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सामाजिक सुधार आन्दोलन | सामाजिक आन्दोलन के उत्तरदायी कारण | सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं

सामाजिक सुधार आन्दोलन | सामाजिक आन्दोलन के उत्तरदायी कारण | सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं | Social Reform Movement in Hindi | Reasons responsible for social movement in Hindi | Main characteristics of social movement in Hindi

सामाजिक सुधार आन्दोलन

(Social Reform Movements)

यह आन्दोलन सामाजिक व्यवस्था व सामाजिक सम्बन्धों में इस तरह आंशिक परिवर्तन लाते हैं जिससे रुढ़ियों के प्रभाव को कम करके प्रगतिशील व्यवहारों को प्रोत्साहन मिल सके। राजा राम मोहन राय, महात्मा गांधी, मीमराव अम्बेडकर, स्वामी दयानन्द, श्री नारायण गुरुस्वामी द्वारा सती- प्रथा, छुआछूत स्त्रियों के शोषण व वैवाहिक कुप्रथाओं के विरुद्ध किये गये। आन्दोलनों को सामाजिक सुधार आन्दोलनों की श्रेणी में रखा जाता है।

मैक्लालिन के अनुसार, “समाज के आदर्शों और मूल्यों का उपयोग सामाजिक दुर्गुणों के विरोध में करना ही सुधार आन्दोलन का सार है।”

ऐसे आन्दोलनों का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त कुप्रथाओं को दूर करके सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाना होता है। उन्नीसवीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों ने सामाजिक आन्दोलन चलाए।

मैक्लालिन के अनुसार, “मौजूदा आदर्शों और मूल्यों का उपयोग, सामाजिक कुरीतियों के विरोध के लिए करना ही सुधार आन्दोलन है।” सुधार आन्दोलन वासतव में सामाजिक व्यवस्था की समय की दृष्टि से किया जाने वाला सामाजिक सुधार है। सवुधार आन्दोलनों की पहचान दो प्रकार से की जाती है-

  1. मूल्य व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन करना,
  2. सामाजिक सम्बन्ध में अनुवर्ती परिवर्तन लाना।

सामाजिक सुधार आन्दोलन का एक विशेष आन्दोलन का रूप है, टर्नर व किलीयन के अनुसार, “सामाजिक आन्दोलन का अर्थ व्यक्तियों के एक बड़े समूह द्वारा निरन्तर रूप से समाज अथवा समूह में कोई विशेष परिवर्तन उत्पन्न करने या परिवर्तन को रोकने के लिए प्रयत्न करना है।”

अतः निष्कर्ष रूप से कहा जाता है कि सामाजिक आन्दोलन एक समाज के कुछ व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक प्रयास है इसका उद्देश्य कुछ विशेष समस्याओं का समाधान करना होता है और आन्दोलन की प्रक्रिया एक नई जागरूकता पर आधारित होती है।

सामाजिक आन्दोलन के उत्तरदायी कारण-

अगर कोई व्यक्ति भारतीय सामाजिक आन्दोलन का अध्ययन करना चाहता है तो उसे दो दृष्टिकोणों में से एक को सामने रखकर समझना होगा। ये दो दृष्टिकोण हैं-शास्त्रीय अथवा पुस्तकीय दृष्टिकोण (Classical or texutal vicw) तथा क्षेत्राधारित दृष्टिकोण (field view)। शास्त्रीय अथवा पुस्तकीय दृष्टिकोण में भारतीय समाज को समझने के लिए उन ग्रन्थों एवं महाकाव्यों की सहायता ली जाती है जिनमें भारतीय समाज का विशद चित्रण किया गया है। इनमें भारतीय समाज का जो चित्रण प्रस्तुत किया गया वह एक आदर्श चित्र है तथा जिसके अस्तित्व के बारे में विद्यानों में मतैक्य का अभाव पाया जाता है। यह दृष्टिकोण अध्ययन का आदर्शात्मक दृष्टिकोण (Normative view) भी कहा जाता है। इस दृष्टिकोण को निम्नलिखित दो उपभागों में विभाजित किया जा सकता है –

(1) दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण (Philosophical Perspective)- अनेक समाजशास्त्रियों जो कि प्रो0 जे.पी. मुकर्जी से अत्यधिक प्रभावित थे, ने प्रत्यक्ष रूप से तार्किक एवं पद्धति शास्त्रीय समस्याओं के अध्ययन में रुचि दिखाई है। इनके अध्ययन दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित हैं तथा भारतीय इतिहास व परम्परागत भारतीय चिन्तन को महत्व प्रदान करते हैं। ऐसे समाजशास्त्री समाजशास्त्री प्रत्यक्षवाद (Sociological positivism) के कुछ आलोचक हैं। यद्यपि ये समाजशास्त्री पश्चिमी समाजशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र से अच्छी तरह परिचित हैं, फिर भी वे परम्परागत भारतीय दर्शन तथा चिन्तर से जुड़े हुए हैं। वे सामाजिक व्यवस्था के नैतिक व धार्मिक नियमों की पुनस्थापना में प्रयासरत हैं।

(2) भारतीय विद्याशास्त्रीय दृष्टिकोण (Indological perspetive)- इस दृष्टिकोण के समर्थक भारतीय समाज को भारतीय धर्मग्रन्थों तथा वैधानिक ऐतिहासिक प्रलोखों (Indian seriptures and legalk historical documents) के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। आधुनिक भारतीय संस्थाओं की व्याख्या प्राचीन ग्रन्थों से प्राप्त तथ्यों द्वारा ही सम्भव है तथा ग्रन्थ जितना प्राचीन होगा उतना ही वह प्रमाणिक होगा।

जिन विद्यानों ने भारतीय समाज को समझने के लिये शास्त्रीय दृष्टिकोण को अपनाया है, उन्होंने भारतीय समाज के उन दार्शनिक एवं संस्थागत आधारों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है जो शास्त्रों एवं महाकाव्यों में उल्लेखित है। दार्शनिक आधारों के अन्तर्गत उन सिद्धानतों को रखा जाता है जिनका उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को परिष्कृत करके उसको लक्ष्यों व कर्त्तव्यों से परिचित कराना है। संस्थागत या संगठनात्मक आधारों के अन्तर्गत वे सामाजिक योजनायें आती हैं जिनके माध्यम से व्यक्ति और समूह में सामंजस्य रखने का प्रयास किया गया है ताकि उनकी कार्यक्षमताओं का पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सके। धर्म की प्रधानता पुरुषार्थ, कर्म व पुनर्जन्म, ऋण व यज्ञ तथा संस्कार भारतीय सामाजिक आन्दोलन के प्रमुख दार्शनिक एवं शास्त्रीय आधार हैं। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था तथा उच्च आदर्श इसके संस्थागत अथवा संगठनात्मक आधार हैं। इन दार्शनिक एवम् संस्थागत आधारों से ही इसमें प्राचीनता व स्थायित्व सहिष्णुता, अनुकूलनशीलता, सर्वांगीणता, ग्रहणशीलता, लोकातितत्व, बहुलवाद तथा अनेकता में एकता जैसे लक्षण भी विकसित हुए हैं। इन आधारों पर भारतीय समाज का जो चित्र विकसित होता है उसे हम भारतीय समाज का शास्त्रीय अथवा पुस्तकीय पार्श्व चित्र भी कहते हैं।

क्षेत्राधारित दृष्टिकोण में भारतीय समाज को समझने के लिए क्षेत्रीय वास्तविकता को आधार माना जाता है, अर्थात् जिस प्रकार का समाज विद्यमान है उसका डी यथार्थ के रूप में चित्रण करने का प्रयास किया जाता है। यही दृष्टिकोण आनुभाविक अनुसन्धान (Empirical Research) पर आधारित अध्ययनों की महत को स्वीकार करता है। आनुभाविक अनुसंधान सामाजिक सम्बन्धों, घटनाओं तथा तथ्यों से सम्बन्धित है जिसमें इनकी व्याख्या, कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज, नवीन तथ्यों की खोज तथा पुराने तथ्यों की प्रामाणिता की जाँच वैज्ञानिक ढंग से करने का प्रयास किया जाता है। अतः आनुभाविक अनुसंधान एव व्यवस्थित पद्धति है, जिसमें सामाजिक तथ्यों की वास्तविकता, उनके कार्य-करण सम्बन्धों एवं प्रक्रियाओं के बारे में क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि अधिकांशतः आनुभाविक अनुसंधान समस्या से सम्बन्धित क्षेत्र में जाकर किये जाते हैं, इसलिये इसे प्रयागसिद्ध अनुसंधान भी कहा जाता है। इस प्रकार आनुभाविक या प्रयोगसिद्ध अनुसंधान का अर्थ उस अनुसंधान से हे जो क्षेत्रीय आँकड़ों द्वारा संकलित प्राथमिक सामग्री पर आधारित होता है।

सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं

(1) सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति-सामाजिक आन्दोलन सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति स्पष्ट अभिव्यक्ति है। इस रूप में सामाजिक आंदोलन समाज के किसी वर्ग विशेष अथवा वर्गों भी भीतर ही भीतर पल रहे असंतोष को सामाजिक धरातल पर एक समस्या के रूप में ले आता है। जिससे वास्तविकता उजागर हो जाती है।

(2) सामाजिक परिवर्तन का माध्यम- सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है। वास्तव में, सामाजिक आन्दोलन वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध होता है और इसमें परिवर्तन की पुरजोर माँग करता है। इस प्रकार, सामाजिक आंदोलन के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त होता है।

(3) वृहद स्तरीय आंदोलन- सामाजिक आन्दोलन से आशय वृहद् स्तरीय आंदालने से होता है। इसका क्षेत्र विस्तृत होता है एवं इसका प्रभाव समाज के बहुत बड़े भाग पर पड़ता है। छोटे- मोटे आंदोलनों को सामाजिक आंदोलन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। उदाहरणास्वरूप किसी स्कूल, कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय के छात्रों का किन्हीं प्रशासनिक समस्याओं को लेकर किया जाने वाला आन्दोलन सामाजिक आन्दोलन नहीं हो सकता है।

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Pankaja Singh

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