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श्रमिक संघवाद की समस्यायें | भारत मे श्रमिक संघवाद की समस्याओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए

श्रमिक संघवाद की समस्यायें | भारत मे श्रमिक संघवाद की समस्याओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए | Problems of labor unionism in Hindi | Briefly throw light on the problems of trade unionism in India in Hindi

श्रमिक संघवाद की समस्यायें

(Problems of Trade Unionism)

वर्तमान समय में श्रमिक वर्ग को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाने लगा। बढ़ती हुई औद्योगीकरण की स्थिति में श्रमिक संघों का महत्व भी धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। आज प्रत्येक उद्योग में कार्य करने वाले श्रमिक किसी न किसी संघ के रूप में संगठित अवश्य हैं। श्रमिक संघों ने श्रमिकों की आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के अनेक महत्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में ले लिये हैं परन्तु फिर भी भारतीय श्रमिक संघ पाश्चात्य देशों के श्रमिक संघों की तुलना में अभी भी बहुत पीछे है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत से श्रमिक संघ आन्दोलन अभी भी पर्याप्त शक्तिशाली नहीं है। श्री वी. वी.गिरि के विचार में भारत में श्रमिक संघ अभी प्रारम्भिक अवस्था में हैं। भारत के विभिन्न उद्योगों में उस समय एक करोड़ से अधिक श्रमिक कार्य करते हैं, परन्तु सदस्यों की संख्या अभी भी लगभग 30 लाख है, यह संख्या प्रमाणित करती है कि श्रमिक संघ का विकास अभी अपूर्ण है। भारत में श्रमिक संघवाद के विकास में निम्नलिखित कारक बाधक हैं-

(1) प्रवासी प्रवृत्ति (Migratory Character) – श्रमिकों की प्रवासी प्रवृत्ति भारतीय श्रमिक संघों के विकास की प्रमुख बाधा है। भारत के श्रमिक अधिकांश रूप से ग्रामीण हैं अतः वह सदा गाँवों से अपना सम्बन्ध बनायें रखते हैं, और वह औद्योगिक कार्य की अपेक्षा कृषि को अधिक महत्व देते हैं। वह सदा, अपने गाँवों को वापस जाने का विचार करते रहते हैं। इसी कारण से प्रवासी श्रमिक नगरों में संगठित श्रमिक संघों के क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से भाग नहीं ले पाते। इसके अतिरिक्त उनका यह भी विचार है कि यदि वे स्थायी रूप से श्रमिक संघों के सदस्य बन जायेंगे तो वे आसानी से अपने गाँव नहीं जा पायेंगे। तालाबन्दी या हड़ताल होते ही वे अपने गाँव चले जाते है और श्रमिक संघों द्वारा उठाये गये कदमों के क्रियाकलापों में भाग नहीं लेते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण भी स्वस्थ संघ में रुकावट उत्पन्न हो जाती है।

(2) कमजोर आर्थिक स्थिति (Weak Economic Position) – विकास के लिये दूसरा कारक जो बाधा उत्पन्न करता है, वह यह है कि भारत के श्रमिकों की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। अतः संघों का चन्दा या अन्य आर्थिक सहायता श्रमिकों के लिये कठिन हो जाता है। इस कारण श्रमिक संघों की भी आर्थिक हालत कमजोर हो जाती है जो इसके विकास में बाधा पैदा करती है।

(3) मालिकों का दृष्टिकोण (Attitude of Employers) – मालिकों का दृष्टिकोण भी श्रमिक संघों की एक महत्वपूर्ण कठिनाई है। भारत में मालिक श्रमिक संघों के प्रति तटस्थ रहते हैं या ईर्ष्यात्मक। वास्तव में वह श्रमिक संघों के कार्यों को अपनी आर्थिक शक्ति को चुनौती समझते हैं। अतः वह श्रमिक संघों को विकास के स्थान पर फूट डालने का प्रयास करते हैं। कभी-कभी यह मालिक अनेक प्रकार के प्रलोभनों इत्यादि से श्रमिक संघों के पदाधिकारियों को अपने पक्ष में भी कर लेते हैं। अतः यह पदाधिकारी श्रमिकों के हित के स्थान पर मालिकों का हित देखने लगते हैं।

(4) धर्म, भाषा तथा जाति की भिन्नता (Difference In Religion) – भारत में अनेक धर्म, भाषा और जाति के श्रमिक पाये जाते हैं, इन भिन्नताओं के कारण भी श्रमिक संघों के विकास में बाधा पड़ती है।

(5) निम्न जीवन-स्तर (Low Standard of Living)- श्रमिक का निम्न जीवन स्तर भी श्रमिक संघों के विकास की बाधा है। एक ओर श्रमिक के काम घण्टे अधिक हैं और दूसरी ओर उनका जीवन-स्तर निम्न है, अतः कमजोर स्वास्थ्य और व्यस्त जीवन के कारण उन्हें श्रमिक संघों में भाग लेने का अवसर ही नहीं मिलता।

(6) बेरोजगारी (Unemployment) – भारत में बेरोजगारी की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। रोजगार ढूँढ़ना यहाँ बहुत ही मुश्किल है यदि रोजगार मिल जाता है तो कोई भी व्यक्ति उसे छोड़ना नहीं चाहता। इसके अतिरिक्त श्रमिकों की यह सामान्य धारणा है कि श्रम-संघों में अधिक भाग लेने से उनकी नौकरी का खतरा है और उनको नौकरी से निकाले जाने का भय बना रहता है। यही कारण है कि श्रमिक संघों के प्रति श्रमिकों का यह उदासीन दृष्टिकोण संघों के विकास में बाधक है।

(7) अशिक्षा (Illiteracy)- भारतीय उद्योगों में कार्य करने वाले अधिकांश श्रमिक आज भी अशिक्षित हैं। अतः वह संगठन के महत्व को नहीं समझ पाते। अशिक्षा के कारण वह अपन आपको हीन समझने लगते हैं और इसी कारण वह मालिक के त्रुटिपूर्ण कार्यों का विरोध भी नहीं करते। इस प्रकार अशिक्षा श्रमिक संघों के विकास में एक मोटी दीवार है।

(8) कम सदस्यता (Low Membership)- भारत के खानों में 50 प्रतिशत, कारखानों में 40 प्रतिशत और बागानों में 20 प्रतिशत श्रमिक ही संघों के सदस्य हैं। सदस्यता की न्यूनता के कारण श्रमिक संघों के सम्मुख सदा अर्थाभाव बना रहता है। यही नहीं एक ही उद्योग में अनेक संघ पाये जाते हैं, जिससे सामूहिक शक्ति का ह्रास होता है। इसी कारण भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि ने कहा था कि उद्योग में केवल एक ही श्रमिक संघ होना चाहिए।

(9) राजनीतिक नेताओं का प्रभुत्व (Domination of Politicians)- भारतीय श्रमिक संघों का नेतृत्व भी दोषपूर्ण है। संघों का नेतृत्व स्वयं श्रमिक वर्ग के हाथ में न होकर राजनीतिक दलों के हाथ में होता है और यही दल श्रमिक संघों के कार्यों का संचालन करते हैं। अतः यह दल श्रमिकों के हितों का विशेष ध्यान नहीं रखते वरन् राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति मात्र करते हैं। परन्तु श्रमिक संघों के विकास के लिए आवश्यक है कि नेतृत्व बाह्य व्यक्तियों द्वारा न होकर श्रमिक वर्ग द्वारा ही हो।

(10) सदस्यों में एकता की कमी (Lack of Union) – भिन्न-भिन्न जाति, धर्म, और भाषाओं के कारण श्रमिकों में एकता की कमी जो श्रमिक संघ में है आन्दोलन के विकास के लिए घातक है।

(11) श्रम के अधिक घंटे (More Periods of Works)- कार्य के घण्टे आज भी इतने अधिक हैं कि श्रमिक संघ के कार्यों पर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता। छुट्टी मिलते ही श्रमिक सीधे अपने निवास की ओर भागता है।

(12) अच्छे नेतृत्व की कमी (Lack of Good Leadership)- भारतीय श्रमिकों की आर्थिक दशा खराब है,  अतः उनके नेता कभी-कभी अर्थ के लालच में मालिकों से मिल जाते हैं और कभी-कभी निर्धनता के कारण वह बेकार में ही मालिकों का विरोध करने लगते हैं इस प्रकार नेता या तो मालिकों के ही हित में सोचते हैं या श्रमिकों के दोनों ही स्थितियों में उनके विचार पक्षपातपूर्ण रहते हैं। परन्तु संघों के विकास के लिए नेता को निष्पक्ष होना आवश्यक है।

सुझाव (Suggestions)-

श्रमिक संघों के उपर्युक्त दोषों के कारणों का यदि विश्लेषण किया जाय तो ज्ञात होता है कि इन सबके मूल में श्रमिकों की अशिक्षा के कारण श्रमिक संघों का स्वस्थ विकास नहीं हो रहा है। श्री एस. डी. पुनेकर (S.D. Punekar) के शब्दों में-

“The most vulnerable point appears to be illiteracy and hence the most effective weapon may be the trade union education whereby the actual workers in the trade can be trained in the organisation and administration of trade unions, such an education may bring up the leadership from among the workers, who can lead the trade union movement on right lines.” – S.P. Punekar.

इस प्रकार शिक्षा का होना श्रमिकों की सर्वप्रथम अनिवार्यता है। इसके अभाव में श्रमिक अपने संघों से होने वाले लाभों का मूल्यांकन नहीं कर पाते और तटस्थ रहते हैं।

श्रमिक संघों में सभी कर्मचारी अवैतनिक होते हैं अतः यह आवश्यक है कि कुछ कर्मचारी वैतनिक भी होने चाहिए जो श्रमिक संघों के कार्यों को पूरा करते रहें।

इसके अतिरिक्त, यह भी आवश्यक है कि श्रमिक संघों के नेतृत्व का विकास स्वयं श्रमिकों के बीच से होना चाहिये। श्रमिक संघ इस समय उन बाह्य व्यक्तियों के नेतृत्व में कार्य करते हैं जो कि स्वयं कभी श्रमिक नहीं रहे हैं। फलस्वरूप इस प्रकार का नेतृत्व श्रमिकों की वास्तविक समस्यओं को ठीक प्रकार से नहीं समझ पाता। इससे श्रमिकों की हानि होती है। उनका राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए शोषण होता है। अतः राजनीतिक दलों का श्रमिक संघों से पृथक् रहना आवश्यक है।

उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त श्रमिक संघों को अपने कार्यक्षेत्र के विस्तार की ओर ध्यान देना आवश्यक है। उन्हें केवल अपने परम्परा कार्यों को ही नहीं करना है बल्कि इन्हें श्रमिकों की अशिक्षा, निर्धनता, ऋणग्रस्तता, रोजगार आदि से संबंधित कल्याण कार्यों को भी सम्पन्न करना चाहिये। श्रमिक संघों को राष्ट्रीय विकास में योगदान के महत्व को भी भली प्रकार समझना चाहिए। साथ ही श्रमिक संघों के विकास के लिए जनता का भी विश्वास प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि जनता का सहयोग मिलने पर श्रमिक संघों की शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती हैं। यदि कोई श्रमिक संघ जनता का विश्वास और सहयोग प्राप्त कर ले तो उसको उद्योगपतियों से अपनी मांगे पूरी कर लेना कठिन काम नहीं रह जाता है।

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Pankaja Singh

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