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उद्योगवाद | उद्योगवाद की अवधारणा | आधुनिक उद्योगवाद की विशेषतायें | आधुनिक उद्योगवाद का विकास

उद्योगवाद | उद्योगवाद की अवधारणा | आधुनिक उद्योगवाद की विशेषतायें | आधुनिक उद्योगवाद का विकास | Industrialism in Hindi | Concept of Industrialism in Hindi | Features of modern industrialism in Hindi | development of modern industrialism in Hindi

उद्योगवाद

आधुनिक युग उद्योगों का युग है और आधुनिक समाज को औद्योगिक समाज कहा जा सकता है। कोई भी व्यवस्था किसी वैचारिक पृष्ठभूमि में ही विकसित होती है। औद्योगिक समाज की स्थापना उद्योगवादी विचारधारा पर आधारित है। उद्योगवाद एक भावात्मक अवधारणा है। इस भावना का सम्बन्ध उद्योगों के विस्तार और प्रसार से है। उद्योगवाद एक सामाजिक उन्मेष है, विशिष्ट आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों की आकांक्षा है और औद्योगिक विकास के द्वारा सामाजिक पुनर्निर्माण करने का विचार है। उद्योगवाद उद्योगों में आस्था है। मानवीय सुख-सुविधाओं में वृद्धि करने वाली व्यवस्था के रूप में औद्योगिक संरचना में विश्वास ही उद्योगवाद है।

उद्योगवाद की अवधारणा

(Concept of Industrialism)

उद्योगवाद की अवधारणा को समझने के लिये ‘उद्योग’ शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। सामान्य अर्थ में उद्योग को हम प्रयत्न कहते हैं प्रायः कहा जाता है कि बिना उद्योग किये कोई कार्य सफल नहीं होता। किन्तु औद्योगिक समाजशास्त्र में उद्योग का अर्थ उत्पादन कार्य में संलग्न होना है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाने के लिए मनुष्य जो उत्पादन करता है वह उसका उद्योग कहा जा सकता है। वस्तुओं के उत्पादन में मनुष्य ने प्रारम्भ से ही किसी न किसी प्रकार के औजारों का प्रयोग किया है। अतः यदि उद्योग का अर्थ उन उपकरणों के आविष्कार और प्रयोग से है जिनके द्वारा मनुष्य ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन प्राप्त करने का प्रयत्न किया है, तो यह कहा जा सकता है कि उद्योग अतिप्राचीन काल से विद्यमान हैं। इसी प्रकार यदि उद्योग का अर्थ ऐसी उत्पादन व्यवस्था से है जिसमें एक से अधिक लोग कार्य करते है तो भी उद्योग बहुत पुरानी प्रणाली कही जा सकती है क्योंकि भारत जैसे देश में हजारों वर्ष पूर्व पारिवारिक आधार पर तथा सामूहिक रूप से अनेक शिल्पकार वस्तुओं का उत्पादन करते थे।

उद्योग (Industry) का प्रारम्भिक स्वरूप उन उपकरणों के रूप में देखा जा सकता है जिनका प्रयोग शिकार करने वाले तथा प्रारम्भिक कृषि करने वाले आदिम सामाजों में किया जाता है। तीर-कमान, भाले-बरडे, कुदाल और खुरपे तथा दाँती आदि ऐसे ही उपकरण थे। आजकल जिस अर्थ में उद्योग शब्द का प्रयोग किया जाता है उसका सम्बन्ध उत्पादन की कुछ जटिल प्रणाली से है। इसमें अधिक मिश्रित और जटिल उपकरणों और मशीनों का उपयोग किया जाता है। ये मशीनें शक्ति से चलती हैं, जिनमें विशाल पैमाने पर उत्पादन होता है। वर्तमान औद्योगिक संगठनों के विकास से श्रम विभाजन और विशेषीकरण बढ़ जाता है। उत्पादन कार्य में नई-नई प्रविधियों का विकास हो जाता है, विवेकीकरण द्वारा प्रबन्ध और प्रशासन को अधिक कुशल बनाया जाता है और उत्पादन की मात्रा में वृद्धि की जाती है। उत्पादन प्रणाली का इस प्रकार पुनर्गठन ही उद्योगवाद कहलाता है।

उद्योगवाद केवल उत्पादन प्रणाली और तकनीकी मामलों में उपरोक्त परिवर्तनों की आकांक्षा तक ही सीमित नहीं है। ये औद्योगिक परिवर्तन तथा प्रशासन और प्रबन्ध के पुनर्गठन की व्यवस्थायें तो किसी विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के साधन मात्र हैं। यह लक्ष्य है मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक तथा मानवीय सुख-सुविधाओं में वृद्धि करने वाली विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का अधिकाधिक उत्पादन ताकि अधिकतम जनसंख्या के लिये उनकी उपलब्धि सहज सम्भाव्य हो सके। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के विवार से निरन्तर उद्योगों की स्थापना और विस्तार उद्योगवाद है। उद्योग जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित आवश्यकताओं के की पूर्ति के भौतिक साधनों के उत्पादन केन्द्र हैं, चाहे ये साधन उसके पालन-पोषण तथा सम्पन्नता से सम्बन्धित हो अथवा शारीरिक सुरक्षा से। अनेक प्रकार की युद्ध सामग्री भी आधुनिक उद्योगवाद की प्रेरणा का फल हैं और शैक्षणिक मनोरंजनात्मक, विलासी जीवन में सहायकतथा विभिन्न प्रकार के सुख-सुविधायें प्रदान करने वाली वस्तुएं भी आधुनिक उद्योगवाद की देन हैं। संक्षेप में उद्योगवाद उद्योग के विस्तार और प्रसार की भावना, रुचि तथा प्रयत्न ह

आधुनिक उद्योगवाद की विशेषतायें

(Characteristics of Modern Industrialism)

  1. विशाल पैमाने पर उत्पादन (Large Scale Production)- आधुनिक उद्योगवाद की प्रथम विशेषता बड़े पैमाने पर उत्पादन करना है। अधिकतम उत्पादन की दृष्टि से बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना की जाती है जो दिन-रात चलते रहते हैं। ये कारखाने ऐसे स्थानों पर लगाये जाते हैं। जहाँ कच्चा माल, शक्ति के स्त्रोत और बाजार उपलब्ध होते है। और जहाँ श्रमिक आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। ये कारखानें स्वयं आर्थिक तन्त्र बन जाते हैं जिनमें हजारों की संख्या में लोग कार्य करते हैं। इन उद्योगों के कार्यों और प्रक्रियाओं से सम्बन्धित विशिष्ट संस्थाओंका विकास हो जाता है।
  2. विकसित प्रौद्योगिकी (Developed Technology)- आधुनिक उद्योगवाद मानव शक्ति और पशु शक्ति के स्थान पर मशीनों का प्रयोग करता है जो भाप, विद्युत आदि से चलती है। इस प्रकार नये-नये यन्त्रों और उपकरणों का आविष्कार तथा प्रौद्योगिक प्रगति आधुनिक उद्योगवाद का प्रमुख लक्षण बन गया है। मानवीय कर्म को अधिकाधिक काम करने की दृष्टि से आधुनिक उद्योगवाद में स्वचलन (autornation) का विकास हो गया है। अनेक प्रकार के यन्त्रों के द्वारा स्वचालित मशीनों का विकास हो गया है।
  3. विशेषीकरण (Specialization)- आधुनिक व्यक्तिवाद में श्रम-विभाजन बढ़ गया है और प्रत्येक व्यक्ति विशिष्ट प्रकार की औद्योगिक क्रिया को जीवन भर के लिये अपनाता है। मशीनों के प्रयोग के लिये तथा उद्योगों में विभिन्न प्रकार के दायित्नों का सम्पादन करने के लिये विशेष प्रकार की शिक्षा प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। आधुनिक उद्योगवाद विशेषज्ञों पर आधारित व्यवस्था है।
  4. व्यक्तिगत योग्यता और कार्यकुशलता का महत्व (Importance of Individual and efficiency)- विशेषज्ञों का दुनिया में स्वभाविक रूप से व्यक्तिगत कुशलता और योग्यता के आधार पर रोजगार और उन्नति मिलती है। आधुनिक उद्योगवाद में व्यक्ति की प्रकार्यात्मक योग्यता ही औद्योगिक संगठन में उसकी स्थिति का निर्धारण करती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक प्रविधिक और अन्य प्रकार की कुशलता प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है। आधुनिक उद्योगवाद के अर्जित पद का महत्व है। व्यक्ति को प्रोन्नति के अवसर उसकी कार्यकुशलता और योग्यता के आधार पर ही प्राप्त होते हैं परिवार जाति या धर्म आदि महत्व नहीं रखते।
  5. जटिल संगठनात्मक संरचना (Complex Organizational Structure) – आधुनिक उद्योगों को जटिल संगठन कहा जाता है। औद्योगिक संगठनों के आकार और कार्य क्षेत्रों में वृद्धि हो गयी है। श्रम विभाजन और विशेषीकरण के कारण प्रकार्यात्मक विभिन्नता भी बढ़ जाती है। इन भिन्न-भिन्न प्रकायों की व्यवस्था, प्रबन्ध और संगठन करने से लिये पृथक-पृथक विभाग बन जाते हैं। उत्पादन कार्य के लिये कच्चे माल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं के क्रय-विक्रय के लिये ठेकेदार और मध्यस्थों का विकास हो जाता है। उद्योगों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये विशिष्ट कम्पनियों की स्थापना हो जाती है। आधुनिक उद्योगों में पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। अतः ये उद्योग एक व्यक्ति की सम्पत्ति न होकर कम्पनियों और निगमों के नियन्त्रण में होता हैं।
  6. कर्मचारी तन्त्र (Bureaucracy)- आधुनिक उद्योगों की जटिल संरचना में नौकरशाही या कर्मचारीतन्त्र का विकास अनिवार्य हो जाता है। मैक्स वैबर ने आधुनिक उद्योगवाद के संदर्भ में ही नौकरशाही की अवधारणा की प्रतिस्थापना की है। जटिल संगठनात्मक व्यवस्था का प्रशासन और संचालन औपचारिक नियमों और पद्धतियों के द्वारा ही किया जा सकता है। तर्कपूर्ण व्यवस्था और विवेकपूर्ण प्रशासन की दृष्टि से उद्योगों के समस्त कर्मचारी ऊंचे-नीचे पदों पर निश्चित भूमिकायें पूर्ण करते हैं। उनके अधिकार और कर्त्तव्य निश्चित होते है, वेतन काम का समय और अवकाश आदि निश्चित होते हैं। वे पूर्वनिर्धारित वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत कार्य करते हैं। काम करने वालों में अवैयक्तिक और औपचारिक सम्बन्ध होते है।
  7. मुद्रा और साख (Money and Credit)-आधुनिक उद्योगवाद में नकद वेतन और मजदूरी इत्यादि के कारण मुद्रा का प्रचलन हो गया है। उद्योगों का मूल आधार पूँजी होने कारण पूँजी बटोरना आवश्यक होता है। श्रम, सामग्री और मशीनों आदि के लिये अपार धनराशि की जरूरत होती है। इस धनराशि को जुटाने के लिये ऋण लेना आवश्यक हो जाता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये बैंकों की स्थापना होती है क्योंकि परम्परागत महाजन इतना ऋण नहीं दे सकते। इस प्रकार सारा आधुनिक उद्योगवाद कर्ज और मुद्रा पर चल रहा है।
  8. बाजार (Markets)- आधुनिक उद्योग में सारा विनिमय बाजार व्यवस्था के आधार पर होता है। बाजार समस्त आर्थिक क्रियाओं का नियन्त्रण और संचालन करता है। बाजार की उद्योग को प्रतिष्ठा प्रदान करता है। आधुनिक उद्योगवाद में श्रम, मुद्रा, उपभोक्ता सामग्री सब कुछ बाजार की परिस्थिति से चालू होता है। मनुष्य स्वयं बाजार में बिकने की वस्तु हो गया है। उसकी योग्यता और विशिष्ट कुशलता उसकी कीमत निश्चित करती है।
  9. स्वामित्व और प्रबन्ध की पृथकता (Separation of ownership and Management)- आधुनिक उद्योगवाद ने उद्योगों के स्वाभित्व को अनेक प्रबन्ध से अलग दिया है। उद्योगों के स्वामी केवल पूँजी लगाते हैं। और लाभ-हानि के दावेदार होते हैं। वे उद्योगों का प्रबन्ध स्वयं नहीं करते। उद्योगों का प्रबन्ध मैनेजर, इन्जीनियर, खजान्ची इत्यादि करते हैं। उद्योगों के समस्त संसाधनों के स्वामी पूँजीपति होते हैं, किन्तु उनका उपयोग प्रबन्धकों के द्वारा किया जाता है।
  10. प्रतियोगिता (Competition)- आधुनिक उद्योगवाद में उपयोग के लिये उत्पादन नहीं होता। उत्पादन का लक्ष्य उत्पादन ही होता है। अतः प्रतियोगिता बढ़-चढ़ जाती है। विक्रय में प्रतियोगिता होती है। उत्पादन अधिक होने से बाजार के द्वारा वस्तुओं के भाव निश्चित होते हैं। योग्यता और कुशलता के आधार पर काम करने वालों में भी प्रतियोगिता होती हैं। उत्पादित वस्तुओं की उत्तमता के लिये भी प्रतियोगिता होती है। सारा जीवन प्रतियोगी जीवन हो जाता है।
  11. श्रमिक संघ और वर्ग संघर्ष (Trade Unions and class struggle)- उत्पादन कार्य में संलग्न व्यक्ति स्वामी एवं प्रबन्धक तथा श्रमिक, इन दो वर्गों में बंट जाते हैं। अपने अधिकारों की रक्षा के लिये आधुनिक उद्योगों के श्रमिक अपने संगठन बनाते हैं जो यदा-कदा उद्योगपतियों और उनके प्रतिनिधि प्रबन्धकों के विरूद्ध के द्वारा संघर्ष करते हैं। श्रमिक संगठनों का निर्माण और वर्ग संघर्ष आधुनिक उद्योगवाद की विशेषतायें बन गई है।
  12. विशिष्ट समस्यायें (Particular Problems)- आधुनिक उद्योगवाद में वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त अन्य सामाजिक समस्यायें भी विकसित हो गई है उद्योगवाद का अनिवाय परिणाम नगरवाद होता है। नगरीकरण अनेक प्रकार के अनैतिक कार्यों और अपराधिक वृत्तियों की वृद्धि करता है। नशाखोरी, जुआ, व्यभिचारी इत्यादि आधुनिक उद्योगवाद में बढ़ गये है। भ्रष्टाचार अलगाव, शोषण और आर्थिक विषमता भी उद्योगवाद की देन है।

आधुनिक उद्योगवाद का विकास

(Rise of Modern Industrialism)

आधुनिक उद्योगवाद अनायास प्रकट नहीं हुआ है। इसका विकास औद्योगिक रुचि के क्रमिक विकास का परिणाम है। अतिप्राचीन काल से ही मनुष्य ने उत्पादन कार्य किया है। प्राचीन अशिक्षित समाजों में भी उत्पादन के लिये विभिन्न प्रकार के उपकरणों अथवा साधारण मशीनों का उपयोग होता रहा है। ये मशीनें या तो हाथ से चलाई जाती थीं अथवापशुओं की सहायता से उत्पादन की वस्तुओं में अनाज इत्यादि दैनिक उपभोग की वस्तुओं को विनिमय के लिए आस-पास के क्षेत्रों में जाने-ले जाने के लिए भी मानव-निर्मित साधनों का प्रयोग किया जाता था। जैसे-जैसे आर्थिक सम्बन्धों का विस्तार हुआ विभिन्न वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी तो श्रम-विभाजन और विशेषीकरण भी होने लगा। बढ़ई, लोहार, बुनकर, कुम्हार इत्यादि विशिष्ट शिल्पियों का विकास हुआ और धन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए महाजन भी सामने आ गये। शिक्षा और विज्ञान की प्रगति ने नवीन आविष्कारों को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप एक औद्योगिक क्रान्ति हुई और उद्योगवाद का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ। इस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न उद्योगवाद के बीज सहस्त्रों वर्ष पूर्व बोये जा चुके थे। आधुनिक उद्योगवाद के विकास की प्रक्रिया चरण निम्नलिखित हैं-

  1. सामन्ती व्यवस्था (Manorial or Feudal System)- औद्योगिक क्रान्ति से पूर्व विभिन्न प्रकार की सामाजिक आर्थिक प्रणालियाँ संसार में प्रचलित थीं। उद्योगवाद का आधुनिक स्वरूप चूँकि यूरोपीय देशों, विशेषतः इंग्लैंड से प्रारम्भ हुआ, अतः इसी क्षेत्र में प्रचलित आर्थिक व्यवस्था के प्रारम्भिक स्वरूप को ही उद्योगवाद के बीज के रूप में समझा जा सकता है। इस क्रम में लेकर उद्योग का प्रारम्भिक स्वरूप सामन्ती अथवा जमींदारी प्रथा के अन्तर्गत नवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक प्रचलित रहा। इस काल में भूमि उद्योग का मुख्य आधार थी और सामन्त या जागीरदार जमीन के मालिक थे। इनकी जमीन पर किसान और मजदूर श्रम करते थे। इस काल में व्यापार करने वाले, दस्तकार, लोहार, आदि भी थे। उपभोग के लिये प्रायः उत्पादन होता था और जो थोड़ा बहुत बचता था वह अन्य उपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति के लिए विनिमय के साधन के रूप में सुरक्षित रख लिया जाता था। वस्तु विनियम की प्रथा थी। सामन्तों में परस्पर भी संघर्ष होते थे। अतः उनके खेतों में काम करने वाले किसानों को आवश्यकता सैनिकों के रूप में भी काम करना पड़ता था।
  2. व्यवसायिक श्रेणी व्यवस्था (Guild System)- मध्ययुगीन यूरोप में नगरों का विकास उद्योगवाद की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। सामन्तों के शोषण से त्रस्त खेतों पर कार्य करने वाले लोग और दस्तकार स्वतन्त्र वातावरण में सांस लेने की इच्छा लेकर नगरों की ओर जाने लगें इन नगरों में विभिन्न व्यवसायिक समुदायों या श्रेणियों का विकास होने लगा। नगरों में इन लोगों को जीविका निर्वाह के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक कला, शिल्प तथा व्यापार के व्यवसायों आदि को अपनाने का अवसर मिल गया। नगर धीरे-धीरे उत्पादन केन्द्रों के रूप में विकसित हो गये जहाँ विशिष्ट औद्योगिक कार्य से सम्बन्धित लोगों के पृथक-पृथक या संघ बन गये। ये सब व्यवसायिक समूह अपने-अपने क्षेत्र में भौतिक उत्पादन की गुणात्मक तथा गणनात्मक वृद्धि के लिये, औजारों के प्रयोग के लिये तथा वस्तुओं के मूल्यों आदि के नियमन के लिये प्रयत्नशील रहते थे। ये श्रेणी समूह एक प्रकार से ट्रेड यूनियनों के रूप में या व्यवसायिक संगठनों अथवा पारस्परिक सहायता समितियों के रूप में समझे जा सकते हैं। इन व्यवसायिक संघों का कार्यक्षेत्र केवल आर्थिक ही नहीं था। ये सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक कार्य भी सम्पन्न करते थे। इनके चुने हुये प्रतिनिधि शासन में भी भाग लेते थे।

भारतवर्ष अति प्राचीन काल से ही इस प्रकार के व्यवसायिक संगठनों का केन्द्र रहा है। अंग्रेजी शासन में नियुक्त ‘भारतीय औद्योगिक आयोग 1616-17’ के प्रतिवेदन में स्पष्ट रूप से कहा गया है, “उस समय जब आधुनिक व्यवस्था के जन्म स्थान पश्चिमी यूरोप में असम्भ्य आदिवासी निवास करते थे, भारत अपने शासकों की सम्पत्ति के लिये तथा अपने शिल्पकारों के कलात्मक कौशल के लिए प्रसिद्ध था।”

  1. घरेलू उत्पादन व्यवस्था (Domestic or Putting System)- व्यवसायिक श्रेणियों के पतन के लिये के लिए मुख्य रूप से दो कारण उत्तरदायी माने जाते हैं। व्यापारी संघों और शिल्पी की परस्परिक प्रतियोगिता और संघर्ष इनके पतन का पहला कारण था दूसरा और कारण बाहरी परिस्थितियों में परिवर्तन था। नये मार्गों और नये देशों की खोज, नवजागरण और प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय, व्यक्तिवादी को जन्म दिया उन्होंने व्यवसायिक संघों से पतन में बहुत सहयोग दिया। व्यवसायिक श्रेणियों के पतन के साथ ही एक ऐसी पारिवारिक औद्योगिक व्यवस्था का विकास होने लगा था जिसके अन्तर्गत आधुनिक उद्योगवाद अथवा पूँजी बाद व्यवस्था के अंकुर प्रस्फुटित हो रहे थे। इस औद्योगिक व्यवस्था को अमरीका में घरेलू व्यवस्था कहा जाता है।
  2. आधुनिक उद्योगवाद (Modern Industrialism)- प्राचीन शिल्प और औद्योगिक कला का पतन औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न पूँजीवादी प्रवृत्तियों के कारण हुआ। आधुनिक उद्योगवाद का प्रारम्भ उद्योग व्यवस्था (Factory System) से होता है। जनसंख्या की वृद्धि और नई खोजों तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धों के फलवरूप वस्तुओं की मांग बढ़ गई। मशीनीकरण तथा श्रमिकों की पर्याप्त जनसंख्या अधिक वस्तुओं के निर्माण के लिए सहायक तत्त्व सिद्ध हुये। किन्तु मशीन और मजदूर तभी उपयोगी सिद्ध हो सके जब स्वयंतापूर्वक उद्योगों का संचालन करने के लिए पूंजपतियों का एक विशिष्ट वर्ग सामने आ गया, इस पूँजीपति, श्रमिक और मशीन के त्रसरेणु ने आधुनिक उद्योगवाद को जन्म दिया है।

आधुनिक उद्योगवाद में बड़ी-बड़ी फैक्टरियों में उत्पादन प्रक्रिया का केन्द्रीकरण हो गया है। ये उद्योग ऐसे स्थानों पर स्थापित किये जाते हैं जहाँ कच्चा माल और बाजार उपलब्ध होते हैं। आधुनिक उपयोगवाद के विकास का आधार यान्त्रिक शक्ति हैं। मानव शक्ति तथा पशु शक्ति के स्थान पर मशीनों के प्रयोग ने ही आधुनिक उद्योगवाद की स्थापना की है। भाप की शक्ति तथा अन्य यान्त्रिक आविष्कारों के कारण ही बड़े-बड़े कारखाने चलने लगे। आधुनिक उद्योगवाद के विकास में धन का संचय भी अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्त्व रहा है। धन अथवा पूँजी के बल पर ही कोई उद्योगपति चार, मकानों, मानव, मशीन, माल और मुद्रा को इस ढंग से संयुक्त कर सकता है कि वह अधिकतम उत्पादन कर सके। किन्तु कारखानों की गति की निरन्तरता बाजार की स्थिति पर निर्भर करती है। आधुनिक उद्योगवाद का विकास तीन प्रकार के बाजारों के आधार पर ही हुआ है- उपभोक्ता बाजार, श्रम बाजार, तथा मुद्रा बाजार।

भारतवर्ष में आधुनिक उद्योगवाद का बीजारोपण सन् 1850-60 के दशक में हुआ जब पहले सूती और जूट मिल खोले गये और बिहार तथा बंगाल की कोयला-खानों को तत्कालीन शाही राजधानी कलकत्ता से मिलने वाली रेलवे लाइन का उद्घाटन हुआ। इसके पश्चात रेलवे तथा सड़कों का तेजी से विकास हुआ जिससे भारत में उद्योगवाद का आधुनिक स्वरूप स्पष्ट होने लगा। भारत में कच्चे माल और श्रमिकों की बहुलता ने इंग्लैण्ड और पश्चिमी यूरोप के पूंजीपतियों को इस देश में उद्योग स्थापित करने की प्रेरणा दी और धीरे-धीरे उन्नसवीं शताब्दी के अन्त तक कपड़े, जूट और चमड़े के कारखाने स्थापित हो गये। यद्यपि भारत में सभी उद्योग अंग्रेज कम्पनियों के हाथ में थे, किन्तु अंग्रेजी शासकों ने भारत में उद्योगवाद के विकास को रोकने का प्रयास किया क्योंकि वे नही चाहते थे कि भारत में निर्मित वस्तुये इंग्लैंड की वस्तुओं से प्रतियोगिता करें। सन् 1611 में जमशेदपुर में टाटा आयरन एण्ड स्टील उद्योग की स्थापना को भारत में आधुनिक उद्योगवाद के विकास का महत्वपूर्ण चरण कहा जा सकता है। किन्तु आधुनिक उद्योगवाद का वास्तविक विकास भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात प्रारम्भ हुआ जिसके पश्चात राष्ट्रीय सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाकर सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में आधुनिक उद्योगवाद के विकास को क्रान्तिकारी गति प्रदान कर दी।

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Pankaja Singh

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