समाज शास्‍त्र

सम्भ्रान्त का अर्थ या अतिवादी (नवीन) का अर्थ | अतिवादी समाजशास्त्र के बारेमेंमिल्स के विचार | समाज में संघर्ष का महत्व

सम्भ्रान्त का अर्थ या अतिवादी (नवीन) का अर्थ | अतिवादी समाजशास्त्र के बारेमेंमिल्स के विचार | समाज में संघर्ष का महत्व | Meaning of elite in Hindi or meaning of extremist (new) in Hindi | Mills’s ideas about extremist sociology in Hindi | Importance of conflict in society in Hindi

सम्भ्रान्त या अतिवादी (नवीन) का अर्थ

अतिवादी (नवीन) समाजशास्त्र के समर्थकों का मानना है कि-मजबूत (सवल) की अपेक्षा कमजोर, शोषक को अपेक्षा शोषित, कुछ विशिष्ट वर्गों के हितों की अपेक्षा जनसमूह के अधिकारों को समर्थन देते हैं तथा स्वहित त्यागने की बात करते हैं। यह दृष्टिकोण माजिक संरचना के ऋणात्मक पक्षों-निर्धनता, प्रजातिवाद, शोषण, शक्तिहीनता तथा सैनिक-औद्योगिक संस्थापन पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है अतिवाद समाजशास्त्र इन्हें व्यवस्था की कमियाँ मानता है तथा व्यवस्था के सम्पूर्ण रूपान्तरण पर बल देता है। वास्तव में यह सम्भ्रान्तजन की अवधारणा है।

अतिवादी समाजशास्त्र के बारेमेंमिल्स के विचार

मिल्स के अतिवादी समाजशास्त्री सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक समाज को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) निम्नतर स्तर, जिसमें असाम्भ्रांतजन अथवा जनसमूह सम्मिलित है तथा (2) उच्चतर स्तर, जिसमें साम्भ्रान्त वर्ग को सम्मिलित किया जाता है। साम्भ्रान्त वर्ग भी दो प्रकार का है-(अ) शासक साम्भ्रान्तजन और

() गैर-शासक साम्प्रान्तजन शासक साम्भ्रान्तजन में वे व्यक्ति आते हैं जो शासन के भीतर प्रतयक्ष अथवा परोक्ष रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जबकि गेर शासक साम्गन्तजन में वे व्यक्ति सम्मिलित किये जाते हैं जो सेना, व्यापारिक क्षेत्रों धार्मिक संगठनों या अन्य मानवीय क्रियाओं (सत्ता संरचना के अतिरिक्त) में सर्वोच्च स्थान रखते हैं

समाज के सामान्त वर्ग तथा असाम्भान्त वर्ग की संरचना स्थायी नहीं होती तथा इनमें  परिवर्तन होते रहते हैं। अर्थात् जनसमूह एवं साम्भ्रान्त वर्ग के सदस्यों में अनवरत रूप से परिभ्रमण होता रहता है परिभ्रमण की यह प्रक्रिया कभी साम्भ्रान्त वर्ग और जनसमूह में तथा किनी एक सामान वर्ग से दूसरे साम्भ्रान्त वर्ग में परिवर्तनों प्रत्शवर्तनों के रूप में देखी जा सकती है।

(1) वैयक्तिक चितायें- प्रतयेक मनुष्य शारीरिक तथा मानकि रूप से असमान है, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विचार क्षमता, रूचि बुद्धि, सक्ष्य दूसरे के साथ समानता नहीं रखते हैं। यहीं असमानता जब इतनी अधिक हो जाये कि दूसरे के साथ अनुकूलन ने किया जा सके तथा संघर्ण प्रारम्भ हो जाता हैं।

(2) सांस्कृतिक भिन्नतायें- संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व को बनाने में महत्ववपूर्ण योगदान देती है और प्रत्येक मानव पर उसकी संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव होता है। जब सांस्कृतिक भिन्नताओं में वृद्धि हो जाती है तो प्रक्रिया क्रियाशील हो जाती है। उदाहरण के लिये- भारत में जो साम्प्रदायिक दंगे होते हैं उनका मुख्य कारण सांस्कृतिक मित्रता है

(3) हितों में भेद- हितों का जीवन के किसी पक्ष से सम्बन्ध हो सकता है और जब हितों में भेद या टकराव उत्पन्न होता है तो संघर्ष शुरू हो जाता है। आर्थिक क्षेत्र में हितों के भेद के कारण मालिक तथा श्रमिकों के मध्य संघर्ष उत्पन्न होता है।

(4) सामाजिक परिवर्तन- जब समाज में परिवर्तन होता है 4तो समाज के प्रचलित मूल्य, आदर्श, नियम आदि में परिवर्तन होता है। इसका प्रभाव यह पता है कि एक वर्ग पुरातन मूल्यों  को लिये बैठा रहता है और दूसरा सामाजिक परिवर्तन के पश्चात् नये मूल्यों को ग्रहण कर लेता है और दोनों नये तथा पुरानों के दृष्टिकोण, व्यवहार व आदर्शों में अन्तर हो जाता है किसी भी समाज में नई तथा पुरानी पीढ़ियों का समर्प इसके उदाहरण के रूप हैं।

समाज में संघर्ष का महत्व

बाह्य रूप से संघर्ष का विवेचन करने पर ऐसा लगता है कि संघर्ष से सिर्फ समस्याये तथा कठिनाइयाँ ही जन्म लेती हैं परन्तु इस धारणा को हन पूर्ण रूप से सत्य मान सकते हैं। सूक्ष्म दृष्टिकोण से ज्ञात होता है कि संघर्ष के कारण अन्य समूह में सुबहता का जन्म होता है।

र्यूटर तथा हार्ट का कथन है कि- “संघर्ष समझा आत्मचेतना और सामूहिक चेतना का आधार तथा विकास का कारण है।” समाज में अन्याय तथा शोषण को नियन्त्रित करने के लिये संघर्ष का योदान महत्वपूर्ण है।

यदि समाज में संघर्ष न हो तो अन्याय करने वाले व शोषण करने वाले इतने अधिक सीमा तक बढ़ जायेंगे, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रकार शोषण और अन्याय को रोकने के लिये संघर्ष महत्ववपूर्ण है। जब अन्याय एवं शोषण बढ़ जाता है तब संघर्ष का उदय होता है, और लोगों में स्नेह व मितता की भावना का विकास होता है।

मैकाइवर तथा पेज का कथन है कि- “समाज संघर्ष से काटा हुआ सहयोग है।”

संघर्ष के दापरिणाम के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि संघर्ष के कारण एकता भंग हो जाती है जिसका प्रभाव सामाजिक संस्थाओं पर पड़ता है। संघर्ष के कारण पता होती है तो उसका व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है और व्यक्तित्व का उचित ढंग से विकास नहीं हो पाता है। संघर्ष के कारण आर्थिक हानि के साथ मनुष्य की हानि भी होती है। इन दशाओं को देखते हुए संघर्ष की स्थिति को कम करने का प्रयत्न किया जाना चाहिये, लेकिन कुछ समाजशास्त्रियों ने संघर्ष को एक ऐसा साधन माना है जिससे संसार प्रगति के पथ पर नीवता से अग्रसर हो सके।

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Pankaja Singh

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