दौरान विवादों का हल निकाला जाता है और उसकी समाप्ति पर यह तय किया जाता है कि क्या विवाद की शुरूआत फिर की जानी चाहिए अथवा कोई हड़ताल या तालाबन्दी होनी चाहिए या नहीं।

सिद्धान्त

चैम्बरलेन ने सामूहिक सौदेबाजी के कुछ सिद्धान्तों को स्पष्ट किया है। ये सिद्धान्त स्पष्ट करते हैं कि सामूहिक सौदेबाजी-

(1) श्रम का समझौते के तहत एक साधन के रूप में विक्रय

(2) औद्योगिक सरकार का एक प्रकार

(3) प्रबन्ध की एक पद्धति है।

इनके आधार पर सामूहिक सौदेबाजी के तीन सिद्धान्त हैं-

(1) बाजार सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह स्पष्ट होता है कि श्रमिक सामूहिक समझौते के द्वारा कार्य किस प्रकार करेंगे। इसमें श्रम संघों के द्वारा श्रमिक और नियोक्ता के मध्य यह तय किया जाता है कि वह अपना श्रम किस प्रकार बेचेंगे। इसमें श्रम संघ एक एजेन्ट के रूप में कार्य करता है।

(2) सरकारी सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सामूहिक सौदेबाजी से सम्बन्धित सरकार तथा श्रम संघों के मध्य लिखित समझौता किया जाता है। इसमें काम की शर्ते, काम की सुविधा तथा श्रम मजदूरी से संबंधित बातें तय की जाती हैं।

(3) प्रबन्धकीय सिद्धान्त- इसके अन्तर्गत सरकार के उद्देश्यों के अनुरूप प्रबन्ध तथा श्रमिकों के मध्य श्रम संघों की उपस्थिति में यह तय किया जाता है कि प्रबन्ध की पद्धति क्या होगी. तथा व्यावसायिक निर्णय लेने की प्रक्रिया क्या होगी। इसमें प्रायः प्रबन्धक की भूमिका श्रम संघों द्वारा निभाई जाती है प्रबन्ध में श्रम संघों के भी सदस्य लिये जाते हैं।

(6) औद्योगीकरण के आर्थिक प्रभाव

औद्योगीकरण के आर्थिक प्रभाव निम्न प्रकार स्पष्ट किये जा सकते हैं-

(1) पूँजीवाद का विकास- औद्योगीकरण ने पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया है। बड़े- बड़े कारखानों को चलाने के लिये अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। पूँजीपति ही कारखानों में अधिक धन लगाने में समर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि औद्योगीकरण के कारण उत्पादन के साधनों पर धनी वर्ग का अधिकार हो गया है।

(2) श्रम-विभाजन और विशेषीकरण- औद्योगीकरण के पूर्व श्रम-विभाजन का कोई प्रश्न न था। औद्योगीकरण ने श्रम-विभाजन आवश्यक बना दिया है। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना ने श्रम-विभाजन और विशेषीकरण को आवश्यक बना दिया है।

(3) कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन- औद्योगीकरण के कारण बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। देश में बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना हुई। कारखाने में बनी हुई वस्तुएँ सस्ती और अच्छी होती हैं। अतः कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन होने लगा। कुटीर उद्योग-धन्धों में बना सामान मशीनों के द्वारा बने सामान के आगे न ठहर सका। इसी कारण कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन हो गया।

(4) नवीन वर्ग व्यवस्था का विकास- पूँजीवादी व्यवस्था के साथ-साथ एक नवीन वर्ग का जन्म हुआ। इसे श्रमिक वर्ग कहते हैं। अब समाज में तीन प्रकार के वर्ग पाये जाते हैं – (i) पूँजापति, (ii) श्रमिक वर्ग, तथा (iii) मध्यम वर्ग पूंजीपति श्रमिक वर्ग का शोषण करते हैं।

(5) निर्धनता- औद्योगीकरण के फलस्वरूप निर्धनता में वृद्धि हुई। पूँजीपतियों के शोषण के कारण श्रमिक निर्धनता के शिकार हो रहे हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में धन का असमान वितरण होता है। धन का एक बड़ा भाग पूँजीपति हड़प जाते हैं। इस प्रकार निर्धन और अधिक निर्धन हो जाते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने निर्धनता में वृद्धि की है।

(6) बेरोजगारी औद्योगीकरण ने बेरोजगारी में वृद्धि की हैं। बेरोजगारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण औद्योगीकरण है। जैसे-जैसे कारखानों की स्थापना हो रही है, बेरोजगारी भी बढ़ रही है।

(7) यातायात का प्रदूषण जैसे-जैसे कारखानों की स्थापना हो रही है, वातावरण का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। यह प्रदूषण अनेक रोगों को जन्म देता है। श्रमिक रोगों के शिकार हो जाते है। वातावरण का प्रदूषण श्रमिकों को रोगी बनाए रखता है।

(8) दुर्घटनाएँ- कारखानों में काम करते समय श्रमिक प्रायः दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं। उनका अंग-भंग हो जाता है। दुर्घटनाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

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Pankaja Singh

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