व्यूहरचनात्मक प्रबंधन

विपणन नीति के विचारणीय पहलू | प्रतिस्पर्द्धात्मक रणनीतियों के पहलू

विपणन नीति के विचारणीय पहलू | प्रतिस्पर्द्धात्मक रणनीतियों के पहलू | Aspects of Marketing Policy to Consider in Hindi | Aspects of Competitive Strategies in Hindi

विपणन नीति के विचारणीय पहलू या प्रतिस्पर्द्धात्मक रणनीतियों के पहलू –

किसी संगठन को अपनी विपणन नीति या प्रतिस्पर्द्धात्मक नीति तय करते समय उन समस्त पहलुओं पर विचार करना चाहिये जिनका प्रभाव विक्री एवं बाजार की स्थिति पर पड़ता है। प्रमुख रूप से हमें निम्नलिखित नीतिगत पहलुओं पर विचार करना चाहिये-

  1. उत्पाद रेखा एवं उत्पाद मिश्रण-

बिना उत्पादन के कोई भी विपणन क्रिया नहीं हो सकती। अतः उत्पाद को ही विपणन का केन्द्र बिन्दु कहा जाता है। कोई भी संगठन केवल एक प्रकार का ही उत्पाद उत्पादित करने में सक्षम होता है। अथवा वह उत्पादों की एक श्रृंखला का उत्पादन कर सकता है। एकांकी उत्पाद को उत्पाद मत कहा जाता है, जबकि एक से अधिक उत्पाद जो एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं उत्पाद रेखा कहे जाते हैं। यदि विभिन्न प्रकार के उत्पाद हों और एक दूसरे से सम्बन्ध न रखते हों तो उन्हें उत्पाद मिश्रण कहते हैं। उत्पाद रेखा से सम्बन्धित प्रमुख नीतियाँ निम्न है –

(i) उत्पाद पंक्तियों का विस्तार – जब भी किसी संगठन को अपने उत्पादन की बिक्री अधिक करनी हो तो उसे अपने पूर्व उत्पादों की श्रृंखला का विस्तार करना होता है। उत्पादक बिक्री बढ़ाने के लिये कुछ नये उत्पादों को अपने उत्पाद शृंखला में शामिल कर लेता है और उसके साथ अपने सम्पूर्ण उत्पाद को बेंचने की विपणन नीति का निर्माण करता है।

(ii) उत्पाद मिश्रण का संकुचन- कभी-कभी बाजार में प्रतियोगिता इतनी अधिक हो जाती है कि उत्पादक संगठन के अपने उम्पाद की सम्पूर्ण शृंखला को लाभ पर बेचना सम्भव नहीं हो पाता ऐसी स्थिति में ऐसे उत्पादों को या ता समाप्त कर दिया जाता है या कुछ उत्पादों को कम कर दिया जाता है, इससे उत्पादक को होने वाले अनावश्यक नुकसान से बचाया जा सकता है। अतः विपणन नीति में इस बात का भी ध्यान रखना होता है।

(iii) परिवर्तन – कभी-कभी उत्पादक को अपने पुराने उत्पाद को बाजार में बेच पाना असम्भव हो जाता है। ऐसा इसलिये होता है कि या तो वे फैशन से बाहर हो जाते हैं या उनकी तकनीक बहुत पुरानी हो जाती है। अतः ऐसे उत्पादों को बन्द कर नई तकनीक वाले उत्पादों में परिवर्तन कर उत्पादक बाजार में अपनी जगह बनाने में सफल हो सकता है। इस नीति का प्रयोग सामान्य तौर पर अक्सर देखा जाता है।

(iv) नये उपयोगों का विकास – कभी-कभी जब उत्पादों का उपयोग नयी तकनीक के कारण कम हो जाता है तो उत्पादक अपने उत्पाद के उपयोगों में परिवर्तन कर उसे बाजार में नये रूप  में पेश कर सकता है। ऐसा करने के लिये उत्पादक को अपने उत्पाद की कार्य क्षमता में वृद्धि करने के साथ-साथ उसे बहुउपयोगी तकनीक भी बनानी पड़ती है ताकि ग्राहक को एक ही उत्पाद खरीदने पर उसके विभिन्न उपयोगों का लाभ मिल सके।

(v) ट्रेडिंग-अप एवं ट्रेडिंग-डाउन- कभी-कभी संगठन को अपनी उत्पाद पंक्ति में ऊँचे मूल्य के उत्पाद को इस उद्देश्य से शामिल करता है कि विक्रय में वृद्धि होगी ऐसी रचना को ट्रेडिंग-अप कहा जाता है तथा जब संगठन द्वारा उच्च कोटि के उत्पाद के साथ निम्न कोटि के उत्पाद भी बनाने लगती है तो इसे ट्रेडिंग डाउन कहते हैं। ऐसा अक्सर तब करना होता है जब उच्च मूल्य उत्पाद के ग्राहक बाजार में कम होते हैं और संगठन को निम्न मूल्य उत्पादों को मजबूरी में बनाना पड़ता है।

  1. वितरण माध्यम मिश्रण-

उत्पाद के पश्चात् उसे ग्राहकों तक सुरक्षित पहुँचाना किसी उत्पादक की दूसरी समस्या होती है। इस हेतु उसे वितरण माध्यमों की एक श्रृंखला बनानी पड़ती है। वितरण वाहिकाएँ उत्पाद को ग्राहकों तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। ये बिना किसी मूल परिवर्तन उत्पाद को ग्राहकों तक उनके मूल रूप में पहुँचा देती हैं। अक्सर उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिये निम्नलिखित प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है-

(i) प्रत्यक्ष वितरण प्रणाली- प्रत्यक्ष वितरण प्रणाली में विक्रेता या उत्पादक अपनी ही दुकान या शाखाओं द्वारा उत्पाद की बिक्री करता है। कभी-कभी वह अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर देता है और प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने उत्पाद को ग्राहकों तक पहुँचाता है। इस प्रणाली का मुख्य लाभ यह होता है कि उपभोक्ता को वस्तु शुद्ध प्राप्त होती है, मिलावट अथवा नकली वस्तु की सम्भावना नहीं होती है। निर्माता तथा उपभोक्ता का सीधा सम्बन्ध होता है। इसमें बिक्री बढ़ने के लिये किसी संवर्द्धन नीति की आवश्यकता नहीं होती है।

(ii) अप्रत्यक्ष वितरण प्रणाली- जब वस्तुओं और सेवाओं को मध्यस्थों के माध्यम से उपभोक्ताओं तक पहुँचाया जाता है तो इस प्रकार की वितरण प्रणाली अप्रत्यक्ष वितरण प्रणाली कहलाती है। जिन एजेन्टों या मध्यस्थों के माध्यम से उत्पाद को ग्राहकों तक पहुंचाया जाता है उन्हें अप्रत्यक्ष विक्रय एजेन्सियां कहा जाता है। इस वितरण प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें उपभोक्ता को सामग्री का चयन करने तथा तुलना करने का पूरा अवसर दिया जाता है। दूसरी तरफ निर्माता को विक्रय व्यवस्था के कार्य से मुक्ति मिल जाती है।

  1. कीमत नीतियाँ एवं निर्णय-

उपभोक्ता किसी सेवा अथवा उत्पाद के बदले जो धन उत्पादक को देता है वह उसे सेवा या उत्पाद की कीमत कहलाती है। किसी भी उत्पाद की कीमत पर ही उसकी माँग का निर्धारण होता है। कीमत तथा कीमत प्रतिस्पर्द्धा उत्पादकों के लिये सदैव समस्या बनी रहती है। अतः लाभ की मात्रा बढ़ाने और बिक्री बढ़ाने के लिये कीमत को उचित तरीके से निर्धारित करना चाहिये। कीमत निर्धारण की निम्नलिखित प्रमुख पद्धतियाँ प्रचलित हैं-

(i) एक मूल्य नीति- उत्पादक जब यह निश्चित कर लेता है कि जो मूल्य एक बार तय कर दिया गया उसमें कोई मोल-भाव नहीं किया जायेगा और उसी मूल्य पर उत्पाद को बेचा जायेगा तो इसे एक मूल्य-नीति कहते हैं। यह नीति संगठन के लिये लम्बी अवधि में काफी लाभदायी सिद्ध होती है और संगठन को काफी लाभ प्राप्त होने की सम्भावना बनी रहती है।

(ii) परिवर्तनशील मूल्य नीति या लोचशील मूल्य नीति- इस नीति के अन्तर्गत उत्पाद की कोई एक कीमत तय नहीं की जाती है बल्कि प्रत्येक उपभोक्ता से अलग-अलग मूल्य वसूल किया जाता है। यह नीति सदैव ऐसी उपभोक्ता वस्तु के सम्बन्ध में बनायी जाती है तो प्रमापित नहीं हैहोती है। इस नीति का उत्पादक को सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वह प्रतिस्पर्द्धा के समय वस्तु की कीमत में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते हैं।

(iii) मूल्य स्तर आधारित कीमत नीति- इस नीति में प्रायः तीन बातों को ध्यान में रखकर कीमतों का निर्धारण किया जाता है-

(अ) कीमत संस्थाओं की कीमत नीति को देखकर उत्पादक अपने उत्पाद की कीमत तय करता है।

(ब) व्यवसायी बाजार की कीमत को देखकर अपनी वस्तु की कीमत तय करता है, अर्थात् समान गुण वाली अन्य वस्तुओं की कीमत से कम कीमत तय करता है और प्रतिस्पर्द्धा में बना रहता है।

(स) उत्पादक अपनी वस्तुओं की कीमत बाजार मूल्य से अधिक रखता है।

(iv) विशिष्टता आधारित नीति- यह नीति ऐसी नीति होती है जिसमें उत्पादक अपनी वस्तुओं की कीमत ऐसी रखता है जिसमें कोई विशिष्टता होती है। मूल्य रेखा नीति, नेता मूल्य नीति, पूर्व रेखा मूल्य नीति, प्रवेशक मूल्य निर्धारण नीति, हानि नेता मूल्य नीति, इकाई मूल्य नीति आदि इसकी मुख्य विधियाँ हैं।

(v) लक्ष्य प्रत्यय कीमत निर्धारण- इस विधि के अन्तर्गत वस्तुओं की कीमत इस आधार पर निर्धारित की जाती है कि उत्पादन को विनियोजित राशि पर पूर्व निर्धारित प्रत्यय मिल सके।

  1. संवर्द्धन मिश्रण-

संवर्द्धन प्रयत्नों द्वारा क्रेताओं का ध्यान आकर्षित किया जाता है। क्रेताओं को उत्पाद के बारे में सूचित किया जाता है और अपने उत्पाद को खरीदने के लिये प्रेरित किया जाता है। संवर्द्धन मिश्रण में विक्रय संवर्द्धन, विज्ञापन, वैयक्तिक विक्रय तथा अन्य सभी विक्रय उपकरणों को शामिल किया जाता है। विक्रय सम्वर्द्धन, के निम्नलिखित तरीके प्रयोग में लाये जाते हैं-

(अ) विज्ञापन – विज्ञापन द्वारा हम अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं के बारे में लोगों को बताते हैं। विज्ञापन समाचार माध्यमों, रेडियों, टेलीविजन आदि के द्वारा किया जाता है। वर्तमान युग में विज्ञापन का सबसे अधिक महत्व है और छोटी बड़ी सभी प्रकार की संस्थाएँ अपनी बिक्री बढ़ाने के लिये विज्ञापन का सहारा लेती हैं।

(ब) प्रत्यक्ष विपणन – इसमें डाक, टेलीफोन तथा अन्य अवैक्तिक अनुबन्ध औजारों का प्रयोग किया जाता है। इसके द्वारा भी उपभोक्ताओं को सूचना दी जाती है।

(स) विक्रय संवर्द्धन- किसी कम्पनी के उत्पाद को खरीदने के लिये अल्पकालीन प्रेरणा देने की क्रिया को विक्रय संवर्द्धन कहते हैं। इसमें बिक्री बढ़ाने के समस्त साधनों को प्रयोग किया जाता है।

(द) जनसम्पर्क – इस नीति के तहत लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलकर अपने उत्पाद के बारे में बताया जाता है। व्यक्तियों के समूह बनाकर उन्हें उत्पाद के गुणों से परिचित किया जाता है।

(य) वैयक्तिक विक्रय- इसके माध्यम से व्यक्तिगत रूप से ग्राहकों को उत्पाद खरीदने के लिये प्रेरित किया जाता है।

  1. विपणन मिश्रण नीति-

एक निश्चित विपणन व्यय बजट के साथ प्रबन्धकों को इस बात का भी निश्चय करना होता है कि कितनी धनराशि उत्पाद, संवर्द्धन, विज्ञापन आदि पर व्यय करना है जिससे कि अधिकतम उपभोक्ता सन्तुष्टि लक्ष्य के साथ विक्रय एवं लाभदायकता को प्राप्त किया जा सके। इसी को विपणन मिश्रण कहा जाता है।

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Pankaja Singh

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