व्यूहरचनात्मक प्रबंधन

व्यूह रचना कार्यान्वयन में सन्निहित वाद-विषय पर निबन्ध | Essay on the issues involved in strategy implementation in Hindi

व्यूह रचना कार्यान्वयन में सन्निहित वाद-विषय पर निबन्ध | Essay on the issues involved in strategy implementation in Hindi

व्यूह रचना कार्यान्वयन में सन्निहित वाद-विषय

व्यूह रचना कार्यान्वयन में सन्निहित वाद-विषय से आशय है समग्र प्रबन्ध से जिसके अन्तर्गत समय-समय पर प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति में परिवर्तन होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में व्यूह रचना के अन्तर्गत सतत् क्रियाओं के निष्पादन में शत-प्रतिशत शुद्धता तथा सभी स्तर पर कर्मचारियों को सशक्त बनाने पर बल देता है। इस प्रकार व्यूह रचना कार्यान्वियन हेतु महत्वपूर्ण विषय निम्नलिंखित हैं-

  1. मनोवृत्ति बदलाव- संगठन में मनोवृत्ति के बदलाव पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता को जरूरी माना गया है जिसके अनुसार सही कार्य करने की नीति का अनुसरण कर कर्मचारियों द्वारा गुणवत्ता के लक्ष्य को न्यूनतम लागत के साथ प्राप्त किया जा सकता है।
  2. उच्च प्रबन्ध की प्रतिबद्धता- इसके अन्तर्गत उच्च प्रबन्ध की प्रतिबद्धता पर विशेष ध्यान की आवश्यकता पर बल दिया जाता है जिसके दीर्घकालीन लक्ष्य स्पष्ट हो सकें। प्रबन्धकों को इस संदर्भ में गुणवत्ता कार्यक्रमों को भी संचालित करना आवश्यक माना गया है।
  3. सतत सुधार- इसके अन्तर्गत संगठन की सभी क्रियाओं में सुधार की प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना जरूरी माना है। मनोवृत्ति के बदलाव के साथ ही समग्र गुणवत्ता प्रबन्ध की अवधारणा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता मानते हैं। इसके अन्तर्गत नियंत्रण प्रक्रिया सांख्यिकी तथा अन्य तकनीकों के प्रयास को आवश्यक माना है जिससे विशेष प्रक्रिया के द्वारा सुधार के कारणों पर प्रकाश डाला जा सकता है।
  4. सुदृढ़ पर्यवेक्षण- इसके अन्तर्गत संगठन की प्रत्येक प्रक्रिया में गुणवत्ता सुधार का लक्ष्य अपने सम्मुख रखना आवश्यक मानते हैं इसके लिये प्रक्रिया पद्धति एवं संगठन में प्रबन्धकों द्वारा सदैव पुनर्बलन एवं विकास करना चाहिये जिससे सुधारों को सम्भव बनाया जाता है।
  5. व्यापक प्रशिक्षण- उच्च स्तरीय व्यापक प्रशिक्षण की गुणवत्ता ही प्रबन्ध का आधार माना जाता है संगठन की सफलता के पर्यवेक्षण में निहित मानते हैं। कुशल पर्यवेक्षण ही सफलता को सुनिश्चित करता है, ऐसे पर्यवेक्षण चातुर्य में वृद्धि करने के साथ ही निष्पादन सुधार का एक गतिशील तत्व मानते हैं। अधिक संगठनों में समप्र गुणवत्ता प्रबन्ध की सफलता का राज व्यापक, प्रशिक्षण में निहित होता है।
  6. निष्पादन को मान्यता- इस अवधारणा के माध्यम से निष्पादन एवं उपलब्धि की मान्यता देने पर व्यक्तिगत ध्यान दिया जाता है जिससे व्यक्ति सुधार हेतु स्वतः प्रोत्साहित हो सके तथा सर्वोत्तम उपलब्धि के लिये प्रयत्नशील रहता है।
  7. पद्धति दृष्टिकोण- इस प्रकार से इस पद्धति को समझने पर बल देने के साथ संगठन के विभिन्न हिस्सों का एक-दूसरे के साथ सहयोग यदि सम्भावित नहीं होता है, इससे समग्र गुणवत्ता प्रबन्ध की ओर केन्द्रित नहीं हो पाता है। प्रबन्ध का मुख्य कार्य पद्धति के लक्ष्य की ओर सभी को केन्द्रित करना होता है। इस प्रकार की पद्धतियाँ कार्यशील होती हैं जिसमें प्रबन्धकीय पद्धति, सामाजिक पद्धति व सांस्कृतिक पद्धति प्रमुख होती हैं।
  8. टी0क्यू०एम० के उपकरण – सांख्यिकी गुणवत्ता नियंत्रण टी०क्यू०एम० का एक प्रमुख उपकरण होता हैं। एक महत्वपूर्ण उपकरण बैंच मार्किग को भी मानते हैं जिससे अपने उत्पादन एवं प्रक्रियाओं को विश्व की सर्वश्रेष्ठ उत्पाद एवं प्रक्रियाओं से तुलना कर सकते हैं। जीरॉक्स कम्पनी में बैंच मार्किक का प्रयोग कर ही अपने उत्पादन की गुणवत्ता में निरन्तर सुधार कर उपभोक्ता की वास्तविक आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सकी है।
  9. उपभोक्ता संकेन्द्रण- सम्बन्धित अवधारणा के द्वारा उपभोक्ता को सदैव संतुष्टि देने के साथ ही उसे उच्च स्तरीय सेवा प्रदान करने के लिये तत्पर रहा जाता है। गुणवत्ता का तात्पर्य ही उपभोग के लिये उपयुक्त मानते हैं। उत्पाद या सेवा की योग्यता जिससे उपभोक्ता की वास्तविक आवश्यकताओं पूर्ति करने में सफलता प्राप्त करने को ही गुणवत्ता जाता है। प्रबन्धकों द्वारा रेखाचित्र, सांख्यिकीय प्रक्रिया नियन्त्रण तथा बैंच मार्किंग पर केन्द्रित रहने के साथ ही प्रचुर मात्रा में गुणवत्ता के औजारों को महत्वपूर्ण मानते हैं।.
  10. कर्मचारी सहभागिता- टी०क्यू०एम० के अन्तर्गत उच्च प्रबन्धक समर्थन एवं उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जिसके लिये कर्मचारियों की सहभागिता आवश्यक मानी जाती है, इसके बिना कार्य अपूर्ण ही रहता है। डेमिन के मतानुसार संगठन के सभी स्तरों पर कर्मचारियों को बिना प्रबन्धकों के अनुमति लिये ही निर्णय करने का अधिकार प्राप्त होता है। इसका प्रमुख आधार यह मानते हैं कि जो व्यक्ति किसी विशेष कार्य को करता है उसे सर्वोत्तम स्थिति को समझने हेतु सम्पूर्ण जानकारी होने के साथ कार्य करने की क्षमता होती है। जब भी पद्धति की आवश्यकता अनुभव की जाती है उस स्थिति में व्यक्तियों को प्रबन्धकों से अनुमति बिना सुधार करने की व्यवस्था होती है।
  11. प्रबन्धक की भूमिका – जब भी कहीं पर गुणवत्ता की समस्या उत्पन्न होती है, उसका प्रमुख कारण श्रमिक एवं प्रबन्धक ही होते हैं। टी०क्यू०एम० की अवधारणा के अनुसार जहाँ भी गुणवत्ता की समस्या उत्पन्न होती है उसका प्रारम्भ बोर्ड रूम अथवा उच्च प्रबन्धकों से ही माना जाता है क्योंकि उनके द्वारा इसे गम्भीरता से स्वीकार नहीं किया जाता है। इस सन्दर्भ में डेमिंग का कहना है कि “असफलता या त्रुटि को ढूँढ़ना तथा उसके सुधार हेतु उपर्युक्त कदम उठाना प्रत्येक प्रबन्धक का कार्य एवं दायित्व है।” एक संगठन में प्रायः 85 प्रतिशत समस्याएँ प्रवन्ध की अयोग्यता से ही उत्पन्न होती है तथा श्रमिकों की वजह से 15 प्रतिशत समस्याएँ ही उत्पन्न होती हैं। प्रबन्ध के अन्तर्गत सभी स्तरों पर कार्यरत प्रबन्धकों की प्रत्यक्ष भूमिका मानते हैं। इस प्रकार यदि प्रबन्धकों द्वारा निर्णय इस प्रकार के लिये जाते हैं। जिससे गुणवत्ता प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

उपर्युक्त वार्णित विशेषताओं की अहम् भूमिका ही गुणवत्ता को प्रभावित करने की होती है। जिससे उपभोक्ताओं को गुणवत्ता के आधार पर सफलता के शिखर पर पहुँचना सम्भव होता है तथा उन्हें संतुष्ट करने की प्रतिभा से विकास की प्रक्रिया जागृत होती है।

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Pankaja Singh

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