राधाकृष्णन आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें | Suggestions and Recommendations of the Radhakrishnan Commission in Hindi

राधाकृष्णन आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें | Suggestions and Recommendations of the Radhakrishnan Commission in Hindi

राधाकृष्णन आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें (Suggestions and Recommendations of the Radhakrishnan Commission)

राधाकृष्णन् आयोग ने मूल रूप से विश्वविद्यालयी उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव दिए हैं, यह बात दूसरी है कि उच्च शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु कुछ सुझाव उसके पूर्व की माध्यमिक शिक्षा में सुधार के लिए भी दिए हैं। आयोग की विश्वविद्यालयी शिक्षा सम्बन्धी सिफारिशों को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-

(a) विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्य (Aims of University Education)

आयोग ने भारतीय परम्पराओं, वर्तमान परिस्थितियों एवं राष्ट्र की भावी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित किया है। आयोग द्वारा प्रस्तावित विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-

(1) विदेशी दासता के बन्धन से मुक्त होने के पश्चात् भारतवासियों के कर्तव्यों तथा दायित्वों में वृद्धि हो गयी। विश्वविद्यालयों को चाहिए कि देश के नवयुवकों में ऐसे गुणों का विकास करें कि वे राजनैतिक, प्रशासकीय तथा व्यावसायिक क्षेत्रों में नेतृत्व कर सकें।

(2) विश्वविद्यालय शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में ऐसे गुणों का विकास होना चाहिए कि वे भविष्य में अच्छे नागरिक बनकर जनतान्त्रिक प्रणाली को सफल बनाने में सहयोग दे सकें।

3) विश्वविद्यालय शिक्षा के द्वारा नेताओं का जन्म होना चाहिए जो दूरदर्शी, बुद्धिमान तथा साहसी हों, जिससे वे समाज-सुधार या वाँछित सामाजिक परिवर्तन में हाथ बँटा सकें।

(4) जीवन और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय स्थापित करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है, अतः विश्वविद्यालयों में जो भी विषय पढ़ाये जायें वे पाठ्यक्रम के अभिन्न अंग हों। इसके लिए सानुबन्धित पाठ्यक्रम का आयोजन किया जाये।

(5) देश के विद्यालय देश की संस्कृति तथा सभ्यता के पोषक होते हैं। यह तभी सम्भव है जब नवयुवकों को विश्वविद्यालय में ऐसी शिक्षा प्रदान की जाये जिससे कि वे अपने देश की संस्कृति तथा सभ्यता का संरक्षण तथा संवर्धन करने की योग्यता प्राप्त कर लें।

(6) मन और शरीर का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। अतः विश्वविद्यालय शिक्षा के छात्रों के मानसिक तथा शारीरिक विकास दोनों की ओर ध्यान देना चाहिए।

(7) साहित्य व्यक्ति में मानवीय भावनाओं का संवर्धन तथा परिवर्धन करता है, अतः विश्वविद्यालय शिक्षा के पाठ्यक्रम में साहित्य के अध्ययन की व्यवस्था होनी चाहिए।

(8) ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सिद्धान्त भारत में प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। अतः विश्वविद्यालय शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास करना आवश्यक है।

(b) विश्वविद्यालयी शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त (Administration and Finance of University Education)

विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में आयोग ने 6 मुख्य सुझाव दिए-

(1) उच्च शिक्षा समवर्ती सूची (Concurrent List) में रखी जाए। इसकी व्यवस्था करना केन्द्र एवं प्रान्तीय सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व हो । उच्च शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय नीति का निर्धारण केन्द्र सरकार करे, प्रान्तीय सरकारें उस नीति के अनुसार अपने क्षेत्र में उच्च शिक्षा की व्यवस्था करें।

(2) विश्वविद्यालयों के आन्तरिक प्रशासन के लिए प्रत्येक विश्वविद्यालय में विभिन्न समितियों का गठन नियमित रूप से किया जाए, उनके अधिकार एवं कर्तव्य क्षेत्र सुनिश्चित हों।

(3) सम्बद्ध महाविद्यालयों के प्रशासन का उत्तरदायित्व उनकी प्रबन्धकारिणी समितियों का हो।

(4) उच्च शिक्षा का वित्तीय भार केन्द्र और प्रान्तीय सरकारें संयुक्त रूप से वहन करें।

(5) विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को विभिन्न मदों भवन निर्माण और प्रयोगशाला, पुस्तकालय, वाचनालय एवं खेल-कूद आदि की व्यवस्था के लिए अनुदान दिया जाए।

(6) विश्वविद्यालयों के कार्यों में एकरूपता लाने और विश्वविद्यालयों एवं उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों को अनुदान देने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान समिति (University Grant Committee) के स्थान पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grant Commission) का गठन किया जाए।

(c) विश्वविद्यालयी शिक्षा का संगठन एवं संरचना (Organisation and Structure of University Education)

इस सम्बन्ध में आयोग ने जो सुझाव दिए उनमें मुख्य सुझाव हैं-

(1) उच्च शिक्षा का संगठन तीन स्तरों में किया जाए-स्नातक, स्नातकोत्तर और अनुसन्धान ।

(2) स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष और परास्नातक पाठ्यक्रम 2 वर्ष का हो और शोध कार्य के लिए निम्नतम कार्यकाल 2 वर्ष हो।

(3) उच्च शिक्षा का वर्गीकरण तीन वर्गों में किया जाए-कला, विज्ञान और व्यावसायिक एवं तकनीकी।

(4) ग्रामीणों की उच्च शिक्षा के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विश्वविद्यालय (Rural Universities) स्थापित किए जाएँ और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालय स्थापित किए जाएँ।

(5) विश्वविद्यालयों में कला,विज्ञान और विभिन्न व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा के लिए अलग-अलग विभाग खोले जाएँ।

(6) व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा को आगे 6 वर्गों में विभाजित किया जाए-कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग एवं तकनीकी,चिकित्सा, कानून और शिक्षक प्रशिक्षण ।

(7) कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग एवं तकनीकी, चिकित्सा और शिक्षक प्रशिक्षण के लिए स्वतन्त्र सम्बद्ध महाविद्यालय खोले जाएँ।

(8) कृषि की उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य के लिए अलग से कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किए जाएँ।

(d) अध्यापक वर्ग (Teaching Community)

अध्यापक वर्ग के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये गये-

(1) अध्यापक को पदोन्नति न केवल ‘ज्येष्ठता’ के आधार पर होनी चाहिए बल्कि योग्यता के आधार पर भी होनी चाहिए।

(2) प्रत्येक अध्यापक के लिए ‘भविष्य-निधि’ की उत्तम सुविधा दी जाये। इसके लिए अध्यापक अपने वेतन का 8 प्रतिशत और इतना ही विश्वविद्यालय दे।

(3) अध्यापक की सेवा निवृत्ति की आयु 60 वर्ष रहे और यदि उसका स्वास्थ्य अच्छा हो तो उसे 64 वर्ष की आयु तक कार्य करने की अनुमति प्रदान की जाये।

(4) प्रत्येक अध्यापक को अध्ययन के लिए एक बार में 1 वर्ष का अवकाश एवं सम्पूर्ण सेवा-काल में 3 वर्ष का अवकाश दिया जाये।

(5) अध्यापकों से सप्ताह में अधिक से अधिक 18 घण्टे (पीरियड) अध्यापन कार्य करवाया जाये।

(6) यदि विश्वविद्यालय के अधिकारियों एवं अध्यापक के मध्य किसी प्रकार का विवाद हो जाता है तो उसे निपटाने के लिए ‘न्यायाधीश’ की नियुक्ति की जाये।

कमीशन ने विश्वविद्यालयी शिक्षकों का चार श्रेणियों में वर्गीकरण कर दिया-प्रोफेसर, रीडर, लेक्चरार तथा इन्सट्रक्टर । इसके अतिरिक्त अनुसंधान अभिसदस्यों की नियुक्ति की भी सिफारिश की तथा उनका वेतन क्रम भी निर्धारित किया।

(e) अध्यापन का स्तर (Standard of Teaching)

विश्वविद्यालय के अध्यापन का स्तर ऊँचा उठाने के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(1) विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या 600 से अधिक एवं समृद्ध कालेजों में 1500 से अधिक नहीं होनी चाहिए।

(2) परीक्षा के दिनों को छोड़कर शेष वर्ष में कम से कम 180 ‘कार्य दिवस’ होने चाहिएं।

(3) अध्यापक अपने व्याख्यान (Lectures) को अति परिश्रम से तैयार करें। उप-कक्षाओं की व्यवस्था की जाये और पुस्तकालय अध्ययन एवं लिखित कार्य पर बल दिया जाये।

(4) स्नातकोत्तर कक्षाओं में ‘विमर्श गोष्ठियों’ को प्रोत्साहन दिया जाये

(5) किसी कक्षा के लिए ‘पाठ्यक्रम’ एवं ‘पाठ्य-पुस्तकें निर्धारित न की जायें।

(6) छात्रों के लिए पुस्तकालयों एवं प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की जायें।

(7) स्नातकोत्तर छात्रों को व्याख्यान (Lectures) सुनने के लिए बाध्य न किया जाये।

(8) छात्रों को 18 वर्ष की परिपक्व आयु हो जाने पर विश्वविद्यालय में प्रवेश दिया जाये।

(9) छात्रों को कम से कम 40, 55 एवं 70 प्रतिशत अंकों पर क्रमशः तृतीय, द्वितीय एवं प्रथम श्रेणी प्रदान की जाये।

(10) व्यवसाय में लगे हुए युवकों के लिए सायंकालीन कक्षाओं की व्यवस्था की जाये।

(f) पाठ्यक्रम (Curriculum)

आयोग ने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं-

(1) औपचारिक शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा ही छात्रों को विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त कराया जा सकता है।

(2) ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अन्तर्सम्बन्ध एवं एकता होनी चाहिए।

(3) पाठ्यक्रम में व्यापकता एवं लचीलापन होना चाहिए ताकि छात्रों को अपनी रुचियों के अनुसार शिक्षा-विषयों का चयन करने का अवसर मिले।

(4) उपाधि कक्षाओं के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों का स्थान होना चाहिए-

(i) संघीय भाषा,प्राच्य या आधुनिक भारतीय भाषा जिनकी मातृभाषा संघीय भाषा है।

(ii) अंग्रेजी (ii) एवं (iv) कला विद्यार्थियों के लिए कम से कम एक विषय प्रत्येक समूह में से एक-

प्रथम समूह : भाषाशास्त्र (Primary Group : Languages)- (क) एक प्राच्य या आधुनिक भारतीय भाषा, (ख) अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन भाषा, (ग) इतिहास, (घ) गणित, (ङ) ललित कला।

द्वितीय समूह : सामाजिक अध्ययन (Secondary Group : Social Studies)-

(क) राजनीति शास्त्र

(ख) समाजशास्त्र

(ग) मनोविज्ञान

(घ) रसायनशास्त्र

(ङ) मानविकी

(च) भूगोल

(छ) गृह-अर्थशास्त्र

(iii) एवं (iv) विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए निम्नलिखित विषयों में से कम से कम दो विषय-

(क) गणित

(ख) भौतिक शास्त्र (ग) रसायनशास्त्र

(घ) प्राणिशास्त्र

(ङ) वनस्पतिशास्त्र (च) भौतिकी।

(g) स्नातकोत्तर प्रशिक्षण एवं अनुसंधान (Post-Graduate Training and Research)

सुप्रसिद्ध विद्वान ह्वाइटहैड के अनुसार, “प्रगतिशील समाज के लिए विद्वानों, आविष्कारकों एवं अन्वेषकों की अति आवश्यकता है जिनको उत्पन्न करने का श्रेय विश्वविद्यालय को ही जाता है।” इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए आयोग ने लिखा है-

“विश्वविद्यालय ऐसे मनुष्यों को उत्पन्न करने के मुख्य साधन होते हैं जो प्रगतिशील क्रियाओं का प्रभावपूर्ण साधन में एकीकरण करते हैं।” अतः विश्वविद्यालय द्वारा स्नातकोत्तर प्रशिक्षण एवं अनुसंधान-कार्य के विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं-

(1) स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम में एक ब्रिटिश विषय को उच्च अध्ययन और अनुसंधान की विधियों का प्रशिक्षण सम्मिलित किया जाये।

(2) पी० एच-डी० के विद्यार्थियों का अखिल भारतीय स्तर पर निर्वाचन किया जाये।

(3) पी० एच-डी० एवं अन्य अनुसंधान-कार्य के लिए विद्यार्थियों के लिए अभिव्यक्तियों एवं छात्रवृत्तियों के मिलने की व्यवस्था होनी चाहिए।

(4) पी. एच-डी. की डिग्री कम से कम दो वर्ष के शोध-कार्य के बाद मिलनी चाहिए।

(5) डी. लिट. ,डी० एस०-सी की उपाधियाँ प्रकाशित एवं ऊँचे स्तर के मौलिक शोध कार्य पर मिलनी चाहिएं।

(h) मूल्यांकन या परीक्षा (Test, Evaluation Or Examinations)

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अनुसार, “भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यह है कि अध्यापन परीक्षा के अधीन है न कि परीक्षा अध्यापन के।” इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालयों की शिक्षा-प्रणाली में अनेक दोष हैं। इन दोषों का निराकरण करने एवं परीक्षा-प्रणाली में सुधार करने के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(1) परीक्षाओं का उद्देश्य शैक्षणिक चाहिए।

(2) प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक पूर्णकालीन बोर्ड स्थापित किया जाये जिसमें तीन सदस्य हों।

(i) विश्वविद्यालय का कालेज के अध्यापकों को ‘वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की नयी योजनाओं को बनाने में परामर्श प्रदान करना और पाठ्यक्रम संशोधन के लिए सामग्री देना।

(ii) सम्बद्ध कालेज के विद्यार्थियों का समय-समय पर प्रगति परीक्षाओं के द्वारा परीक्षण करना।

(3) कक्षा में विद्यार्थियों का मूल्यांकन करने के लिए ‘वस्तुनिष्ठ प्रगति परीक्षाओं’ का एक सैट निर्मित किया जाये।

(4) त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स की परीक्षा तीन वर्ष उपरान्त न ली जाये, बल्कि प्रत्येक वर्ष के अन्त में ‘स्वतः पूर्ण इकाइयों’ में परीक्षा ली जाये। विद्यार्थियों को प्रत्येक विषय में उत्तीर्ण होना आवश्यक है।

(5) रियायती अंक की प्रथा समाप्त कर दी जाये।

(6) स्नातकोत्तर एवं व्यावसायिक कक्षाओं में ‘मौखिक परीक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

(7) केवल उन व्यक्तियों को ‘परीक्षक नियुक्त किया जाये जिन्हें उस विषय के अध्ययन का कम से कम 5 वर्ष का अनुभव हो।

(8) प्रत्येक विषय के अंकों के एक तिहाई अंक कक्षा-कार्य पर दिए जायें

(i) व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education)

आयोग ने व्यावसायिक शिक्षा को परिभाषित करते हुए विभिन्न व्यवसायों के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(क) वाणिज्य शिक्षा (Commercial Education)

(1) वाणिज्य शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को शिक्षा काल में ही 3 या विभिन्न प्रकार की व्यापार संस्थाओं यथा-बैंक, बीमा कम्पनी आदि में व्यावहारिक कार्य करने का अवसर प्रदान किया जाये।

(2) एम० कॉम० की डिग्री की शिक्षा पुस्तक प्रधान न होकर व्यावहारिक होनी चाहिए।

(3) विद्यार्थियों को किसी विशेष शाखा में विशेषज्ञ बनने का परामर्श दिया जाय।

(ख) कृषि शिक्षा (Agricultural Education)

(1) प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में कृषि शिक्षा को महत्वपूर्ण विषय के रूप में सम्मिलित किया जाये।

(2) कृषि स्कूल, कालेज एवं फार्म, यथासम्भव ग्रामीण अंचलों में स्थापित किए जायें।

(3) नवीन कृषि-कालेजों को यथासम्भव ग्रामीण विश्व-विद्यालय से सम्बद्ध किया जाये।

(4) वर्तमान कृषि-कालेजों को पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान कर अधिक साधन-सम्पन्न बनाया जाये।

(5) केन्द्रीय एवं राजकीय-सरकारों द्वारा कृषि-शिक्षा हेतु ‘प्रयोगात्मक फार्म’ खोले जायें।

(ग) चिकित्सा शिक्षा (Medical Medicines Education)

(1) किसी भी मेडिकल कालेज में 100 से अधिक छात्रों को प्रवेश न दिया जाये।

(2) कालेज में प्रवेश पाने वाले प्रत्येक छात्र के लिए 10 रोगी हों।

(3) व्यवसाय में पूर्व-स्नातकों के लिए किसी चिकित्सालय में एक वर्ष या 15 महीने व्यावहारिक कार्य अनिवार्य कर दिया जाये जिसमें कम से कम डेढ़ माह से तीन माह किसी ग्रामीण चिकित्सालय पर हो।

(4) स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं के छात्रों को ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षण प्रदान किया जाये।

(5) देशी चिकित्सा पद्धतियों में अनुसन्धान कार्य के लिए विशेष सुविधायें दी जायें।

(घ) प्राविधिक एवं इन्जीनियरिंग शिक्षा (Technological and Engineering Education)

(1) फोरमैन, ड्राफ्ट्समैन एवं ओवरसियरों को शिक्षा प्रदान करने वाले इंजीनियरिंग स्कूलों की वृद्धि की जाये।

(2) देश के विभिन्न उद्योगों की माँग को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक एवं इंजीनियरिंग की संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में विस्तार किया जाये।

(3) उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए ‘प्राविधिक संस्थाओं का शीघ्र से शीघ्र निर्माण किया जाये।

(4) इन्जीनियरिंग स्कूलों एवं कालेजों में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को कारखानों में कार्य करके व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया जाये।

(5) अनुसन्धान कार्य की सुव्यवस्था की जाये।

(6) इन्जीनियरिंग के प्रचलित पाठ्यक्रम में सुधार किया जाये।

(7) प्राविधिक एवं इन्जीनियरिंग शिक्षा में स्नातकोत्तर शिक्षण प्रारम्भ किया जाये।

(8) प्राविधिक एवं इन्जीनियरिंग कालेजों को सरकारी-विभागों के अधीन रखकर विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध किया जाये।

(ङ) कानूनी शिक्षा (Constitutional Teaching, Education of Law)

(1) कानून की शिक्षा में एकरूपता की कमी है। अतः कानून-कालेजों का पुनर्सगठन किया जाये।

(2) कानून के पाठ्यक्रम की अवधि दो वर्ष के बजाय तीन वर्ष कर दी जाये, जबकि वे तीन वर्ष का डिग्री कोर्स पूरा कर लें।

(3) कानून के विद्यार्थियों को अपने-अपने अध्ययन काल में ‘स्नातकोत्तर कोर्स’ लेने की अनुमति केवल विशेष परिस्थितियों में प्रदान की जाये।

(4) अन्य कक्षाओं के समान कानून की कक्षायें भी दिन में ही लगनी चाहिएं, परन्तु शिक्षक पूर्णकालिक एवं अंशकालिक हो सकते हैं।

(च) व्यवसाय शिक्षण (Profession Teaching)

(1) प्रशिक्षण विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाये। उनमें ‘पुस्तकीय ज्ञान’ की अपेक्षा विद्यालयों में अध्ययन-अभ्यास को अधिक महत्व प्रदान किया जाये।

(2) अध्यापकों के कार्य का मूल्यांकन करने में उनके शिक्षण की सफलता पर विशेष ध्यान दिया जाये।

(3) प्रशिक्षण विद्यालयों में अधिकाँश छात्राध्यापक वे हों जो स्कूलों के अध्यापन का पर्याप्त अनुभव कर चुके हों।

(4) शिक्षण-सिद्धान्त का पाठ्यक्रम लचीला एवं स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो।

(5) एम. एड. में प्रवेश करने के लिए उन व्यक्तियों को अनुमति दी जाये जिन्हें कुछ वर्षों के शिक्षण का अनुभव हो।

(j) अन्य सुझाव (Other Suggestion)

  • शिक्षा का माध्यम (Medium of Instruction)

शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(1) हिन्दी-भाषा का संघीय भाषा के रूप में विकास किया जाये और देश के सभी भागों में उसे उच्च माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय स्तर पर अनिवार्य विषय बना दिया जाये।

(2) उच्च शिक्षा का माध्यम ‘प्रादेशिक भाषा’ हो किन्तु राष्ट्र भाषा अर्थात् हिन्दी एक या अधिक विषयों की शिक्षा का माध्यम बनायी जाये।

(3) राज्य सरकारें उच्चतर माध्यमिक स्कूलों, डिग्री कालेजों एवं विश्वविद्यालयों की समस्त कक्षाओं में संघीय भाषा की शिक्षा का प्रबन्ध करें।

(4) बाह्य-विश्व एवं नवीन ज्ञान के साथ सम्पर्क बनाए रखने के लिए स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के माध्यम से अध्ययन यथापूर्व चलता रहे।

(5) उच्च, माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय स्तर पर प्रत्येक छात्र को निम्नलिखित तीन भाषाओं का ज्ञान कराया जाये (i) क्षेत्रीय भाषा (ii) राष्ट्र भाषा एवं (iii) अंग्रेजी भाषा।

(ख) धार्मिक शिक्षा (Religious Education)

विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार-“यदि हम इसी प्रकार केवल व्यावसायिक एवं औद्योगिक शिक्षा पर बल देकर आत्मा का हनन करते गये तो अपने समाज में आसुरिक हलचल के द्वारा केवल राक्षस राज्य लाने में समर्थ हो सकेंगे,” अत: आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं-

(1) समस्त शिक्षण संस्थाओं में प्रत्येक दिन शिक्षण कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व सब शिक्षक एवं विद्यार्थी कुछ मिनट के लिए ‘मौन चिन्तन’ करें।

(2) डिग्री कोर्स के प्रथम वर्ष में छात्रों को विश्व के महान धार्मिक नेताओं यथा-बुद्ध, कनफ्यूशियस, सुकरात, ईशु, शंकर, मौहम्मद, नानक, कबीर, रामानुज, गाँधी आदि की जीवनियाँ पढ़ाई जाये।

(3) द्वितीय वर्ष में संसार की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तकों के विभाग पढाये जायें जो सभी धर्मों में समान हों।

(4) तृतीय वर्ष में धर्म दर्शन की प्रमुख समस्याओं का अध्ययन किया जाये।

(ग) नैतिक शिक्षा (Moral Education)

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने 1948 में नैतिक शिक्षा के बारे में जो बातें कही, वे आज 1996 में भी प्रासंगिक हैं। गहन प्रक्रिया के बाद जो अनुशंषाएं सामने आई वे इस प्रकार थीं-

(1) डिग्री के प्रथम वर्ष के छात्रों को बुद्ध, ईसा, मोहम्मद साहब, कंफ्यूसियस, जोरेस्टर, सुकरात, कबीर नानक इत्यादि धार्मिक महापुरुषों के जीवन के बारे में परिचित करवाया जाए। साथ ही शंकराचार्य, रामानुज आदि के दार्शनिक विचार भी बताए जाएं।

(2) द्वितीय वर्ष में विश्व के महान् ग्रंथों के मानवतावादी चरित्रों के बारे में जानकारी दी जाए।

(3) सभी शैक्षणिक संस्थाओं में कार्य के आरम्भ में कुछ मिनट मौन ध्यान में व्यतीत किए जायें।

(4) तृतीय वर्ष में धर्म के तत्व ज्ञान संबंधी समस्याओं का ज्ञान दिया जाए।

(घ) स्त्री-शिक्षा (Women Education)

आयोग ने स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व पर बल देते हुए इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए हैं-

(1) स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाये जिससे वे सुमाता एवं सुगृहिणी बन सकें।

(2) शिक्षा प्राप्त करने में स्त्रियाँ पुरुषों का अनुकरण न कर स्त्रियोचित शिक्षा प्राप्त करें।

(3) स्त्रियों की शिक्षा-सुविधाओं में विस्तार किया जाये ।

(4) शिक्षा व्यय को कम करने के लिए उपाधि-स्तर पर सह-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाये।

(5) शिक्षा संस्थाओं का पाठ्यक्रम इस प्रकार का हो कि स्त्रियाँ सामान्य समाज में अपना सामान्य स्थान ग्रहण कर सकें।

(6) गृह प्रबन्ध एवं गृह-अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्त्रियों को प्रोत्साहित किया जाये।

(ङ) ग्रामीण विश्वविद्यालय (Rural Universities)

आयोग ने कृषि प्रधान देश भारत की उन्नति एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ग्रामीण कालेजों एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए बल दिया है और इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(1) ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे ‘आवास पूर्ण स्नातक कालेज’ स्थापित किये जायें और इनके केन्द्र में एक विश्वविद्यालय स्थापित किया जाये।

(2) प्रत्येक कालेज में छात्रों की संख्या प्राय: 300 हो और सभी कालेजों एवं विश्वविद्यालयों के छात्रों की संख्या 25,000 से अधिक न हो।

(3) छात्र अपने समय का आधा भाग अध्ययन पर एवं आधा भाग प्रयोगात्मक कार्य पर लगायें।

(4) कालेजों में पुस्तकालय, प्रयोगशाला, क्रीड़ा क्षेत्र एवं व्यायामशाला की व्यवस्था हो।

(5) पूर्व स्नातकीय शिक्षा-काल में ही छात्रों को अपनी रुचि की विश्वविद्यालय स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा प्रदान की जाये।

(6) ग्रामीण विद्यालयों में अनुसंधान की व्यवस्था की जाये।

(7) ग्रामीण शिक्षा का उचित विकास करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक-‘ग्रामीण शिक्षा-परिषद’ की स्थापना की जाये।

(च) छात्र-कल्याण कार्य (Students-Welfare Activities)

आयोग ने छात्रों के सर्वांगीण विकास का महत्व स्पष्ट करते हुए उसके लिए निम्नलिखित कल्याण-कार्यों का सुझाव दिया है-

(1) समस्त योग्य छात्रों को समान रूप से विश्वविद्यालय शिक्षा को प्राप्त करने की सुविधा दी जाये।

(2) प्रवेश के समय एवं इसके बाद वर्ष में एक बार प्रत्येक छात्र की निःशुल्क स्वास्थ्य की परीक्षा की जाये।

(3) प्रत्येक विश्वविद्यालय में छात्रों की चिकित्सा के लिए चिकित्सालय की व्यवस्था की जाये।

(4) प्रत्येक विद्यालय में एक ‘डायरेक्टर ऑफ फिजीकल एजूकेशन’ की नियुक्ति की जाये।

(5) प्रत्येक विश्वविद्यालय में ‘छात्र कल्याण सलाहकार समिति’ का विकास किया जाये।

(6) छात्रों में उत्तम प्रशासन में रुचि पैदा की जाये एवं प्रोक्टोरियल प्रणाली’ का विकास किया जाये।

(7) विश्वविद्यालय में छात्रावासों की समुचित व्यवस्था की जाय। एक छात्रावास में 50 से अधिक विद्यार्थी न हों।

(8) समस्त शिक्षा-संस्थाओं में एन० सी० सी० का संगठन किया जाये।

(9) विद्यार्थियों के लिए खेल-कूद, मनोरंजन क्रियाओं एवं जिमनेजियम आदि की व्यवस्था की जाये।

(10) मध्यान्ह के समय उचित मूल्य पर छात्रों के लिए पौष्टिक भोजन का प्रबन्ध किया जाये।

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