शिक्षाशास्त्र

मूल्य और दार्शनिक वाद | मूल्य और शिक्षा

मूल्य और दार्शनिक वाद | मूल्य और शिक्षा

मूल्य और दार्शनिक वाद

विभिन्न दार्शनिक वादों या विचारधाराओं में मूल्यों का स्थान हमें मिलता है। यह अवश्य है कि भिन्न प्रकार के मूल्यों पर इनके द्वारा अलग-अलग बल दिया जाता है। आदर्शवाद मूल्यों पर अत्यधिक बल देता है, उसके अनुसार बिना मूल्य के अस्तित्व नहीं होता है (No existence without a value)| आदर्शवाद व्यक्तिवादी दृष्टि से शाश्वत मूल्यों पर जोर देता है जिन्हें आध्यात्मिक मूल्य भी कहा जाता है, इसीलिए वह सत्यं शिवं सुन्दरं के मूल्यों को सर्वोच्च स्थान देता है और भौतिक मूल्यों को निम्नतम स्थान देता है। नैतिक, धार्मिक, ज्ञानात्मक, सौंदर्यात्मक और संस्था सम्बन्धी मूल्यों को आदर्शवाद में ऊँचा स्थान दिया गया है।

प्रकृतिवाद में सुखवादी, सौंदर्यात्सक एवं नैतिक मूल्यों पर जोर दिया गया है। प्रकृति का वातावरण, उसकी वस्तुएँ, उसकी क्रियाएँ एवं उसकी दशाएँ वस्तुतः सुखद, सुन्दर एवं उपयोगी होती हैं इसीलिये इनका मूल्य जीवन में पाया जाता है। प्रकृति की वस्तुओं का सम्पर्क व्यक्ति को सुख देता है अतएव इनका मूल्य बहुत है यह आवश्यक है कि प्रकृतिवाद भौतिकता पर बल नहीं देता है। प्रकृति में ही वह आध्यात्मिकता की झलक प्रत्येक प्रकृतिवादी को मिलती है।

यथार्यवाद व्यक्तिगत की अपेक्षा समाजगत मूल्यों पर जोर देता है। यथार्थवाद वस्तुनिष्ठता में आनन्द की अनुभूति होने के लिये कहता है। यह वस्तुनिष्ठता भौतिकवादी एवं मानवीय मानी जाती है। इस प्रकार भौतिक मूल्यों पर यथार्थवाद अधिक बल देता है। यथार्थवादी का विश्वास है कि मनुष्यकृत संसार एवं सद्गुण से पूर्ण होता है, आनन्ददायक होता है। यथार्थवाद आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक मूल्यों पर बल देता है। यही स्थिति समाज एवं साम्यवाद में भी पाई जाती है। जनतन्त्रवाद भी यथार्थवादी ढंग से मानवीय मूल्यों में विश्वास रखता है।

प्रयोगवाद आदर्शवाद और प्रकृतिवाद का मध्य मार्ग माना जाता है अतएव यह मूल्यों को, आदर्शों को तथा अच्छाइयों को स्वीकार तभी करता है जब तक वह उन्हें क्रियात्मक ढंग से जाँच नहीं लेता। अतः प्रकृतिवाद की भाँति प्रयोगवाद क्रिया मूल्य पर बल देता है और यह क्रिया समाज की प्रयोगशाला में मनुष्य के द्वारा होती है। अतएव व्यक्तिवादी मूल्यों की अपेक्षा सामाजिक मूल्यों पर प्रयोगवाद का ध्यान अधिक होता है। मूल्य का अस्तित्व प्रयोगवाद के अनुसार बौद्धिकता, प्रयोगवाद एवं क्रियात्मकता पर निर्भर करता है। अतः मूल्य वस्तुनिष्ठता में होता है। प्रयोगवाद नैतिक मूल्य समाज की भलाई में या शिवं के सम्प्रत्यय में पाता है। सौंदर्यात्मक मूल्य मनुष्य की कृतियों एवं वस्तुओं की उपयोगिता में प्रयोगवाद बताता है। प्रयोगवाद मानव श्रम में मूल्य देखता है और इसके लिये यही धार्मिक मूल्य है न किसी पूजा-पाठ, नमाज, स्नान, या चर्च में जाने में। आत्मा का कोई अस्तित्व प्रयोगवाद नहीं मानता है अतएव आध्यात्मिक मूल्य नहीं है यदि किसी रूप में इन्हें प्रयोगवाद में देखने का प्रयल किया जावे तो वह मानव की अनुभूतियों में पाया जाता है।

अस्तित्ववाद को लोग एक दार्शनिक विचारधारा कहने में झिझक रखते हैं और केवल जीवन के प्रति एक मानवीय दृष्टिकोण मानते हैं। लेकिन जो कुछ उसकी स्थिति मानी जावे, इस विचारधारा या दृष्टिकोण में मानव-मूल्य महत्व रखता है। संघर्ष, निराशा, साहस, मौत सभी इसमें मूल्य रखते हैं। इसमें हमें व्यक्तिगत मूल्य मिलता है। मानव के अस्तित्व का मूल्य इसमें स्पष्ट दिखाई देता है। इसमें कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। मनुष्य को जो अच्छा लगे उसमें अस्तित्ववाद मूल्य की स्थापना करता है। व्यक्ति की चरम स्वतन्त्रता में अस्तित्ववाद एक महान मूल्य की झलक पाता है। इसमें न तो भौतिक मूल्य है न अभौतिक मूल्य है। इसमें मानव का अस्तित्व ही मूल्य है।

मूल्य और शिक्षा (Value and Education)

प्रो० जॉन डीवी ने लिखा है कि शिक्षा जीवन की तैयारी मात्र नहीं है यह तो स्वयं जीवन है। ऐसी दशा में शिक्षा का जीवन में क्या मूल्य होता है यह अपने आप प्रकट हो जाता है। शिक्षा के उद्देश्य को प्रो० ब्रूबेकर ने मूल्य स्वरूप माना है। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘माडर्न फिलॉसफीज ऑफ एजूकेशन’ में लिखा है कि राष्ट्रीय शिक्षा संघ के द्वारा निश्चित आयोग ने “शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त” बताये हैं जिनके आधार पर शिक्षा के कई लक्ष्य हैं जैसे स्वास्थ्य का लक्ष्य, पढ़ने-लिखने-गणित के ज्ञान का लक्ष्य, सुयोग्य परिवारिकता का लक्ष्य, व्यवसाय का लक्ष्य, नागरिकता का लक्ष्य, अवकाश के सदुप का लक्ष्य और नैतिक आचरण का लक्ष्य । ये सभी लक्ष्य व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के जीवन-मूल्य प्रदान करते हैं। अतएव यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में मूल्य का महत्व दिखाई देता है। दूसरी ओर शिक्षा की प्रक्रिया हमें विभिन्न प्रकार के मूल्य प्रदान करने का प्रयल करती है। अतः उसका मूल्य दिखाई देता है।

शिक्षा के साधनों, शिक्षा की संस्थाओं एवं शिक्षकों व विद्यार्थियों की दृष्टि से शिक्षा में मूल्य का महत्व दिखाई देता है। शिक्षा के लिए प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं की उपयोगिता का मूल्य तो होता है, यदि इन्हें काम में न लाया जावे तो शिक्षा की क्रिया परी नहीं होती है। इसी प्रकार से विभिन्न प्रकार के विद्यालय हमें विभिन्न प्रकार के अनुभव, ज्ञान, कौशल, व्यवसाय आदि देकर जीवन में पदार्पण करने में समर्थ बनाते हैं। ये सभी मूल्य तो हैं ही। विद्यालयों में ज्ञानात्मक, सौंदर्यात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि मूल्य प्राप्त होते हैं। विद्यार्थी एवं अध्यापक मूल्यों का निर्माण एवं विकास करते हैं। विद्यार्थी के समक्ष यह मूल्य होता है कि वह अपने आपको योग्य सिद्ध कर देवे परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लेवे, समाज का एक कुशल नागरिक बन जावे। अध्यापक का मूल्य विद्यार्थी की अधिकतम सहायता करने में होता है, वह उसकी भलाई के बारे में प्रयत्न करे, यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य-मूल्य है। अध्यापक का मूल्य उसके द्वारा दिये जाने वाले निर्देशन एवं अनुदेशन में पाया जाता है।

शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है और उससे व्यक्ति का सामाजीकरण होता है। अतएव शिक्षा का केवल व्यक्तिगत मूल्य नहीं होता बल्कि सामाजिक मूल्य भी होता है। इसी के द्वारा हमें राजनैतिक, आर्थिक, क्रिया कौशल सम्बन्धी मूल्य मिलते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में कैसे व्यवहार किया जावे यह भी सिखाया जाता है और इसके फलस्वरूप ईमानदारी, सच्चाई, कर्तव्यपरायणता, सहयोग, श्रमशीलता, प्रेम ‘मूल्य’ मिलते हैं। अब स्पष्ट है कि शिक्षा वह प्रक्रिया एवं साधन है जिससे मनुष्य को विभिन्न प्रकार के मूल्य मिलते हैं।

निष्कर्ष

ऊपर के विचारों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूल्य तथा शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। मूल्य यदि जीवन के आदर्श, मानक एवं सद्गुण हैं तो हम कह सकते हैं कि विद्य उय एवं उसमें दी जाने वाली शिक्षा इन्हें प्रदान करती है। विद्यालय का सारा कार्यक्रम इस ढंग से संगठित किया जा सकता है कि विद्यार्थी को ज्ञान, अनुभव, कौशल, व्यवहार सभी कुछ उत्तम रूप में मिल जावें और जीवन का सभी सुख उसे मिल जावे। दूसरे शब्दों में शिक्षा का मूल्य एवं उसकी सार्थकता इसी में पायी जाती है कि शिक्षा विद्यार्थी को सर्वगुण सम्पन्न बना दे। शिक्षक इन्हें समझ ले, इसी कारण शिक्षा दर्शन में जीवन के मूल्यों को रखा गया है आजकल लोगों का भौतिक दृष्टिकोण हो जाने पर भी शिक्षा के द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास लोगों में किये जाने पर बल दिया जा रहा है। अतएव स्पष्ट है कि शिक्षा बिना मूल्यों के नहीं चल सकती है और न तो बिना शिक्षा के मूल्य की प्राप्ति होती है।

शिक्षा, जीवन और मूल्य तीनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा जीवन की प्रक्रिया है और शिक्षा स्वयमेव जीवन है। जिस लक्ष्य से शिक्षा ली जाती है और जीवन यापन किया जाता है वह मानव जीवन के लिए मूल्य बन जाता है, अतएव जीवन का आधार यदि शिक्षा है तो शिक्षा का परिणाम मूल्य प्राप्ति है। जीवन जिस दृष्टिकोण से धारण किया जाता है वह स्वयमेव में एक मूल्य है जिसके सत्य, शिव और आनन्द तथा सौंदर्य जैसे मूल्य होते हैं। इससे स्पष्ट है कि मूल्य को जीवन से. अलग नहीं किया जा सकता है और निर्मूल्य जीवन का कोई स्थान नहीं होता है। वस्तुतः शिक्षा जीवन के मूल्य प्राप्त करने, धारण करने और उपयोग करने की प्रक्रिया है, एक माध्यम है।

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Pankaja Singh

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