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जायसी नागमती के पद्यांशों की व्याख्या | जायसी नागमती के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या | सन्देश खण्ड के पद्यांशों की व्याख्या | सन्देश खण्ड के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

जायसी नागमती के पद्यांशों की व्याख्या | जायसी नागमती के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या | सन्देश खण्ड के पद्यांशों की व्याख्या | सन्देश खण्ड के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

जायसी नागमती – सन्देश खण्ड (जायसी नागमती के पद्यांशों की व्याख्या)

  1. 1. फिर फिरि रोई कोइ न बोला। आधी रात विहंगम बोला।

तैं फिरि फिरि दाधे सब पाँखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखी।

नागमती हमरन कै रोई। का सोवै जौं कंत बिछोई।

मन चित हुतें न बिसरै भोरैं। नैन क जल चखु रहै न मोरैं।

कहिसि जात हौं संघल दीपा। तेहिं सेवातिं कहं नैना सीपा।

जोगी होइ निसरा सो नाहू। तब हुत कहा सँदेस न काहू।

निति पूछौं सब जोगी जंगम। कोई निजु बात न कहैं विहंगम।

प्रसंग- ये पद्य-पक्तियाँ भक्तिकाल की निर्गुण धारा की प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा विरचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमती-संदेश खण्ड से अवतरित हैं। हीरामन तोते से पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर नागमती का पति अर्थात् चित्तौड़ का राजा रतनसेन योगी बनकर सिंहलद्वीप के लिए चला गया। वह घर-घर अपने पति के विषय में पूछने के बाद जंगल में पखियों से पूछने के लिए निकल गयी। कवि मलिक मुहम्मद जायसी उसके बाद का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या- रतनसेन की पत्नी नागमती इस प्रकार बार-बार रोती रही, पर उसका करूण क्रन्दन सुनकर कोई भी नहीं हिला-डुला। उसकी व्यथा पर किसी के भी मन में करूणा उत्पन्न नहीं हुई। आधी रात के समय एक पक्षी ने नागमती से कहा- “तू अपनी व्यथा सुनाकर बार-बार सब पक्षियों को जला रही है। तेरा ऐसा कौन सा दुख है, जिसके कारण तू जागकर रो रही है।”

पक्षी की यह बात सुनकर नागमती कारण बताती हुई रोने लगी। नागमती ने पक्षी से कहा- जो स्त्री अपने पति से बिछुड़ गयी हो, वह किस प्रकार सो सकती है? उसे नींद किस तरह आयेगी? मैं अपने पति रतनसेन को भुलाना चाहती हूं तब भी वह मेरे मन और चित्त से नहीं उतरता अर्थात् मैं चाहकर भी उसे नहीं भुला पाती। इसी कारण मेरे नैनों का जल मेरे चक्षुओं में नहीं रह पाता अर्थात् मेरे आंसू हर समय बहते रहते हैं। मैं सदा रोती रहती हूँ। मेरे पति ने चलते समय कहा- “मैं सिंहलद्वीप को जा रहा हूँ, क्योंकि उस पद्मावती रूपी स्वाति के लिए मेरी आँखे सीप बन गई है। जिस प्रकार सागर की सीप स्वाति-नक्षत्र के जल के लिए मुंह खोले रहती है, उसी प्रकार मेरे नेत्र पद्मावती को देखने हेतु व्याकुल हैं। मेरा वह पति योगी बनकर घर से निकला था। उस समय से अब तक किसी ने भी उसका सन्देश मुझे नहीं सुनाया है।मैं नित्य ही सब योगियों और घूमने वाले शैव-साधुओं से पूछती हूँ, किन्तु हे पक्षी ! कोई भी वह बात नहीं कहता जो मैं सुनना चाहती हूँ कोई भी उसका समाचार नहीं बताता।

मुझे तो ऐसा लगता है कि चारों दिशाएँ सूनी और उजड़ी हुई हो गयी हैं। मुझे तो लगता है कि सारा संसार सूना है, क्योंकि मेरे दुःख को सुनने वाला कोई नहीं है। यदि तुमसे हो सके तो मेरा सन्देश सम्भाल जो अर्थात् मेरी बात सुन लो।”

विशेष- (i) अलंकार- “बिहंगम-बोला’, ‘कारन-कै’, ‘जोगी-जंगम’, ‘चारिउ-चक्र’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘तेहि-सीपा’ में रूपक अलंकार है। (ii) वियोग शृंगार रस की छटा है। चौपाई और दोहा छन्द में मसनवी शैली का प्रयोग है। (iii) पत्नी का जीवन पति के बिना अन्धकारमय हो जाता है। इस भारतीय मान्यता को रेखांकित किया गया है।

  1. तासौं दुख कहिए हो वीरा। जेहि सुनि कै लागै पर पीरा।

को होइ भीवं दंगवै परिगाहा। को सिंघल पहुँचावै चाहा।

जहाँ सो कंत गए होइ जोगी। हौं किंगरी भैं झुरौं बियोगी।

ओहु सिंगी पूरै गुरू भेंटा। हौं भैं भसम न आइ समेटा।

कथा जो कहै आइ पिय केरी। पाँवरि होउँ जनम भरि चेरी।

आहि के गुन सँवरत भै माला। अबहुँ न बहुरा अड़िगा छाला।

बिरह करोड़ खपर कै हिया। पवन अधारि रहा होइ जिया।

प्रसंग- भक्तिकला की निर्गुणधारा की प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा विरचित ‘पद्मावत’ के नागमती- सन्देश खण्ड’ से उद्धृत इन काव्य पंक्तियों में चित्तौड़ के राजा रतनसेन की वियोगिनी पत्नी नागमती पक्षी को अपना दुःख सुना रही है।

व्याख्या- हे भाई! अपना दुःख उससे कहना चाहिए जो सुनने के पश्चात् अन्य अर्थात् सुनने वाले की पीड़ा का अनुभव कर सके, जिस प्रकार भीम ने दंगवै के राजा की आपत्ति अपने ऊपर ले ली थी, उसी प्रकार मेरा दुःख अपना समझ कर मेरा समाचार सिंघलद्वीप में मेरे पति के पास कौन पहुँचायेगा। सिंघलद्वीप वह स्थान है, जहाँ मेरा पति योगी बनकर चला गया है। वह योगी बनकर वहाँ बैङ्गा है और यहाँ मेरे शरीर में योग के सभी उपकरण आ गये हैं। मैं वियोगिनी सन्तप्त होकर उस सारंगी के समान बन गयी हूँ, जिसे योगी बजाते हैं। वहीं मेरा पति भी सिंगी नामक बाजा बजा रहा है और उसने अपने गुरू अर्थात् प्रेयसी पद्मावती से पेंट कर ली है। वह उसके पास रहा है। उसके वियोग में जलकर भस्म हो गयी हूँ। वह इस भस्म को आकर क्यों नहीं समेटता? जो कोई आकर मुझे मेरे प्रिय रतनसेन का समाचार सुनायेगा, मैं जीवनभर उसके पैरों की जूति बनकर उसकी सेवा करूंगी, उसकी दासी बनी रहूँगी। अपने पति के गुणों का स्मरण करते करते मैं माला के समान दुर्बल हो गयी हूँ। घर बाहर घूमते-घूमते मेरी खाल उघड़कर मृगछाला बन गयी है, पर मेरा पति अभी तक वापस नहीं लौटा है। मैंने वियोग को नारियल का बना जलपात्र और अपने हृदय को खपपर बना लिया है। जिस प्रकार योगीजन आधारी नामक लकड़ी के सहारे बैठते हैं, उसी प्रकार मेरा जीवन केवल पवन के आधार पर चल रहा है। मैंने खाना-पीना त्याग दिया है।

मेरी हड्डियाँ सूखकर सारंगी बन गयी हैं और नसें उस तात के समान हो गयी हैं, जिसके तार सारंगी पर कसे रहते हैं। मेरे शरीर के रोम-रोम से उस सारंगी के समान ध्वनि निकल रही है। तुम इस प्रकार की मेरी व्यथा मेरे पति रतनसेन को सुनाना।

विशेष– (1) अलंकार – ‘पर-पीरा’, ‘मै-मसम’ में अनुप्रास एवं ‘रोबँ-रो’ में वीप्सा अलंकार है। अनेक स्थान पर लुप्तोपमा अलंकार है।

(2) वियोग शृंगार का पूर्ण परिपाक है। मसनवी शैली में दोहा-चौपाई छन्दों का प्रयोग हुआ है।

(3) कवि ने योगियों के सभी उपकरण नागमती के शरीर में दिखाकर यह बताना चाहा है यदि रतनसेन सच्चा योगी है तो उसे नागमती के समीप ही रचना चाहिए।

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Pankaja Singh

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