शिक्षाशास्त्र

शैक्षिक समाजशास्त्र की आवश्यकता | शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता

शैक्षिक समाजशास्त्र की आवश्यकता | शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता

शैक्षिक समाजशास्त्र की आवश्यकता

प्रो० के० सी० ओटावे ने लिखा है कि “समाज एक प्रकार का समुदाय है जिसके सदस्य परस्पर अपने जीवन के तरीके के प्रति सामाजिक रूप से सचेतन होते हैं और एक समान उद्देश्यों और मूल्यों के द्वारा एकता में बँधे होते हैं।”

यह तो सत्य है कि जहाँ भी मनुष्य रहता है वहीं समाज बना लेता है परन्तु समाज बनाने में उसे समाज के आदर्श, मूल्य और आचार-विचार की शैली को समझ-बूझकर अपनाना जरूरी होता है। इस चेतना को लाने वाली क्रिया को शिक्षा कहा जाता है जिससे मनुष्य सामाजिक तौर पर समायोजन करने में सफल होता है। अतः समाज एवं समाज में सचेतन जीवन के लिए शिक्षा निश्चय ही अत्यावश्यक है। इससे भी आगे समाज के संरचना के अनुकूल समाज तथा शिक्षा की प्रकियाओं को संतुलित रीति से चलाने की दृष्टि  से जिस नये शास्त्र का विकास मनुष्य ने किया है वह है शैक्षिक समाजशास्त्र। प्रो०  सीताराम जायसवाल न लिखा है कि “इस प्रकार हम देखते है कि शिक्षा आर समाजशास्त्र घनिष्ट रूप से सम्बन्धित हैं और इन्होंने एक नया अध्ययन-क्षेत्र दिया है जिसे शैक्षिक समाजशास्त्र कहा जाता है।” इस कथन से शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता की ध्वनि निकलती है जिसे हम सविस्तार यहाँ समझावेंगे।

शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता

शैक्षिक समाजशास्त्र का सम्बन्ध शिक्षालय एवं समाज दोनों से होता है। इस प्रकार शैक्षिक समाजशास्त्र व्यक्ति के सामाजिक जीवन, उसके लक्ष्यों, सामाजिक अनुशासन, आदर्श एवं मूल्यों, शैक्षिक समस्याओं के निर्धारण आदि से सम्बन्धित होता है। अतएव इसके अध्ययन में ये सभी कारक अपना योगदान करते हैं। अतः हमें शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पर प्रकाश डालना जरूरी होता है जो नीचे दिये जा रहे हैं-

(i) शिक्षालय में शिक्षक एवं शिक्षार्थी की दृष्टि से आवश्यकता- शिक्षालय वह सामाजिक संस्था है जहाँ पर समाज के लोग सामाजिक जीवन के लिये अनुभव और ज्ञान प्राप्त करते हैं। समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्य के परस्पर व्यवहारों का अध्ययन करता है और उन्हें सुसम्बन्ध स्थापित करने में सहायता देता है। इस दृष्टि से शिक्षक तथा शिक्षार्थी के परस्पर व्यवहार एवं सुसम्बन्ध की स्थापना के लिए शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता होती है। शैक्षिक समाजशास्त्र की माँगों के अनुसार एवं आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के पाठ्यक्रम एवं शिक्षा की विधि तथा व्यवस्था निर्धारित करता है, सुधारता है, समयानुकूल बनाता है। ऐसी स्थिति में शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन विद्यालय शिक्षक एवं शिक्षार्थी की दृष्टि से आवश्यक समझा जाता है।

(ii) सामाजिक जीवन के लक्ष्यों को निर्धारित करने की दृष्टि से आवश्यकता- शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन इसलिए भी जरूरी है कि उसकी सहायता से समाज के व्यक्तित्व के लिये कुछ निश्चित आदर्श एवं मूल्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिन्हें व्यक्ति स्वीकार करता है तथा तदनुकूल जीवन व्यतीत करता है। उदाहरण के लिए आज जनतन्त्रवादी समाज के आदर्श एवं मूल्य व्यक्ति को मान्य हैं और इन्हीं के अनुकूल जनतंत्रीय जीवन के लक्ष्य भी बन गये हैं। इन सब जानकारी के लिए तथा इन्हें निर्धारित करने के लिये शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता होती है।

(iii) समाज में अनुशासन स्थापित करने की दृष्टि से आवश्यकता विद्यालय समाज का अंग है, आविष्कार है और अभिकरण है। वहाँ पर समाज के विभिन्न स्तरों से लोग शिक्षा लेने के लिये एकत्र होते हैं जिसके लिये उन्हें अपने-अपने ढंग से व्यवहार की सुविधा दी जाती है। फिर भी कोई अव्यवस्थापूर्ण व्यवहार न हो इसका प्रयत्न होता है। दूसरे शब्दों में विद्यालय एवं समाज में अनुशासन होता है जिसकी पूर्ति शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन से की जा सकती है। अतः इस दृष्टि से भी इसके अध्ययन की आवश्यकता दिखाई देती है।

(iv) शैक्षिक समस्याओं को हल करने की दृष्टि से आवश्यकता- शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया कही जाती है। समाजीकरण की दशा में व्यक्ति के सामने प्रायः कुछ समस्याएँ खड़ी होती हैं। उदाहरण के लिये आज के जनतन्त्र में विद्यार्थीगण स्वतन्त्रता की माँग करते हैं और मनमानी करने को उद्यत होते हैं। इससे विद्यालय में अशान्ति, संघर्ष, क्रान्ति आदि की समस्या खड़ी होती है, विशेषकर भारत में। उदाहरण के लिए हरिजन, पिछड़ी जाति, आदिवासियों की शिक्षा की समस्या है अथवा भारी संख्या में अपढ़ प्रौढ़ों की शिक्षा की समस्या है। ऐसी समस्याओं का हल ढूँढने के लिये हमें समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है।

(v) समाज की संस्कृति के विकास की दृष्टि से आवश्यकता- प्रो० ब्राउन ने लिखा है कि “शैक्षिक समाजशास्त्र समाज के व्यक्ति एवं उसके सांस्कृतिक पर्यावरण के बीच परस्पर होने वाली अन्तक्रिया का अध्ययन होता है।” संस्कृति के अन्तर्गत समाज के लोगों का आचार-विचार, चिन्तन, अनुभूति, कला, विज्ञान एवं विनिर्माण शामिल किया जाता है। संस्कृति वस्तुतः उन सभी कारकों का समन्वित रूप है जो व्यक्ति को शुद्ध एवं संस्कार युक्त बनाते हैं। शिक्षा ऐसे संस्कारीकरण की प्रमुख प्रक्रिया है। अस्तु यह प्रक्रिया उचित ढंग से कैसे चले, उससे संस्कृति का विकास हो, इसके लिये शैक्षिक समाजशास्त्र की आवश्यकता पड़ती है।

(vi) नागरिकों के सामाजिक प्रशिक्षण की दृष्टि से आवश्यकता- समाजशास्त्रियों का मत है कि समाज शिक्षा की प्रकृति को निश्चित करता है। शिक्षा की क्रिया के द्वारा व्यक्ति अपने अनुभवों को संगठित करता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति या नागरिक का सामाजिक प्रशिक्षण होता है। ऐसा प्रशिक्षण कैसे सफलतापूर्वक सम्भव हो यह शैक्षिक समाजशास्त्र का कार्य होता है। अतएव नागरिकों को प्रशिक्षित करने में शैक्षिक समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता होती है।

(vii) शैक्षिक एवं समाजशास्त्रीय समस्याओं से सम्बन्धित शोध की दृष्टि से आवश्यकता- प्रो० जान डीवी ने बताया है कि विद्यालय को सामाजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला होनी चाहिए। इससे हमें संकेत मिलता है कि शिक्षाशास्त्र एवं समाजशास्त्र से सम्बन्धित समस्याओं के बारे में शोध करना तभी सम्भव है जब हम शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन करें। अब स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ऐसे शोधों की दृष्टि से शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन आवश्यक होता है।

(viii) व्यक्ति और समाज में समन्वय स्थापित करने की दृष्टि से आवश्यकता- शिक्षा व्यक्ति के आन्तरिक गुणों और क्षमताओं का विकास करती है। इसके प्रभाव स्वरूप व्यक्ति अपने आप को समझता है और समाज के संदर्भ में अपने आप का मूल्यांकन करता है। इन प्रक्रियाओं का परिणाम व्यक्ति और समाज में समन्वय होता है। व्यक्ति और समाज का अभिन्न अंग होता है यह समाजशास्त्र बताता है जिसे समझने पर व्यक्ति अपने और समाज में एकता लाने का प्रयास करता है और यही उसकी शिक्षा है। शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन इन्हीं को स्पष्ट करता है।

निष्कर्ष-

ऊपर दिये गये कारणों से स्पष्ट है कि आज शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन क्यों और किस प्रकार से आवश्यक हो गया है। प्रो० आर० बी० रौप लिखते हैं कि “समाज का प्राथमिक एवं सर्वप्रमुख कार्य शिक्षा है। सामाजिक प्रक्रिया सन्तोषजनक स्थिति की खोज में मानवीय आवेगों का परस्पर खेल है। इस परस्पर खेल के भीतर और बाहर के प्रति सजग होना और उसके व्यवस्थीकरण तथा निर्देशन खोज बौद्धिक सिद्धान्तों के केन्द्रों द्वारा करना जन-ज्ञान तथा जन-शिक्षा का भी कार्य होता है।”

लेकिन यह सब तभी सम्भव है जब हम शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन करें। अतः किस प्रकार शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है, यह हमें अब पूरी तौर से स्पष्ट हो जाता है।

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Pankaja Singh

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