शिक्षाशास्त्र

 सन् 1905 से 1921 के बीच भारत में शिक्षा संस्थाओं की प्रगति | Progress of Educational Institutions between 1905 to 1921 in India in Hindi

 सन् 1905 से 1921 के बीच भारत में शिक्षा संस्थाओं की प्रगति | Progress of Educational Institutions between 1905 to 1921 in India in Hindi

 सन् 1905 से 1921 के बीच भारत में शिक्षा संस्थाओं की प्रगति (Progress of Educational Institutions between 1905 to 1921 in India)

सन् 1905 से 1921 के बीच देश में प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना हुई। इन शिक्षा-संस्थाओं को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं यथा-

(1) राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थायें तथा (II) सामान्य शिक्षा-संस्थायें।

(I) राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की प्रगति (Progress of National Institutions)

सन् 1905 से 1921 के बीच राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की प्रगति को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) प्रगति का प्रथम काल (1905-1911)-देश के राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा की रूपरेखा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए गुरुदास बनर्जी की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय शिक्षा-समिति’ की स्थापना की। समिति ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा में सुधार करने की दृष्टि से भारतीय शिक्षा की एक विस्तृत योजना बनाई जिसको क्रियान्वित रूप देने के लिये पश्चिमी बंगाल में 11 तथा पूर्वी बंगाल में 40 हाई स्कूल स्थापित किये जिनमें मातृ भाषा के माध्यम द्वारा उपयोगी विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इसके अतिरिक्त समिति ने पूना में विद्यालय तथा कलकत्ता में ‘राष्ट्रीय कालेज’ की स्थापना की। इसके अतिरिक्त समिति ने कलकत्ता एक ‘टेक्निकल इन्स्टीट्यूशन’ भी स्थापित किया। राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं के निर्माण में गुरुदास बनर्जी के अतिरिक्त रास बिहारी घोष तथा रविन्द्र नाथ टैगोर के नाम विशेष रूप उल्लेखनीय हैं। 1904 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ‘शान्ति-निकेतन’ (बोलपुर) में एक ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ स्थापित किया जो आज ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’ के रूप में विकसित दिखाई देते हैं। इसी समय प्राचीन वैदिक संस्कृति की शिक्षा के लिए स्वामी श्रद्धानन्द के नेतृत्व में आर्य प्रतिनिधि सभा’ ने वृन्दावन एवं हरिद्वार में ‘गुरुकुल’ स्थापित किये। सन् 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग की प्रेरणा से मुसलमानों ने अपनी पृथक राष्ट्रीय शिक्षा संस्थायें स्थापित की। सन् 1910 तथा 1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क तथा अनिवार्य बनाने के लिये धारा सभा के समक्ष प्रस्ताव रखे जिनका प्राथमिक शिक्षा की प्रगति पर विशेष प्रभाव पड़ा। सन् 1911 में बंगाल विभाजन की योजना रद्द हो जाने पर राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन शिथिल पड़ गया। कलकत्ता का नेशनल कॉलेज तथा अन्य राष्ट्रीय विद्यालय बन्द हो गये।

(2) द्वितीय काल (1919-21)- सन् 1919 में रोलेट एक्ट (Rowlet Act) एवं अमृतसर में जलियांवाला बाग के भीषण हत्याकाण्ड से क्षुब्ध होकर कांग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1 अगस्त सन् 1920 को सरकार के विरुद्ध ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ कर दिया। सन् 1920 में गाँधी जी ने कांग्रेस के ‘नागपुर अधिवेशन’ में जनता तथा नवयुवकों से अपील की कि वे सरकारी विद्यालयों का बहिष्कार कर राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना का प्रयास करें। फलस्वरूप देश के सहस्रों विद्यार्थियों ने स्कूलों एवं कॉलेजों को त्यागकर आन्दोलन में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्रों ने उसके राष्ट्रीयकरण की माँग की किन्तु जब उन्हें सफलता न मिली तो उनकी शिक्षा व्यवस्था करने के लिए मौलाना मोहम्मद अली ने अलीगढ़ में ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ नामक विश्वविद्यालय स्थापित किया, जिसे 1925 में देहली में स्थानान्तरित कर दिया गया। अलीगढ़ का अनुसरण कर चार माह के अन्दर देश के अन्य भागों में राष्ट्रीय स्कूलों एवं कॉलेजों यथा-बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, दंगला राष्ट्रीय विद्यालय आदि की स्थापना की गयी । सन् 1916 में आचार्य कर्वे पूना में ‘इंडियन वीमेन्स यूनीवर्सिटी’ (S.N.D.T.) को स्थापित कर चुके थे। सन् 1922 तक राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की कुल संख्या 1,257 हो गई थी, जिनमें 80,463 विद्यार्थी अध्ययन कर रहे थे।

(3) उच्च शिक्षा की प्रगति- सन् 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात् 30 साल तक भारत में कोई भी विश्वविद्यालय स्थापित नहीं हो सका। किन्तु इस काल में कॉलेजों की संख्या बढ़कर 185 हो गई। अतः इन कॉलेजों को पाँच विश्वविद्यालयों यथा-कलकत्ता, मद्रास, बम्बई, पंजाब और इलाहाबाद द्वारा भार सम्भालना कठिन हो गया। परिणामस्वरूप सन् 1913 के ‘सरकारी प्रस्ताव’ ने नवीन विश्वविद्यालयों की स्थापना पर बल दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने भी इस सम्बन्ध में कार्य करने के लिए इच्छा व्यक्त की। इसके परिणामस्वरूप सन् 1916 से 1920 तक देश में निम्नलिखित सात नये विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई-(i) मैसूर विश्वविद्यालय-1916, (ii) पटना विश्वविद्यालय-1917, (ii) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय-1917, (iv) उस्मानिया विश्वविद्यालय-1918, (v) ढाका विश्वविद्यालय-1919, (vi) अलीगढ़ विश्वविद्यालय-1920 तथा (vii) लखनऊ विश्वविद्यालय-1920 ।

विश्वविद्यालयों के शैक्षिक कार्य

(Educational Functions of Universities)- उपर्युक्त विश्वविद्यालयों के व्यय के लिए धन की पूर्ति सरकारी सहायता अनुदान एवं व्यक्तिगत साधनों की आर्थिक सहायता से होती थी। ये विश्वविद्यालय तीन प्रकार के थे एक विश्वविद्यालय शिक्षण और ‘सम्बन्धीकरण’ (Affiliation) का, पाँच केवल शिक्षण का तथा छ: केवल सम्बद्धीकरण का कार्य करते थे।

कॉलेजों का विस्तार (Extension of Colleges)- सन् 1904 के विश्वविद्यालय अधिनियम में कालेजों को मान्यता प्रदान करने के लिए कठोर नियम बन जाने के कारण 1905 में कॉलेजों की संख्या 145 (1902 में) से घट कर 138 रह गई। किन्तु विद्यार्थियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होने से 1931 के बाद कॉलेजों की संख्या में वृद्धि होने लगी और सन् 1931 तक 69 कॉलेज स्थापित हो गए। इस प्रकार 1931 में कॉलेजों की कुल संख्या 207 हो गई जिनमें 54, 473 विद्यार्थी पढ़ते थे। परन्तु इन कॉलेजों में व्यावसायिक शिक्षा के अभाव के कारण विद्यार्थियों को अध्ययन समाप्त करने के बाद बेकारी का सामना करना पड़ता था। इस प्रकार नुरुल्लाह एवं नायक के शब्दों में, “सामान्य शिक्षा के कॉलेजों में विद्यार्थियों की संख्या में यह निरुद्देश्य वृद्धि तथा शुभ प्रगति का लक्षण न होकर रोग का लक्षण बनती जा रही थी।”

(II) माध्यमिक शिक्षा की प्रगति (Progress of Secondary Education)

सन् 1905 से 1921 के बीच माध्यमिक शिक्षा की प्रगति को निम्न प्रकार वर्णित किया जा सकता है-

(1) प्रगति- सरकार द्वारा ‘भारतीय शिक्षा आयोग’ की सिफारिशें की। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में द्रुतगति से प्रगति हुई । लार्ड कर्जन के भारत आने पर उसने माध्यमिक विद्यालयों की संख्यात्मक वृद्धि की अपेक्षा उनकी गुणात्मक वृद्धि पर अधिक बल दिया। इसके परिणामस्वरूप माध्यमिक विद्यालयों की संख्या गिरने लगी। किन्तु विद्यार्थियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने के कारण सन् 1913 के ‘सरकारी प्रस्ताव’ में माध्यमिक शिक्षा के विस्तार को प्रोत्साहन प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तर्गत सहस्रों माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना हुई। फलस्वरूप सन् 1913 से 1920 तक माध्यमिक विद्यालयों की संख्या में द्रुत गति से वृद्धि हुई । सन् 1905 में माध्यमिक स्कूलों एवं उनमें शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों की संख्या क्रमशः 5,124 तथा 5,90,129 थी, जो 1920 में बढ़कर क्रमशः 7,530 और 11,16403 हो गई।

(2) प्रमुख विशेषतायें- इस अवधि में माध्यमिक शिक्षा की कुछ विशेषतायें थीं, जो निम्नलिखित हैं-

(i) माध्यमिक विद्यालयों में औद्योगिक एवं व्यावसायिक विषयों को स्थान देकर हाईस्कूल के पाठ्यक्रम को विस्तृत कर दिया गया तथा ‘स्कूल लीविंग सर्टीफिकेट’ की परीक्षा की व्यवस्था की गई। (ii) इस अवधि में माध्यमिक शिक्षा की मिडिल कक्षाओं के बाद अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा चालू बनी रही जिससे भारतीय भाषाओं का विकास अवरुद्ध बना रहा। अंग्रेजी शिक्षा को प्रभावशाली बनाने के लिए ‘प्रत्यक्ष विधि’ का प्रयोग किया। (ii) इस अवधि में माध्यमिक विद्यालय के अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण संस्थाओं की संख्या 6 से बढ़कर 13 हो गई।

(3) प्राथमिक शिक्षा का प्रगति-

(क) प्रगति- लार्ड कर्जन ने प्राथमिक शिक्षा की गुणात्मक एवं संख्यात्मक वृद्धि की दृष्टि से 1904 के सरकारी प्रस्ताव में प्राथमिक शिक्षा का विकास करना प्रमुख कर्त्तव्य बताया। सन् 1905 में प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी अनुदान 40 लाख रुपये से बढ़ाकर 75 लाख रुपया कर दिया। सन् 1911 में सम्राट जार्ज पंचम ने प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के लिए 50 लाख रुपये अतिरिक्त अनुदान के रूप में प्रदान किए। इसके बाद सन् 1913 के ‘सरकारी प्रस्ताव’ में प्राथमिक शिक्षा के विस्तार तथा उन्नति के लिए सुझाव दिए गए। इन सब प्रयत्नों के होते हुए भी प्राथमिक शिक्षा में आशातीत सफलता न मिल सकी। सन् 1917 तक 83 वर्गमील के क्षेत्रफल में औसतन एक प्राथमिक स्कूल था । सन् 1904 से 1917 के मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण प्राथमिक शिक्षा पर कोई ध्यान न दिया। सन् 1921 तक देश के स्त्री तथा पुरुष की सम्मिलित साक्षर संख्या 7.2 प्रतिशत थी। प्रशिक्षण संस्थाओं की कमी के कारण प्राथमिक स्कूलों के अधिकांश शिक्षक अप्रशिक्षित थे। सन् 1921 में प्राथमिक स्कूलों में कुल 1,81,286 अध्यापक थे जिनमें केवल 67,613 प्रशिक्षित थे। इस अवधि में प्राथमिक शिक्षा को प्रोत्साहन देने पर उसकी संतोषजनक प्रगति न हो सकी।

(ख) अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लिये प्रयास- प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिए इस अवधि में प्रयास किए गए-

(i) बड़ौदा नरेश का प्रथम प्रयास भारतीय शिक्षा के इतिहास मे प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने में महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ ने सर्वप्रथम योगदान दिया। उन्होंने 1906 में एक ‘अधिनियम’ बनाकर राज्य में समस्त बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी।

(ii) गोखले का प्रयास भारत के महान राष्ट्रीय नेता ‘गोपालकृष्ण गोखले’ ने बड़ौदा नरेश के उत्कृष्ट उदाहरण से प्रेरित होकर सन् 1910 में एक प्रस्ताव रखा। फिर 1911 में एक विधेयक प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिए धारा सभा के समक्ष प्रस्तुत किया किन्तु वह पास न हो सका।

(iii) अनिवार्य शिक्षा अधिनियम बड़ौदा नरेश एवं गोखले से प्रोत्साहन प्राप्त कर निम्नलिखित प्रान्तों में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिनियम पारित किये।

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Pankaja Singh

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