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ग्रामीण भारत में कृषक वर्ग की संरचना | बंगाल में कृषक आन्दोलन | गुजरात आन्दोलन

ग्रामीण भारत में कृषक वर्ग की संरचना | बंगाल में कृषक आन्दोलन | गुजरात आन्दोलन | Structure of farming class in rural India in Hindi | Peasant movement in Bengal in Hindi | Gujarat movement in Hindi

ग्रामीण भारत में कृषक वर्ग की संरचना

स्वतन्त्रता पूर्व भारत में चार प्रमुख वर्ग थे जो परस्पर सम्बन्धों की स्थापना में अपने हितों को सर्वोपरि मानते थे-

(1) अपनी भूमि तथा पट्टे की भूमि पर खेती करने वाले कृषक।

(2) मध्यस्थ

(3) जब इच्छा हो तब खेती करने वाले कृषक।

(4) खेतों पर कार्य करने वाले श्रमिक कृषक ।

स्वतन्त्रता पूर्व की इस कृषक संरचना के “हासोन्मुख अर्द्ध-सामन्तवादी व्यवस्था कहा जाता है जिसमें अनेक असमानतायें एवम् कृषकों का बड़े पैमाने पर शोषण होता था। अधिकार भू-स्वामी ‘अनुपस्थित भू-स्वामी, प्रकृति के थे तथा पट्टेधारियों से समानता एवं न्याय का व्यवहार नहीं करते थे।

स्वतन्त्रता पूर्व की कृषक संरचना में छोटे उत्पादकों एवं कृषि श्रमिकों का बड़े पैमाने पर शोषण ही नहीं होता था अपितु उनमें भू-स्वागी’ प्रकृति के थे तथा पट्टेधारियों से समानता एवं न्याय का व्यवहार नहीं करते थे।

स्वतन्त्रता पूर्व की कृषक संरचना में छोटे उत्पादकों एवं कृषि श्रमिकों का बड़े पैमाने पर शोषण ही नहीं होता था अपितु उनमें भू-स्वामित्व के अधिकारों के अभाव एवं ऋणग्रस्तता के कारण असुरक्षा की भावना भी विद्यमान थी। एक तरफ अत्याधिक शोषण और दूसरी तरफ उत्पादन अधिक न होनेके कारण कृषकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदतर थी। इस प्रकार की कृषक संरचना के आर्थिक विकास में निम्नलिखित कारण बाधक थे-

(1) पट्टे पर खेती करने वाले कृषकों को उत्पादन बढ़ाने हेतु कोई प्रेरणा से नहीं था, क्योंकि फसल का अधिकांश भाग भू-स्वामी को, बिन किसी खर्चे के चला जाता था।

(2) पट्टे पर खेती करने वाले कृषकों के पास उत्पादन का जो हिस्सा शेष बचता था वह भूमि पर मूलधन लगानेके लिये अपर्याप्त होता था।

(3) पट्टे पर खेती करने वाले कृषकों को अच्छे यन्त्रों त अच्छे बीजों का प्रयोग करने का भी कोई लाभ नहीं मिलता था।

स्वतन्त्रता पूर्व की कृषक संरचना में पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्ध ही भू-स्वामित्व एवं इसके आकार द्वारा प्रभावित नहीं होते थे अपितु वह संरचना भू-स्वामियों एवं मध्यस्थों को और अधिक अमीर बनाने में सहायक थी। इसमें राज्य की हानि होती थी साथ ही पट्टे पर और अधिक अमीर बनाने में सहायक थी।  इसमें राज्य की हानि होती थी साथ ही पट्टे पर खेती करने वाले कृषकों व कृषि श्रमिकों की आर्थिक स्थिति निम्न से निम्नतर हो रही थी।

बंगाल में कृषक आन्दोलन

भारत वर्ष पर यद्यपि प्राचीनकाल से ही विदेशियों के आक्रमण होते रहे तथा समपूर्ण मध्यकाल में विदेशी शासन भी रहा, परन्तु कृषकों पर अत्याचार के बहुत ही कम उदाहरण मिलते हैं। भारत में अंग्रेजी नियन्त्रण के पश्चात् कृषि सम्बन्धों में मौलिक परिवर्तन हुए अंग्रेजों ने यद्यपि समय-समय पर भू-राजस्व की विभिन्न प्रणालियों प्रारम्भ की तथापि प्रायः प्रत्येक भू-राजस्व प्रणाली का परिणाम सामान्य कृषक की निर्धनता तथा उसका भूमिहीन मजदूर बन जाना हुआ। यह तथ्य उन आन्दोलनों और विद्रोहों से भली-भाँति स्पष्ट होता है जो 19वीं सदी के मध्य से स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व हुए।

बंगाल- सर्वप्रथम बंगालमे कृषकों द्वारा नील-विद्रोह हुए नील की खेती दो प्रकार से होती थी।

(1) मिजआबाद- जहाँ प्लाण्टरों की भूमि पर श्रमिकों की सहायता से खेती होती थी तथा (2) रैयती जहाँ कृषक अपनी भूमि में नील की खेती करता था। वह अग्रिम रूप में कुछ धन ले लेता था और फिर समस्त फसल को पूर्व निर्धारित निश्चित भाव से बेच देता था। 19वीं सदी के मध्य तक आते-आते कृषकों को नील की तुलना में पटसन या तम्बाकू की खेती अधिक लाभदायक प्रतीत होनेलगी थी। नील की खेती करवाने में अधिकांश यूरोपीय प्लाण्टर रुचि रखते थे तथा प्रजातीय विभेद की सहायता लेकर बलपूर्वक नील की खेती करवाते थे। इस व्यवस्था में एक बार किसी कृषक ने यदि प्लाण्टर से कुछ धनराशि अग्रिम ले ली तो वह पीढ़ियों तक उसे नहीं लौटा सका। उसे कम मूल्य पर नील बेचना पड़ता था। सन् 1859 ई0 में नौल त्रिद्रोह आरम्भ हुआ। सन् 1860 ई0 में यह अधिक व्यापक हुआ क्योंकि 1859 ई0 के रेण्ट अधिकनियम के विरुद्ध असन्तोष भी इसमें सम्मिलित हो गया।

कैनिंग ने प्लाण्टरों का पक्ष लेना चाहा, लेकिन भारत सचिव ने इसकी अनुमति नहीं दी। पलाण्टरों ने अपनी पूंजी बिहार और उत्तर प्रदेश की ओर हस्तान्तरि करनी आरम्भ कर दो।

गुजरात आन्दोलन

गुजरात आन्दोलन गुजरात के लोगों विशेष रूप से गुजरात के छात्रों द्वारा चलाया गया एक आन्दोलन था तो तत्कालीन क्रांगेसी सरकार के विरुद्ध चलाया गया। इस आन्दोलन में जयप्रकाश नारायण ने महति भूमिका अदा की। इस आन्दोलन न हो ‘सम्पूर्ण क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया।

आन्दोलन की पृष्ठभूमि

15 अगस्त, सन् 1947 ई0 को भारत स्वतन्त्र हुआ तथा भारत में पश्चिमी देशों में प्रचलित संसदीय शासन व्यवस्था ने भारत की समस्याओं को कम न करने और बढ़ाया। प्रशासन में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और अनैतिकता ज्याप्त हो गई। बेरोजगारी में वृद्धि हुई दया कमजोर वर्गों पर अनेक प्रकार के अत्याचार हुए।

स्वार्थ, पक्षपात तथा दलबन्दी कके कारा समाज दूषित हो गया तथा प्रशासन एक प्रकार से निष्क्रिय हो गया। भारत के अनेक भागों की तरह ही गुजरात के कांग्रेस मन्त्रिमण्डल (चिमनभाई पटेल मन्त्रिमण्डल) की दुषित कार्य प्रणाली को लेकर लोगों में रोष की भावना फैल गई। विशेष रूप से गुजरात के छात्रों में असन्तोष की भावना का जब बिस्फोट हुआ, तब उनका नेतृत्व करने के लिए जयप्रकाश जी को आमन्त्रण दिया गया।

गुजरात आन्दोलन की माँगें

(1) गुजरात की प्रष्ट रिकार को सत्ता से हटा कर राज्य में शीघ्र ही नए चुनाव कराए जाएँ। (2) आवश्यक वस्तुओं की सस्ते दर पर आपूर्ति की जाए। (3) मूल्यों में स्थिरता लायी जाए। (4) न्यूनतम मजदूरी की गारण्टी हो। (5) आर्थिक असमानताएँ समाप्त की जाएँ। (6) प्रभावशाली भूमि सुध्यार लागू किए जाएँ। (7) भूमिहीनों को भूमि तथा खेतिहर मजदूरों को उचित मजदूरी मिलें। (8) पूर्ण रोजगार का आश्वासन हो। (9) विधि के शासन की स्थापना के लिए लोकतान्त्रिक अधिकार और नागरिक स्वतन्त्रता बहार हो। (10) स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों की व्यवस्था हो । (11) मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार प्रदान किया जाए और मतदाता की आयु 21 वर्ष के स्थान पर 18 वर्ष की जाए। (12) भ्रष्टाचार के उन्मुलन के लिए लोकपाल की नियुक्ति की जाए तथा अन्य उचित उपाय मी अपनाए जाएं।

आन्दोलन का परिणाम

छात्रों एवं युवाओं का यह आन्दोलन अत्यधिक सफल रहा एवं इसके परिणामस्वरूप 15 मार्च, सन् 1974 को गुजरात की चिमनभाई पटेल सरकार की विधानसभा भंग करने के बाद उन्हें ण्टच्युत कर दिया गया। इससे प्रेरित होकर बिहार के छात्रों ने भी अपनी भ्रष्ट और निकम्मी सरकार (अब्दुल गफूर मन्त्रिमण्डल) को हटाने के लिए आन्दोलन की राह पकड़ ली तथा सम्पूर्ण क्रान्ति का आगाज हुआ।

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Pankaja Singh

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