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औद्योगिक लोकतन्त्र एवं भारत में प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी | प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी का अर्थ | औद्योगिक लोकतन्त्र में श्रमिक सहभागिता | प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी की विशेषताएँ | प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के उद्देश्य

औद्योगिक लोकतन्त्र एवं भारत में प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी | प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी का अर्थ | औद्योगिक लोकतन्त्र में श्रमिक सहभागिता | प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी की विशेषताएँ | प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के उद्देश्य | Industrial democracy and workers’ participation in management in India in Hindi | Meaning of worker participation in management in Hindi | Labor participation in industrial democracy in Hindi | Features of worker participation in management. Objectives of workers’ participation in management in Hindi

औद्योगिक लोकतन्त्र एवं भारत में प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी

हमारी औद्योगिक सभ्यता दीर्घकाल से वर्ग-संघर्ष का शिकार रही है और आज वर्ग-संघर्ष के सघन मार्ग को त्याग कर प्रबन्ध कार्यक्रमों में कर्मचारी अथवा श्रमभागिता के लक्ष्य की ओर शनैः शनैः अग्रसर हो रही है। औद्योगिक जगत् में मानव सम्बन्ध का महत्त्व निरन्तर बढ़ रहा है, सहयोग क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है और यह अनुभव किया जाने लगा है कि उद्योगों के निर्देशन तथा नियन्त्रण, परम्परागत प्रबन्ध दर्शन वर्तमान परिस्थितियों में अपर्याप्त हैं और आवश्यकता इस बात की है कि उद्योगों के प्रबन्ध या प्रशासन में कर्मचारियों श्रमिकों को सहभागी बनाया जाए अर्थात् आज प्रबन्ध के इस रूप में विश्वास बढ़ता जा रहा है जिसमें कर्मचारियों अथवा श्रमिकों के महत्व को स्वीकारते हुए उद्योग के प्रशासन या प्रबन्ध में उन्हें भागीदार बनाया जाए, उनका हार्दिक सहयोग प्राप्त किया जाए। एल0 प्रसाद ने लिखा है- “आर्थिक लाभों में भागीदारी की भाँति अधिकार-सत्ता और दायित्वों की भागीदारी अनुपम प्रेरणा घटक का कार्य करता है।” वर्तमान जटिल औद्योगिक ढाँचें में प्रबन्ध समितियों, सुझाव व्यवस्थाओं आदि के माध्यम से कर्मचारियों और श्रमिकों का सहयोग प्राप्त करने तथा औद्योगिक प्रजातन्त्र लाने का प्रयास किया जा रहा है। औद्योगिक प्रजातन्त्र की स्थापना की दिशा में प्रबन्ध या प्रशासन में कर्मचारी भागिता की व्यवस्था को विश्व के कई प्रमुख देशों में जाँचा परखाज्ञगया और यह व्यवस्था निरन्तर अपनी सफलता सिद्ध कर रही है। विश्व के अनेक राष्ट्रों में इस व्यवस्था को विभिन्न अर्थों और रूपों में प्रयुक्त किया जा रहा है। अमेरिका में संघ-प्रबन्ध सहयोग इंग्लैण्ड में तथा स्वीडन में ‘संयुक्त परामर्श’, पश्चिमी जर्मनी में ‘सह-निर्धारण’ या ‘स्वतः प्रबन्ध’ यूगोस्लोविया में ‘कर्मचारी प्रबन्ध’ भारत में ‘प्रबन्ध में कर्मचारी भागिता’ आदि नामों एवं रूपों में उद्योगों के कार्य संचालन पर ‘श्रमिकों के नियन्त्रण तथा उद्योगों की सहभागिता को उपलब्ध कराया जा रहा है।

सिडनी वेव एवं बेटरिस वेब ने औद्योगिक लोकतंत्र को श्रम संघों की गतिविधियों के संबंध में स्पष्ट किया है।

प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी का अर्थ

(Meaning of Worker’s Participation in Management)

बजाज एवं पोरवाल के अनुसार, “प्रबन्ध में कर्मचारी भागिता की विचारधारा को सम्बद्ध पक्षकारों ने विभिन्न अर्थों में ग्रहण किया है। ‘प्रबन्ध’ ने इसे निर्णय करने से पूर्व कर्मचारियों से परामर्श करने की व्यवस्था माना है जबकि श्रमिकों ने इसे सह-निर्धारण अथवा सह-निर्णयन की व्यवस्था कहा है। सरकार इसे श्रमिक समुदाय के जीवन में सामाजिक आर्थिक क्रान्ति लाने की प्रक्रिया मानती है। विभिन्न अर्थों वाली यह स्थिति निःसन्देह दुर्भाग्यपूर्ण है। इसे अविलम्ब समाप्त किया जाना चाहिए।

वी.जी. मेहत्राज के अनुसार, “उद्योग के सन्दर्भ में, कर्मचारी सहभागिता से आशय किसी औद्योगिक संगठन के कर्मचारियों द्वारा अपने उपयुक्त प्रतिनिधि के जरिए प्रबन्ध के विभिन्न स्तरों पर सम्पूर्ण प्रबन्ध क्षेत्र के क्रिया-कलापों में निर्णय करने के अधिकार में हिस्सा लेना है।”

डॉ. बी.आर. सेठ के अनुसार, “प्रबन्ध में वास्तविक कर्मचारी भागिता श्रम एवं पूंजी के बीच सामाजिक सहयोग स्थापित करने की एक विधि है। यह संस्था में क्या हो रहा है?” दृष्टिकोण से कर्मचारियों एवं प्रबन्ध के बीच संयुक्त परामर्श मात्र नहीं है। यद्यपि संयुक्त परामर्श स्वयं में कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु इसे प्रबन्ध में वास्तविक भागिता नहीं माना जा सकता।”

एन.पी. धूसिया के अनुसार, “प्रबन्ध में कर्मचारी भागिता से आशय प्रबन्ध एवं कर्मचारियों द्वारा बराबर के साझेदारों की भांति प्रबन्ध संचालन से है।

डी.सी. मोहेन्ती ने लिखा है, “वह साहचर्य अथवा परामर्श से भिन्न है। इसका मुख्य तत्त्व यह है कि उद्योग में विभिन्न स्तरों पर लिए जाने वाले निर्णयों की प्रक्रिया में कर्मचारियों को भागिता मिले। यह किसी विशेष क्षेत्र तक सीमित होने वाली व्यवस्था नहीं है, अपितु इसका कवरेज ऊपर से लगाकर नीचे तक है।”

पीटर एफ. ड्रकर ने लिखा है कि प्रबन्ध में कर्मचारी भागिता एक प्रबन्धकीय प्रवृत्ति है जो परम्परागत प्रबन्ध दर्शन की इस मौलिक मान्यता को चुनौती देती है कि ही निर्णय केवल प्रबन्धक ही ले सकते हैं और कर्मचारियों का कार्य आदेशों की पालन मात्र है।

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रबन्ध में कर्मचारी मागिता से आशय कर्मचारियों से परामर्श करने अथवा उनको प्रबन्धकों के साथ सहयोग देने मात्र से नहीं है और न ही ऐसा अर्थ लिया जाना चाहिए।

हम इस वास्तविकता को नकार नहीं सकते हैं कि उद्योग अथवा संगठन के समूचे अस्तित्व को प्रभावित करने वाले प्रत्येक निर्णय में जब तक कि कर्मचारी प्रतिनिधि सक्रिय भाग नहीं लेंगे तब तक उस संगठन की प्रबन्ध व्यवस्था को कर्मचारी भागीदारी से परिपूर्ण ही कहा जा सकता।

औद्योगिक लोकतन्त्र में श्रमिक सहभागिता

(Workers Participation in Industrial Democracy)

भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं में समाजवादी की स्थापना का उद्देश्य रखा है और ऐसे समाज की स्थापना से पहले हमें औद्योगिक प्रजातन्त्र करनी होगी जिसका कि एक अत्यावश्यक अंग उद्योग के प्रबन्ध में कर्मचारी सहभागिता है। औद्योगिक प्रजातन्त्र के घनिष्ठ सम्बन्ध का आभास होगा-

(1) औद्योगिक प्रजातन्त्र में श्रमिकों को उद्योग के लाभ, उत्पादन, बाजार और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा समबन्धी तथ्यों को जानने का अधिकार होना चाहिए।

(2) औद्योगिक प्रजातन्त्र की दूसरी आवश्यकता श्रमिकों को प्रबन्ध में हिस्सा दिया जाना चाहिए है तथा बढ़े हुए उत्पादन में से जनता को लाभ मिलना चाहिए।

(3) श्रमिकों को संगठन करने, बोलने, मतदान करने आदि का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

(4) श्रमिकों अपने संघ बनाने तथा उन्हें चलाने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

आधुनिक समय में प्रबन्धकों द्वारा श्रमिकों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा है। प्राचीन समय में श्रम को एक व्यापारिक वस्तु की भाँति समझा जाता था और उद्योग में उसे कोई खास महत्त्व नहीं दिया जाता था, लेकिन आधुनिक समय में विशाल उद्योगों के कारण श्रम का महत्व अब पर्याप्त बढ़ गया है तब उद्योगों में प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए श्रमिक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है तथा बिना श्रमिक सहयोग के उद्योग की समृद्धि को असम्भव समझा जाने लगा है। श्रमिक को प्रबन्ध में भागीदारी देकर उसका पूर्ण सहयोग प्राप्त करने तथा मधुर सम्बन्ध बनाए रखने में भी सहायता मिली है। प्रबन्ध के महत्त्व के साथ-साथ एक औद्योगिक प्रजातन्त्र में उपभोक्ता की आवश्यकताएं, मालिक, समाज तथा सरकार आदि तत्त्वों को भी महत्त्व दिया जाना चाहिए। लोक उद्योगों में जनता की विशाल धनराशि का विनियोजन होता है और लोक-उद्योगों की तरह जनहित से जुड़े हैं, अतः उनके सन्दर्भ में औद्योगिक प्रजातन्त्र तथा प्रशासन एवं प्रबन्ध में कर्मचारी भागिता का महत्व स्वत; बढ़ जाता है।

प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी की विशेषताएँ

(1) इस व्यवस्था में मानवीय तत्त्व के प्रति सम्मान की भावना अन्तर्निहित है।

(2) इस व्यवस्था से श्रमिकों में आत्मसन्तोष और मनोबल उत्पन्न होता है तथा वे अपने संस्थान के प्रति अधिक निष्ठाभाव से काम करते हैं।

(3) यह व्यवस्था प्रबन्धकों एवं श्रमिकों में भावनात्मक सम्बन्धों का उदय और विकास करती है।.

(4) इस व्यवस्था से प्रतिष्ठान के श्रमिकों में स्व-उत्तरदायित्व की भावना विकसित होती है। तथा निर्णय की उर्वरक एवं प्रेरक शक्ति का संवर्द्धन होता है।

(5) वह व्यवस्था श्रमिकों को इस बात के लिए अभिप्रेरित करती है कि वे प्रबन्धकों के विश्वास का प्रतिदान अधिक कार्य करके दें तथा रचनात्मक कार्य के लिए आगे आएँ।

(6) यह व्यवस्था श्रमिकों में सहयोग की प्रवृत्ति का विकास करती हैं। वे प्रतिष्ठान से सम्बन्धित नीतियों और नियमों का स्वेच्छा से अनुपालन करते हैं।

(7) इस व्यवस्था से औद्योगिक प्रजातन्त्र की स्थापना होती है क्योंकि प्रजातान्त्रिक आदर्शों और मूल्यों का संवर्द्धन होता है।

प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के उद्देश्य

औद्योगिक प्रतिष्ठानों के प्रबन्ध में श्रमिकों की हिस्सेदारी से श्रमिक और प्रबन्धक एक-दूसरे के निकट आते हैं और उनमें पारस्परिक एकता तथा विश्वास उत्पन्न होता है, जिससे निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त होने में सहयोग मिलता है-

(1) इससे उत्पादकता वृद्धि को प्रोत्साहन मिलता है। फलतः उद्योग, श्रमिक और समाज सभी को लाभ होता है।

(2) श्रमिकों का इससे अच्छा मनोबल बढ़ता है कि उनका उद्योग और उत्पादन में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(3) श्रमिकों की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयत्न होता है जिससे औद्योगिक शान्ति, अच्छे सम्बन्ध और सहयोग में समुचित वृद्धि होती है।

इस प्रकार श्रमिकों और प्रबन्धकों में सहयोग होने से उत्पादन में वृद्धि होती है तथा दूसरी ओर उद्योग में मानवीय साधन के रूप में श्रम का महत्त्व बढ़ता है। अतः एक समाजवादी अर्थ- व्यवस्था में नियोजित अर्थव्यवस्था के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु श्रमिकों और प्रबन्धको में सहयोग होना परम आवश्यक है।

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का निरन्तर विस्तार हो रहा है और सरकार की नीति राष्ट्रीय महत्व के लोक उद्योगों की स्थापना करने की है। देश में लोक उद्यमों के प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी के महत्त्व को भारत सरकार ने बहुत पहले ही जान लिया था। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में ही प्रबन्ध में श्रमिक भागीदारी’ व्यवस्था के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्यों की चर्चा की गई थी-

(1) उद्योग अथवा प्रतिष्ठान स्तर पर श्रम तथा प्रबन्ध के मध्य सहयोग का विस्तार करना जिससे कि समाज, कर्मचारी वर्ग और उद्योग के सामान्य लाभों में वृद्धि करने हेतु उत्पादकता बढ़ाई जा सके।

(2) उद्योग के संचालन और निर्माणी विधियों में श्रमिकों को उनकी भूमिका समझाना।

(3) श्रमिकों की आत्माभिव्यक्ति की इच्छा को सन्तुष्ट करना ताकि औद्योगिक शान्ति बनी रह सके।

वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि यदि उसके विषय में विचार करके कोई निर्णय लिया जाए तो उससे स्वयं में अवश्य परामर्श किया जाना चाहिए। श्रमिक किसी भी औद्योगिक संस्थान के चाहे वह निजी क्षेत्र का हो या सार्वजनिक क्षेत्र का, अनिवार्य अंग है और उद्योग के कार्यकलापों में उनकी भागीदारी का प्रश्न मुख्यतः तीन बातों से जुड़ा रहता है-

(1) स्वयं के द्वारा पूरा किया जाने वाला उत्तरदात्वि

(2) उनको मिलने वाला पारिश्रमिक, विकास और कल्याण तथा उनके साथ होने वाला व्यवहार।

(3) प्रबन्धकीय निर्णय तथा उद्योग की नीति का निर्धारण उद्योग में श्रमिक भागीदारी व्यवस्था अपनाए जाने से उपरोक्त तीनों बातों के सम्बन्ध में श्रमिकों में कमतरता से ‘आत्मतुष्टि’ होती है।

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने उद्योग स्तर पर परामर्श एवं सहयोग हेतु श्रम हिस्सेदारी पर विचार फलतः श्रमिकों से परामर्श और सहयोग प्राप्त करने हेतु कई समितियों और परिषदों की स्थापना की गई है जैसे-संयुक्त उत्पादन समितियाँ, श्रम मालिक समितियाँ, कार्य परिषदें, प्रबन्ध समितियाँ आदि। इसके अतिरिक्त उद्योग के प्रबन्ध मण्डल में श्रमिकों को प्रतिनिधित्व दिया जाने लगा।

श्रमिकों और प्रबन्धकों में सहयोग उत्पन्न करने के लिए दोनों पक्षों को एक-दूसरे पर विश्वास होना चाहिए। एक-दूसरे के अधिकारों एवं उत्तरदायित्नों को भी मान्यता दी जानी चाहिए।

भारत में स्टील उद्योग में प्रबन्ध अथवा प्रशासन में कर्मचारियों की हिस्सेदारी अथवा सहभागिता’ की स्थिति तथा उसके भावी स्वरूप के निर्धारण के लिए गठित एक अध्ययम दल ने प्रबन्ध के कर्मचारी भागिता के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य बतलाए हैं जिन्हें निजी अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के सभी उद्योगों के लिए स्वीकारा जाना चाहिए है-

(1) उद्योग के संयुक्त प्रबन्ध के लक्ष्य को प्राप्त करना तथा संयुक्त प्रबन्ध को उद्योग पर पूर्ण कर्मचारी नियन्त्रण की स्थिति की ओर अग्रसर करना।

(2) कर्मचारियों एवं प्रजातन्त्र को सुदृढ़ता प्रदान करना।

(3) कर्मचारियों में संस्था के प्रति लगाव एवं निष्ठा पैदा करना ताकि अधिकतम उत्पादकता के लिए वातावरण बन सके।

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Pankaja Singh

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