व्यूहरचनात्मक प्रबंधन

नेतृत्व शैली से आशय | नेतृत्व शैलियाँ | Meaning of leadership style in Hindi | leadership styles in Hindi

नेतृत्व शैली से आशय | नेतृत्व शैलियाँ | Meaning of leadership style in Hindi | leadership styles in Hindi

नेतृत्व शैली से आशय

यह एक ऐसा तरीका है जिसके द्वारा नेतृत्व करने की क्षमता को भी मूल्यांकित किया जाता है क्योंकि एक नेता अपने अनुयायी को प्रभावित इसी ढंग से करने में सफल होता है। नेतृत्व शैली से तात्पर्य नेता के कार्य करने के ढंग या उसके व्यवहार की क्षमता से मानते हैं। इसको नेता के सुसंगत व्यवहार का प्रारूप भी कह सकते हैं। सहित्य शैलियाँ नेतृत्व की प्रमुख शैलियाँ जो वर्तमान में प्रचलन में हैं, निम्नलिखित हैं-

  1. नेतृत्व की अभिप्रेरणात्मक नेतृत्व शैलियाँ-

जिन नेतृत्व शैलियों के माध्यम से नेता द्वारा अपने अनुयायियों व अधीनस्थ कर्मचारियों का पथ-पदर्शन किया जाता है तथा उन्हें अधिकाधिक कार्य करने हेतु प्रेरित किया जाता है, इन्हें अभिप्रेरणात्मक शैली कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है, जो निम्नलिखित है-

(i) धनात्मक अभिप्रेरणा शैली- इस शैली के अन्तर्गत प्रेरणा, पुरस्कार एवं सहभागी निर्णयों के द्वारा संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रयासरत रहना पड़ता है। एक नेता के द्वारा अपने अनुयायियों की वित्तीय एवं अवित्तीय प्रेरणाओं तथा पुरस्कार प्रदान करके कार्य करते हुए आवश्यकीय निर्देशन देता है उसे धनात्मक यश सकारात्मक अभिप्रेरणा कहते हैं। नेतृत्व की इस विधि के द्वारा अनुयायियों को वित्तीय एवं अवित्तीय लाभ प्राप्त होते हैं जिसकी वजह से अधिकाधिक कार्य करने के लिये प्रेरणा मिलती है जिस कारण से अधिक परिश्रम व लगन से कार्य किये जाते हैं। औद्योगिक शान्ति स्थापना में सहयोग भी प्राप्त होता है।

(ii) ऋणात्मक अभिप्रेरणा शैली- इस शैली के द्वारा नेता अपने अनुयायियों को दण्ड, भय, छंटनी व अधिकार प्रदर्शन, पदावनति, वेतन में कमी करने व अधिक समय तक कार्य करने की धमकी देकर कार्य के लिये अभिप्रेरित करता है। आवश्यक आदेश व निर्देशन दिये जाते हैं। इस शैली के द्वारा अनुयायियों को अल्पकाल के लिये प्रेरित कर सकते हैं, किन्तु इस शैली को उपयुक्त नहीं माना जाता हैं। इस शैली के द्वारा समूह संतुष्टि तथा औद्योगिक शान्ति के वातावरण का निर्माण भी नहीं हो सकता है, इस शैली का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर ही किया जाना जरूरी मानते हैं।

  1. नेतृत्व की शक्ति शैलियाँ-

शक्ति को आधार मानते हुए निम्न शैलियाँ प्रचलन में है-

(i) शोषक निरंकुश नेतृत्व शैली- इस शैली के द्वारा अधीनस्थ कर्मचारी, अपने उच्च अधिकारियों से कार्य के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से बातें करने में समर्थ नहीं होते हैं तथा किसी प्रकार के सुझाव की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। इस शैली के अन्तर्गत अधीनस्थों के प्रति कोई विश्वास नहीं होता है, अस्तु सभी निर्णय उच्च स्तर पर ही लिये जाते हैं तथा अधीनस्थों को केवल जानकारी ही दी जाती है। इसके अन्तर्गत केवल अभिप्रेरित करने के लिये धमकी, भय का दण्ड जैसी नकारात्मक नीतियाँ अपनायी जाती हैं।

(ii) निरंकुश नेतृत्व शैली- नेतृत्व की इस शैली के माध्यम से नेता शक्ति एवं अधिकार सत्ता को पूरी तरह से स्वयं में केन्द्रित करते हैं तथा इनका विश्वास भारार्पण में भी नहीं होता है। वह स्वयं ही नीतियों को निर्धारित कर निर्णय भी लेता है तथा अधीनस्थों को कार्य सम्बन्धी आदेशों व निर्देशनों को प्रसारित करता है।

(iii) हितकारी निरंकुश नेतृत्व की शैली- इस शैली के माध्यम से नेता का व्यवहार कुछ विनम्रता का होता है तथा अपने अधीनस्थ अनुयायियों का थोड़ी मात्रा में विश्वास करते हैं तथा उनसे सुझाव भी माँगे जाते हैं। उपयोगी होने पर उसको प्रयोग में भी लाते हैं। अधीनस्थों के अभिप्रेरित करने के लिये धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही प्रकार अभिप्रेरण शैलियों को प्रयोग में लाते हैं। नीतियों को निर्धारित उच्च स्तर पर ही कर लेते हैं। इसके अनुसार निर्णय के अधिकार का आंशिक भारार्पण भी अधीनस्थों को दिये जा सकते हैं तथा इसके लक्ष्यों को प्राप्त करने का दायित्व उच्च एवं मध्य स्तरीय अधिकारियों का सामूहिक रूप से होता है।

(iv) परामर्शात्मक नेतृत्व शैली- इस शैली के अन्तर्गत नेता द्वारा अपने अनुयायियों पर विश्वास व्यक्त करता है अधीनस्थों को उत्प्रेरित करने के लिए धनात्मक प्रेरणाओं का प्रयोग करते हैं। अधीनस्थों से सुझाव आमंत्रित कर उपयोगी होने पर उस पर अमल भी किया जाता है। निर्णय प्रक्रिया में परामर्श लेकर सहभागी मानते हैं। नेतृत्व की इस शैली में संदेशवाहन ऊर्ध्वगामी तथा अधोगामी को प्रयोग में लाते हैं। सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति का दायित्व सामान्य होता है। परन्तु नीतियों का निर्धारण उच्चस्तरीय होता है।

(v) सहभागी नेतृत्व शैली- इस शैली के द्वारा नेता अनुयायियों के सुझाव को आमंत्रित करते हैं तथा संगठन के प्रत्येक स्तर पर लिये जाने वाले विभिन्न निर्णयों में उनको भागीदार भी बनाया जाता है। इस शैली में विभिन्न मौद्रिक एवं अमौद्रिक प्रेरणाओं तथा पुरस्कारों का आश्रय लेकर अनुयायियों को अभिप्रेरित करने का प्रयास करते हैं। इस शैली में संचार ऊर्ध्वगामी, अधोगामी तथा समतल तीनों का प्रयोग किया जाता है। संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति का उत्तरदायित्व संगठन में कार्यरत अधिकारियों एवं कर्मचारियों का सामूहिक रूप से होता है। निर्णय के कार्य संगठन के प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों के सहयोग से एकीकृत रूप में किया जाता है।

(vi) जनतंत्रीय नेतृत्व शैली- इस शैली के अन्तर्गत नेता के द्वारा संगठनात्मक नीतियों को निर्धारित किया जाता है। इसके पूर्व अनुयायियों के साथ विचार-विमर्श करते हैं। इस शैली में नेता अपने अनुयायियों से प्राप्त सुझावों और विचारों में थोड़ा बहुत परिवर्तन एवं संशोधन करके ही नीतियों एवं कार्य पद्धति के निर्धारण कर लेते हैं। नेता की भूमिका को समन्वयकारी भी मानते हैं। इस शैली के द्वारा अधिकारों के भारार्पण तथा विकेन्द्रीकरण को प्रमुखता प्रदान की जाती है। इसमें नेता व अधीनस्थों के मध्य मधुर सम्बन्ध मित्रतापूर्ण रहते हैं, जिसका मुख्य कारण अधिकारों के प्रत्यायोजन तथा नेता का अपने अधिकारों के प्रति स्नेह नहीं होता है। नेता द्वारा अपने अनुयायियों की सुविधाओं, भावनाओं तथा उसकी आवश्यकता पर पूरा ध्यान दिया जाता है इससे उसमें एक सामाजिक इकाई के रूप में कार्य करने एवं अपनी योग्यता का पूर्ण उपयोग करने हेतु उत्प्रेरित करता है। नेता द्वारा अपने अधीनस्थों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाता है।

(vii) निर्बाध या स्वतंत्र नेतृत्व शैली – इस शैली के अन्तर्गत नेता द्वारा अपने अधिकारों की सत्ता का पूर्ण विकेन्द्रीकरण अपने अनुयायियों और अधीनस्थों के मध्य कर दिया जाता है तथा उनको वैयक्तिक और सामूहिक निर्णय लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। इस प्रकार की नेतृत्व शैली में नेता द्वारा प्रशासनिक कार्यों में कम रुचि रखते हैं, तथा अपने कर्मचारियों को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की क्षमता विकसित होती है। इस शैली में कर्मचारियों एवं अधिकारियों द्वारा अपनी कार्य सीमाएँ निश्चित की जाती है तथा अपने लक्ष्यों को निर्धारित कर उसकी प्राप्ति हेतु नीतियों को निर्धारित कर उसकी प्राप्ति हेतु नीतियों को निर्धारित करते हैं। निर्णय लेने का कार्य भी उन्हीं के द्वारा किया जाता है। नेता के द्वारा उनके मध्य केवल समन्वय एवं सम्पर्क की कड़ी का कार्य करता है।

  1. पर्यवेक्षीय नेतृत्व शैलियाँ-

नेतृत्व की पर्यवेक्षीय शैलियाँ निम्नलिखित दो प्रकार की हो सकती हैं-

(i) कर्मचारी प्रधान नेतृत्व शैलीयाँ- नेतृत्व की इस शैली के अन्तर्गत नेता अपने अधीनस्थों तथा अनुयायियों को सर्वाधिक महत्व दान करते हैं। वे अपनी इच्छाओं, रुचियों, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं, सुविधाओं तथा भावनाओं को ध्यान में रखकर कार्य की दिशाओं तथा वातावरण में सुधार करता है इसके साथ ही उन्हें अधिक से अधिक कार्य करने के लिये प्रेरित करता है। नेतृत्व की इस शैली के अन्तर्गत अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर उत्पादन वृद्धि के लिये प्रयत्न किया जाता है।

(ii) उत्पादन प्रधान नेतृत्व शैली – नेतृत्व की इस शैली के अन्तर्गत नेता अपना ध्यान उत्पादन वृद्धि की ओर केन्द्रित करता है। नेता इस तथ्य को मानकार चलते हैं कि उत्पादन की नवीनतम तकनीकों एवं प्रविधियों को अपनाकर तथा कर्मचारियों को निरन्तर कार्य पर लगाकर संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

  1. प्रबन्धकीय ग्रिड-

ब्लैक तथा माउण्टेन ने मिशीगन तथा ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय में गहनता से अध्ययन के पश्चात् नेतृत्व व्यवहार के दो महत्वपूर्ण पक्षों का कार्य प्रमाप तथा सम्बन्ध प्रमाप पर विशेष ध्यान दिया तथा इन प्रत्ययों के आधार पर प्रबन्धकीय ग्रिड की विचारधारा का विकास किया। इस विचारधारा के अन्तर्गत उन्होंने इस तथ्य को प्रतिपादित किया है कि नेतृत्व व्यवहारों के अन्तर्गत ‘कार्य-केन्द्रित’ तथा ‘सम्बन्ध केन्द्रित दोनों ही प्रकार के नेतृत्व शैली के तत्व उपस्थित रहते हैं। कार्य प्रमाप कारक उत्पादकता से अधिक सम्बन्धित होते हैं जबकि दूसरी तरफ सम्बन्ध प्रमाप कारक समूह अथवा संगठन के सदस्यों से अधिक सम्बन्धित होते हैं। इनका कहना है कि सम्बन्ध से तात्पर्य उस सीमा से है जिस सीमा तक मानवीय सम्बन्धों की आवश्यकता की पूर्ति तथा उत्पादकता के लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। ‘सम्बन्ध’ के माध्यम से ‘प्रबन्ध’ की उत्पादन अथवा अपने सदस्यों के प्रति लगाव की अभिव्यक्ति होती है। इसके साथ ही इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार दोनों कारक एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक कारक की अभिव्यक्ति एक स्टेज से होती है। इसके नीचे छोर पर न्यूनतम लगाव तथा ऊपर के छोर पर अधिकतम लगाव होता है। इस प्रकार से ग्रिड के माध्यम से पाँच प्रकार की नेतृत्व शैलियों की अभिव्यक्ति होती है। इसके अन्तर्गत कार्य अथवा सदस्यों के प्रति लगाव की मात्रा में विद्यमान होती है।

  1. 3-डी थ्योरी-

यह सिद्धान्त विलियम जे० रेडिन के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यह सिद्धान्त प्रबन्धकीय ग्रिड का ही संशोधित रूप है। इस सिद्धान्त में ‘कार्य’ तथा ‘सम्बन्ध’ के साथ ‘प्रभावशीलता’ चर को भी जोड़ा गया है। इस विचारधारा के अन्तर्गत कार्य एवं सम्बन्ध के विभिन्न संयोजनों के आधार पर नेतृत्व की निम्न चार आधारभूत शैलियों को प्रस्तुत किया गया है-

(i) निम्न स्तर का कार्य एवं निम्न स्तर का सम्बन्ध,

(ii) निम्न स्तर का कार्य एवं उच्च स्तर का सम्बन्ध,

(iii) उच्च स्तर का कार्य एवं उच्च स्तर का सम्बन्ध,

(iv) उच्च स्तर का कार्य एवं निम्न स्तर का सम्बन्ध ।

‘इन शैलियों की प्रभावशीलता पर कार्य वातावरण की अपेक्षाओं, अधीनस्थ सहकर्मियों एवं उच्च अधिकारियों की प्रत्याशाओं तथा संगठनात्मक वातावरण में प्रयोग की गयी तकनीक का कार्य काफी प्रभाव डालता है। इनका विचार है कि यदि कार्य वातावरण की अपेक्षाएँ तथा नेतृत्व शैली एक-दूसरे के अनुकूल हो तो प्रभावशीलता में वृद्धि होती है। जबकि दूसरी तरफ यदि दोनों कारण एक-दूसरे के प्रतिकूल हो तो प्रभावहीनता की प्राप्ति होती है।

  1. लिकर्ट की प्रबन्ध पद्धति-

लिकर्ट ने व्यवहार को समझने के नये दृष्टिकोण को विकास किया तथा सहभागी नेतृत्व का प्रबल समर्थन किया। इनका मत है कि प्रभावी प्रबन्धक वह है जो अधीनस्थों के प्रति वाहन रूप में प्रेरित होता है साथ ही कार्यरत पक्षों से एक इकाई के रूप में कार्य लेता है। यह व्यवस्था मानवीय अभिप्रेरणाओं को प्रेरित करता है, इस कारण लिकर्ट ने इस समूह का नेतृत्व करने की सबसे प्रभावी व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया है।

लिकर्ट ने प्रबन्ध की चार प्रणालियों का निरूपण किया है। प्रथम प्रणाली में प्रबन्ध को विस्फोट तानाशाह के रूप में व्यक्त किया गया है। वह प्रबन्धक काफी तानाशाह होता है जो कि अपने कर्मचारियों के प्रति काफी कम विश्वास की भावना रखता है। वित्तीय प्रणाली में प्रबन्ध को दयालु तानाशाह के रूप में व्यक्त किया गया है। यह प्रबन्धक अपने अधीनस्थों में एक संरक्षणात्मक मेंधैर्य तथा विश्वास रखता है। वह भय, पारितोषिक एवं दण्ड के द्वारा उनको अभिप्रेरित करता है, किसी सीमा तक आरोहात्मक सम्प्रेषण की आज्ञा देता है तथा अपने अधीनस्थों के कुछ परामर्श एवं विचारों की उपादेयता को स्वीकार करता है। तृतीय प्रणाली में प्रबन्ध को परामर्शदायी के रूप में व्यक्त किया गया है। ऐसा प्रबन्धक अपने अधीनस्थों पर पर्याप्त किन्तु पूर्ण विश्वास नहीं रखता है साथ ही धैर्य एवं निष्ठा व्यक्त करता है। प्रबन्धक सामान्यतः अधीनस्थों के विचारों एवं परामर्श कोक्षप्रयोग में लाने का प्रयत्न करता है तथा अभिप्रेरणा पुरस्कारों का प्रयोग काफी सीमा तक दण्ड एवं भागीदारी के साथ करता है। चतुर्थ प्रणाली को सहभागिता समूह के नाम से जाना जाता है। प्रबन्धक सदैव उनके विचारों एवं परामर्श को सम्मान प्रदान करता है ऐसा प्रबन्धक सम्पूर्ण उपक्रम में निर्णय लेने को प्रोत्साहित करता है तथा स्वयं अपने अधीनस्थों के मध्य कार्य को संचालन सामूहिक रूप में करता है।

  1. जीवन-चक्र सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन पाल हर्से तथा ब्लेंचर्ड के द्वारा किया गया है। यह विचारधारा नेतृत्व की शैली का सम्बन्ध उसके अनुयायियों की परिपक्वता से जोड़ती है। इस विचारधारा के अनुसार नेतृत्व के किसी भी स्वरूप में अनुयायी ही सबसे ज्यादा प्रभावकारी तत्व होते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि अनुयायी व्यक्तिगत रूप से नेता को स्वीकार अथवा अस्वीकार करते हैं, बल्कि उन्हीं के द्वारा निर्मित समूह के माध्यम से यह निर्धारित होता कि नेता के पास कौन-सी वैयक्तिक शक्ति है। हर्से तथा ब्लैचर्ड का मत है कि अनुयायियों की परिपक्वता जैसे-जैसे बढ़ती है नेता को अधिक सम्बन्ध तब तक अभिमुखी व्यवहार तथा निम्न कार्य अभिमुखी व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए। जब तक कि परिपक्वता मध्यम स्तर तक न पहुँच जाती हो। नेता को इस बिन्दु पर अपने कार्य एवं सम्बन्ध अभिमुखी व्यवहार में कमी करनी चाहिए। इसका कारण  यह है कि सामान्य से अधिक परिपक्वता वाले लोगों को निम्न कार्य और निम्न सम्बन्ध को शैली के माध्यम से अधिकतम सफलता प्राप्ति की सम्भावना हो जाती है।

  1. नेतृत्व अनवरत प्रयास के रूप में-

टेनन बाम तथा शिमिट के द्वारा नेतृत्व की इस शैली का विकास किया गया है। इन्होंने नेतृत्व की विभिन्न शैलियों को परिपूर्ण कहा है जो अत्यधिक ‘अधिकारी केन्द्रित, से लेकर अत्यधिक ‘अधीनस्थ केन्द्रित’ तक बिखरी हुई है जो कि नेता अथवा प्रवन्धक अधीनस्थों को दिये गये अधिकारों की मात्रा में परिवर्तन को व्यक्त करती है।

टेनन बाम तथा शिमिट का विचार है कि किसी विशेष नेतृत्व की प्रभावशीलता परिस्थितियों पर काफी सीमा तक निर्भर करती है। नेतृत्व की प्रभावशीलता का निर्धारण किसी एक कारक के द्वारा नहीं होता है बल्कि यह कई कारकों के सम्मिलित प्रभाव के द्वारा निर्धारित होता है जो कि एक विशेष समय में नेतृत्व सम्बन्धी वातावरण में क्रियाशील रहती है। ऐसे नेतृत्व के सम्बन्ध में एक व्यापक उपागम अपनाने की आवश्यकता होती है।

  1. ब्रूम तथा येटन द्वारा प्रयुक्त शैली-

ब्रूम तथा येटन ने अपने नवीनतम शोध के माध्यम से पक्ष लक्ष्य विचाधारा की यह कहकर आलोचना की है कि इसमें निर्णय परिस्थितियों का समावेश नहीं किया गया है। इसके भीतर अधीनस्थों की सहभागिता हो सकती है। रेडीन तथा लकर्ट, ब्लैंक और माउण्ट आदि विद्वानों ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि नेतृत्व की शैली पर कार्य वातावरण का काफी प्रभाव पड़ता है, लेकिन इन विचारकों ने स्पष्ट रूप से इस तथ्य का निरूपण नहीं किया है कि किसी स्थिति अथवा कार्य वातावरण में प्रबन्धक को किस प्रकार का निर्णय लिया जाना चाहिए। इस अभाव की पूर्ति के लिये ब्रूम तथा येटन ने एक ऐसे मॉडल का विकास किया है जो कि प्रबन्धकों को यह निश्चित करने में सहायता करता है कि उन्हें कब तथा किस सीमा तक एक समस्या के समाधान में निर्णय की गुणवत्ता तथा प्रतिबद्धता को सम्मिलित करते हुए अधिनस्थों को शामिल करना चाहिये।

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Pankaja Singh

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