शिक्षाशास्त्र

विभेदीकरण का तात्पर्य | सामाजिक विभेदीकरण का तात्पर्य | सामाजिक विभेदीकरण एवं सामाजिक स्तरीकरण में अन्तर | सामाजिक विभेदीकरण के आधार | सामाजिक विभेदीकरण तथा शिक्षा

विभेदीकरण का तात्पर्य | सामाजिक विभेदीकरण का तात्पर्य | सामाजिक विभेदीकरण एवं सामाजिक स्तरीकरण में अन्तर | सामाजिक विभेदीकरण के आधार | सामाजिक विभेदीकरण तथा शिक्षा

विभेदीकरण का तात्पर्य

समाज विभिन्न व्यक्तियों का एक सप्रयोजन समूह और संगठन है। इस दृष्टि से समाज में विभिन्न प्रकार के समूह एवं संगठन पाये जाते हैं। ये सभी संगठन एवं समूह क्षैतिजीय स्तर पर क्रिया करते हैं जिसके फलस्वरूप स्तरीकरण की सार्वभौमिक प्रक्रिया पाई जाती है।

विभेदीकरण का सरल अर्थ होता है विभेद या विभिन्नता अथवा अलगाव करना या होना । जैसे समाज में कई जातियाँ होती हैं और हर एक जाति में कुछ न कुछ अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर होने की प्रक्रिया को हम विभेदीकरण कहेंगे। इस सम्बन्ध में प्रो० एफ० लम्ली ने लिखा है कि “विभेदीकरण वह प्रक्रिया है जिसरी व्यक्तियों की परस्पर भिन्नता प्रकट होती है। जिस प्रकार आर्केस्ट्रा के विभिन्न वादकों के योग से एक समरसतायुक्त पूर्णता बनती है उसी प्रकार विभेदीकृत व्यक्तियों का योग सामाणिक इकाई की रचना करता है।”

ऊपर के कथन से स्पष्ट होता है कि विभेदीकरण की प्रक्रिया से व्यक्तियों के बीच “विभेद” उत्पन्न होता है, वे दूसरे से अलग-अलग होते हैं फिर भी परस्पर एकता बनाने का ये प्रयत्न करते हैं। इससे वे संगठन पाये जाते हैं और उनका प्रभाव भी पड़ता है जैसे आर्केस्ट्रा में पड़ता है। यही दशा विभेदीकरण की प्रक्रिया में पाई जाती है।

सामाजिक विभेवीकरण का तात्पर्य

समाज के सदस्यों में आयु, लिंग, बुद्धि, व्यक्तित्व, रहन-सहन, तथा आवश्यकता के कारण भिन्नता या विभेद होता है। इन विभेदों को आधार बनाकर हम समाज में भिन्न प्रकार के समूह बना लेते हैं। इस प्रकार से पूरे समाज का विभेदीकरण हो जाता है। दूसरे शब्दों में समाज का विभिन्न में विभाजन ही सामाजिक विभेदीकरण कहा जाता है। इसके सम्बन्ध में प्रो० मार्टिन न्यूमेयर ने निम्नलिखित कथन व्यक्त किया है-

“सामाजिक विभेदीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्तियों और समूहों में जैविक प्रदाय और शारीरिक विशेषताओं आयु, लिंग, प्रजाति, सपिण्डीय और व्यक्तिगत व्यवसायों में अन्तर, सामाजिक संस्थिति, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, और अर्जित व्यक्तित्व के लक्षणों और उपलब्धियों तथा समूह संगठन और सामाजिक सम्बन्धों में विभेद उत्पन्न होते हैं। सामाजिक विभेद विभेदीकरण की प्रक्रिया पहलू और उत्पाथ दोनों हैं।”

सामाजिक विभेदीकरण समाज की एकता को नष्ट न करते हुए समाज का विभिन्न समूहों में एक आवश्यक विभाजन होता है। उदाहरण के लिये समाज में स्त्री-पुरुषों का समूह स्वाभाविक एवं आवश्यक भी है। इसी प्रकार से श्रमविभाजन के अनुसार बहुत से व्यवसाय वाले एवं उनके समूह बनते हैं। व्यापारी, वकील, डाक्टर, अध्यापक, लिपिक आदि लोगों के अपने वर्ग एवं समूह बनते हैं। ये सब एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। फिर भी अलग-अलग ही होते हैं। इनमें विभेद पाया जाता है। यह एक सामाजिक प्रक्रिया के द्वारा होता है अतएव उसे सामाजिक विनेदीकरण नाम दिया जाता है।

सामाजिक विभेदीकरण एवं समाजीकरण स्तरीकरण में अन्तर

सामाजिक विभेदीकरण एवं सामाजिक स्तरीकरण गोनों सामाजिक प्रक्रियाएँ हैं और सामाजिक संगठन के अंग हैं इसलिये दोनों में समानता पाई जाती है। दोनों के लक्ष्य एवं कार्य-विधि में अन्तर होने से हमें दोनों में अन्तर दिखाई देता है। नीचे हम दोनों में पाये जाने वाले अंतरों को प्रकट करेंगे-

सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक स्तरीकरण
समाज के विभिन्न इकाइयों में भेद पाया जाता है। समाज के विभिन्न इकाइयों के बीच क्रम- व्यवस्था प्रकट करता है।
सामाजिक विभेदीकरण में समाज के विभिन्न वर्गो एवं समूहों में संबंध पाया जाता है, कोई ऊंचा या नीचा नहीं गिना जाता है। सामाजिक स्तरीकरण में ऊंचा- नीचा स्थान निर्धारित किया जाता है।
सामाजिक विभेदीकरण व्यापक तथा स्थूल रूप में पाया जाता है। सामाजिक स्तरीकरण सामाजिक विभेदीकरण का एक अंग होता है और उसे सूक्ष्म रूप से प्रकट करता है।
सामाजिक विभेदीकरण में समूह एवं वर्ग स्थाई रूप में पाए जाते हैं। सामाजिक स्तरीकरण में समूह और वर्ग स्थाई रूप में न भी हों उनकी अपनी यह व्यवस्था होनी चाहिए;फोन में यह प्रभुताशाली हो तो दूसरा अधीन हो।
सामाजिक विभेदीकरण इस प्रकार से जैविक एवं पर्यावरण संबंधी उत्पाद्य है। सामाजिक स्तरीकरण केवल समाज के पर्यावरण का उत्पाद्य है। यह‌ मनुष्यकृत ही होता है।

सामाजिक विभेदीकरण के आधार

समाज में जो भी समूह, वर्ग, जाति तथा धर्म पाये जाते हैं उनका निर्माण कुछ आधार पर ही हुआ होगा यह समाजशास्त्र के अध्ययन से मालूम होता है। अतः हमें इन आधारों पर भी कुछ ध्यान देना चाहिये।

(i) जैविक आवश्यकताओं एवं विशेषताओं का आधार- समाज के लोगों की उत्पत्ति जैविक सम्बन्धों का परिणाम है और जैविक अन्तःप्रेरणाओं एवं आवश्यकताओं के कारण मानव शिशु का जन्म होता है। जन्म के आधार पर बालक या बालिका, पुरुष या स्त्री का अलग-अलग समूह बनता है। अतएव सामाजिक विभेदीकरण का एक आधार मनुष्य जैविक की आवश्यकताएँ एवं विशेषताएँ हैं।

(ii) सामाजिक क्रियाओं के निष्पादन का आधार- समाज को चलाना है, आगे बढ़ाना है। इसलिए समाज के लोगों ने मिल जुलकर परस्पर समझौता करके ही विभित्र कार्यों को करना शुरू किया। इस प्रकार श्रम का विभाजन हुआ। कुछ लोग स्वतः अपने परिवार के कामों को करने लगे। ऐसी दशा में स्पष्ट है कि सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक पर्यावरण के अनुकूल अपनी क्षमता, योग्यता एवं स्वभाव के अनुसार मनुष्य द्वारा कार्यों के निष्पादन के आधार पर हुआ।

(iii) सांस्कृतिक आधार- सामाजिक विभेदीकरण संस्कृति की भिन्नता के आधार पर भी हुआ क्योंकि विभिन्न स्थानों पर रहने वालों की जीवन-शैली अलग-अलग होती है, उनके ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, राग-रंग, खान-पान, पहनावा, भाषा, साहित्य सब कुछ भिन्न होते हैं। अतएव इनके आधार पर निश्चय ही सामाजिक विभेदीकरण होगा।

(iv) सामाजिक गतिशीलता का आधार- आधुनिक समय में सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक गतिशीलता के आधार पर हुआ जान पड़ता है। ग्राम निवासी नगर निवासी बन जाता है तो उसका सम्बन्ध ग्राम के लोगों से न होकर नगर के लोगों से हो जाता है। इस प्रकार सामाजिक विभेदीकरण होता है। नगर से ग्राम में बसने वाले नगर निवासी अपने को वहाँ के लोगों से भिन्न मानते हैं, उनसे अलग रखते हैं। इसके अलावा कभी भी दोनों के मध्य एक नया वर्ग निर्मित हो जाता है। इससे भी विभेदीकरण होता है। अपने देशों में 1948 के बाद पंजाब, सिन्ध, गुजरात, आदि प्रदेशों के लोग दूसरे प्रदेशों में जाकर बसे । जहाँ वे बसे वहाँ के लोगों से सम्बन्ध जरूर रखा लेकिन गतिशीलता के आधार पर। इसी तरह तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति से भी सामाजिक विभेदीकरण हुआ है।

(v) शिक्षा का आधार- सामाजिक विभेदीकरण का आधार शिक्षा भी है। शिक्षा- प्राप्त व्यक्ति अशिक्षित से अपने को भिन्न समझता है। देशी शिक्षा पाने वाले अंग्रेजी शिक्षा पाने वालों से भिन्न होते हैं। विदेशों में जाकर शिक्षा लेने वालों का अपना एक समूह बन जाता है। ऐसी दशा में शिक्षा के आधार पर सामाजिक विभेदीकरण होता है।

सामाजिक विभेदीकरण तथा शिक्षा

सामाजिक विभेदीकरण और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वास्तव में शिक्षक, शिक्षार्थी एवं शिक्षालय तीनों विभेदीकरण में कुछ न कुछ योगदान करते ही हैं। इसलिए थोड़े विस्तार के साथ इस पर विचार किया जाना जरूरी है।

(i) सामाजिक विभेदीकरण में शिक्षक का योगदान- ‘शिक्षक’ शब्द एक वर्ग विशेष का संकेत करता है जिसका कार्य समाज के शिशुओं, बालकों, किशोरों, आदि को जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान-कौशल प्रदान करना होता है। अतः; स्पष्ट है कि शिक्षक वर्ग के बनने से समाज का विभेदीकरण होता है। शिक्षक भी अपने कार्य एवं व्यवहार से अपने को दूसरे से भिन्न मानता है। जहाँ अलगाव की ऐसी चेतना एवं अभिवृत्ति पाई जाती है वहाँ सामाजिक विभेदीकरण होगा। अतः स्पष्ट है कि शिक्षक सामाजिक विभेदीकरण में योगदान देता है। शिक्षक संघ की स्थापना इसका एक उदाहरण है।

(ii) सामाजिक विभेदीकरण में शिक्षार्थी का योगदान- शिक्षक के समान शिक्षार्थी भी सामाजिक विभेदीकरण में अपना योगदान देता है। आज शिक्षक संघ के समान छात्र संघ भी हैं। सभी छात्र अपनी माँग के लिए आवाज उठाते समय “छात्र एकता जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हैं। छात्र अपने को प्रशासक वर्ग से अलग समझते हैं। प्रशासक वर्ग भी छात्रों एवं अध्यापकों से भिन्न होता है। छात्रों का लक्ष्य शिक्षा ग्रहण करना होता है और इसी के लिए वे प्रयलशील होते हैं। उनका आचार-व्यवहार इस कारण अन्य लोगों से भिन्न होता है। अब स्पष्ट है कि शिक्षार्थी अपना योगदान सामाजिक विभेदीकरण में किस प्रकार करते हैं।

(iii) सामाजिक विभेदीकरण में शिक्षालय का योगदान- सामाजिक विभेदीकरण में समाज की संस्थाएँ भी अपना-अपना योगदान करती हैं। शिक्षालय समाज की एक विशिष्ट संस्था है जो अपने सदस्यों को समाज के लिये तैयार करती है। शिक्षालय समाज के विभिन्न सदस्यों के लिए अलग-अलग बने होते हैं जैसे शिशु विद्यालय, बाल शिक्षालय, किशोर एवं युवा के विद्यालय, प्रौढ़ की पाठशाला आदि । सामान्य एवं व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय अलग-अलग होते हैं। उनमें शिक्षा लेने वालों में अपने को समाज का अलग वर्ग विशेष का सदस्य समझने की प्रवृत्ति पाई जाती है जो सही है। ऐसी अवस्था में निश्चय ही शिक्षालय सामाजिक विभेदीकरण में अपना योगदान करता है।

(iv) सामाजिक विभेदीकरण में शिक्षा के पाठ्यक्रम का योगदान- शिक्षा का पाठ्यक्रम समाज के लोगों की आवश्यकता की पूर्ति करने के हेतु बनाया जाता है। उदाहरण के लिए अमरीकी समाज में आज तकनीकी एवं वैज्ञानिक तथा औद्योगिक शिक्षा के पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जब हमारे देश में कागजों पर ऐसी माँग अंकित है लेकिन समाज के लोगों का झुकाव सामान्य शिक्षा की ओर है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा का पाठ्यक्रम सामाजिक विभेदीकरण के लिये उत्तरदायी है। इसके अलावा विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा के पाठ्यक्रम द्वारा अलग-अलग वर्ग के लोगों का सृजन होता है जैसे अध्यापक, शिक्षा अध्यापक, डाक्टरी शिक्षा डाक्टर, वकालत की शिक्षा वकील, इन्जीनियरी की शिक्षा इन्जीनियर, तकनीकी शिक्षा तकनीकी वर्ग का निर्माण समाज में करती है। इसके कारण सामाजिक विभेदीकरण होता है।

निष्कर्ष

ऊपर के विचारों से इतना स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा सामाजिक विभेदीकरण का एक प्रमुख एवं शक्तिशाली कारक होती है जिस प्रकार वह विभेदीकरण का कारण होती है। उसका कारण यह है कि सामाजिक एकीकरण एवं सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक प्रक्रिया के दो पहलू हैं और एक दूसरे से घनिष्ठरूप में संगठित हैं। शिक्षा इन दोनों पहलुओं के बीच की कड़ी है। अतः ये तीनों एक दूसरे से अविच्छेद्य कहे जाते हैं।

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Pankaja Singh

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