शिक्षाशास्त्र

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 के दोष | Demerits of National Education Policy 1992 in Hindi

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 के दोष | Demerits of National Education Policy 1992 in Hindi

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 के दोष (Demerits of National Education Policy 1992)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1992 के तहत जो कुछ किया गया है उसमें कुछ दोष भी हैं। ये दोष हैं-

(1) जन सहयोग के नाम पर जन शोषण-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1992 में शिक्षा की व्यवस्था हेतु ज सहयोग के प्रोत्साहन की बात कही गई है। इसे प्राप्त करने के लिए शिक्षा संस्थाओं में अभिभावक समिति बनाने और इस समिति के माध्यम से जन सहयोग प्राप्त करने की कार्य योजना प्रस्तुत की गई है। पर प्रवेश के समय जबरन एक बड़ी धनराशि लेना जन सहयोग है या जन शोषण।

(2) नवोदय विद्यालय योजना असफल-

नवोदय विद्यालय इस आशा से स्थापित किए गए थे कि इनमें पिछड़े क्षेत्रों, पिछड़े वर्गों और उपेक्षित जातियों के योग्य बच्चों को प्रवेश दिया जा सकेगा, उन्हें अपने विकास के अवसर दिए जा सकेंगे। पहली बात तो यह है कि ऐसे नियमों के होते हुए भी बड़ी हेराफेरी हो रही है, इनका लाभ वे नहीं उठा पा रहे जिनके लिए ये स्थापित किए गए हैं। दूसरी बात यह है कि इनकी स्थापन एवं संचालन में जितना व्यय हो रहा है उसका 100वां भाग भी लाभ नहीं हो रहा है।

(3) उच्च शिक्षा के साथ खिलवाड़-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1992 में एक तरफ उच्च शिक्षा में प्रवेश पर नियन्त्रण की बात कही गई है और दूसरी तरफ उच्च शिक्षा के अवसर सभी को सुलभ कराने की बात कही गई है और इस हेतु खुले विश्वविद्यालयों की स्थापना और पत्राचार पाठ्यक्रम शुरू करने की बात कही गई है। प्रत्येक क्षेत्र की भाँति शिक्षा के क्षेत्र में भी दोहरी नीति। इससे उच्च शिक्षा की अधिकतर संस्थाओं में अयोग्य छात्रों का प्रवेश हो रहा है, अराजक तत्त्वों का प्रदेश को और अधिकतर उच्च शिक्षा संस्थाएँ डिग्रियाँ प्राप्त करने के कारखाने बन गई हैं।

(4) असमान शिक्षा व्यवस्था-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 और उसके संशोधित रूप (1992) में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के शैक्षिक अधिकार एवं उत्तरदायित्व निश्चित नहीं किए गए हैं । 1976 में संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची (Concurrent List) पर लाया गया था परन्तु उसमें भी केन्द्र एवं राज्य सरकारों के शैक्षिक अधिकार एवं कर्तव्यों को सुनिश्चित नहीं किया गया था। यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्माताओं को करना चाहिए था, उन्होंने भी नहीं किया। परिणाम यह है कि पूरे देश में शिक्षा की व्यवस्था समान है।

(5) आधारभूत पाठ्यचर्या का अनुपालन नहीं-

प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या का अनुपालन आज तक नहीं किया जा सका है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 की घोषणा के बाद 1975 में ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’ (NCERT) ने एक 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार की थी। उसके बाद उसने 1988 में उसका दूसरा प्रारूप प्रस्तुत किया और 2000 में तीसरा । पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1992 में आधारभूत पाठ्यचर्या के अनुपालन पर बल दिये जाने के बावजूद सभी प्रान्तों में अपने-अपने तरह की पाठ्यचर्या लागू है। केन्द्र का दोषारोपण है कि प्रान्तीय सरकारें मनमानी कर रही हैं और प्रान्तीय सरकारों का दोषारोपण है कि केन्द्र सरकार क्षेत्रीय स्थिति के अनुसार पाठ्यचर्या निर्माण में बाधा डाल रही है।

(6) आन्तरिक मूल्यांकन असफल-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 और संशोधित (1992) में बाह्य मूल्यांकन की अपेक्षा आन्तरिक मूल्यांकन पर अधिक बल दिया गया है। जिन संस्थाओं में भी इसे लागू किया गया है वहाँ इसका दुरुपयोग हुआ है, इससे लाभ के स्थान पर हानि हुई है। श्रेणी (Division) के स्थान पर ग्रेड (Grade) देने से भी कोई लाभ नहीं हुआ है।

(7) उच्च शिक्षा महंगी-

इस शिक्षा नीति में स्ववित्तपोषित संस्थाओं को प्रोत्साहित करने की बात की गई है। इससे एक ओर उच्च शिक्षा अति महंगी हो गई है और दूसरी ओर उच्च शिक्षा का स्तर गिर रहा है।

(8) कैपीटेशन फीस की मार-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कैपीटेशन फीस के लिए इस बन्धन के साथ स्वीकृति दे दी गई कि ये संस्थाएँ सरकार द्वारा चयनित छात्रों को एक निश्चित प्रतिशत मात्रा में बिना कैपीटेशन फीस के प्रवेश देंगी। इससे भी शोषण बढ़ा है।

(9) ब्लैक बोर्ड योजना का ईमानदारी से क्रियान्वयन नहीं-

ब्लैक बोर्ड योजना के अन्तर्गत प्राथमिक स्कूलों के जो भवन बनाए गए हैं और उनके लिए जो फर्नीचर एवं सामग्री भेजी गई हैं वे बहुत घटिया किस्म के हैं।

(10) शैक्षिक अवसरों की समानता के नाम पर वोट की राजनीति-

शैक्षिक अवसरों की समानता के नाम पर वोट की राजनीति की गई है। भारत में शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है कि देश के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा सुलभ कराना, किसी भी आधार पर भेद-भाव किए बिना सभी को अपनी योग्यतानुसार माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा सुलभ कराना, विशिष्ट शिक्षा (लॉ, मेडिकल और टेक्निकल आदि) सुलभ कराना। पर हमारे देश में तो इसके ठीक विपरीत क्षेत्र, लिंग, जाति और धर्म के नाम पर शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान करने की बात कही जा रही है।

(11) + 2 पर व्यावसायिक पाठ्यक्रम असफल-

जिन प्रान्तों में +2 पर जो भी व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू किए गए, वे असफल रहे । जिन विद्यालयों में ये पाठ्यक्रम शुरू किए गए उनमें संसाधनों और प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी है तथा ये पाठ्यक्रम अपने में न तो पूर्ण हैं और न ही उपयोगी।

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Pankaja Singh

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