समाज शास्‍त्र

भारतीय श्रमिकों की मुख्य विशेषताएं | भारतीय श्रमिकों के लक्षण

भारतीय श्रमिकों की मुख्य विशेषताएं | भारतीय श्रमिकों के लक्षण | Main characteristics of Indian workers in Hindi | Characteristics of Indian workers in Hindi

भारतीय श्रमिकों की मुख्य विशेषताएं (लक्षण)

1991 में भारत में श्रमिकों की संख्या लगभग 31.41 करोड़ या देश की कुल जनसंख्या की 37.5 प्रतिशत थी। श्रमिकों की इस संख्या का केवल 10 प्रतिशत भाग संगठित क्षेत्र में कार्यरत था और शेष भाग परम्परा से चले आ रहे व्यवसायों में व्यस्त था। परम्परागत व्यवसायों में कार्यरत श्रमिकों में अधिकांश कृषक और कृषि श्रमिक थे, जिनका प्रतिशत क्रमशः 38.7 और 36.1 था।

भारत की अर्थव्यवस्था के विश्वस्त आँकड़े केवल संगठित क्षेत्र के बारे में उपलब्ध हैं। श्रमिकों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा पास किये गये अधिकांश कानून इसी क्षेत्र के श्रमिकों की भलाई के लिए हैं। इन श्रमिकों के लिए अनेक सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ भी चल रही हैं। इनमें फैक्टरी एक्ट, मजदूरी अधिनियम और सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ जैसे-

कर्मचारी राज्य बीमा योजना, कर्मचारी भविष्य निधि योजना श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए मृत्युराहत और परिवार पेंशन सम्मिलित हैं। कुछ असंगठित क्षेत्र के लिए बनाए गये हैं। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 इस क्षेत्र के बहुत से श्रमिक वर्गों पर भी लागू होता है।

कारखानों में काम की शर्तें अधिनियम, 1948 के द्वारा के नियमित की जाती हैं। इस अधिनियम के अनुसार प्रौढ़ श्रमिकों के लिए सप्ताह में 48 घण्टे काम के लिए निश्चित हैं एवं किसी भी कारखाने में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर लगाने की मनाही है। अधिनियम के अन्तर्गत रोशनी, साफ हवा, सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कल्याण सेवा के न्यूनतम मानक भी निश्चित हैं जिन्हें मालिकों को अपने कारखानों में पालन करना पड़ता है। जिन कारखानों में 250 से अधिक लोग काम करते हैं, वहाँ श्रमिकों के लिए आवश्यक सुविधाओं से युक्त कैण्टीनों की भी व्यवस्था करनी पड़ती हैं।

किसी भी देश के राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक एवं औद्योगिक विकास में श्रम की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। राष्ट्र प्राकृतिक रूप से कितना ही समृद्ध क्यों न हों, श्रम द्वारा विदोहन के अभाव में राष्ट्रीय प्रगति नहीं हो पाती है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था प्रौद्योगिक हो अथवा कृषि प्रधान हो प्रत्येक में श्रम की उत्पत्ति का अत्याज्य साधन माना जाता है। संसार में प्रत्येक मानव को श्रम से अपना जीविकोपार्जन करना होता है, विभिन्नता केवल मात्र इतनी ही है कि जहाँ प्राकृतिक सम्पदा विपुल है वहाँ श्रम सरल व कुछ कम करना होता है तथा जहाँ प्राकृतिक सम्पदा कम है वहाँ जटिल तथा अधिक श्रम की आवश्यकता होती है। यह अवश्य है कि श्रम में जटिलता को कम करने के प्रयत्न में मनुष्य ने नये-नये यंत्रों और मशीनों का अविष्कार किया है, लेकिन इसमें भी निरन्तर श्रम की आवश्यकता रही है। आखेट युग से वर्तमान तक कृषि, व्यापार एवं औद्योगिक क्षेत्र में जो कुछ भी सफलता प्राप्त हुई है वह मनुष्य के सतत् श्रम का ही परिणाम है।

भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास के अवलोकन से विदित होता है कि यहाँ कुटीर उद्योगों एवं कृषि कार्यों में श्रमिक का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान था। आज भी भारत एक कृषि प्रधान देश है और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जनसंख्या का 75 प्रतिशत भाग कृषि में ही संलग्न है जिसमें अधिकांश भाग श्रमिकों का है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से भारत औद्योगीकरण की दिशा में अग्रसर हुआ है। नगरों में औद्योगिक केन्द्र स्थापित होने लगे हैं। देश में लोहा, जूट, सूत, शक्कर आदि के उद्योगों की स्थापना हुई तथा इनमें काम करने के लिए देश के अनेक भागों से व्यक्ति आने लगे हैं। परिणामस्वरूप देश में श्रमिक वर्ग का उदय हुआ है। श्रमिक, उद्योग के स्वामियों पर आश्रित रहने लगे हैं तथा उनकी अधिकतर शर्तों मानने के लिए विवश थे।

भारतीय गाँवों से नगरों में आजीविका की तलाश में आने वाले इन श्रमिकों का भारतीय उद्योगपतियों द्वारा भरपूर शोषण किया गया। उद्योगपति द्वारा जो भी दिया गया उसी में इन्होंने संतोष किया। इनसे 15 घंटे तक कार्य लिया गया तथा वह भी अस्वास्थ्यकर वातावरण में भारतीय श्रमिक की स्थिति एक गुलाम तथा पशु के समान थी। यह स्थिति बहुत समय तक रही तथा श्रमिक वर्ग के कारण संगठित नहीं हो पाया। सन् 1918 से 1926 के काल में बेसहारा तथा नेतृत्वहीन होने  के कारण संगठित नहीं हो पाया। सन् 1918 से 1926 के काल में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, एनीबीसेन्ट एवं महात्मा गाँधी द्वारा संचालित स्वतंत्रता आन्दोलन से श्रमिक वर्ग भी प्रभावित हुआ। 1918 में मद्रास श्रम संघ की स्थापना के पश्चात् देश में अनेक श्रम संघ स्थापित होने लगे तथा 1926 में श्रम अधिनियम पारित किया गया। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 2,666 श्रम संघ थे जो संख्या 1991 में 53,574 तक पहुँच गई। लगभग 61,00,000 श्रमिक इन संघों के सदस्य थे। आज औद्योगिक क्षेत्र में दो प्रमुख वर्ग हैं मिल मालिक और मजदूर (श्रमिक) ।

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण

श्रमिक समाज का एक अंग है अतः भारतीय समाज की परम्पराओं तथा अन्य प्रमुखताओं से वहाँ का श्रमिक भी प्रभावित है। इलिए अन्य औद्योगिक प्रधान राष्ट्रों के श्रमिकों से भारतीय श्रमिकों की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो भिन्न हैं। संक्षेप में नीचे कुछ विशिष्ट विशेषताओं का वर्णन किया गया है-

(1) अज्ञानता और अशिक्षा- भारतीय श्रमिक गाँवों से आते हैं जहाँ आज भी शिक्षा का प्रचार व सुविधायें नगण्य हैं। यद्यपि पिछले 52 वर्षों में सरकार निरन्तर शिक्षा के प्रसार की ओर प्रयत्नशील है, लेकिन फिर भी अधिकांश जनसंख्या साक्षर भी नहीं हो पायी है। इसीलिए उद्योगों में कार्य करने वाले अधिकांश श्रमिक आज भी अशिक्षित व अज्ञानी हैं। अधिकतर गाँवों से कृषि छोड़कर नगरों में स्थित उद्योगों में कार्य करने आते हैं। अशिक्षा के कारण उन्हें नगर के वातावरण की कठिन समस्याओं का भी ज्ञान नहीं है, बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि उन्हें स्वयं की अपनी समस्याओं का भी ज्ञान नहीं है। अतः भारतीय अशिक्षित एवं अज्ञानी श्रमिक का शोषण सुगमता से औद्योगिक नगरों में उद्योगपति व दलालो के द्वारा किया जाता है।

(2) प्रवासी प्रवृत्ति भारतवर्ष में अधिकतर औद्योगिक श्रमिक गाँवों से आते हैं और खेती के समय पुनः गाँव में खेतों पर कृषि कार्य हेतु चले जाते हैं। उद्योगों में कार्य करने हेतु ये श्रमिक स्वेच्छा से नहीं आते हैं बल्कि कुछ प्रमुख कारण जैसे भूमि पर बढ़ती हुई जनसंख्या का भार, अनार्थिक कृषि, गाँवों में अत्यधिक बेरोजगारी तथा महाजनों के शोषण आदि से वाध्य होकर आते हैं, लेकिन पुनः सामाजिक बन्धन, भूमि से मोह तथा परिवार से मिलने की उत्कंठा उन्हें वापस जाने को प्रात्साहित करती है। वास्तव में देखा जाय तो भारतीय श्रमिक को अपने गाँव से अनुराग होता है। कुछ अन्वेषणों के आधार पर यह पाया गया कि टाटानगर में 935 श्रमिक परिवारों में से 714 परिवार प्रवासी प्रवृत्ति के हैं एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार समस्त भारत में लगभग 40 प्रतिशत श्रमिक प्रवासी प्रवृत्ति के होते हैं। इस प्रकार स्थाई रूप से उद्योगों में कार्य न करने से वे कार्य को ठीक प्रकार से सीख भी नहीं पाते हैं तथा कार्य कुशलता प्राप्ति के अभाव से उन्हें आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है।

(3) भाग्यवादिता- भाग्यवादिता तथा रूढ़िवादिता में भारतीय जनसंख्या का अधिकतम भाग विश्वास रखता है। शिक्षा के अभाव में भारतीय गाँवों में 99 प्रतिशत ग्रामीण भाग्य पर भरोसा अधिक रखते हैं, कर्म में कम। वे अपने जीवन में विपत्ति एवं सुख समृद्धि को भाग्य की देन समझते हैं। इस विचारधारा का प्रभाव श्रमिक के विकास में विशेष बाधक रहा है। भारतीय श्रमिक अपनी उन्नति के लिए परिश्रम करने को प्रयत्नशील नहीं होते हैं। उनका विश्वास इस बात से अधिक है कि “भाग्य में होगा तो मिल जायेगा।“ जो कुछ सरलता से प्राप्त हो जाता है उसी में संतोष करने की प्रवृत्ति इनमें प्रबल रूप से पायी जाती है।

(4) सामाजिक तथा धार्मिक बन्धनों से जकड़े हुए भारतीय श्रमिक जीवन में धार्मिकता, रूढ़िवादिता तथा सामाजिक बन्धनों से जकड़ा हुआ है। धार्मिक अन्धविश्वास और संस्कार भारतीय श्रमिक को इतना अधिक प्रभावित किये हुए हैं कि उसमें उसके बाहर सोचने एवं समझने की शक्ति नहीं है। उदाहरण के लिए जाति प्रथा भारतीय श्रमिक की स्वतंत्रता एवं गतिशीलता में विशेष रूप से श्रमिक की आमदनी का बहुत बड़ा भाग व्यय हो जाता है तथा समय की भी बहुत ज्यादा बर्बादी होती है। जाति-प्रथा, निर्धनता एवं संयुक्त परिवार प्रथा के प्रचलन ने भी भारतीय श्रमिक को घोर निराशावादी बना रखा है। इन सबका प्रभाव श्रमिक की कार्यक्षमता पर ही सही नहीं पड़ता है।

(5) विभिन्नता- भारतवर्ष में सांस्कृतिक एवं सामाजिक विभिन्नता जितनी अधिक है उतनी अन्यत्र शायद ही पायी जाती हो । प्रत्येक प्रान्त की भाषा, पहनावा, खानपान आदि में एक-दूसरे से पृथकता है। भारतीय उद्योगों में विभिन्न प्रान्तों से श्रमिक कार्य करने हेतु आते हैं। इसका सबसे अधिक खराब प्रभाव है कि श्रमिकों में आपसी सहयोग नहीं हो पाता है उनमें विभिन्नता के आधार पर वर्ग बन जाते हैं। अशिक्षा और रुढ़िवादिता के कारण यह विभिन्नता दूर नहीं हो पाती है।

(6) निम्न अधिक स्तर भारत एक निर्धन देश है। यहाँ पर सामान्यतया जनसंख्या का आर्थिक स्तर नीचा है, लेकिन श्रमिक वर्ग का आर्थिक स्तर तो विशेष रूप से निम्न है। इसका प्रमुख कारण है श्रमिकों को उनके कार्य के बदले प्राप्य न्यूनतम वेतन व मजदूरी। भारतीय श्रमिक अपने वेतन में से अपने जीवनयापन की ही आवश्यकतायें पूरी करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। भारतीय श्रमिक प्राप्त वेतन में से चिकित्सा, मनोरंजन, शिक्षा तथा अन्य किसी भी प्रकार के व्यय नहीं कर पाता है। इस प्रकार निम्न आर्थिक स्तर का प्रमुख कारण निम्न वेतन तथा समय-समय पर उनकी बेरोजगारी है।

(7) कार्य पर अधिक अनुपस्थिति भारतीय श्रमिक अधिकतर कृषि क्षेत्रों से उद्योगों में कार्य करने हेतु नगरों में आते हैं, लेकिन कृषि मौसम में अर्थात् फसल की बुवाई तथा कटाई के समय पुनः गाँवों में लौट जाते हैं। सामाजिक और धार्मिक उत्सवों पर भी वे अपने मूल निवास पर उपस्थित रहना अनिवार्य मानते हैं। इन कारणों से अधिक अपने कार्य पर सामान्यतः समय-समय पर अनुपस्थित रहते हैं।

(8) नैतिक स्तर ऊँचा न होना- गाँवों से नगरों में आने पर भारतीय श्रमिक एकदम परिवर्तित वातावरण अपने आप में पाता है। नगर के चकाचौंध करने वाले वातावरण में अपने आपको अनेक बुराइयों का शिकार बना लेता है। शराबखोरी, फैशन व वेश्यावृत्ति आदि कुचक्रो में फंसने के कारण भारतीय श्रमिक का नैतिक स्तर काफी गिर जाता है। इसी प्रकार की दशा भारतीय स्त्री  श्रमिकों की भी है। वे भी धन प्राप्ति के लालच में अनेक बुराइयों की शिकार हो जाती है।

(9) संगठन का अभाव- भारतीय श्रमिक वर्ग संगठित नहीं है। इसका कारण है कि श्रमिक दूर-दूर से आते हैं। कुछ नगरों में तो श्रमिक हजारों की संख्या में प्रतिदिन काम पर आते हैं और पुनः लौटते हैं। कलकत्ता, मुम्बई, अहमदाबाद ऐसे औद्योगिक नगर हैं जिनमें अधिकतर श्रमिक दैनिक आने जाने वाले हैं। इसी प्रकार कुछ संख्या में केरल, कानपुर, नागपुर, अजमेर, जयपुर आदि में भी दैनिक आवागमन की यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। अतः श्रमिक वर्ग का एक मिला जुला समुदाय बन गया है जिनमें आपस में भाषा, स्थान, रहन-सहन, खान-पान आदि की अत्यधिक विभिन्नता है। इसके परिणामस्वरूप श्रम के विभाजन, कार्य-दशाओं अथवा श्रम के पारिश्रमिक के विषय में श्रमिकों का कोई पर्याप्त सुदृढ़ संगठन नहीं बन पाता है। इससे भारतीय श्रमिक का शोषण होता है।

(10) कम गतिशीलता भारतीय श्रमिक की यह भी एक विशेषता है कि उसमें गतिशीलता कम है। वह एक स्थान से दूसरे स्थान को तथा एक उद्योग से दूसरे उद्योग में जाना कम पसन्द करता है। इसके लिए कई कारण निरुत्साहित करते हैं, जैसे-किसी स्थान विशेष से ज्यादा अनुराग होना, भाग्यवादिता, अशिक्षा, अज्ञानता, भौगोलिक बाधायें, धर्म एवं जाति के बन्धन, परिवहन के साधनों का महंगा व असुविधापूर्ण होना, भाषा की भिन्नता आदि। भारतीय श्रमिक में गतिशीलता कम होने से एक ओर तो श्रमिक को अपनी क्षमता एवं कुशलता का पर्याप्त पारिश्रमिक नहीं मिल पाता तथा दूसरी ओर उद्योगों को आवश्यकतानुसार कुशल श्रमिक नहीं मिल पाते हैं।

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Pankaja Singh

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