शिक्षाशास्त्र

स्वतन्त्रता और अनुशासन | स्वतन्त्रता का अर्थ | अनुशासन का अर्थ | स्वतन्त्रता और अनुशासन में सम्बन्ध | अनुशासन के सिद्धान्तवाद | समन्वय का दृष्टिकोण | दार्शनिक सम्प्रदायों के अनुसार | अनुशासनहीनता के कारण | अनुशासन स्थापित करने के उपाय

स्वतन्त्रता और अनुशासन | स्वतन्त्रता का अर्थ | अनुशासन का अर्थ | स्वतन्त्रता और अनुशासन में सम्बन्ध | अनुशासन के सिद्धान्तवाद | समन्वय का दृष्टिकोण | दार्शनिक सम्प्रदायों के अनुसार | अनुशासनहीनता के कारण | अनुशासन स्थापित करने के उपाय

स्वतन्त्रता और अनुशासन

मनुष्य एक विचारवान और नियम के साथ रहने वाला प्राणी होता है। इस कारण वह समाज बनाता है जिसमें एक सुव्यवस्था पाई जाती है और यदि ऐसी व्यवस्था न हो तो जीवन कठिन हो जाता है और मार्ग में बाधा आती है। फलस्वरूप मनुष्य अपने आप एक नियम पालन के लिये जोर देता है। परन्तु कभी-कभी वह दूसरे के द्वारा भी ऐसे नियम स्थान की अपेक्षा रखता है। यहीं अनुशासन पाया जाता है अस्तु अनुशासन एक आवश्यकता है जो समाज में रहने के लिये होती है। दूसरी ओर लोग दूसरों के बन्धन में रहकर काम करने में कोई कठिनाई भी अनुभव करते हैं। अपने ढंग से कार्य करने में अच्छा समझते हैं क्योंकि ऐसी स्थिति में वे मनोनुकूल विकास कर लेते हैं। अतएव लोग स्वतन्त्रता की माँग करते हैं और स्वतन्त्रता सही विकास के लिये जरूरी भी हो जाती है। इससे लोग वास्तविक स्थिति में काम करने की सुविधा पाते हैं। अतएव एक प्रगतिशील समाज में स्वतन्त्रता और अनुशासन दोनों की बहुत जरूरत होती है।

  1. स्वतन्त्रता का अर्थ

स्वतन्त्रता शब्द का विग्रह है स्व+तंत्रता। इससे इसका सीधा-सादा अर्थ होता है अपने बन्धन या नियंत्रण में रहना। इससे यह संकेत मिलता है कि स्वतन्त्रता दूसरे के आदेश पालन में समाप्त हो जाती है और व्यक्ति दूसरों के नियन्त्रण में हो जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने आप कुछ करने में असमर्थ होता है। अतः स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता मनुष्य की वह स्वाभाविक स्थिति है जिसमें वह अपने आप अपने को भादेश देता है और कार्य करने का प्रयत्न करता है।

स्वयं मनुष्य अपने जहाँ नियन्त्रण रखता है वहाँ एक स्वाधीन (स्व + अधीन) होता है और अंग्रेजी भाषा में इसे ‘फ्रीडम’ नहीं ‘इन्डिपेन्डेन्स’ (Independence) कहते हैं।

इस प्रकार फ्रीडम और इन्डिपेन्डेंस दो शब्द स्वतन्त्रता के अर्थ प्रकट करते हैं। स्वतन्त्रता की स्थिति में मनुष्य मुक्त (Free) होता है और स्वाधीन (Independent) होता है और अपने आप आश्रित या निर्भर होता है न कि दूसरों पर। इसीलिये प्रो० जॉन डीवी ने लिखा है कि, “स्वतन्त्रता, चाहे जिस क्षेत्र से सम्बन्ध रखे, वह तो मनुष्य की क्षमता की मुक्ति है।”

स्वतन्त्रतां का सही अर्थ समझने के लिये हमें अंग्रेजी के एक अन्य शब्द की ओर ध्यान देना चाहिये और वह शब्द है Liberty (लिबर्टी)। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘लिबरा’ (Libra) शब्द से बना है। ‘लिबरा’ शब्द का अर्थ होता है “तराजू’ । तराजू का काम तौलना है अर्थात् भार और वस्तु में समतोल रखना है। ऐसी स्थिति में ‘लिबर्टी’ शब्द मनुष्य की उस स्थिति को बताता है जहाँ वह अपने आचरणव्यवहार को समाज में तौल-नापकर प्रकट करता है अथवा अपने आपको तौल नाप कर आगे बढ़ाने की कोशिश करता है। अतः यहाँ एक नपे-तुले व्यवहार में स्वतन्त्रता का होना मिलता है। और यह अर्थ सही रूप में ‘स्वतन्त्रता’ को प्रकट करता है।

स्वतन्त्रता इस प्रकार से मनुष्य के व्यवहार व आचरण की स्थिति को बताती है। यह स्थिति मनुष्य की मनोवृत्ति एवं स्वभाव पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिये जब मनुष्य मुक्त होता है, बन्धन रहित होता है तो अपने आपको स्वस्थ अनुभव करता है, प्रसन्न मुद्रा में रहता है, परन्तु यह भी सोचता रहता है कि एक मनुष्य के नाते उसके पास-पड़ोस में रहने वाले साथ में काम करने वाले भी हैं और उन्हें भी उतनी ही स्वतन्त्रता है। फलस्वरूप मनुष्य अपने आप नियंत्रण की मनोवृत्ति धारण कर लेता है। वस्तुतः यह स्थिति ही स्वतन्त्रता का सही अर्थ प्रकट करती है। इस दृष्टि से स्वतन्त्रता मनुष्य की एक अभिवृत्ति और स्थिति है जिसमें वह अपने आपको दूसरों के साथ तौल कर नियंत्रित रूप में अपनी क्षमता को उन्मुक्त करता है।

  1. अनुशासन का अर्थ

स्वतन्त्रता सही अर्थ में स्वच्छन्दता नहीं है। (Freedom in a true sense is not liberty)। स्वच्छन्दता आत्म-नियंत्रण विहीन होती है। इसमें किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता है, न तो अपने आप का और न दूसरों का। यह स्थिति अचिंतनपूर्ण (Unthoughtful) होती है। स्वतन्त्रता दूसरी ओर विचारशीलता से आरम्भ होती है।

जहाँ कार्य करने में इस प्रकार की विचारशीलता होती है वहाँ ‘अनुशासन’ (Discipline) आ ही जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि अनुशासन भी एक स्वाभाविक अभिवृत्ति है जो मनुष्य की एक विशेषता है।

अनुशासन शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-अनु + शासन । अनु का अर्थ है पीछे और शासन का अर्थ है नियंत्रण। इस प्रकार अनुशासन का अर्थ हुआ नियंत्रण के पीछे होना या नियंत्रण का पालन करना, अथवा आदेश पालन। अनुशासन के लिये अंग्रेजी भाषा में “डिसिप्लिन (Discipline) शब्द होता है। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘डिसाइप्यूलस (Discipulus) शब्द से बनाते हैं। ‘डिसाइप्यूलस शब्द का अर्थ आदेश पालन करना होता है। अतएव अनुशासन और डिसिपिलिन’ दोनों शब्द आदेश पालन, नियंत्रण मानना, व्यवस्था स्वीकार करना बताते हैं। इसी भाव को प्रकट करते हुए प्रो० जॉन डीवी ने लिखा है कि, “एक अनुशासित व्यक्ति यह है जो अपने कार्यों पर वविचारकरने, उन्हें समझ-बूझ कर करने का प्रशिक्षण पा चुका है।” इससे स्पष्ट है कि अनुशासन का अर्थ नियंत्रित ढंग से कार्य करना होता है।

अनुशासन का अर्थ व्यापक होता है यह हमें कुछ विद्वानों के विचारों को देखने से स्पष्ट हो जावेगा। इस सम्बन्ध में प्रो० टी० पी० नन ने लिखा है कि “अनुशासन का अर्थ अपनी भावनाओं और शक्तियों को नियंत्रण के अधीन करना जो अव्यवस्था को व्यवस्था प्रदान करता है।”

प्रो० आर० सी० रिकार्डसन ने लिखा है कि “अनुशासन आज्ञापालन और आदेशों के अनुपालन की अपेक्षा करता है।”

इंगलैण्ड की शिक्षा परिषद ने बताया है कि “अनुशासन वह साधन है जिसके द्वारा बालकों को व्यवस्था, उत्तम आचरण और उसमें निहित सर्वोत्तम गुणों की आदत को प्राप्त करने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है।”

प्रो० जॉन डीवी ने लिखा है कि, “अनुशासन का अर्थ व्यवस्था की शक्ति और कार्य करने के लिये उपलब्ध साधनों पर नियन्त्रण की क्षमता है।”

प्रो० ए० डी० मुलर के अनुसार, “अनुशासन का आधुनिक एवं व्यापक अर्थ बालक-बालिकाओं को जनतांत्रिक समाज के जीवन के लिये तैयार करना है।”

  1. स्वतन्त्रता और अनुशासन में सम्बन्ध

ऊपर के विचारों पर थोड़ा सा भी ध्यान देने पर स्वतन्त्रता और अनुशासन का सम्बन्ध ज्ञात हो जाता है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार दोनों में अविच्छेद संबंध पाया जाता है। स्वतन्त्रता और अनुशासन मनुष्य की दो भावनाएँ हैं, दो अभिवृत्तियाँ हैं जो समाज के जीवन के लिये आवश्यक हैं और दोनों का सम्बन्ध आत्मनियन्त्रण, आत्मसंयम और आचरण तथा व्यवहार से होता है। ऐसी दशा में दोनों एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं और साधन एवं साध्य के रूप में मिलते हैं, स्वतन्त्रता साधन है और अनुशासन साध्य है।

स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता नहीं और अनुशासन दमन नहीं है। दोनों में शरीर और आत्मा का सम्बन्ध होता है और दोनों के अस्तित्व से ही मनुष्य का जीवन समाज सक्षम होता है। इस सम्बन्ध में प्रो० एम० एन० ह्वाइटहेड ने लिखा है कि, “आदर्श सुनियोजित शिक्षा का उद्देश्य यह होना चाहिये कि अनुशासन स्वेच्छापूर्वक और स्वतंत्र रूप से हो और स्वतन्त्रता अनुशासन रखने में सहायक हो। दोनों सिद्धांत-स्वतंत्रता और अनुशासन, एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, वरन् इन दोनों का बालक के जीवन में ऐसा अनुकूलन होना चाहिये कि ये बालक के व्यक्तित्व के विकास में इधर-उधर होने वाली स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार हों।”

ऊपर के कथन से स्वतन्त्रता और अनुशासन का अविच्छेद सम्बन्ध स्पष्ट हो जाते है। विद्यालय और शिक्षा के माध्यम से हम बालक-बालिकाओं को अपने जीवन को अच्छी तरह से बिताने के लिये प्रशिक्षित कर सकते हैं जिसमें उन्हें स्वतन्त्रता एवं अनुशासन की अति आवश्यकता पड़ेगी। अस्तु हमें विद्यालय में इन्हीं अभिवृत्तियों को आगे बढ़ाने तथा विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिये। शिक्षा में इस दृष्टि से इनका स्थान दिखाई देता है।

  1. अनुशासन के सिद्धान्तवाद (Theories)

शिक्षा के क्षेत्र में विद्वानों के विचार से तीन सिद्धांतवाद बताये गये हैं। इन पर भी थोड़ा सा विचार करना जरूरी है। इससे स्वतन्त्रता एवं अनुशासन दोनों के बारे में स्पष्ट ज्ञान हमें मिल सकेगा। ये सिद्धांतवाद निम्नलिखित हैं-

(क) दमनवादी सिद्धान्तवाद- अंग्रेजी भाषा में इसे Repressionistic theory कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि लोगों के ऊपर कठोर नियन्त्रण होना चाहिए। मार- पीट, दण्ड से व्यवस्था रखनी चाहिये। समाज में, परिवार में, तथा विद्यालय में, सर्वत्र दण्ड का साधन ही उपयुक्त है। कहावत भी है, “दण्ड छूटा बालक बिगड़ा” (Spare the rod and spoil the child) | यह केवल बालक ही नहीं वयस्क के लिये भी है। समाज में पुलिस, सेना और अन्य ऐसे लोगों को इसीलिये रखा जाता है कि किसी प्रकार की अव्यवस्था न आने पाये। यह अत्यन्त प्राचीन प्रणाली है और आज भी सभ्य समाज में किसी न किसी अंश में पाई जाती है।

दमनवाद (Repressionism) को लोग अच्छा और बुरा दोनों मानते हैं। इसलिये इस वाद के पक्ष में विचार नीचे दिये जा रहे है-

(i) दण्ड के भय से कार्य की ओर रुचि होती है, लोगों में व्यवस्था और संयमशीलता पाई जाती है।

(ii) दण्ड से आदेशों की पूर्ति सरलतया होती है, उचित ज्ञान भी इसके कारण संभव होता है।

(iii) दण्ड और दमन से अनुचित कार्य करने को प्रोत्साहन नहीं मिलता है, अनुचित करने वाले उसकी ओर नहीं झुकते।

(iv) दण्ड और भय से मनुष्य की पशुता एवं कुवृत्ति दूर हो जाती है, ऐसी प्रवृत्ति के दमन से सुधार होता है।

(v) दण्ड, दमन एवं भय के कारण व्यक्ति अपने आचरण को सुधारने एवं नियन्त्रित रखने की कोशिश करता है।

(vi) दण्ड, दमन, नियंत्रण एवं संयम सही जीवन के साधन होते हैं जैसा कि यौगिक दर्शन में मिलता है।

दमनवाद के विपक्ष में भी विचार है जिन्हें समझना चाहिये और सही स्थिति मालूम करनी चाहिये। ये विचार नीचे दिये जा रहे हैं-

(i) दमन अमनोवैज्ञानिक क्रिया है, अमानुषिक क्रिया है और असामाजिक तथा असभ्य क्रिया है।

(ii) दमन और दण्ड से भय, घृणा, निराशा आदि दुखद मानसिक स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जो अस्वास्थ्यकर होती हैं।

(iii) दमन और दण्ड से स्वेच्छापूर्वक कार्य नहीं होता है, इससे क्षणिक लाभ होता है, व्यवस्था अस्थायी होती है।

(iv) दमन एवं दण्ड के कारण विकास में बाधा आती है, क्रिया बन्द भी हो जाती है जैसे लड़का पढ़ाई बन्द कर देता है।

(v) दण्ड के भय से झूठ, बहाना, मक्कारी जैसे अवगुण आ जाते हैं, इससे चरित्र गिरता है और व्यक्तित्व उचित ढंग से नहीं बनता है।

(vi) दण्ड का प्रभाव मस्तिष्क पर बुरा पड़ता है, स्मृति खराब होती है, ईर्ष्या होती है।

“शिक्षक क्रूरता और कठोरता को अपना कर ज्ञान की प्राप्ति में योग नहीं दे सकता है। ये दोनों बातें बालक को मूर्ख और लापरवाह बनाने के लिये काफी हैं।” प्रो० सैमुएल स्माइल्स के ये शब्द उपयुक्त एवं सही हैं। इन्हें ध्यान में रखकर हमें दमनवादी सिद्धान्त का प्रयोग करना चाहिये । यद्यपि इस सिद्धान्तवाद में दोष है लेकिन फिर भी दमन एवं दण्ड की आवश्यकता होती है और आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग करना चाहिये जैसा आजकल अपने देश में हो रहा है।

(ख) प्रभाववादी सिद्धान्तवाद- अंग्रेजी भाषा में इसे Impressionistic Theory कहते हैं। इसका तात्पर्य व्यक्तिगत प्रभाव से अनुशासन स्थापित करना है। इसके पोषक आदर्शवादी लोग हैं। विद्यालय में शिक्षक का व्यक्तित्व एवं विद्यालय का वातावरण इस ढंग का होता है जिससे कि छात्र पर उसका इतना प्रभाव पड़ता है कि वह स्वयं आदेश पालन करता, और व्यवस्था स्थापित करता है। किसी प्रकार के दण्ड की या दमन की जरूरत नहीं पड़ती है। समाज में भी नेताओं एवं अन्य व्यक्तियों के अच्छे आचरण, व्यक्तित्व एवं कार्यों का प्रभाव अन्य लोगों को व्यवस्थित बनाये रखता है। ऐसी दशा में एक मनोनुकूल स्थिति पाई जाती है जो प्रभाववादी सिद्धान्तवाद का आधार कही जाती है। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों के विचार ऐसे अनुशासन के पक्ष में हैं-

(i) प्रभाववादी अनुशासन व्यक्ति के परस्पर प्रेम, सहयोग, अनुभूति, सम्मान, आदि भावों पर आधारित होता है। यह स्वाभाविक होता है।

(ii) प्रभाव डालने के लिये अध्यापक, नेता एवं अभिभावक सभी अपने आचरण को उत्तम ढंग से प्रकट करते हैं।

(iii) प्रभाववादी अनुशासन एक मध्यमार्ग है, न तो पूर्ण दमन है न पूर्ण स्व- स्वतन्त्रता है। इससे यह सिद्धान्तवाद बहुत उपयुक्त होता है।

(iv) प्रभाववादी सिद्धान्तवाद मनोविज्ञान पर आधारित होता है, इसमें संकेत का सिद्धान्त लागू होता है, सम्मान संकेत का इसमें प्रयोग पाया जाता है। आत्म-संकेत भी काफी काम करता है।

(v) प्रभाववादी सिद्धान्तवाद ज्ञानार्जन की दृष्टि से बहुत सहायक होता है, यह रुचि- प्रेरक होता है।

(vi) प्रभावकारी सिद्धान्तवाद बहुत गहराई तक पहुँचता है, इससे स्थायी व्यवस्था होती है न कि क्षणिक।

प्रभाववादी सिद्धान्त के पक्ष में प्रो० जे० एस० रास ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में लिखा है कि “यह सत्य है कि प्रभाव का गहरा असर चरित्र पर पड़ता है। दूसरे शब्दों में, प्रभाव अनुशासन उत्पन्न करता है। हम अपने नैतिक विचारों, दृष्टिकोणों और प्रोत्साहनों को सम्मानित व्यक्तियों के सम्पर्क से प्राप्त करते हैं।” कथन सही एवं सार्थक है, अपने दैनिक जीवन में हम इस सिद्धान्तवाद का अनुप्रयोग पाते हैं। अस्तु यह सिद्धान्तवाद अधिक महत्वपूर्ण है।

कुछ अन्य विद्वानों के विचार इस सिद्धान्तवाद के विपक्ष में भी हैं जो नीचे दिये जा रहे हैं।

(i) इस सिद्धान्तवाद के अनुसार आदर्श एवं व्यक्ति को अधिक महत्व दिया जाता है और विद्यालय में अध्यापक अपने चरित्र का आरोपण छात्र पर करता है अथवा समाज में नेता अन्य सदस्यों पर तथा घर में माता-पिता बालक पर।

(ii) इस सिद्धान्तवाद के प्रयोग से व्यक्ति की इच्छा, आवश्यकता, रुचि, अभिलाषा का कुछ भी ध्यान नहीं रहता है। इससे उसका व्यक्तित्व दूसरे के अनुरूप बनता है, अपने आप नहीं।

(iii) इससे व्यक्ति में अनुकरण की प्रवृत्ति अधिक सक्रिय होती है। इस प्रवृत्ति के कारण गुण-दोष दोनों लोग अपना लेते हैं।

(iv) इस सिद्धान्त के अनुसार स्वतन्त्र विकास सम्भव नहीं होता है बल्कि दूसरों के संकेतों पर होता है।

(v) इस सिद्धान्तवाद के कारण लोगों में आत्म चिन्तन, स्वोपक्रम, स्वनिर्णय, स्वयमेव तर्क-वितर्क एवं विवाद की क्षमता का विकास ठीक से नहीं हो पाता है।

(vi) यह सिद्धान्तवाद काल्पनिक है क्योंकि अच्छा, आदर्शपूर्ण, चरित्रवान एवं विचारवान व्यक्ति कौन है यह कोरी कल्पना ही है। अस्तु यह सिद्धान्तवाद अव्यावहारिक भी माना जाता है।

(ग) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद- अंग्रेजी भाषा के अनुसार इसे Emancipationistic Theory कहा जाता है। वस्तुतः यह सिद्धान्तवाद दमनवादी सिद्धान्तवाद के विपरीत होता है। दमन से विकास रुकता है अतएव मुक्ति देना अच्छा है। इस सिद्धान्तवाद में व्यक्ति को पूरी स्वतन्त्रता होती है, कोई प्रतिबन्ध उस पर नहीं लगाया जाता है, इससे वह अपनी जन्मजात रुचियों एवं प्रवृत्तियों के अनुसार प्रगति करता है और अपने व्यक्तित्व का निर्माण सही ढंग से करता है। प्रकृतिवादी विचारक इसी सिद्धान्तवाद के पोषक हैं जिनमें रूसो, पेस्टालोजी एवं फ्रोबेल अधिक प्रसिद्ध हैं। इनके विचारों से हमें इस सिद्धान्तवाद का महत्व मालूम होता है। इस सिद्धान्तवाद के पक्ष में नीचे लिखे तर्क दिये गये हैं-

(i) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद के अनुसार स्वेच्छा, रुचि एवं स्वतन्त्रता से काम करने का अवसर मिलता है। इससे स्वाभाविक विकास होता है।

(ii) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद में प्रकृति के परिणामों से दण्ड मिलता है, इससे व्यक्ति स्वयं सीखता है और आगे बढ़ता है।

(iii) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद में किसी प्रकार का दमन न होने से न तो कोई भावग्रन्थि बनती है और न मानसिक रोग ही होता है। इससे व्यक्तित्व का उचित विकास होता है।

(iv) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद पर आधारित अनुशासन में स्वतन्त्र वातावरण आवश्यक होती है। इससे आत्मनियंत्रण एवं आत्मनुशासन को प्रश्रय मिलता है।

(v) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद जनतांत्रिक भावना से पूर्ण होता है जिसमें स्वतन्त्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है।

(vi) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद का सम्बन्ध आध्यात्मिक वैभव से होना बताया जाता है जैसा कि इसके समर्थक रोमाण्टिक कवि वईसवर्थ ने लिखा है कि हम मनुष्य ईश्वर से वैभवों के साथ उत्पन्न होते हैं- (With railing clouds of glory do we come from God.)

(vii) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद की चरम अवस्था आत्मा की मुक्ति होती है। आदर्शवादी भावना भी इसमें पाई जाती है।

मुक्तिवादी सिद्धान्तबाद के विपक्ष में विद्वानों के मत हैं जिन्हें नीचे लिखा जा रहा है-

(i) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों को बढ़ा देता है। इससे समाज में उच्छलत बढ़ती है। मनुष्य समाज की परवाह न करके मनमानी काम करने लगता है।

(ii) मुक्तिवादी सिद्धान्त अपने आप में अपूर्ण होता है क्योंकि बालक एवं अपढ़ व्यक्ति को रास्ता दिखाना आवश्यक होता है, इससे अधिकतर व्यक्ति बुराइयों को ही ग्रहण कर लेते हैं तथा उनका चरित्र बिगड़ जाता है।

(iii) मुक्तिवादी सिद्धान्त अव्यवस्थाकारी होता है; बालकों में विशेषकर एवं जनता में सामान्य रूप से अनुशासनहीनता, निर्विचार विरोध एवं संघर्ष, तोड़-फोड़ की क्रिया की भावना बढ़ती है।

(iv) जीवन का सही मार्ग संयम से पूर्ण होता है अतः इस सिद्धान्तवाद से सही मार्ग नहीं मिलता है।

(v) मुक्ति का अर्थ स्वतन्त्रता के दुरुपयोग में पाया जाता है, अतएव मनुष्य अधिकार को ही सब कुछ मानता है और कर्तव्य को कुछ नहीं मानता । फलस्वरूप एकांगी विकास होता है।

(vi) मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद के कारण मनुष्य स्वतन्त्रता का सही अर्थ नहीं समझता है, इस कारण वह असीमित स्वतन्त्रता की माँग करता है और इससे हमेशा स्वार्थ सिद्धि का लक्ष्य सामने रहता है।

  1. समन्वय का दृष्टिकोण

ऊपर हमने अनुशासन के तीन सिद्धान्तवादों के पक्ष-विपक्ष में विचार प्रकट किया। इससे हमें ज्ञात होता है कि तीनों सिद्धान्त अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। समय की गति एवं संसार की वास्तविक स्थिति यदि ध्यान में रखी जावे तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि व्यक्ति अवसर के अनुकूल इन तीनों सिद्धान्तवादों को प्रयोग करता है। दमनवादी सिद्धान्तवाद कुछ दोषों से युक्त है फिर भी बिना दमन के व्यवस्था होती ही नहीं। आज हमारे देश में दमनवादी सिद्धान्तवाद का प्रयोग हो रहा है और इससे लाभ भी हुआ है। दूसरे देशों में भी दण्ड-व्यवस्था समाज में पाई जाती है। फलतः यह सिद्धान्तवाद किसी न किसी रूप में काम में लाया जा रहा है।

मनोविज्ञान की प्रगति होने से मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद को प्रश्रय मिला और यह सही भी है क्योंकि जितना अधिक बन्धन, रोक एवं दमन होता है, वह उतना ही अधिक कष्टकारी और क्रान्तिकारी भाव उत्तेजित करता है। इसीलिये शिक्षा एवं नैतिकता और धर्म के क्षेत्र में मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद अधिक जरूरी है। लेकिन बिना नियन्त्रण के यहाँ भी काम नहीं चलता है। अतएव ‘मुक्ति’ एवं ‘दमन’ के सिद्धान्तों को संतुलित करके प्रयोग करना अच्छा होता है।

यदि दोनों को संतुलित ढंग से काम में लाया जाये तो प्रभाववादी सिद्धान्त स्वयमेव प्रकट हो जाता है। किसी भी व्यक्ति या अध्यापक के अच्छे गुण अपने आप दूसरों को आकर्षित करते है। अच्छे गुण लाने के लिये व्यक्ति को स्वयं अपने पर नियन्त्रण रखना जरूरी है, स्वयं अपनी भावनाओं, इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों का दमन करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि तीनों सिद्धान्तवाद अपनी-अपनी जगह पर उपयुक्त है और तीनों के समन्वय से ही अधिकतम लाभ सम्भव होता है। अतः हमें एक समन्वय का दृष्टिकोण लेकर काम करना अधिक अच्छा होगा।

  1. विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा अनुशासन

स्वतन्त्रता और अनुशासन के बारे में विचार कर लेने के बाद यह भी जरूरी होता है कि हम विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों के अनुसार इस पर दृष्टि डालें। इस कारण आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, प्रयोगवाद, यथार्थवाद अस्तित्ववाद और अनुशासन के प्रति क्या विचार रखते हैं यह हमें समझना चाहिये।

(i) आदर्शवाद स्वतन्त्रता की स्थिति को स्वीकार करता है। वह उसे निरपेक्ष (Absolute) मानता है। ऐसी दशा में वह व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से स्वतन्त्रता को देखता है। मनुष्य वहीं तक स्वतन्त्र है जहाँ तक दूसरे उसे स्वतन्त्र मानते हैं। यहाँ आत्मनियन्त्रण तथा आत्मसंयम के साथ मनुष्य अपने आचार-विचार में स्वतन्त्र पाया जाता है, इसके फलस्वरूप वह ‘आत्मा की मुक्ति’ में विश्वास करता है। आत्मा को भौतिक स्तर से ऊँचा उठाकर अभौतिक स्तर पर लाया जाता है। इसमें मनुष्य की अपनी तृष्णाओं का दमन करना पड़ता है। अतएव यहाँ पर व्यक्ति स्वतन्त्र होने के बजाय अनुशासित अधिक होता है।

आदर्शवाद अनुशासन को कठोर नियन्त्रण एवं संयम से पूर्ण मानता है। इसीलिये मनसा, वाचा, कर्मणा, तथा शारीरिक एवं मानसिक नियन्त्रण के पक्ष में आदर्शवादी व्यक्ति होते हैं। आदर्शवाद इस विचार पर जोर देता है कि ताइन से सुधार किया जा सकता है। कठोर जीवन एवं तप से व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है यह आदर्शवादी अनुशासन है। इसमें व्यवस्था, आदेश के लिये अत्यधिक सम्मान होता है। आज्ञाओं का पालन आदर्शवादी अनुशासन होता है। सैनिक अनुशासन ही सर्वोत्तम होता है यह आदर्शवाद स्वीकार करता है।

(ii) प्रकृतिवादी स्वतन्त्रता की स्थिति को अत्यधिक महत्व देता है। रूसो ने बताया है कि मनुष्य प्रकृति के समान स्वतन्त्र है अतएव निर्बाध रूप से जो चाहे वह कर सकता है। उसकी सभी इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, प्रवृत्तियाँ, अन्तशक्तियाँ बिना किसी रुकावट के प्रकट होनी चाहिये, यह प्रकृतिवाद को मान्य होता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृतिवाद स्वतन्त्रता को एक मानुषी प्रवृत्ति मानता है फिर भी उस पर विवेक का कुछ अधिकार होता है और स्वतन्त्रता सोच-विचार के साथ प्रकट होती है। यह भी प्रकृतिवाद मान लेता है।

अनुशासन के संबंध में प्रकृतिवाद मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद का पोषक है। वस्तुतः यह आदर्शवाद का विरोधी है अतएव मानसिक एवं शारीरिक किसी प्रकार के प्रतिबन्ध को प्रकृतिवाद महत्व नहीं देता है, परिस्थिति व्यक्ति को अनुशासन सिखाती है यह प्रकृतिवाद का मत है। यदि अनुशासन स्वीकृति और अनुभूति में होता है तो निश्चय ही अन्तःप्रेरित होगा। यही प्रकृतिवादी धारणा इस संबंध में मिलती है। प्राकृतिक स्थितियों को भोगकर प्राकृतिक परिणामों के द्वारा ही अनुशासन अपने आप स्थापित होता है ऐसा मत प्रकृतिवाद का कहा जाता है। इस प्रकार से अनुशासन बाह्य आदेश नहीं है बल्कि व्यक्ति के भीतर से प्रकट होने वाली प्रवृत्ति है, अभिवृत्ति है या एक दृष्टिकोण भी है।

(iii) प्रयोगवादी विचारधारा में एक समन्वय मिलता है। क्योंकि वह स्वयं आदर्शवाद और प्रकृतिवाद का एक मध्य मार्ग है। समाज में व्यक्ति को अपने ढंग से काम करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिये । तभी वह समाज के लिये कुछ उपयोगी कार्य कर सकता है। यहाँ आदर्श समाज का उत्कर्ष होता है और ऐसे प्रयल में व्यक्ति समाज की दृष्टि से नियन्त्रण संयम रखता है। प्रयोगवाद के अनुसार हरेक मनुष्य को अपने विचार प्रकट करने की, अपने धर्म के पालन करने की, घूमने-फिरने की शिक्षा, व विकास की, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने की पूरी-पूरी स्वतन्त्रता होती है। अपनी सभी शक्तियों के विकास की पूरी सुविधा एवं स्वतवता प्रयोगवाद प्रत्येक मनुष्य को देता है। अतएव स्वतन्त्रता उच्छलता नहीं है, प्रतिबन्धात्मक है, संयम से आत्म प्रकाशन की प्रवृत्ति है।

अनुशासन के संबंध में भी प्रयोगवाद तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक विचार रखता है। समाज के लोग जिस आदर्श एवं गुण को परीक्षण के द्वारा उपयोगी, अच्छा आवश्यक समझते हैं उसे अवश्य अपनाया जावे। इस प्रकार आत्मानुशासन के प्रति प्रयोगवादी की निष्ठा पाई जाती है। यहाँ पर प्रभाववादी एवं मुक्तिवादी सिद्धान्तवादों का अद्भुत मेल पाया जाता है। अनुशासन का तात्पर्य प्रयोगवाद व्यक्तिवादी न मान कर समाजवादी मानता है। वह सुव्यवस्था, सुसन्तुलन, और सुक्रियाशीलता में पाया जाता है। यहाँ पर हमें वास्तविक अनुशासन परन्तु कुछ समाज के भय से उत्पन्न अनुशासन दिखाई देता है।

(iv) यथार्थवाद भी स्वतन्त्रता को समाज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार करता है। समाज की भौतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में यथार्थवाद व्यक्तियों को अपने विचार, भाव एवं क्रिया को स्वतन्त्र ढंग से अभिव्यक्त करने पर बल देता है। यथार्थवादी भौतिकवादी धारा में बहता हुआ सुख और आनन्द लेने वाली स्वतन्त्रता की अनुभूति करता है। अस्तु यथार्थवाद स्वतन्त्रता को एक सुखद और अनुभावात्मक प्रवृत्ति मानता है जो आदर्शवादी विचार से बिल्कुल भिन्न होता है।

अनुशासन के संबंध में यथार्थवाद का अपना अलग दृष्टिकोण है यद्यपि इसमें प्रकृतिवाद और प्रयोगवाद की भावनाओं का मेल मिलता है। प्रकृतिवाद के समान यथार्थवाद सुखवादी विचार अनुशासन के प्रति व्यक्त करता है। यथार्थवादी वहीं अनुशासन समझता है जहाँ उसकी इच्छाओं की तृप्ति होती है। अतः वह भी मुक्तिवादी सिद्धान्तवाद का मानने वाला है। समाज के नियमों में उसका विश्वास पाया जाता है। समाज के लोगों का प्रभाव लेकर व्यक्ति अनुशासित होने का प्रयत्न करे ऐसा यथार्थवाद को मान्य है। समाज जीवन की समग्र विधि जिसे संस्कृति का नाम दिया जाता है, उसे अपनाकर मनुष्य अनुशासन एवं व्यवस्था स्थापित करता है अतएव यथार्थवादी कुछ अंश में आदर्शवादी परम्परा का भी पालन अनुशासन के सम्बन्ध में करता है।  

(v) अस्तित्ववाद का दृष्टिकोण स्वतन्त्रता एवं अनुशासन के प्रति अन्य विचारधाराओं से कुछ भिन्न है। अस्तित्ववाद के अनुसार स्वतन्त्रता नैतिक गुण है। यहाँ पर हमें कुछ आदर्शवादी झलक मिलती है। सर्वोच्च नैतिकता स्वतन्त्रता का आदर्श है अतएव यहाँ स्वच्छन्दता का कोई प्रश्न नहीं उठता है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टियों से स्वतंत्रता न तो नियंत्रण में, न दमन के उल्लंघन में होती है बल्कि यह एक प्रकार का आत्म-अभ्यास है। (It is a sort of self-practice)। अतएव स्वतन्त्रता स्वयं की क्रियाशीलता में पाई जाने वाली प्रवृत्ति है।

अनुशासन के प्रति अस्तित्ववाद की धारणा “आत्मा” से अभिनिहित होती है। अस्तित्ववादी विश्ववादी व्यक्ति के आत्म को स्वीकार करता है। आत्म-उत्तरदायित्व के आधार पर अस्तित्ववादी अनुशासन स्थापित होता है। अस्तित्ववादी मुक्तिवादी अनुशासन का पोषक एवं समर्थक है। ऐसी कोई दमन की स्थिति अस्तित्ववादी लोग नहीं उपस्थित करते जिससे कि विद्यार्थी को संवेगात्मक धक्का लगे। इससे प्रभाववादी सिद्धान्त का भी समर्थन अस्तित्ववाद में मिलता है।

(vi) समाजवाद, साम्यवाद, जनतववाद और सर्वोदयवाद ये सभी जन-समूह से संबंधित तथा जनकल्याण से संबंधित दार्शनिक विचारधाराएँ हैं। ऐसी स्थिति में ये सभी विचारधाराएँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता देने के पक्ष में हैं। व्यक्ति अपने विकास के लिए, अपने सुख और आराम के लिये हर प्रकार से स्वतन्त्र है। यही नहीं व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता है ऐसी स्थिति में वह पूर्ण स्वतंत्र है कि क्या और किस तरह करे। अतएव इन विचारधाराओं में व्यक्ति की स्वतन्त्रता की ओर काफी ध्यान दिया जाता है। मनुष्य स्वतन्त्र है परन्तु पशु की स्वच्छन्दता और उत्तरदायित्व विहीनता उसे स्वीकार्य नहीं है। वह सचेतन एवं सजग मनुष्य है अतएव वह अपनी और अपने साथ रहने वाले लोगों की स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर अपने विकास का प्रयत्न करता है।

समाजवाद, साम्यवाद, जनतंत्रवाद और सर्वोदयवाद व्यक्ति को अपने और साथियों को एक ही दृष्टि से देखने के लिये अभिप्रेरित करते हैं। ऐसी स्थिति में इन विचारधाराओं के अनुसार सामाजिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। सामाजिक अनुशासन वहाँ पाया जाता है जहाँ व्यक्ति के मन में यह धारणा होती है कि वह जो करे उससे समूह की प्रशंसा हो, उससे समूह की कुछ निन्दा न हो। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने सामूहिक या सामाजिक आत्मा के विकास की ओर ध्यान रखता है और आत्म-नियंत्रण के साथ समाज के कार्यों में भाग लेता है और सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करता है। इस तरह से समाजवाद, साम्यवाद, जनतंत्रवाद और सर्वोदयवाद में आत्म-नियंत्रण एवं आत्म-संयम के साथ सामाजिक उत्तरदायित्व निबाहने में अनुशासन पाया जाता है।

ऊपर की स्थिति गाँधीवाद में भी पाई जाती है और यह स्थिति व्यक्तिगत अनुशासन जिसमें आत्म-नियंत्रण एवं आत्म-संयम पर ही बल दिया जाता है जो सामाजिक अनुशासन का सहयोगी बनाया जाता है और एक उच्चस्तरीय भावना से मनुष्य आगे बढ़ने का काम करने लगता है। अतः स्पष्ट है कि आज के समाजवादी युग में समन्वय के विचार की प्रगति होने से अनुशासन के क्षेत्र में भी समन्वय आवश्यक है। अतएव यह सर्वोत्तम दशा है। इससे व्यक्ति और समाज दोनों का संतुलित विकास होना संभव है।

  1. अनुशासनहीनता के कारण

अनुशासनहीनता क्या है और इसके होने के क्या कारण हैं इस पर भी हमें कुछ विचार करने की आवश्यकता है। अनुशासनहीनत एक स्थिति है और व्यक्ति की एक धारणा भी है जिसमें वह अपनी शक्तियों एवं सुविधाओं का दुरुपयोग करता है और फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त और असंतुलित करता है। ऐसी अनुशासनहीनता विद्यालय के छात्रों में पाई जाती है और समाज के लोगों में भी। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(क) विद्यालय में पाई जाने वाली अनुशासनहीनता के कारण-

(i) विद्यालय में अधिक छात्र होना और उनके लिये खेल-कूद एवं पढ़ाई-लिखाई के विचार से समुचित प्रबन्ध न होना।

(ii) विद्यालय की स्थिति एवं उसका वातावरण ठीक न होना, जैसे नगर के बीच में विद्यालय होना।

(iii) विद्यालय पर बाहरी परिस्थितियों का अनुचित दबाव होना, उनके कार्य में बाधा होना।

(iv) कक्षाओं में बालकों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं, रुचियों, योग्यताओं, विशेषताओं पर ध्यान न देना।

(v) विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों में बुरी आदतें होना, भाव ग्रन्थियों होना जो परिवार और समाज की परिस्थितियों के परिणाम होते हैं।

(vi) कक्षा में अध्यापकों की पढ़ाई ठीक न होना, नीरस अध्यापक होना, आकर्षक ढंग से कार्य न होना।

(vii) शिक्षण सामग्रियों का अभाव होना, उनका उचित ढंग से प्रयोग न होना।

(viii) दमन के द्वारा और अमनोवैज्ञानिक तरीकों से अनुशासन स्थापित करने का प्रयास करना।

(ix) कक्षा में छात्रों को बैठने, पढ़ने, काम करने की असुविधा होना अथवा अधिक संख्या में होना।

(x) कक्षा की स्थिति ठीक न होना, प्रकाश, हवा, फर्नीचर, छाजन आदि की कमी और दुर्व्यवस्था होना।

(xi) अध्यापक और छात्र में उचित सम्पर्क न होना तथा अध्यापक द्वारा उचित निर्देशन न होना।

(xii) अध्यापक और अभिभावक में भी सम्पर्क एवं मेल न होना और अभिभावक द्वारा सहयोग न देना।

(ख) विद्यालय के बाहर समाज में अनुशासनहीनता के कारण-

(i) घर का बुरा वातावरण होना, घर के लोगों में बुरी आदतें होना, घर के लोगों का अनैतिक और बुरा आचरण एवं व्यवहार होना।

(ii) देश व समाज में राजनीतिक अव्यवस्था होना, राजनीतिक दलबन्दी का बुरे ढंग से प्रचार होना।

(iii) देश व समाज के लोगों के आदतों में गिरावट होना, निम्न स्तर होना और अपूर्ण मानक होना।

(iv) व्यक्ति एवं समाज की आर्थिक स्थिति खराब होना तथा आर्थिक स्थिति ठीक रखने में काला बाजारी, घूसखोरी, मक्कारी, धोखेबाजी करना ।

(v) अनावश्यक हड़तालें होना, काम बन्द करना, नियमानुसार काम पूरा न करना और कर्तव्य विमुख होना।

(vi) ढीला नियन्त्रण होना, शासन के लोगों की ढिलाई होना तथा शासन की ओर से भी अनैतिक प्रभाव पड़ना, अनुचित काम करना ।

(vii) देश की दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली होना, देश में बेकारी बढ़ना, समाज में काम की कमी होना।

(viii) दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली होना, परीक्षाओं में नकल होना या कराना, छात्रों द्वारा शिक्षा की उपेक्षा करना।

(ix) देश एवं समाज का धर्मविहीन या धर्म निरपेक्ष होना और नैतिक शिक्षा पर ध्यान न देना।

(x) अपने देश के विद्यालय दुकानों की तरह होना और भौतिक प्राप्ति की ओर व्यवस्थापकों की दृष्टि होना।

(xi) भौतिकवादी अभिवृत्ति का विकास होना, लोगों का धन कमाने में लगा रहना, गलत धारणा बनाना और उचित सम्बन्धों के बनाने में आस्था न होना।

  1. अनुशासन स्थापित करने के उपाय

विद्यालय एवं समाज के सुधार से ही अनुशासन स्थापित करना सम्भव है। ऐसी दशा में शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन हो, विद्यालयों की दशा में परिवर्तन हो समाज के लोगों की अभिवृत्तियों में परिवर्तन हो, देश के शासन में परिवर्तन हो तभी इस देश में अनुशासनहीनता दूर हो सकती है। वस्तुतः अनुशासनहीनता में आत्म उत्तरदायित्व का अभाव है। (In fact indiscipline is the negation of self responsibility)| ऐसी स्थिति में अनुशासनहीनता दूर करने के लिये लोगों को कर्तव्य परायण बनाना जरूरी है। कर्तव्य परायणता का पाठ हमें नैतिक शिक्षा के द्वारा मिलेगा। नैतिक शिक्षा के लिये आत्म सुधार की आवश्यकता है। अतः मनुष्य अपने आपको दूषित होने से बचावे तो अनुशासन की स्थापना अवश्य होगी। इस कार्य में विद्यालय तथा अन्य अभिकरण साधन बनते हैं।

प्रो० डब्लू० पी० शोरिंग ने तीन प्रकार साधनों की ओर संकेत किया है जो नीचे दिये जा रहे हैं जिनसे अनुशासनहीनता की जा सकती है-

(i) सृजनात्मक साधन, (ii) प्रतिबन्धात्मक साधन, (III) उपचारात्मक साधन ।

(i)  सृजनात्मक साधन या उपाय- इसके अन्तर्गत नीचे लिखी बातें करनी चाहिये-

(क) बालकों को स्वीकारात्मक संकेत करना चाहिये न कि नकारात्मक संकेत ।

(ख) बालकों को कर्तव्यों और अधिकारों में सन्तुलन रखने की प्रवृत्ति विकसित करनी चाहिये।

(ग) बालकों में सहयोगी ढंग से सामाजिक अनुशासन का विकास किया जाना चाहिये।

(घ) बालक एवं शिक्षक में मेल-जोल हो और हरेक काम में दोनों का हिस्सा होना चाहिये।

(ङ) बालकों के प्रति सम्मान, सहानुभूति, प्रेम की भावना अध्यापकों में होनी चाहिये।

(च) बालकों की रुचियों के अनुकूल अवसर देना, आवश्यकताओं की पूर्ति करना, इच्छाओं का दमन न करना चाहिये।

(छ) बालकों के विद्यालय, परिवार तथा समाज का वातावरण अच्छा होना चाहिये।

(ज) बालकों के समक्ष अध्यापक अपने अच्छे आचरण एवं व्यक्ति को रखना चाहिये जिससे कि उसका प्रभाव बालक ग्रहण कर सकें।

(झ) बालकों को विषय सम्बन्धी एवं विषयेतर सभी क्रियाओं में व्यस्त रखना चाहिये।

(ञ) बालकों को उचित शारीरिक, नैतिक, धार्मिक, श्रम की शिक्षा देनी चाहिये।

(ट) बालकों को खेल-कूद की सुविधाएँ अधिक से अधिक देनी चाहिये जिससे उनकी दबी हुई भावनाओं का निष्कासन हो जावे।

(ठ) बालकों को समाज के कामों में भी लगाना चाहिये।

(ii) प्रतिबन्धात्मक या रोक-थाम संबंधी साधन अथवा उपाय- इसके अंतर्गत नीचे लिखी बातें होनी चाहिये-

(क) कक्षा के सभी छात्रों का पूरा परिचय अध्यापक को होना चाहिये जिससे दोनों में आत्मीयता होवे।

(ख) कक्षाध्यापक के समय अध्यापक का ध्यान पूरी कक्षा की ओर होना चाहिये जिससे छात्र कोई अनुचित कार्य न सकें।

(ग) कक्षा में बालकों के पढ़ने, उठने-बैठने और काम करने की सभी सुविधा होनी चाहिये।

(घ) कक्षा की ओर ध्यान न देने वाले छात्रों को सजग एवं सचेतन बनाये रखने का प्रयत्न करना चाहिये।

(ङ) कक्षाध्यापन, रोचक, आकर्षक एवं प्रभावकारी विधियों से होना चाहिये जिससे छात्र पढ़ाई में लगे रहें।

(च) कक्षा के छात्रों में आत्म-विश्वास उत्पन्न करना चाहिये और पूरी सहानुभूति से शिक्षा देनी चाहिये।

(छ) कक्षा कार्य में बाधा डालने वालों के साथ नम्र बर्ताव करना चाहिये और शांति रखना चाहिये।

(ज) कक्षाध्यापन करते समय अध्यापक स्वस्थान पर रहे, अनावश्यक चलना-फिरना या नाटक करना ठीक नहीं है।

(झ) कक्षा में अनुशासनहीनता तत्वों को तुरन्त रोकने का प्रयल करना चाहिये।

(ञ) कक्षा में अध्यापक सामान्य रूप से व्यवहार करे, न तो अति कठोर हो और न अति मृदु हो जिससे लड़के उसे दबा लेवें।

(ट) कक्षा तथा विद्यालय का वातावरण, सुन्दर, मनोरंजक, स्वच्छ और शिक्षोत्तेजक बनाया जाना चाहिये।

(ठ) कक्षा के छात्रों को शुरू में ही वास्तविक स्थिति का बोध कराया जाये कि कौन क्या और कैसा है।

(ii)  उपचारात्मक साधन या उपाय- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातों पर ध्यान रखना चाहिये-

(क) अनुशासन भंग करने वाले छात्रों को अन्य छात्रों से अलग कर दिया जाये, विद्यालय से निलंबित कर दिया जाये।

(ख) आत्म-सुधार के लिये छात्रों को अवसर दिया जावे और उनसे कुछ शर्त भी करनी चाहिये।

(ग) छात्र को अपने अपराध के संबंध में कहने का अवसर दिया जावे, तब उसे दण्ड दिया जावे।

(घ) अपराध के लिये दण्ड सोच-समझ कर दिया जावे, अपराध के अनुकूल दंड होना चाहिये।

(ङ) अपराधी के व्यक्तित्व को भी आदर दिया जावे, उसे गिराने का विचार नहीं करना चाहिये।

(च) अपराधी एवं अनुशासनहीन बालक को दण्ड देकर छोड़ देना चाहिये। उससे कुछ न कहना चाहिये।

(छ) कक्षा के सभी छात्रों के सामने दण्ड न दिया जाना चाहिये। दण्ड अकेले देना अच्छा होता है।

(ज) कक्षा के सभी छात्रों से अनुशासन भंग करने वाले छात्र का पता लगाने को कहा जावे और यदि पता न लगे तो एक सामान्य चेतावनी दे दी जावे।

(झ) केवल अनुशासनहीन छात्रों को दण्ड दिया जावे न कि पूरी कक्षा को।

(ञ) अभिभावक एवं माता-पिता को अनुशासनहीन व्यवहारों की सूचना दी जावे और उनके सहयोग से अनुशासनहीनता दूर की जावे।

(ट) भय, डर, धमकी, उपहास, निन्दा, अपमान आदि से उपर्युक्त उपचार नहीं होता है, इसलिये उसका प्रयोग न किया जावे।

(ठ) अनुशासनहीनता, उच्छुलता, उद्दण्डता आदि को समझ कर ही उपचार ढूंढना चाहिये।

(ड) अनुशासनहीनता दूर करने के लिये अधिक अनुभवी लोगों से सहायता ली जानी चाहिये।

(ढ) अनुशासनहीनता और अपराधको बालक की और उसके उपचार को भी समझाया जावे।

(ण) अपराध के लिये दण्ड देने के पूर्व अध्यापक सभी तरह से संतुष्ट होवे कि अपराध हुआ है या नहीं।

(त) अनुशासनहीनता एवं अपराध के कारणों तथा विवरणों की जाँच की जानी चाहिये जिससे सभी बातें साफ-साफ रहें।

(थ) अनुशासनहीन बालको के अच्छे कार्यों की सराहना भी की जानी चाहिये और उनके आत्म स्थायीभाव को जाग्रत करके उनकी अनुशासनहीनता को दूर किया जाये।

(द) अपराध के लिये दण्ड देने पर अपराध करने की पुरावृत्ति की ओर ध्यान रहे और रोकने का प्रयत्न किया जाये।

(ध) अपराध के उपचार में मनोवैज्ञानिक साधन काम में लाये जावें, अच्छे आदर्श प्रस्तुत किये जावें और उत्तरदायित्व दिये जावें।

(न) राजनीतिक दलबन्दी को दूर रखा जावे और दलबन्दी करने वालों पर कड़ी दृष्टि रखी जावे।

निष्कर्ष- विद्यालय एवं समाज में स्वतन्त्रता एवं अनुशासन दोनों की जरूरत होती है। सच्चा विकास स्वतन्त्र वातावरण में ही संभव होता है और बिना अनुशासन के सही ढंग से स्वतन्त्रता का उपयोग भी नहीं हो पाता है। स्यतंत्रता और अनुशासन दोनों व्यक्ति एवं समाज के विकास के लिये दो पहिये के समान है और पूर्व आवश्यकताएँ हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी दोनों अति आवश्यक होते हैं।

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Pankaja Singh

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