व्यूहरचनात्मक प्रबंधन

आव्यूह संगठन | आव्यूह संगठन की विशेषताएँ | आव्यूह संगठन के लाभ | आव्यूह संगठन की सीमाएँ | संगठनात्मक ढाँचे के निर्धारक तत्व

आव्यूह संगठन | आव्यूह संगठन की विशेषताएँ | आव्यूह संगठन के लाभ | आव्यूह संगठन की सीमाएँ | संगठनात्मक ढाँचे के निर्धारक तत्व | Matrix Organization | Characteristics of Matrix Organisation. Advantages of Matrix Organization | Limitations of Matrix Organization | Determinants of Organizational Structure

आव्यूह संगठन

आव्यूह संगठन एक ऐसी विशेष प्रकार की संगठन संरचना है जिसके द्वारा बहुनिर्देशन प्रणाली की प्रयोग में लाया जाता है तथा इसके अंतर्गत सम्बन्धित सहायक प्रणालियों तथा संयुक्त संगठनात्मक संस्कृति व व्यवहार प्रतिरूप को शामिल करते हैं। वर्तमान युग में इस प्रकार के संगठनों का प्रयोग विकसित देशों के उद्योगों में प्रचुरता से किया जाता है जिसे आव्यूह या ग्रिड संगठन परियोजना एवं उत्पाद प्रबन्ध के नाम से जाना जाता है। यह प्रारूप एक ही संगठन संरचना के अंतर्गत विभागीयकरण के क्रियात्मक तथा उत्पाद स्वरूपों को सम्मिलित करते हैं। आव्यूह संगठन परियोजना के क्रियात्मक विभागों के व्यक्तियों को लेकर परियोजना दलों को गठित किया जाता है जिन्हें एक निश्चित अवधि के लिये परियोजना को पूरा करने के कार्यों का दायित्व सौंपा जाता है। कार्य समाप्ति के पश्चात् इन दलों के लोगों को पुनः उनके पूर्व कार्य पर लगा दिया जाता है।

आव्यूह संगठन की विशेषताएँ

आव्यूह संगठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. परियोजना प्रबन्ध का दायित्व- परियोजना को पूरा करने का दायित्व किसी एक व्यक्ति को दी जाती है और उसका यह दायित्व तय कर दिया जाता है कि वह उच्च प्रबन्धकों केन के अंतर्गत दिये गये निश्चित समय लागत एवं किस्म के साथ परियोजना को पूरा करेगा।
  2. दलों का गठन- परियोजना को पूरा करने के लिये एक व्यक्ति को दायित्व ठहराने के पश्चात् परियोजना प्रबन्धक का कार्य प्रारम्भ होता है। परियोजना प्रबन्ध विभिन्न विभागों में कर्मचारियों का चयन कर एक कार्यदल का गठन करता है और उन्हें कार्य सौंपा देता है। परियोजना का कार्य पूरा हो जाने के बाद कर्मचारियों को पुनः उानके पूर्व विभागों में वापस भेज दिया जाता है तथा परियोजना प्रबन्ध अन्य परियोजनाओं पर कार्य करने के लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं।
  3. मिश्रित संगठन- क्रियात्मक विभागों को शुद्ध परियोजना संरचना के साथ जोड़ने पर मिश्रित संगठन तैयार हो जाता है। इसे मिश्रित संरचना भी कहा जाता है।
  4. निर्माण- क्रियात्मक इकाइयों के समग्र संचालन सत्ता क्रियात्मक संगठन के पास रहती है। उत्पाद विभागों व परियोजना दलों का निर्माण उन परिस्थितियों में होता है जब विशिष्ट परियोजनाओं को पूरा करने के लिये कुछ समय के लिये उच्च तकनीकी कौशल तथा अन्य साधनों की आवश्यकता महसूस करते हैं।
  5. सत्ता की प्रकृति- परियोजना प्रबन्ध की अपने दल पर समग्र उत्तरदायित्व तथा संज्ञा कायम रहती है किन्तु उसकी सत्ता अस्थायी होती है जो परियोजना पूरी होने के पश्चात् समाप्त हो जाती है।
  6. भूमिकाएँ- परियोजना पर लगाये गये दल एवं परियोजना प्रबन्धक द्वारा अपनी- अपनी भूमिकोओं का निर्वाह किया जाता है। परियोजना प्रबन्धक परियोजना को निश्चित समय में पूरा करने के लिये उचित कार्य दल का गठन करता है और उसे सही समय पर सही ढंग से परियोजना को पूरा करने का दायित्व सौंप देता है।
  7. विकासात्मक प्रारूप- प्रायः संगठन क्रियात्मक से आव्यूह प्रारूप की ओर अथवा उत्पाद आव्यूह प्रारूप की ओर आना सम्भव माना जाता है। नव संगठन का वर्तमान ढाँचा तीव्र प्रौद्योगिकीय एवं बाजारीय परिवर्तनों के कारण अनुपयुक्त सिद्ध होने लगता है ऐसी स्थिति में आव्यूह संरचना को अपनाया जाता है।

आव्यूह संगठन के लाभ

आव्यूह संगठन के निम्नलिखित लाभ हैं-

(1) चूँकि आव्यूह संगठन में एक परियोजना को निश्चित समय में पूरा करना होता है साथ ही कार्य की गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखा जाता है। परियोजना का कार्य चयनित कर्मचारियों के दल द्वारा पूरा किया जाता है। इस दल में मुख्य रूप से ऐसे व्यक्तियों को शामिल किया जाता है। जो उसके विशेषज्ञ होते हैं, अतः परियोजना में पूर्ण किया गया कार्य पूर्ण गुणवत्ता वाला होता है।

(2) अनुकूल वातावरण के कारण कर्मचारी व विशेषज्ञ अपनी योग्यता एवं अनुभव का परीक्षण कर संगठन के विकास के लिये उचित योगदान करने में सक्षम होते हैं।

(3) संगठन निर्णयन को सोपान शृंखला के नीचे के स्तरों पर ही हल कर लिया जाता है। इसके अन्तर्गत संज्ञा के रूप में प्रमुखता दी जाती है उसी के अनुसार संगठनात्मक सोपान में व्यक्तित्व के पद के आधार पर नहीं बल्कि ज्ञान को ही सत्ता का आधार माना जाता है।

(4) संगठन के द्वारा परियोजना के कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के साथ ही प्रेरणा भी प्रदान की जाती है और उन्हें कार्य के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।

(5) परियोजना के सम्पूर्ण होने के बाद संगठन के अन्दर अधिकारी व कर्मचारी अपने पूर्व के अनुभागों में भेज दिये जाते हैं जिसकी वजह से भौतिक साधनों तथा कर्मचारियों का दोहराव नहीं हो पाता है। संगठन में लागत समय के साथ ही निष्पादन क्रिया में संतुलन बना रहता है।

(6) संगठन के क्रियात्मक अनुभागों में मानव शक्ति की कमी न होने के कारण इसके उपयोग में हमेशा लोच बना रहता है।

(7) समानता के आधार से परियोजना के ज्ञान की विशिष्ट सदैव प्राप्त होती है तथा इसको एक से दूसरी परियोजना के साथ हस्तांतरण करने में सहायक भी माना जाता है। इससे अन्तर्विषयक सहयोग भी आसानी से सुलभ हो जाता है।

(8) इसके माध्यम से व्यक्ति को चुनौतियों का सामना सदैव करना पड़ता है जिससे उसके कौशल को विकसित करने का वातारवरण भी बना रहता है।

(9) संगठन में उच्च प्रबन्धक नियोजन से सम्बन्धित कार्य के लिये स्वतन्त्र रहते हैं।

उपर्युक्त विवरणों से आव्यूह संगठन के लाभों से परिचित होना स्वाभाविक मानते हैं जिसका अपने आप में विशेष महत्व होता है। इसके साथ ही संगठन की सीमाओं से परिचित होना भी जरूरी है।

आव्यूह संगठन की सीमाएँ

संगठन की कुछ सीमाएँ इसके दोषपूर्ण क्रियान्वयन का परिणाम माना जाता है। डेविस एवं लारेन्स ने आव्यूह संगठन के बारे में अपने मत व्यक्त किये हैं। सीमाओं का वर्णन निम्न है, जिसको संक्षेप में समस्याओं का जनक भी कहते हैं।

  1. समुदायवाद- आव्यूह संगठन को कभी-कभी समूह निर्णयों का पर्यायवाची भी समझते है, मूल कारण के रूप में प्रबन्धकों के मध्य उचित दृष्टिकोणों का अभाव मानते हैं।
  2. सत्ता संघर्ष- संगठन में सत्ता तथा दायित्वों के संदर्भ में उचित दिशा-निर्देशों का अभाव ही प्रमुख कारण माना जाता है जो अस्पष्ट होने के साथ ही व्याप्तता (Overlapping) के बारे में प्रबन्धकों के बीच सत्ता संघर्ष के लिये पृष्ठभूमि तैयार करती है।
  3. अराजकता- कुछ प्रबन्धक आव्यूह संगठन को अराजकता का रूप स्वीकार करते हैं क्योंकि कर्मचारी के कार्य बहुनिर्देशन के निर्देशों के अनुसार कार्य करने को विवश होते हैं। इसमें सौपानिक सिद्धान्तों (Scalar principle) का स्वाभाविक रूप उल्लंधित हो जाते हैं। साथ ही इसके अन्तर्गत अनौपचारिक सम्बन्ध भी भ्रमित हो जाते हैं।
  4. खर्चीली संरचना- कुछ विद्वानों की धारणा के अनसार आव्यूह संगठन के अन्तर्गत प्रबन्ध की लागतें काफी महंगी हो जाती हैं। डेविस एवं लारेन्स ने कहा है कि आरम्भ में इस संस्था की लागत में वृद्धि हो सकती है। किन्तु दीर्घकाल में अतिरिक्त लागत स्वतः समाप्त हो जाती है तथा उत्पादकता का लाभ भी प्रकट होने लगता है।
  5. आर्थिक मंदी में ध्वस्त होना- आर्थिक मंदी के समय इस प्रकार की संरचना को अव्यावहारिक माना जाता है जबकि आर्थिक सम्पन्नता के समय सफलता प्राप्त करते हैं। आर्थिक मंदी के दौर में लाभ सीमाओं, बाजार की दशाओं के साथ आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आ जाने के कारण इसकी व्यूह रचना को बदलने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
  6. निर्णय अवरोधन- इसको भी संरचना का एक दोष कहा जाता क्योंकि निर्णय लेने की क्षमता की गति में वृद्धि नहीं हो पाती है क्योंकि इसमें निर्णय कई व्यक्तियों के द्वारा सामूहिक रूप से लिया जाता है। कभी-कभी प्रबन्धकों के मध्य आन्तरिक मतभेदों को भी निर्णय लेने में बाधक माना जाता है जिस कारण विलम्ब से निर्णय लिये जाते हैं।

संगठनात्मक ढाँचे के निर्धारक तत्व-

संगठन सरंचना का निर्धारण अनेक तत्वों पर विचार करके किया जाता है। पीटर एफ० ड्रंकर के अनुसार, “अनुचित संगठन ढांचा व्यवसाय की कार्यक्षमता पर बुरा प्रभाव डालती है। यहाँ तक कि गलत ढाँचा व्यवसाय को समाप्त भी कर सकता है।” अतः संगठन संरचना को तय करते समय संगठन को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित तत्व हैं जिन पर विचार करना चाहिए-

  1. संगठनात्मक उद्देश्य- संगठन के ढाँचे को संस्था के उद्देश्य काफी हद तक प्रभावित करते हैं। संस्था के उद्देश्य संगठन संरचना के मुख्य निर्धारत पटक होते हैं।
  2. व्यवसाय की प्रकृति- संस्था की व्यवसाय की प्रकृति का प्रभाव संगठन के ढांचे पर पड़ता है। औद्योगिक उपक्रमों की ढाँचा क्रियात्मक आधार पर तैयार किया जाता है।
  3. संस्था का आकार- संस्था के आकार का प्रभाव ढांचे पर पड़ता है। छोटी संस्था में केन्द्रीय ढाँचा तथा बड़ी संस्था में विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया जाता है।
  4. व्यूह रचना- संस्था के संगठनात्मक ढांचे पर व्यूह रचना का प्रभाव पड़ता है। अल्फ्रेड डी० चोडलर के अनुसार, “संगठन संरचना व्यूह रचना का अनुगम करती है।”
  5. पर्यावरण- संगठन का ढाँचा बाहरी पर्यावरण से भी प्रभावित होता है। गत्यात्मक पर्यावरण में कार्यरत फर्मों का ढाँचा लोचदार होता है परन्तु स्थायी पर्यावरण में कार्यरत फर्मों की संगठन संरचना जटिल होती है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त तकनीकी जटिलता, विक्रय नीतियाँ, विकास की गति, नियंत्रण का विस्तार आदि भी संगठन के ढांचं को प्रभावित करते हैं।

व्यूहरचनात्मक प्रबंधन – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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