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आधुनिक उद्योगवाद का विकास | Development of modern industrialism in Hindi

आधुनिक उद्योगवाद का विकास | Development of modern industrialism in Hindi

आधुनिक उद्योगवाद का विकास

आधुनिक उद्योगवाद का विकास औद्योगिक रुचि के क्रमिक विकास का परिणाम है। अति प्राचीन काल से ही मनुष्य ने उत्पादन कार्य किया है। प्राचीन अशिक्षित समाजों में भी उत्पादन के लिये विभिन्न प्रकार के उपकरणों अथवाा साधारण मशीनों का उपयोग होता रहा है। ये मशीने या तो हाथ से चलायी जाती थीं अथवा पशुओं की सहायता से उत्पादजन की वस्तुओं में अनाज इत्यादि दैनिक उपयोग की वस्तुओं को विनिमय के लिये आस-पास के क्षेत्रों में लाने-ले जाने के लिये भी मानव निर्मित साधनों का प्रयोग किया जाता था। जैसे जैसे आर्थिक सम्बन्धों का विकास हुआ विभिन्न वस्तुओं की मांग बढ़ने लगी तो श्रम विभाजन और विशेषीकरण भी होने लगा। बढ़ई, लोहार, बुनकर, कुम्हार इत्यादि विशिष्ट शिल्पियों का विकास हुआ और धन की आवश्यकता की पूर्ति के लिये महाजन भी सामने आ गये। शिक्षा और विज्ञान की प्रगति के नवीन आविष्कारों को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप औद्योगिक क्रान्ति हुयी और उद्योगवाद का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ। इस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न उद्योगवाद के बीज सहस्त्रों वर्ष पूर्व बोये जा चुके थे। आधुनिक उद्योगवाद के विकास की प्रक्रिया के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं-

(1) सामन्ती व्यवस्था

उद्योगवाद का आधुनिक स्वरूप चूँकि यूरोपीय देशों, विशेषतः, इंग्लैंड में प्रारम्भ हुआ अतः इसी क्षेत्र में प्रचलित आर्थिक व्यवस्था के प्रारम्भिक स्वरूप को ही उद्योगवाद के बीच के रूप में समझा जा सकता है। इस क्रम में उद्योग का प्रारम्भिक स्वरूप सामन्ती अथवा जमींदारी प्रथा के अन्तर्गत नवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक प्रचलित रहा। इस काल में भूमि उद्योग का मुख्य आधार थी और सामन्त या जगीरदार जमीन के मालिक थे। इनकी जमीन पर किसान और मजदूर श्रम करते थे। इस काल में व्यापार करने वाले दस्तकार, लोहार आदि भी थे। उपभोग के लिये प्राय उत्पादन होता था और जो थोड़ा बहुत बचता था वह अन्य उपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति के लिये विनिमय के साधन के रूप में सुरक्षरित रख लिया जाता था। वस्तु विनिमय की प्रथा प्रचलित थी। सामन्तों में परस्पर संघर्ष भी होते थे। अतः उनके खेती में काम करने वाले किसानों को आवश्यकता पड़ने पर सैनिकों के रूप में काम करना पड़ता था।

(2) व्यावसायिक श्रेणी व्यवस्था

मध्ययुगीन यूरोप में नगरों का विकास उद्योगवाद की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। सामन्तों के शोषण से त्रस्त खेतों पर कार्य करने वाले लोग दस्तकार स्वतन्त्र वातावरण में साँस लेने के इच्छा लेकर नगरों की ओर जाने लगे। इन नगरों में विभिन्न व्यावसायिक समुदायों या श्रेणियों का विकास होने लगा। नगरों में इन लोगों को जीवित निर्वाह के लिये स्वन्त्रतापूर्वक कला, शिल्प तथा व्यापार आदि के व्यवसायों को अपनाने का अवसर मिल गया है। नगर धीरे-धीरे उत्पादन केन्द्रों के रूप में विकसित हो गये जहाँ विशिष्ट औद्योगिक कार्य से सम्बन्धित लोगों के पृथक्-प्रथक् समुदाय या संघ बन गये थे सब व्यावसायिक समूह अपने-अपने क्षेत्र में भौतिक उत्पादन की गुणात्मक तथा गणनात्मक वृद्धि के लिए औजारों के प्रयोग के लिये तथा वस्तुओं के मूल्यों आदि नियमन के लिये प्रयत्नशील रहते थे। ये श्रेणी समूह एक प्रकार से ट्रेड यूनियनों के रूप में या व्यावसायिक संगठनों अथवा पारस्परिक सहायता समितियों के रूप में समझे जा सकते हैं।

इन व्यावसायिक संघों का कार्यक्षेत्र केवल आर्थिक ही नहीं था ये सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक कार्य भी सम्पन्न करते थे। इनके चुने हुए प्रतिनिधि भी भाग ले थे। मुख्य रूप से दो प्रकार के व्यावसायिक संघ उस समय प्रचलित थे। इनमें से एक को ‘व्यापारी संघ तथा दूसरे को शिल्पकार संघ’ कहा जाता था। व्यापारी संघ व्यापारियों के हितों की रक्षा के लिये संगठित रहते थे और शिल्पकार संघों का कार्य अपने अपने शिल्प कार्य में लगे व्यक्तियों के हितों की रक्षा करना था। लोहार, सुनार, दर्जी, बुनकर, चर्मकार आदि के अनेक व्यावसायिक संघ नगरों में विकसित हो गये थे। विश्वसनीय तथा उत्तम माल बनाना बाजार लगाना, मेलों का प्रचलन करना तथा सामान की बिक्री आदि की व्यवस्था करना भी इन शिल्प संघों का कार्य था।

व्यावसायिक संघों के मालिक प्रायः परिवारों के मुखिया होते थे और उनके बच्चे और रिश्तेदार ही प्रायः उनके निर्देशन और नियन्त्रण में कार्य करते थे। इस प्रकार इन व्यावसायिक समूहों में एक निश्चित सामाजिक संस्तरण था। औद्योगिक कार्य को निर्देशित और नियन्त्रित करने वाले मुखिया को ‘स्वामी’ कहा जाता था और कार्य करने वालों को प्रशिक्षार्थी’ कहा जाता था।

भारतवर्ष अति प्राचीन काल से ही इस प्रकार के व्यावसायिक संगठनों का केन्द्र रहा है। वैदिक काल से ही वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत इस प्रकार के व्यावसायिक समूह भारत में थे। जाति प्रथा के अन्तर्गत तो सम्पूर्ण भारतीय सामाजिक संरचना ही एक प्रकार से व्यावसायिक संघों से निर्मित हो गयी थी।

कुछ लोग संरक्षक या मध्यस्थ भी होते थे और शिल्पकारों को अग्रिम धन देकर उनसे माल बनवाते थे। भारत के शिल्पकार इतने होशियार थे कि यहाँ की बनी हुयी ‘मलमल’ और वस्त्रों को इंग्लैण्ड में ‘नारी की तरह हल्की और मकड़ी के जाले की तरह महीन’ कहा जाता था। सूती कपड़ा, कपास, सिल्क और अन्य वस्तुयें भारत निर्यात करता था। मुगल काल में इन व्यावसायिक संघों ने बहुत उन्नति कर ली थी। भारत से लगभग 200 प्रकार का कपड़ा बाहर जाता था। उस समय भारत को कुछ विद्वानों ने ‘संसार की कार्यशाला’ कहा है। मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् भारतीय शिल्प का पतन होने लगा। अंग्रेजी शासन ने भारत के उद्योग की बिल्कुल ही समाप्त कर दिया।

(3) घरेलू उत्पादन व्यस्था

व्यावसायिक श्रेणियों के पतन के लिये मुख्य रूप से दो कारण उत्तरदायी माने जाते हैं। व्यापारी संघों और शिल्पी की पारस्परिक प्रतियोगिता और संघर्ष इसके पतन का पहला कारण था। दूसरा और मुख्य कारण बाहरी परिस्थितियों में परिवर्तन था। नये मार्गों और नये देशों की खोज, नवजागरण और प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय., व्यक्तिवादी उपयोगितावादी प्रवृत्तियों का विकास और फ्रांस की क्रान्ति के जिन नवीन परिस्थितियों को जन्म दिया उन्होंने व्यावसायिक संघों के पतन में बहुत सहयोग दिया। व्यावसायिक श्रेणियों के पतन के साथ ही एक ऐसी पारिवारिक औद्योगिक व्यवस्था का विकास होने लगा था जिसके अन्तर्गत उद्योगवाद अथवा पूँजीवाद के अंकुर प्रस्फुटित हो रहे थे। इन औद्योगिक व्यवस्था को अमेरिका में घरेलू व्यवस्था कहा जाता है।

घरेलू उत्पादन व्यवस्था भी श्रेणी व्यवस्था के अनुरूप थी। अन्तर केवल यह था कि पारिवारिक सीमाओं में बंधी थी। घर का मुखिया या पिता स्वयं मालिक के रूप में कच्चा माल खरीद कर अपने परिवार के सदस्यों अथवा अन्य श्रमिकों या परिचितों से माल तैयार कराता था और ग्राहकों को बेच देता था। उद्योग का मालिक स्वयं श्रमिक भी था। इस प्रकार की उत्पादन व्यवस्था भारत के अंग्रेजी शासन के प्रारम्भिक काल तक थी। किन्तु धीरे-धीरे मध्यस्थों ने पैसे के बल पर कच्चा माल खरीद कर शिल्पियों से वेतन या मजदूरी पर बनवाना शुरू कर दिया और स्वयं ही तैयार माल अधिकतम लाभ पर बेचना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार काम करने वाले मालिकों के हाथ में औद्योगिक स्वामिल पैसे वालों के हाथ में आ गया और स्वतन्त्र शिल्पकार मजदूरों की स्थिति में आ गये। औद्योगिक क्रान्ति ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी जब बड़े उद्योगों में अच्छा और सस्ता माल बनने लगा और मजदूर शिल्पकार और कारीगर उभरते हुए पूँजीपतियों के श्रमिक बन कर काम करने लगे।

(4) आधुनिक उद्योगवाद

प्राचीन शिल्प और औद्योगिक कला का पतन औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न पूँजीवादी प्रवृत्तियों के कारण हुआ। आधुनिक उद्योगवाद का प्रारम्भ उद्योग-व्यवस्था से होता है। जनसंख्या की वृद्धि और नई खोजों तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समबन्धों के फलस्वरूप वस्तुओं की मांग बढ़ गयी। मशीनीकरण तथा श्रमिकों की पर्याप्त जनसंख्या अधिक वस्तुओं के निर्माण के लिये सहायक तत्व सिद्ध हुए। किन्तु मशीन और मजदूर सभी उपयोगी सिद्ध हो के जब स्वतन्त्रतापूर्वक उद्योग का संचालन करने के लिये पूँजीपतियों का एक विशिष्ट वर्ग सामने आ गया। इस पंजीपति, श्रमिक और मशीन के प्रसारण ने आधुनिक उद्योगदाद को जन्म दिया है।

आधुनिक उद्योगवाद में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में उत्पादन का केन्द्रीयकरण हो गया है। ये उद्योग ऐसे स्थानों पर स्थापित किये जाते हैं जहाँ कच्चा माल और बाजार उपलब्ध होते हैं। आधुनिक उपयोगवाद के विकास पर आधार यान्त्रिक शक्ति है। मानव शक्ति तथा पशु शक्ति के स्थान पर मशीनों के प्रयोग ने ही आधुनिक उद्योगवाद की स्थापना की है। भाप की शक्ति तथा अन्य यान्त्रिक आविष्कारों के कारण ही बड़े-बड़े कारखाने चलने लगे। आधुनिक उद्योगवाद के विकास में धन का संचय भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व रहा है। धन अथना पूँजी के बल पर कोई उद्योगपति चार मकानों, मानव, मशीन, माल और मुद्रा को इस ढंग से संयुक्त कर सकता है कि वह अधिकतम उत्पादन कर सके। किन्तु कारखानों को गति की निरन्तरता बाजार की स्थिति पर निर्भर करती है। आधुनिक उद्योगवाद का विकास तीन प्रकार के बाजारों के आधार पर ही हुआ है- (1) उपभोक्ता बाजार, (2) श्रम बाजार और (3) मुद्रा बाजार।

आधुनिक उद्योगवाद के विकास के साथ एक विशिष्ट सामाजिक संरचना भी स्पष्ट हो जाती है। आधुनिक उद्योग में काम करने वाले लोग एक नौकरशाही व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी औद्योगिक क्रिया के दौरान परस्पर औपचारिक सम्बन्ध रखते हैं। संचालक और मैनेजर से लेकर मजदूर और चपरासी तक प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित पद होता है और उससे सम्बद्ध कुछ भूमिकायें निश्चित होती हैं। कर्मचारी तन्त्र या नौकरशाही व्यवस्था के अन्तर्गत एक ओर तो उद्योग में काम करने वाले लोगों में औपचारिक सम्बन्ध होते हैं और दूसरों ओर विभिन्न कार्य समूहों के सदस्यों में आन्तरिक अनौपचारिकता भी विकसित हो जाती है। आधुनिक उद्योगवाद कर्मचारियों का सम्बन्ध दो पृथक्-पृथक् दायरों से होता है। वह कारखाने की आन्तरिक सामाजिक संरचना का अंग भी होता है और कारखाने से बाहर की दुनिया में भी उसके सामाजिक सम्बन्ध, पद और भूमिकायें उसके जीवन निर्देशित करती है।

भारतवर्ष में आधुनिक उद्योगवाद का बीजारोपण सन् 1850-60 के दशक में हुआ जब पहले सूती और जूट मिल खोले गये और बिहार तथा बंगाल की कोयला खानों को तत्कालीन शाही राजाधानी कोलकाता से मिलने वाली रेलवे लाइन का उद्घाटन हुआ। इसके पश्चात् रेलवे तथा सड़कों का तेजी से विकास हुआ जिससे भारत में उद्योगवाद का आधुनिक स्वरूप स्पष्ट होने लगा। भारत में कच्चे माल और श्रमिकों की बहुलता ने इंग्लैण्ड और पश्चिमी यूरोप में पूँजीपतियों को इस देश में उद्योग स्थापित करने की प्रेरणा दी और धीरे-धीरे उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक कपड़े, जूट और चमड़े के कारखाने स्थापित हो गये।

यद्यपि भारत में सभी उद्योग अंग्रेजी कम्पनियों के हाथ में थे, किन्तु शासकों ने भारत  में उद्योगवाद के विकास को रोकने का प्रयास  किया क्योंकि से नहीं चाहते कि भारत में निर्मित वस्तुएँ इंग्लैण्ड की वस्तुओं से प्रतियोगिता करें सन् 1911 में जमशेदपुर में डाटा आयरन एण्ड स्टील उद्योग की स्थापना को भारत में आधुनिक उद्योग विकास का महत्वपूर्ण चरण कहा जा  सकता है किन्तु आधुनिक उद्योगवाद के वास्तविक विकास भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात प्रारम्भ हुआ जिसके पश्चात् राष्ट्रीय सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपना कर सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में आधुनिक उद्योगवाद के विकास को क्रान्तिकारी गति प्रदान कर थी।

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Pankaja Singh

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