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कबीरदास के पद्यांशों की व्याख्या | कबीरदास के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

कबीरदास के पद्यांशों की व्याख्या | कबीरदास के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

कबीरदास के पद्यांशों की व्याख्या

  1. संतौ भाई आई ग्यान की आँधी रे।

भ्रम की टाटी सभै उड़ांनी माया रहे न बांधी रे।।

दुचिते की दोइ थंनि गिरानी मोह बलेंडा टूटा।

त्रिसनां छानि परी घर ऊपर दुरमति भांडा फूटा।।

आंधी पाछै जो जल बरसै तिहि तेरा जन भीनां।

कहैं कबीर मनि भया प्रगासा उदै भानु जब चीन्हा।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश संत कबीरदास जी द्वारा विरचित ‘कबीर संग्रह’ उद्धृत है-

प्रसंग- प्रस्तुत पद में कबीरदास जी कहते है कि ज्ञान की आंधी आने पर भ्रम स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते है ज्ञान रूपी तूफान अर्थात् आँधी आ गयी है मोह रूपी भ्रम की समस्त जड़ समाप्त हो गई है भ्रम के दुविधा की सारी टोक गिर गई समाप्त हो गई सभी मोह रूपी जालके प्रभाव का तिरस्कार हो गया। लोभ क्रोध मोह रूपी छप्पर धरती पर आ गिरा सबसे नीच (पाप) का विनाश हो गया। मेरी खराब भावना दूर हो गई। आंधी के बाद घनघोर रूप धारण किये हुए जल- वर्षा होती है इसी प्रकार जब ज्ञान की तूफान आई तो उसके बाद भक्ति- रस की घनघोर वर्षा हुई इससे शिष्य लथ-पथ हो गया। इसके पश्चात जब तूफान का अन्त हुआ तब ज्ञानरूपी सूर्य निकला और पूरा मन प्रकाशित हो गया।

  1. झगरा एक निबेरहु राम।

जे तुम्ह अपने मन सो काम।।

ब्रह्मबड़ा कि जिन रे उपाया। बेद बड़ा कि जहाँ ते आया।

यह मन बड़ा कि जेहि मन मानै। राम बड़ा कि रामहिं जानै।

कहें कबीर कहौं भया उदास। तीरथ बड़ा कि हरि का दास।।

संदर्भ एवं प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश भक्त शिरोमणि एवं सन्त कबीर दास द्वारा लिखा गया ‘कबीर पद’ शीर्षक से अवतरीत है। कबीरदास जी ईश्वर के नियमों की अपेक्षा मन के अन्दर की भावना को अधिक महत्व दिया है वे इस बात को यहाँ बोलने की विद्या से सम्बन्धित बता रहे है।

व्याख्या- कबीर दास जी अपनी पंक्तियों के माध्यम से भाव प्रकट करते हैं कि हे राम एक लड़ाई है जिससे तुम मुझे छुटकारा दिलवा दो अगर तुम्हे अपने इस सेवक से कोई रश्तिा है, तो। लड़ाई इस बात की है ब्रह्मा बड़ा है या वह जिसने ब्रम्हा को जन्म दिया? वेद बड़ा है अथवा वह जहाँ से वेद आया मन बड़ा है कि वह जिससे मन स्वीकार कर ले अथवा मन जिसमें विलीन हो जाए। राम बड़ा है या वह भक्त जो राम को जानता है? कबीर दास जी कहते हैं यह सोचकर में बड़ा दुखी हूँ तीर्थ बड़ा होता है अथवा हरि का सेवक या भक्त जो तीर्थ का निर्माण करता है।

  1. लोगा तुम हौ मति के भोरा।

जउ कासी तनु तजहिं कबीरा तौ रामहिं कौन निहोरा।।

जो जन भाउ भगति कछु जानै ताकौ अचरजु काहो।

जैसें जल जलहीं ढुरि मिलिऔ त्यौं ढुरि मिल्यौ जुलाहो॥

कहै कबीर सुनहु रे, लोई भरमि न भूलहू कोई।

क्या कासी क्या महगर ऊखर हिद्दै राम जी होई।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पंक्तियाँ कबीरदास द्वारा रचित ‘कबीर के पद’ शीर्षक से अवतरीत है।

प्रसंग- प्रस्तुत पद्य पंक्तियाँ सन्त कबीरदास ने भगवान के प्रति स्नेह को प्रदर्शित करते हुए कहा है मोक्ष प्राप्ति के लिए काशी नही ईश्वर का ध्यान जरूरी है यदि तुम पर ईश्वर की कृपा होगी तो कहीं भी मृत्यु होने पर इस संसार के जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्ति अवश्य ही मिलेगी।

व्याख्या कबीरदास के अनुसार। तुम लोग बुद्धि से अर्थात् दिमाग से ज्ञान से रहित हो जैसा कि हिन्दू धर्म में विश्वास ही सब कुछ है उस विश्वास के आधार पर यदि कबीर काशी में शरीर का त्याग करें उसे मोक्ष की प्राप्ति हो गयी तो इसमें राम की कृपा रही। जो भक्त भक्ति के विषय में कुछ जानता है उसके मुक्ति मिल जाने में कौन सी कठिनाई वाली बात है जैसे जल में बह कर जल में ही मिल जाता है उसी प्रकार कबीर जुलाहा भी मिलकर राम में मिल जाएगा। अर्थात् अंश का सबसे महत्वपूर्ण अंश ईश्वर में पूरी तरीके से मिल जाएगा कबीरदास जी कहते है कि ऐ सभी जनो। सुनों अपने अन्दर किसी भी प्रकार की शंका मत बनाओ काशी जन्म देने वाली यहाँ मुक्ति जन्म लेती है और मगहर ऊसर अर्थात् बंजर है वहाँ मुक्ति जन्म नही लेती अगर अंतरआत्मा में राम है उनके प्रति स्नेह है तो अन्तिम समय में वह अपनी ईच्छा अनुसार मुक्ति को जन्म देने वाली काशी में प्राण त्यागे चाहे बंजर मगहर मे उसके लिये दोनों ही समान है।

  1. 4. माया महा ठगिनि हम जानीं।

तिरगुन फांसि लिए कर डोलै बोलै मधुरी बानी॥

केसवै कै कंवला होइ बैठी सिव कै भवन भवानी॥

पंडा कै मूरति होइ बैठी तीरथ हूं मैं पानी।

जोगी कै जोगिनि होइ बैठी राजा कै घरि रानीं।

काहू कै हीरा होइ बैठी काहू कै कोड़ी कानीं।।

भागतां कै भगतिनि होइ बैठी तुरकां कैं तुरकानीं।

दास कबीर साहेब का बंदा जाकैं हाथि बिकानी।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पंक्तियां मानवतावादी विचारक सन्त कबीर दास द्वारारचित ‘कबीर के पद’ शीर्षक से अवतरित है।

प्रसंग- कबीर संसार के मोह-माया का घनिष्ठ प्रमाण और व्यापक रूप करते हुए कहते हैं कि भगवान के उपासक इसे अपने वश में कर लेते है।

व्याख्या- कबीर के अनुसार ठगे जाने वाले विद्या का प्रसारण करने वाली माया-जाल को हमने अच्छे से जान लिया है हमें इसका सम्पूर्ण ज्ञान हो गया है यह साक्षात दिखाई नही देती यह न दिखाई देने वाला जाल लेकर मीठी बोली बोलकर सभी को अपने तरफ आकर्षित कर लेती है इसका प्रसारण प्रभाव पूरे ब्रह्माण्ड में फैला है। यह विष्णु के यहाँ लक्ष्मी शिव के भवन में पार्वती, पण्डा के घर में देवता की मूर्ति तथा तीर्थों में पानी के रूप में स्थित है यही ठगने वाली योगिनी और राजा के घर में रानी के रूप में विराजमान है। किसी के यहाँ जोगिन है तो किसी के यहाँ कानी-कौड़ी बनकर दरिद्रता का घनिष्ठ रूप धारण कर रही है यही माया रूपी जाल तुर्कों के यहां तुरकानी और भक्तो के यहाँ भक्ति बनकर बैठी है परन्तु यह कबीर अपने गुरु का भक्त है उसको कोई प्रभावित नही कर पाती।

  1. जतन बिनु मिरगनि खेत उजारे।

टारे टरत नहीं निस बासुरि बिडरत नांहि बिडारे।। टेक॥

अपनैं अपनैं रस के लोभी करतब न्यारे न्यारे।

अति अभिमान बदत नहिं काहू बहुत लोग पचि हारे।।

बुधि मेरी किरखी गुर मेरौ बिझुका अक्खिर दोइ रखवारे।

कहै कबीर अब चरन न देइहौं बेरियां भली संभारे।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश कबीरदास जी द्वारा विरचित ‘कवीर के पद’ शीर्षक से अवतरित है।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास ज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने अहसास को जागृत किया है।

व्याख्या- रक्षा न कर पाने के कारण जानवरों ने खेत की फसल खा डाली अर्थात् रक्षा के साधन न हो जाने के कारण पाँच विकार काम, गुस्सा, अभिमान माया, मद ने इस शरीर को अन्दर ही अन्दर उजाड़ दिया। सब अपने-अपने लाभ के लोभ में परेशान हैं उनके गुण और काम भी अलग है सब लोग आश्चर्य में पड़ गए हैं त्यधिक लोभ के कारण लोगों की परवाह नहीं करते। बुद्धि मेरी कृषि और उसकी रक्षा करने वाले राम के दो अक्षर वाले भगवान है कबीर दास जी कहते है सही समय पर मैंने अपने-आपको अपने वश में कर लिया अब मैं अपना दिमाग खराब होने नही दूंगा।

विशेष- (i) कबीर दास ने शरीर रूप में खेत का वर्णन किया है।

(ii) मनुष्य ने पाँच विकारों की तुलना जंगली जानवरों से की।

  1. कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि।

इक दिन सोवन होइगा, लांबे गोड पसारि।।

तूं तूं करता तूं भया, मुझ मैं रही न हूँ।

वारी तेरे नांउ परि, जित देखौ तित तूं।।

सन्दर्भ– प्रस्तुत दोहा कबीरदास जी द्वारा रचित (सखी) शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग- ईश्वर के प्रति भक्ति।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते है मनुष्य सो कर क्या करेगा? जागकर ईश्वर का विन्तन मनन क्यों नहीं करता एक दिन उसे इस संसार से अलग होना पड़ेगा यह संसार त्यागना पड़ेगा अर्थात् एक दिन यह शरीर त्यागना पड़ेगा। चिन्तन मनन लगाकर राम का नाम जपो। कबीर दास जी कहते है भगवान का नाम लेने से वह मुझमें विलीन हो जाएगा मुझमें ‘मैं’ अर्थात् मेरा कुछ भी नहीं रह गया है, मेरी सभी अपनी भावनाएँ समाप्त हो गई।

  1. तननां बुनना तज्यौ कबीर।

रामं नांम लिखि लियौ सरीर।। टेक।।

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई।

ए बारिक कैसे जीवहिं खुदाई।।

जब लागि तागा बाहौ बेही।

तब लगि बिसरै राम सनेही।।

कहत कबीर सुनहू मेरी माई।

पुरनहारा त्रिभवनराई।

संदर्भ- प्रस्तुत पद्यांश कबीरदास जी द्वारा रचित (कबीर के पद) से लिया गया है।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास ने संसार से अलग होने की घटना का वर्णन किया है।

व्याख्या- कबीर ने ज्ञान रूपी वस्त्र बुनने का काम त्याग दिया। उनके नश-नश में राम का नाम समा गया है इस कारण कबीर की माँ अभागिन सी रोती है और बोलती है हे ईश्वर। यह बालक कैसे पूरा जीवन व्यतीत करेगा? कबीर अपनी माँ को सानत्वना देते हुए बोलते है मैं थोड़े समय के लिए भी राम को नहीं भुला सकता।

पद सतगुरू महिमा

  1. 8. हमारै गुर दीन्हीं अजब जरी।

कहा कहाँ कछु कहत न आवै अंम्रित रसन भरी ॥टेक॥

याही तैं मोहिं प्यारी लागी लैकै गुपुत धरी।

पाँचों नांग पचीसौं नांगिनि सूंघत तुरत मरी॥1॥

डांइनि एक सकल जग खायौ सो भी देखि डरी।

कहै कबीर भया घट निरमल सकल बियाधि टरी ।।2।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यावतरण संत मार्गी निर्गुणोपासक कबीर विरचित ‘पद’ शीर्षक से अवतरित है।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि हमारे गुरु ने हमें बड़ा विचित्र मंत्र दिया है, उसके सम्बन्ध में मैं क्या कहूँ, कुछ कहते नहीं बन रहा है मेरी जिह्वा उस रस से (राम नाम) भरी हुई है। इसीलिए वह मुझे बहुत प्यारा है, जिसके कारण मैंने उसे छुपा कर रखा है, जिसे सूंघकर पाँचों नाग (पाँचों तत्व) और पचीसों नागिन (25 प्रकृतियाँ) तत्क्षण काल कवलित हो गये। माया रूपी जिस डाइन ने समसत संसार को खा लिया वह भी इसे देखकर डर गई। कबीरदास जी कहते हैं कि उस मंत्र से मेरा शरीर रूपी घड़ा पवित्र हो गया और मेरे समस्त संकट कट’ गये।

  1. दुलहिनीं गावहु मंगलचार।

हमं घरि आए राजा राम भरणार।टेक।।

तन रत करि मैं मन रति करिहौं पांचउ तत्त बराती।

राम देव मोरै पाहुनै आए मैं जोबन मैंमाती ।।1।।

सरीर सरोबर बेदी करिहौं बह्मा बेद उचारा।

राम देव संगि भांवरि लेंहहौं धंनि धंनि भाग हमारा ॥2॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- कबीर यहाँ परमपुरूष से अपने आध्यात्मिक मिलन का वर्णन विवाह के रूपक द्वारा करते हुए कहते हैं कि हे सौभाग्यवती नारियों ! तुम विवाह के मंगलगीत गाओ, आज मेरे घर पर स्वामी राम परम प्रमु आए हैं। मै। उनके सानिध्य (तन रति) के बाद उनसे प्रगाढ़ मानसिक मिलन करूँगी। इस कार्य में पाँच) तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु तत्व को बराती बनाफर अर्थात् उनको साक्षी बनाकर शरीर रूपी कुण्ड की वेदी पर प्रभु के साथ विवाह संबंध में बंध जाऊंगी। इस विवाह के संस्कार पर स्वयं बह्मा वेद-मंत्रों का उच्चारण करेंगे। आगे कबीर ऐसा वर्णन करते हैं कि विवाह हो चुका है, वे कहते हैं कि प्रेमी से प्रेमिका (आत्मा) के इस महामिलन को देखने के लिए तैंतीस करोड़ देवता एवं अट्ठासी सहस्र मुनिवर आये थे। कबीर कहते हैं कि इस अविनाशी परम पुरूष से विवाह-सूत्र (अटूट प्रेम-संबंध) जोड़कर इस संसार से जा रहे हैं।

विशेष- कबीर यहाँ अपनी विचारधारा के प्रतिकूल तैंतीस करोड़ देवता एवं अट्ठासी सहस्र मुनियों तथा ब्रह्म आदि का उल्लेख करते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि कबीर बहुदेववाद अथवा अन्धविश्वास से अन्य देवी देवताओं को मानते थे। इस सबका उल्लेख केवल यहाँ उस परम मिलन की अद्भुतता दिखाने के लिए ही किया है, इससे अन्य कोई अर्थ निकालना कबीर के साथ अन्याय होगा।

  1. राम भगति अनियाले तीर।

जेहि लागै सो जानै पीर ।। टेक।।

तन महिं खोजौ चोट न पावौं। ओषद मूरि कहां घंसि लावौं।।1।।

एक भाइ दीसैं सब नारी। नां जांनौं को पियहिं पियारी ॥2॥

कहै कबीर जाकै मस्तकि भाग। सभ परिहरि ताकौं मिलै सुहाग ॥3॥

प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में कबीरदास ने भक्ति प्रकृति पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि राम की भक्ति नुकीले पैने तीर की तरह है। यह तीर जिसको लगते हैं, वही उसकी पीड़ा को जानता और अनुभव करता है। राम भक्ति का बाण शरीर में कहाँ लगा, कहाँ चुभा, उसके घाव को खोजा गया लेकिन घाव या चोट कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती ऐसे में औषधि या जड़ी बूटी घिसकर कहाँ लगाऊं। सभी स्त्रियाँ अर्थात् जीवात्मायें एक समान दिखलाई पड़ती हैं। यह नहीं मालूम हो पाता है कि इनमें से कौन प्रियतम अर्थात् परमात्मा की प्यारी है। कबीरदास जी कहते हैं कि जिसके माथे पर सौभाग्य लिखा होता है, सबको छोड़कर उसी को सुहाग मिलता है, अर्थात् प्रियतम (परमात्मा) की प्राप्ति होती है।

विशेष- (i) भगवान की कृपा प्राप्त होने पर ही जीव को उसकी भक्ति मिल सकती है, इसका संकेत इस पद में मिलता है। (ii) पूरे पद में सम-विषमान्त्यानुप्रास के अतिरिक्त छठे चरण के ‘नारी’ में मानवीकरण अलंकार।

  1. तननां बुननां तज्यौ कबीर।

राम नाम लिखि लियौ सरीर॥ टेक॥

ममुसि मुसि रावै कबीर की माई। ए बारिक कैसे जीवहिं खुदाई ॥1॥

जब लगि तागा बाहौं बेही। तब लगि बिसरै राम सनेही ॥2॥

कहत कबीर सुनहु मेरी माई। पूरनहारा त्रिभुवनराई ॥३॥

सन्दर्भ- कबीरदास संसार से विरक्त होने की घटना का वर्णन करते हैं।

व्याख्या- मैंने ताने बाने के कार्य (जुलाहे का कार्य) से छुट्टी ले ली है और अब शरीर पर राम- नाम लिख लिया है। संसार के प्रति मेरी विरक्ति के इस व्यवहार को देखकर मेरी माँ यह कहकर रो रही है कि हे खुदा ! अब इस बच्चे का जीवनयापन किस प्रकार होगा अथवा इसका गुजारा किस प्रकार होगा। मैंने उसको समझाते हुए कहा कि हे माँ ! तू क्यों चिन्ता करती है ? तीनों लोगों का स्वामी भगवान सबकी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं- सबका पेट भरते हैं।

विशेष- यह पद कबीर के जीवन पर प्रत्यक्ष प्रकाश डालता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कबीरदास विरक्त होने से पहले ताने-बाने का कार्य करते थे। अर्थात् वह निश्चित रूप से जुलाहा परिवार में पले थे तथा उनका परिवार भगवान में विश्वास करता था। उनकी माँ खुदा का नाम लेने वाली थी। बहुत सम्भव है कबीर को भगवन्नाम की महिमा अपनी माता से ही विरासत में प्राप्त हुई हो।

  1. बाबा अब न बसउं यहि गांउं।

घरी घरी का लेखा मांगै काइथ चेत नांउ ।। टेक।।

देहिं गांवां जिउधर महतौ बसहिं पंच किरसांनां।

नैनूं नकटू स्रवनूं रसनूं इंद्री कहा न मांनां।। 1।।

धरमराइ जब लेखा मांगै बाकी निकसी भारी

पंच क्रिसनावां भागि गए लै बांध्यौ जिउ दरबारी।। 2।।

कहै कबीर सुनहु रे संतहु खेतहिं करहु निबेरा।

अब की बेर बखसि बंदे कौँ बहुरि न भौजलि फेरा।। 3॥

प्रसंग- प्रस्तुत पद में कबीरदास माया रूपी संसार से मुक्ति की बात कहें।

व्याख्या- अरे बाबा ! अब इस गांव में नहीं रहूंगा अर्थात् इस शरीर को धारण नहीं करूंगा क्योंकि काया से स्थित चेतना अथवा चित्रगुप्त कायस्थ पल-पल का हिसाब मांगता है। यह शरीर ही गाँव है प्राणधारी आत्मा उसका मुखिया है और पंचेन्द्रियाँ किसान हैं। नेत्र, नासिका, कान, जिह्वा आदि इन्द्रियाँ कहना नहीं मानती। धर्मराज जब हिसाब मांगेगे तब जमा-पावना अर्थात् पुण्य कार्य के खाते में तो कुछ नहीं निकलेगा बकाया के खाते में अर्थात् खोटी करनी बहुत मिलेगी। पाँचों किसान अर्थात् पंच कर्मेन्द्रियाँ तो भाग जायेंगी, यमदूत दरबारी-जीव के ही बाँधेगे। कबीरदास कहते हैं कि हे सन्तों सुनो इस (देह) खेत का भली प्रकार निपटारा कर लो। हे भगवान, अब की बार इस बन्दे को क्षमा कर दो भविष्य में पुनः इस संसार के फन्दे में नहीं फंसेगा।

विशेष- रूपक, अनुप्रास और उपमा अलंकार इस पद में दर्शनीय हैं।

  1. डगमग छांड़ दे मन बौरा।

अब तौ जरें मरें बनि आवै लीन्हौं हाथि सिंधौरा ।।टेक।।

हाइ निसंक मगन हाइ नाचै लोभ मोह भ्रम छांड़ै।

सूरा कहा मरन तैं डरपै सती न संचे भांड़ै ।।1॥

लोक बेद कुल की मरजादा इहै गले मैं फांसी।

आधा चलि करि पाछैं फिरिहौ होइ जगत मैं हांसी।।2।।

प्रसंग- पूर्व पद के समान

व्याख्या- कबीरदास अपने मन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे बावले मन ! ईश्वर के मिलन पथ पर चलने के बाद अब डगमगाना अर्थात् चलचलता छोड़ दे- तू जो कभी-कभी प्रभु की ओर से मुंह मोड़ कर संसार की ओर झुकने लगता है- इस प्रकृति को छोड़ दे। जब कोई नारी सती होने की इच्छा से सिन्दूर पात्र हाथ में ले लेती है, तब उसके सामने सती होने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग रह ही नहीं जाता है। इसी प्रकार हे मन ! जब तूने एक बार प्रभु भक्ति का मार्ग ग्रहण कर लिया है, तब तो जैसे हो वैसे तुझे इस मार्ग का अनुसरण करना ही होगा- अब तेरे लिए अन्य कोई मार्ग शेष नहीं रह गया है। अब तो हे मन ! तू बिल्कुल निश्चिंत होकर प्रभु के प्रेम में मग्न होकर-नाच तथा लोभ, मोह, भ्रम आदिक व्यवधानों को दूर हटा दे। शूरवीर मरने से नहीं डरते हैं। सती स्त्री बर्तन भाँड़ा एकत्र नहीं करती है। अथवा उसको किसी प्रकार का मोह नहीं होता है। भाव यह है कि प्रभु की ओर से उन्मुख जीवन में इन दोनों के गुण होते हैं। उसमें सांसारिक वैभव के प्रति जरा भी मोह नहीं होता है और वह भगवान के नाम पर प्रत्येक प्रकार का प्राणों तक का उत्सर्ग करने को तैयार रहता है। प्रभु भक्ति के मार्ग में वस्तुतः लोक वेद तथा कुल की मर्यादाएं ही बाधक बनती हैं, परन्तु साधक को इनकी चिंता न करके निःशब्द भाव से अपने मार्ग पर अग्रसर होते रहना चाहिए। यदि इनके चक्कर में पड़कर व्यक्ति बीच में ही लौट आता है तो संसार में उसकी हंसी होती है अथवा यदि तू लौट आया तो हँसी होगी। ध्यान रखो यह समस्त संसार ही अपवित्र है, केवल राम का नाम लेने वाला अथवा प्रभु-भक्त ही पवित्र है। कबीरदास कहते हैं कि इन बातों को ध्यान में रखकर मैं राम का नाम नहीं छोडूंगा और गिरते-पड़ते किसी भी तरह प्रभु की ओर बढ़ता ही जाऊंगा – अथवा तुझे बढ़ते जाना चाहिए।

अलंकार- 1. दृष्टान्त – अब तौ – भाँडौ 2. रूपक कुल की मरयादा – फांसी।

विशेष- (i) इस पद में मन का उद्बोधन एवं भय-दर्शन है। (ii) चतुर्थ पंक्ति के उत्तरार्द्ध का अर्थ कुछ टीकाकारों ने इस प्रकार किया है- सती स्त्री अपने प्रचार के लिए भाड़े एकत्र नहीं करती है। परन्तु यह अर्थ संगत नहीं है। पूर्वार्द्ध में शूरवीर की मृत्यु के प्रति निर्भयता की चर्चा है। अतः उत्तरार्द्ध में प्रचार से दूर रहने की प्रवृत्ति की अपेक्षा मोहहीनता का प्रतिपादन ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।

  1. जैं पै रसनां रांमु न कहिबौ। तौ उपजत बिनसत भरमत रहिबौ।।

कंधि काल सुखि कोइ न सौवै। राजा रंकु दोऊ मिलि रोवै।।1।।

जस देखिऐ तरवर की छाया। प्रांन गएं कहु काकी माया ॥2॥

जीवत कछू न किया प्रवांनां। मुएं मरम को काकर जांनां॥3॥

हंसा सरवर कंवल सरीर। रांम रसांइन पिउ रे कबीर।।4।।

प्रसंग- कबीरदास संसार से उदासीन होने का उपदेश करते हैं।

व्याख्या- प्राणी के कंधे पर काल सदैव बैठा रहता है अर्थात् मृत्यु की तलवार सदैव उसके सिर के ऊपर लटकती रहती है। इसक कारण प्राणी कभी भी चैन से नहीं रहने पाता है। कंधे पर बैठा हुआ काल चाहे जब आक्रमण कर देता है और उस समय राजा और भिखारी सभी निस्सहाय होकर रोते हैं। जिस प्रकार हम सरोवर में स्थित कमल-नाल के दुग्ध का पान करता है, उसी प्रकार कबीर शरीर में स्थित सहस्रार कमल से झरने वाले राम-नाम रूपी महारस का पान करता है। अर्थात् ध्यानावस्थित कबीर-अनहदनाद का आनन्द लाभ करता है।

अलंकार-1..पदमैत्री- उपजत, बिनसत भरमण। 2. उपमा- जैसी तरूवर की छाया माया। 3. वक्रोक्ति- काकी माया। को काकर जाना। 4. छेकानुप्रास- मूक करम, राजा रंक। 5. रूपक- हंस-कबीरा।

  1. झूठे तन कौं क्या गरबावै।

मरै तौ पल भरि रहन न पावै ।।टेक।।

खीर खंड घृत पिंड संवारा। प्रांन गएं लै बाहरि जारा॥1॥

जिहिं सिरि रचि रचि बांधत पागा। सो सिरु चंचु संवारहि कागा 12॥

हाड़ जरै जैसे लकड़ी झूरी। केस जरै जैसे त्रिन कै कूरी ॥

कहै कबीर नर अजहुं न जागै। जग का डंड मूंड़ महिं लागै॥4॥

सन्दर्भ प्रसंग – प्रस्तुत पद में कबीर दास नश्वर शरीर पर गर्व न करने की बात स्पष्ट करते हैं।

व्याख्या- इस मिथ्या देह पर क्या गर्व करना हे जो मृत हो जाने पर पल भर भी नहीं रहने पाता क्योंकि मृत्यु होते ही घर के लोग शव को हटाने की बात सोचने लगते हैं। खीर, खाँड़, घृत आदि व्यंजनों से जिस देह को पाला पोसा गया, प्राण छूट जाने पर उसी को बाहर ले जाकर जलाते हैं। जिस सिर पर शोभा के लिए खूब संवार कर पगड़ी बांधी जाती थी अब उसी सिर को कौवे अपनी चोंच से संवारते हैं। शरीर की हड्डी तो ऐसी जलती है जैसे सूखी हुई लकड़ी और केश इस प्रकार जलते हैं जैसे फूस की ढेरी। कबीरदास कहते हैं कि ऐ मनुष्य तू अब भी नहीं चेता जबकि यमराज का डंडा तेरे सिर पर पड़ने लगा है अर्थात् मृत्यु निकट है, अवश्यम्भावी है, वह भी संसार के जाल में जकड़ा अपने शरीर की अशाश्वतता को नहीं पहचान पा रहा है।

  1. चौसठि दीवा जोई करि, चौदह चंदा मांहि।

तिहिं घरि किसकौ चानिणौं, जिहि घरि गोविन्द नाहिं।

सन्दर्भ- प्रभु की भक्ति के अभाव में समस्त ज्ञान व्यर्थ है।

व्याख्या- चौसठि कला रूपी दीपक जला ले अथवा चौदहों कला रूपी चन्द्रमा प्रकाशित हो जाए, परन्तु वह घर प्रकाशित न हो सकेगा, जिसमें गोविंद का निवास नहीं है- प्रभु नाम की चर्चा नहीं होती है।

अलंकार- 1. अनुप्रास – चौसठि, चौदह, चंदा। 2. रूपकातिशयोक्ति की व्यंजना- चौदह चंदा। 3. विशेषोक्ति – सम्पूर्ण छन्द। 4. वक्रोक्ति – किसकौ चानिणौँ।

विशेष- (i) दीवा और चंदा में प्रतीक-विधान द्रष्टव्य है। (ii) भगवद्भक्ति की महिमा का प्रतिपादन है। भगवद्भक्ति के बिना जीवन कभी सुशोभित नहीं हो सकता है। ‘घर’ में लक्षणों का प्रयोग द्रष्टव्य है। (iii) चौसठ कलाएँ अज्ञान के अंधकार को नष्ट करती हैं। चन्द्रमा की कलाएँ जगत के अंधकार को नष्ट करती हैं परन्तु जब तक प्रभु भक्ति का आलोक न हो, तब तक मानव-मन का अंधकार नष्ट नहीं होता है, न उसका सही मार्ग-दर्शन ही होता है और न वह सही चिन्तन ही कर पाता है।

  1. सतगुरू साचा सूरिवा, सबद जु बाहा एक।

लागत ही भौ मिलि गया, पड्या कलैजै छेंक।।

प्रसंग- गुरू की महत्ता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या- सदगुरू सच्चा शूरवीर है। उसके एक शब्द रूपी तीर के चलते ही शिष्य भूमि में मिल गया, अर्थात् उसका अहं नष्ट हो गया। उसके हृदय केन्द्र अथवा ज्ञान-विरह का घाव हो गया।

अलंकार -1. अनुप्रास- सदगुरू, सच्चा शूरमा। 2. चपलातिशयोक्ति – लागत ही – मिलि गया। 3. रूपकातिशयोक्ति की व्यंजना- प्रथम पंक्ति।

विशेष- (i) भौं मिलि गया- मुहावरा (ii) गुरू के शब्द बाण से मेरा मर्म आहत हो गया और . मुझे अपना खोया हुआ आत्मरूप प्राप्त हो गया।

  1. सतगुरू की महिमा अनंत अनंत किया उपगार।

लोचन अनंत उखाड़िया, अनँ दिखवणहार।

प्रसंग- पूर्व दोहे के समान।

वव्याख्य- सतगुरू की महिमा अपार है, उनकी महत्ता का वर्णन नहीं किया जा सकता है। गुरुदेव ने ज्ञान प्रदान करके मेरे प्रति जो उपकार किया है, वह अनन्त है। इन्हीं की असीम कृपा से अपार ब्रह्म केदर्शन योग्य दृष्टि मुझको प्राप्त हुई है। उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान ने ही मुझको अनन्त ब्रह्म का दर्शन कराया है।

अलंकार – सांगरूपक – अनन्त तथा अनन्त दिखावणहार

विशेष- 1. लक्षणा – लोचन अनन्त में अनन्त। 2. अनन्त लोचन का तात्पर्य है दिव्य दृष्टि वह स्थिति जब कर्तापन का अभिमान नष्ट हो जाता है।

  1. सतगुरू सवां को है सगा साधू सम को दाति।

हरि समान को हित, हरिजन सम को जाति।

सन्दर्भ- गुरू एवं ईश्वर भक्ति की महिमा का वर्णन है।

व्याख्या- कबीरदास कहते हैं कि साधक के लिए सदगुरु के समान कोई अपना निकट का सम्बन्धी नहीं है, साधु के समान कोई दाता नहीं है (क्योंकि वह ज्ञान को देने वाला है)। ईश्वर के समान कोई जीवों का भला चाहने वाला नहीं है तथा भगवान के भक्तों की जाति के समान कोई जाति (समाज) नहीं है।

अलंकार – 1. अनुप्रास – सत्गुरु, सम, सगा, साधु, सम। 2. वक्रोक्ति- सम्पूर्ण छन्द 3. अनम्योपमा- सम्पूर्ण छन्द।

वविशे- भगवद् भक्तों का सम्प्रदाय सर्वव्यापी एवं सार्वभौम होता है, जबकि अन्य संगठन निहित स्वार्थों पर आधारित होते हैं। हरिजन की जाति की सेवाएं नहीं होती है।

जाति पाति पछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि को होई।

  1. रामनाम कै पटंतरै, देबे को कछु नाहिं।

क्या लै गुर संतोषिए, हौंस रही मन मांहि।

प्रसंग- गुरु की महत्ता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या- सतगुरू ने रामनाम जैसी दिव्य वस्तु का दान दिया। उसके समान वस्तु बदले में देने के लिए शिष्य के पास नहीं है। शिष्य की सामर्थ्य नहीं है कि वह गुरू को प्रसन्न कर सके। गुरू को संतुष्ट करने की शिष्य की अभिलाषा मन में ही रह गई।

अलंकार-1. अनन्योपमा प्रथम पंक्ति 2. गूढ़ोत्तर- द्वितीय पंक्ति

विशेष- शिष्य गुरुदेव के प्रति कृतज्ञ है। वह सतगुरु के प्रति प्रतिदान की इच्छा रखता है । परन्तु वह गुरुदेव को क्या दे- यह उसकी समझ में नहीं आता है, क्योंकि “न हि ज्ञानसदृशं महीतले विद्यते।”

  1. कबीरा सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि।

इक दिन सोवन हाइगा, लावै गौंड़ पसारि।।

व्याख्या- कबीर दास कहते हैं कि ऐ मनुष्य तू सो-सो कर क्या करेंगा? जाग कर भगवान को क्यों नहीं जपता। एक दिन तो तुझे लम्बे पैर पसार कर सोना ही है अर्थात् एक दिन जब मृत्यु हो जायेगी तब पैर लम्बे करके ही सोना है सदैव के लिए। तात्पर्य है कि मन को जागरूक करनाम स्मरण की ओर उसे उन्मुख कर दो।

  1. 22. तूं तूं करता तूं भया, मुझमैं रही न हूँ।

बारी तेरी नाउं परि, जित तित देखौं तूं।

व्याख्या- तेरे ध्यान में ‘तू तू’ शब्द का उच्चारण करते हुए ‘मैं’ ‘तू’ में परिवर्तित हो गया, मुझमें मेरापन कुछ भी नहीं रह गया, मेरा ‘अहम’ समाप्त हो गया। मैंने स्वयं को तेरे नाम पर बलि या न्यौछावर कर दिया, अब तो जहाँ जहाँ भी देखता वहाँ केवल तू ही दिखलाई पड़ता है।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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