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श्रम कल्याण | श्रम कल्याण का महत्व एवं आवश्यकता | श्रम कल्याण संस्थाएँ एवं उनके कार्य

श्रम कल्याण | श्रम कल्याण का महत्व एवं आवश्यकता | श्रम कल्याण संस्थाएँ एवं उनके कार्य | Labor welfare in Hindi | Importance and need of labor welfare in Hindi | Labor welfare institutions and their functions in Hindi

श्रम कल्याण (Labour Welfare)-

श्रम कल्याण शब्द की व्याख्या अत्यन्त व्यापक अर्थों में की जाती है तथा इसमें वे सब कार्य सम्मिलित किए जाते हैं जो श्रमिकों की भलाई के लिए किए जाते हैं जैसे- उनके मनोरंजन के लिए खेल-कूद अथवा नाटकों का आयोजन, उनके जलपान के लिए केण्टीन की व्यवस्था, सफाई, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएँ, निवास की सुविधाएँ, यातायात की सुविधा तथा अन्य सभी कार्य जिनका उद्देश्य श्रमिकों का मानसिक, शारीरिक, नैतिक आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्थान करना हो। श्रम कल्याण इतना व्यापक शब्द है कि श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के अन्तर्गत किए जाने वाले कार्य भी इसी में सम्मिलित किए जाते हैं; जैसे भविष्य निधि की व्यवस्था अथवा बीमारी और बेकारी से सम्बन्धित बीमा, आदि। श्रमिकों में बचत एवं मितव्ययिता की आदत पैदा करने के उद्देश्य से सहकारी समितियों का निर्माण अथवा बचत बैंकों की स्थापना भी श्रम कल्याण का अंग है। “श्रम कल्याण कार्य वर्तमान औद्योगिक व्यवस्था में तथा कार्य-पद्धति में यदा-कदा रहन-सहन वं सांस्कृतिक दशाओं में किए जाने वाले स्वैच्छिक कार्यों का प्रतीक है, जो वैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनिवार्य प्रावधानों के अलावा व्यावसायिक, परम्परा अथवा बाजार में प्रचलित दशाओं के अन्तर्गत किए जाते हैं।”

श्रम-कल्याण कार्यों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। कारखाने के अन्दर श्रम कल्याण कार्य जिन्हें इण्ट्रा-प्यूरल (intra-mural) कहते हैं तथा कारखाने के बाहर किए जाने वाले कार्य जिन्हें एक्स्ट्रा-म्यूरल (extra-mural) नाम से सम्बोधित किया जाता है। कारखाने के अन्दर श्रम- कल्याण से सम्बन्धित कार्यों में वे सब कार्य आ जाते हैं, जिनका सम्बन्ध सफाई, रोशनी, पानी, प्राथमिक चिकित्सा, दुर्घटनाओं से सुरक्षा, शिशुगृह (creches), जलपानगृह (canteen), विश्रामगृह, वाचनालय आदि से होता है। फैक्टरी एक्ट के अन्तर्गत इन सबके विषय में वैधानिक व्यवस्थाएँ सम्मिलित की गयी हैं जिनका पालन करना मिल-मालिक का न्यूनतम वैधानिक दायित्व है, किन्तु यदि कोई मिल-मालिक चाहे तो न्यूनतम वैधानिक दायित्व को पूरा करने के अतिरिक्त श्रमिकों के कल्याण के लिए और भी अधिक कार्य कर सकता है। कारखाने के बाहर किए जाने वाले श्रम- कल्याण कार्यों में मकानों की व्यवस्था, बिजली की व्यवस्था, शिक्षा एवं चिकित्सा सुविधाएं, सस्ती दर पर परिवहन की सुविधा, खेल-कूद, पार्क एवं अन्य मनोरंजन के लिए किए जाने वाले कार्य आते हैं। जिन कारखानों में 500 या इससे अधिक श्रमिक कार्य करते हैं उनमें श्रम कल्याण अधिकारी (Labour Welfare Officer) की नियुक्ति अनिवार्य है।

श्रम कल्याण का महत्व एवं आवश्यकता

भारत जैसे देश में अन्तपिछड़े हुए तथा है, अतः श्रम कल्याण कार्यों कई अत्यन्त  आवश्यकता है। इनका इलए भी अधिक है कि ऐसे कार्यों में श्रमिकों की मानसिक एवं शारीरिक होती है उता में वृद्धि होती है। यह सोचना उचित नहीं है कि ऐसे कार्यों पर किया गया व्यय व्यर्थ होता है। इसके विपरीत, श्रम-कल्याण कार्यों पर व्यय किया गया विनियोग दीर्घकाल में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होता है, इन कार्यों में श्रमिकों की मानसिक एवं शारीरिक दशा में सुधार होता है तथा वे जीवन के प्रति पूर्व अपने व्यवसाय के प्रति अधिक न्याय कर सकते हैं। विदेशों में सिद्धान्त को भी प्रकार समझ लिया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में बड़े-बड़े उत्पादकों द्वारा अपने श्रमिकों की सुख-सुविधा पर इतना अधिक ध्यान दिया जाता है जितना कि शायद किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलता। उसकी तुलना में भारतीय श्रमिकों के कल्याण के लिए अभी बहुत कम कार्य किए गए है।

भारतीय श्रमिक को बहुत कम वेतन दिया जाता है। पिछले बीस वर्षों में उसकी वास्तविक मजदूरी में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ उसकी वास्तविक मजदूरी में जो वृद्धि हुई है उससे कहीं अधिक अनुपात में मूल्यन गया है और इस प्रकार भारतीय श्रमिक उसी स्थिति में है जिसमें कि वह पहले था। अपनी इस नयनीय स्थिति एवं साधनहीनता के कारण वह इस स्थिति में नहीं है कि वह अपने जीवन को अधिक सुखपूर्ण बना सके तथा अपने बच्चों की शिक्षा, आदि पर व्यय कर सके। यह कार्य समाज को करना होगा, अन्यथा स्वयं समाज को ही इससे हानि होगी। भारत के अधिकांश श्रमिक, परिस्थितियों से बाध्य होकर ही गाँवों से चलकर शहरी कारखानों में कार्य करने आते हैं। उनका शरीर यद्यपि शहर के कारखानों में होता है, तथापि उनका मन सदैव गांव की ही बात सोचता है। फसल के समय और जब भी सुविधा होती है ये गांव की ओर भागते हैं। इस प्रवासी प्रवृति के कारण हम औद्योगिक क्षेत्रों में स्थायी श्रमिक क्षेत्रों का निर्माण नहीं कर सके है, जिनकी देश को आज बहुत आवश्यकता है। कृषि पर से जनसंख्या का बोझ कम करने के लिए भी गावों में अधिकाधिक व्यक्तियों को कारखाने की ओर आकर्षित करना आवश्यक है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम श्रमिकों के लिए कारखाने के अन्दर एवं बाहर का वातावरण अत्यन्त आकर्षण बनायें और उनके लिए प्रकार की सुविधाओं की व्यवस्था करें। भारत में अभी श्रमिक संघों का विकास बहुत कम हुआ है और हमारे श्रमिक संगठित होकर अपनी उचित मांगों की स्वीकार करवाने के लिए अधिक नहीं डाल सकते हैं इन सब बातों को देखते हुए ही भारत में श्रम- कल्याण कार्यों की बहुत आवयकता है।

श्रम कल्याण संस्थाएँ एवं उनके कार्य

भारत में श्रम कल्याण कार्य मिल मालिकों, श्रम-संघों एवं सरकार द्वारा किए जा रहे हैं जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है –

(1) मिल-मालिकों द्वारा भारत के मिल मालिकों ने अभी श्रम कल्याण कार्यों के महत्व को भली प्रकार नहीं समझा है। फैटरी एवर में उल्लिखित कार्यों को सम्पन्न करके वे केवल वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करते हैं, जिसे करना, उनका वैधानिक दायित्व है। ये कार्य भी केवल कानूनी कार्यमाहियों से बचने के लिए किए जाते हैं न कि श्रमिकों को सन्तुष्ट करने एवं उनकी दशा को सुधारने के लिए, जैसा कि वस्तुतः होना चाहिए। अनेक उद्योगपति कारखाने के बाहर किए जाने वाले श्रम कल्याण कार्यों के महत्व को स्वीकार तो करते हैं, किन्तु वे ऐसे कार्यों पर धन व्यय करने से पते रहे हैं। फिर भी भारत में कुछ ऐसे उद्योगपति हैं जो श्रम कल्याण कार्यों के महत्व को स्वीकार करते हैं और उन पर यथाशक्ति धन भी व्यय करते हैं। टाटा एण्ड सन्स एवं बिरला द्वारा औद्योगिक संस्थानों में ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं। इन संस्थानों ने श्रमिकों के निवास के लिए साफ-सुथरी बस्तियों के निर्माण, उनके बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल एवं कॉलेजों की स्थापना, अस्पतालों के द्वारा उनकी चिकित्सा की व्यवस्था, खेलकूद एवं मनोरंजन के लिए पार्कों के निर्माण तथा साहित्यिक रुचि के लिए पुस्तकालयों एवं वाचनालयों के निर्माण की ओर अधिक ध्यान दिया है। मुम्बई के मिल-मालिक संघ एवं कोलकाता के इण्डियन जूट मिल्स एसोसिएशन ने भी इस ओर ध्यान दिया है। दिल्ली क्लॉथ मिल, जे0के0 संस्थान, मोदी मिल्स, बकिंघम कर्नाटक मिल्स के नाम भी इस विषय में उल्लेखनीय हैं।

(2) श्रमिक संघों द्वारा वस्तुतः श्रमिक संघ भी श्रम कल्याण कार्यों में बहुत कुछ सहायता कर सकते हैं। इगलैण्ड एवं रूस के श्रमिक संघों ने इस दिशा में सराहनीय प्रयत्न किया है। भारत के श्रमिक संघों की साधनहीनता इनके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। फिर भी श्रमिक संघों ने श्रमिकों के कल्याण के लिए यथाशक्ति कार्य करने का प्रयत्न किया है। अहमदाबाद के मिल मजदूर संघ का कार्य इस क्षेत्र में प्रशंसनीय रहा है। कानपुर एवं इन्दौर के कपितय श्रमिक संघों ने भी श्रमिकों के कल्याण के लिए कुछ कार्य किया है।

(3) सरकार द्वारा किए गए कार्य- श्रम कल्याण कार्य केन्द्रीय सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा किए जाते हैं। भारत सरकार द्वारा श्रमिकों लिए पास किए गए विभिन्न कानूनों में श्रमिकों के कल्याण के लिए उचित व्यवस्थाओं का दायित्व मिल-मालिकों पर डाला गया है। इन कानूनों में कारखाना अधिनियम (1952), बागान अधिनियम, (1954) तथा मोटर यातायात कर्मचारी अधिनियम (1961), आदि उल्ले हैं। इसके अन्तर्गत विश्राम गृहों, शिशु-गृहों, जलपान-गृहों मूत्रालयों एवं शौचालयों, स्नान-गृहों, आदि की सुविधा प्रदान करने की व्यवस्था की गई। है। ऐसे कारखानों में यहाँ 500 या अधिक श्रमिक काम करते हों, श्रम-कल्याण अधिकारियों की नियुक्ति को आवश्यक बना दिया गया है, जो श्रमिकों के कल्याण के लिए किए जाने वाले कार्यों की देख-रेख करते हैं। इस प्रकार सरकार ने विभिन्न अधिनियमों को पास करके अप्रत्यक्ष रूप से श्रम कल्याण कार्यों को सम्पन्न कारवाने में योगदान दिया है तथा मिल-मालिकों के वैधानिक दायित्वों को निश्चित करके उन्हें इन कार्यों पर धन खर्च करने के लिए बाध्य कर दिया है।

इसके अतिरिक्त सरकार के द्वारा कुछ ऐसे कार्य किए गए हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध श्रम- कल्याण से है। सर्वप्रथम सन् 1964 में अम्रक खान श्रम कल्याण कोष की स्थापना की गई और इसके लिए अभ्रक उत्पादन पर उपकर लगाकर धन की व्यवस्था की गई। इसी प्रकार का एक कोष सन् 1947 में कोयला खान श्रम कल्याण कोष अधिनियम पास करके स्थापित किया गया और वित्त की व्यवस्था कोयले के उत्पादन पर उप-कर लगाकर की गई। कोयला खान श्रमिक कल्याण कोष के अन्तर्गत 3 केन्द्रीय अस्पताल, 12 प्रादेशिक अस्पताल, 3 चिकित्सा केन्द्र एवं तपेदिक अस्पताल, वयस्क शिक्षा केन्द्र, महिला कल्याण केन्द्र बच्चों के लिए पार्क तथा परिवार नियोजन केन्द्र, आदि संचालित किए जा रहे हैं। कोयला खान श्रमिक कल्याण कोष के अधीन 3 केन्द्रीय अस्पताल, 12 क्षेत्रीय अस्पताल एवं प्रसूति केन्द्र, 53 प्रसूति तथा बाल कल्याण केन्द्र एवं तपेदिक अस्पताल, 29 आयुर्वेदिक डिस्पेन्सरी तथा एक मोबाइल मेडिकल यूनिट कार्यशील थे। इसके अन्तर्गत शिक्षा संस्थाएँ, होलीडे होम्स (Holidays Homes) तथा बोर्डिंग हाउसेज, आदि भी इस कोष के अन्तर्गत संचालित थे।

श्रमिक एवं कोयला खदानों के श्रमिकों के लिए निर्मित कल्याण कोषों के अतिरिक्त पिछले वर्षों में अन्य उद्योगों के लिए भी श्रमिक-कल्याण कोषों की स्थापना की गई है जिनमें निम्नलिखित उललेखनीय हैं- चूना एवं डोलोमाइट खान श्रमिक कल्याण कोष अधिनियम, 1972, लोहा एवं मैंगनीज खान श्रमिक कल्याण उपकर अधिनियम, 1976 बीड़ी-उद्योग श्रमिक कल्याण उपकर अधिनियम, 1976। सन् 1980 में आयोजित श्रम-मन्त्रियों के सम्मेलन में यह सुझाव दिया गया कि मत्स्य-उद्योग (Fishery) एवं चमड़ा उद्योग (Leather Indstury) में ऐसे कोषों की स्थापना की जानी चाहिए। इन कोपों के लिए वित्तीय साधन सम्बन्धित उद्योग के उत्पादन अथवा निर्यातों पर उप-कर (cess) लगाकर उपलब्ध किए जाते हैं तथा इनका संचालन केन्द्रीय वित्त मन्त्रालय करता है जिसके अधीन इलाहाबाद, बंगलौर, भीलवाड़ा, भुवनेश्वर, जबलपुर एवं गोवा में श्रम-कल्याण आयुक्त (Welfare Commissioners) नियुक्त है।

श्रम-कल्याण कार्यों को आगे बढ़ाने के मार्ग में सबसे बड़ी समस्या धन की है। इन कार्यों के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है जिसे पूरा करना सभी मिल-मालिकों के कठिन होता है। औद्योगिक विकास के साथ-साथ धीरे-धीरे श्रम कल्याण कार्यों का भी विस्तार होता जाएगा। इसके अतिरिक्त उद्योगपतियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की भी समस्या है। उन्हें प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए ताकि वे यह भली प्रकार समझ सकें कि श्रम कल्याण पर खर्च किया गया व्यय अपव्यय न होकर एक उत्तम विनियोग है। कारखाने के बाहर श्रम कल्याण कार्यों को संगठित एवं संचालित करने के लिए उत्तम एवं कुशल कार्यकताओं के अभाव की भी समस्या हमारे समक्ष है। इसके लिए श्रमिक संघों को पहल करनी चाहिए और अपने कुछ सदस्यों को उचित प्रशिक्षण देकर इन कार्यों के आयोजन के लिए तैयार करना चाहिए।

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Pankaja Singh

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