शिक्षाशास्त्र

माध्यमिक शिक्षा आयोग | माध्यमिक शिक्षा आयोग का कार्यक्षेत्र | माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें 

माध्यमिक शिक्षा आयोग | माध्यमिक शिक्षा आयोग का कार्यक्षेत्र | माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें 

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माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary Education Commission)

सन् 1948 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने माध्यमिक शिक्षा की जाँच करने के लिए एक आयोग की नियुक्ति करने के लिए प्रस्ताव पेश किया। सन् 1951 में बोर्ड ने पुनः उक्त प्रस्ताव को बलपूर्वक दोहराते हुए कहा कि माध्यमिक शिक्षा “एक मार्गीय” हो चुकी है, अत: उसे पुनर्गठन की आवश्यकता है। बोर्ड के इस सुझाव को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने 23 दिसम्बर सन् 1953 में ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ की नियुक्ति की। इस आयोग के अध्यक्ष पद पर मद्रास विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ० ए० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर को नियुक्त किया गया। अतः इस आयोग को मुदालियर कमीशन के नाम से पुकारा जाता है। इस आयोग के अध्यक्ष सहित 10 सदस्य थे-(1) डॉ. ए. लक्ष्मण मुदालियर, (2) श्री जॉन क्रिस्टी,(3) डॉ. केनेथ रस्ट विलियम, (4) श्री के. जी. सैयदीन, (5) डॉ० के० एल० माली, (6) श्रीमति हंसा मेहता, (7) श्री के. ए.तारापुरवाला, (8) श्री एस० एन० बसु, (9) श्री एम. टी. व्यास तथा (10) डॉ. एस. चारी (आयोग क सचिव)। इसके अतिरिक्त आयोग में 17 सहकारी सदस्य थे।

माध्यमिक शिक्षा आयोग का कार्यक्षेत्र (Terms of Reference of Secondary Education Commission)

मुदालियर आयोग ने जिन बातों की जाँच की वे निम्नलिखित हैं-

(1) भारत की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के वर्तमान स्वरूप की परीक्षा करना और उसके सम्बन्ध में अपने सुझाव प्रदान करना।

(2) माध्यमिक शिक्षा के पुनर्संगठन एवं सुधार के लिये निम्नलिखित क्षेत्रों के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत करना-

(क) माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य, संगठन एवं पाठ्य-वस्तु ।

(ख) माध्यमिक शिक्षा का प्राथमिक, बेसिक तथा उच्च शिक्षा से सम्बन्ध ।

(ग) विभिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों का परस्पर सम्बन्ध ।

(घ) माध्यमिक शिक्षा से सम्बन्धित अन्य समस्यायें।

आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें (Suggestions and Recommendations of the Commission)

माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव एवं सिफारिशों के प्रमुख खण्ड निम्न प्रकार हैं-

तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोष (Contemporary Defects/ Demerits of Secondary Education)

आयोग ने देश की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा का विस्तृत सर्वेक्षण करने के बाद उसके निम्नलिखित दोषों को उजागर किया-

(1) माध्यमिक शिक्षा केवल व्यावहारिक तथा पुस्तकीय है। इसका जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है।

(2) माध्यमिक शिक्षा एकाकी होने के कारण विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने में असमर्थ है।

(3) यह विद्यार्थियों में सहयोग, चरित्र, अनुशासन तथा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में असमर्थ है।

(4) यह शिक्षा अमनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें विद्यार्थियों की रुचियों, अभिरुचियों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

(5) शिक्षण विधियों के परम्परागत होने के कारण ये विद्यार्थियों को बहुत कम प्रभावित कर पाती है।

(6) माध्यमिक शिक्षा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रभुत्व है । विद्यार्थियों का बहुत अधिक समय इस विदेशी भाषा को सीखने में लग जाता है। अतः वे अन्य विषयों का समुचित ज्ञान प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं।

(7) कक्षाओं में विद्यार्थियों की संख्या अधिक होने के कारण अध्यापकों का उनसे व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता।

(8) परीक्षा प्रणाली अत्यन्त दोषपूर्ण है। (9) माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम विद्यार्थियों की रुचियों के अनुकूल न होने के कारण उन्हें भारस्वरूप प्रतीत होता है।

(10) विद्यार्थियों के समय-विभाग में लचीलेपन का अभाव । इससे विद्यार्थियों तथा अध्यापकों को कार्य की स्वतन्त्रता नहीं रहती है।

माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Secondary Education)

आयोग ने तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा को उद्देश्यहीन बताया और कहा कि यह शिक्षा बच्चों को वास्तविक जीवन के लिए तैयार नहीं करती। एक जनतांत्रिक राष्ट्र की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए

आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश ५ प्रस्तावित किए हैं-

(अ) जनतान्त्रिक नागरिकता का विकास (Development of Democratic Citizenship)-  भारत एक स्वतन्त्र तथा जनतान्त्रिक राष्ट्र है। माध्यमिक शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में ऐसे गुणों का विकास करना चाहि जो भारत के इस नवीन जनतन्त्रवादी वातावरण के अनुकूल हों अर्थात उनमें जनतान्त्रिक नागरिकता का विकास करना चाहिए। एक जनतान्त्रिक नागरिक में निम्नलिखित गुणों का विकास होना चाहिए-

(1) विचारों में स्पष्टता तथा स्वच्छता, (2) अपनी सांस्कृतिक परम्परा का ज्ञान, (3) भाषण तथा लेखन में स्पष्टता, (4) सामूहिक भावना, (5) सहयोग, (6) सहिष्णुता, (7) सहजगुण सम्पन्नता, (8) अनुशासन ।

(ब) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास (Development of Whole Personality)– आयोग के अनुसार माध्यमिक शिक्षा का दूसरा उद्देश्य है विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना। इसके लिए इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए जिससे विद्यार्थियों का साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक विकास हो सके।

(स) व्यवसायिक कुशलता में वृद्धि (Improvement of Vocational Efficiency)- माध्यमिक शिक्षा का तीसरा उद्देश्य है, विद्यार्थियों में व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि करना ताकि वे व्यावहारिक जीवन में प्रवेश कर किसी न किसी व्यवसाय को सुविधापूर्वक सम्पादित करने लगें।

(द) नेतृत्व का विकास ( Development of Leadership)- हमने जो जनतान्त्रिक प्रणाली अपनाई है उसकी सफलता तभी सम्भव है जबकि देश के नवयुवकों में नेतृत्व के गुणों का विकास हो। अत: माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों में योग्य नेतृत्व का विकास करना है।

माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त सम्बन्धी सुझाव (Suggestion related to Administration and Finance of Secondary Education)

आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उन्हें चार उपशीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) प्रशासनिक ढाँचा-प्रशासनिक ढाँचे के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

(i) केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की तरह प्रत्येक प्रान्त में प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Provincial

Advisory Board cof Education) की स्थापना की जाए जो समय-समय पर प्रान्तीय शिक्षा की व्यवस्था के सम्बन्ध में अपने सुझाव दे।

(ii) जिन प्रान्तों में अभी तक माध्यमिक शिक्षा बोर्डी (Board of Secondary Education) का गठन नहीं किया गया है उनमें इनका गठन किया जाए। प्रान्त का शिक्षा निदेशक इसका पदेन अध्यक्ष होगा। यह बोर्ड माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाने, माध्यमिक स्कूलों को मान्यता देने, उनका निरीक्षण कराने, माध्यमिक शिक्षा के अन्तिम वर्ष में परीक्षा लेने और उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र देने का कार्य करेगा।

(iii) शिक्षा निदेशक का कार्य शिक्षा मन्त्री को शिक्षा के सम्बन्ध में सलाह देना है इसलिए इसका पद कम से कम ज्वाइंट सैक्रेटरी के समकक्ष होना चाहिए।

(iv) व्यक्तिगत विद्यालयों का प्रबन्ध कम्पनीज अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत प्रबन्ध समितियों द्वारा ही हो । ये समितियाँ शिक्षकों की नियुक्ति में सरकार द्वारा बनाए नियमों का पालन करेंगी और विद्यालयों के आन्तरिक मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगी।

(v) तक नीकी शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रत्येक प्रान्त में तकनीकी शिक्षा बोर्ड (Board of Technical Education’) स्थापित किया जाए जो अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् (All India Council for Technical Education) के निर्देशन में कार्य करे।

(2) वित्त व्यवस्था माध्यमिक शिक्षा की वित्त व्यवस्था के सम्बन्ध में आयोग ने निम्न सुझाव दिये-

(i) माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व प्रान्तीय सरकारों पर है फिर भी केन्द्रीय सरकार को उसके विकास एवं उन्नयन के लिए प्रान्तीय सरकारों को आर्थिक सहायता देनी चाहिए।

(ii) माध्यमिक स्कूलों को दिये जाने वाला दान आयकर से मुक्त होना चाहिए।

(ii) सरकार माध्यमिक स्कूलों के लिए भूमि की व्यवस्था यथा सम्भव निःशुल्क करे।

(iv) माध्यमिक स्कूलों द्वारा क्रय की गई सामग्री कस्टम (चुंगी आदि) से मुक्त होनी चाहिए।

(v) माध्यमिक स्तर पर तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था के लिए उद्योगों पर कर लगाया जाए।

(3) विद्यालयों को मान्यता- माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए।

(i) माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने में नियमों का पालन कठोरता से किया जाए,किसी भी विद्यालय को बोर्ड द्वारा मान्यता तभी दी जाए जब वह मान्यता सम्बन्धी सभी शर्तों को पूरा करे।

(ii) जो प्रबन्ध समितियाँ मान्यता प्राप्त करने के बाद विद्यालयों को सही ढंग से न चला पाएँ उन्हें चेतावनी दी जाए और यदि वे फिर भी असमर्थ हों तो ऐसे विद्यालयों की मान्यता समाप्त कर दी जाए।

(4) विद्यालयों का निरीक्षण- आयोग ने सरकारी और मान्यता प्राप्त व्यक्तिगत माध्यमिक स्कूलों के नियमित निरीक्षया पर बहुत जोर दिया और इस सम्बन्ध में चार सुझाव दिए-

(i) विद्यालयों के निरीक्षण हेतु पर्याप्त मात्रा में निरीक्षक नियुक्त किए जाएँ।

(ii) निरीक्षण मण्डल में विद्यालय निरीक्षकों के अतिरिक्त माध्यमिक विद्यालयों के प्रधानाचार्य और शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के अनुभवी अध्यापक रखे जाएँ।

(ii) प्रत्येक विद्यालय का एक निश्चित समय के अन्तर से निरीक्षण कराया जाए।

(iv) निरीक्षण मण्डल विद्यालयों के गुण-दोषों को उजागर करे और उनमें पाई गई कमियों को दूर करने के लिए सुझाव दे।

माध्यमिक शिक्षा का नवीन संगठनात्मक स्वरूप (New Organizational Pattern of Secondary Education)

(1) माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष होनी चाहिए।

(2) यह शिक्षा 11 वर्ष से लेकर 17 वर्ष तक की आयु के बालकों तथा बालिकाओं को दी जानी चाहिए।

(3) शिक्षा की अवधि का विभाजन निम्नलिखित भागों में होना चाहिए-

(अ) तीन वर्ष की निम्न माध्यमिक शिक्षा।

(ब)4 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा।

(4) वर्तमान इन्टरमीडिएट कक्षा को हटाकर उसका एक वर्ष माध्यमिक कक्षा के पाठ्यक्रम में जोड़ दिया जाये तथा एक वर्ष विश्वविद्यालय के डिग्री कोर्स में ।

(5) डिग्री कोर्स की अवधि तीन वर्ष कर दी जाये।

(6) बहुउद्देशीय विद्यालयों को स्थापित किया जाये।

(7) पर्याप्त संख्या में प्राविधिक तथा तकनीकी विद्यालय स्थापित किए जायें।

(8) औद्योगिक शिक्षा के विकास के लिए वृहत-उद्योगों पर ‘उद्योग शिक्षा कर’ लगाया जाय।

(9) छात्रों तथा छात्राओं की शिक्षा में कोई विशेष अन्तर न हो, किन्तु छात्राओं के लिए ‘गृह-विज्ञान’ के अध्ययन की सुविधा प्रदान की जाये।

(10) ग्रामों में स्थापित माध्यमिक विद्यालयों में कृषि-शिक्षा का विशेष प्रबन्ध किया जाये। ग्राम-विद्यालयों में पशुपालन, बागवानी तथा कुटीर उद्योग-धन्धों की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया जाये।

(11) माध्यमिक शिक्षा की प्रत्येक योजना में प्रत्येक राज्य में निवास विद्यालयों की व्यवस्था की जाये।

(12) प्रत्येक राज्य में कुछ ऐसे विद्यालयों की स्थापना की जाये जहाँ पर दृष्टिहीन, बधिर तथा मूक आदि बाधितों की शिक्षा का प्रबन्ध हो।

विभिन्न भाषाओं का अध्ययन (Study of different Languages)

(1) इस माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी एक अनिवार्य विषय है और इसे भविष्य में भी अनिवार्य रखा जाये।

(2) हिन्दी को पाठ्यक्रम में अनिवार्य विषय बना दिया जाये।

(3) माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में संस्कृत को सम्मिलित करना आवश्यक है।

(4) माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या प्रादेशिक-भाषा होना चाहिए।

(5) मिडिल स्कूल में प्रत्येक विद्यार्थी को कम से कम दो भाषाओं की शिक्षा प्रदान की जाये।

(6) उच्च माध्यमिक स्तर पर कम से कम दो भाषाओं की शिक्षा प्रदान की जाये। इनमें से एक मातृभाषा एवं दूसरी प्रादेशिक भाषा हो।

माध्यमिक विद्यालयों का पाठ्यक्रम (Syllabus of Secondary Schools)

तत्कालीन पाठ्यक्रम के दोषों या कमियों को ध्यान में रखते हुए आयोग ने माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सुधार करने के लिए पाठ्यक्रम निर्माण के निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है-

(1) पाठ्यक्रम का सामाजिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए।

(2) पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए जो विद्यार्थियों के भिन्न-भिन्न अनुभव में एकता स्थापित कर सके।

(3) पाठ्यक्रम में लचीलापन तथा विविधता होनी चाहिये,जिससे कि उसको विद्यार्थियों की आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों के अनुकूल बनाया जा सके।

(4) पाठ्यक्रम में जिन विषयों को स्थान दिया जाये वे एक-दूसरे से सम्बन्धित होने चाहिये जिससे कि उन्हें समन्वित रूप से पढ़ाया जा सके।

(5) पाठ्यक्रम में इस प्रकार की मनोरंजन-क्रियाओं का समावेश होना चाहिए जिनके द्वारा विद्यार्थी अपने अवकाश के समय का दुरुपयोग न कर सकें।

पाठ्य पुस्तकें (Text-Books)

पाठ्य-पुस्तकों के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(1) पाठ्य-पुस्तकों के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए एक “उच्च पुस्तक समिति” का निर्माण किया जाये।

(2) यह समिति कागज, मुद्रण, छपाई, चित्रों आदि के सम्बन्ध में निश्चित सिद्धान्त प्रतिपादित करे।

(3) कोई भी विषय क्यों न हो सबके लिए पर्याप्त संख्या में पुस्तकें निश्चित की जायें।

(4) पाठ्य-पुस्तकों में परिवर्तन करने में शीघ्रता न की जाये।

शिक्षण की प्रावैधिक/प्रावैगिक विधियाँ (Technological/Dynamic Method of Teaching)

(1) समस्त विषयों के शिक्षण में विद्यार्थियों की आत्माभिव्यक्ति के कार्य पर विशेष रूप से बल देना चाहिये।

(2) शिक्षण में सामूहिक रूप से कार्य करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करना चाहिये।

(3) शिक्षण के समय दृश्य-श्रव्य साधनों का उपयुक्त रूप से प्रयोग करना चाहिये।

(4) शिक्षा में क्रिया-पद्धति तथा योजना पद्धति पर विशेष बल देना चाहिये।

(5) शिक्षण विधियों का उद्देश्य न केवल कुशलता-पूर्वक ज्ञान प्रदान करना होना चाहिये बल्कि इनके द्वारा विद्यार्थियों में उपयुक्त मूल्यों, उचित दृष्टिकोण एवं कार्य करने की आदतों का विकास करना भी होना चाहिये।

चरित्र-निर्माण तथा अनुशासन की शिक्षा (Education for Character-formation and Discipline)

(1) शिक्षकों का यह उत्तरदायित्व है कि वे विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में सहायता प्रदान करें। विद्यालय की सभी क्रियायें इस प्रकार की हों कि विद्यार्थियों को चरित्र-निर्माण की शिक्षा प्राप्त हो।

(2) विद्यार्थियों में अनुशासन की भावना का विकास करने के लिए शिक्षक तथा विद्यार्थियों में गहरा सम्बन्ध स्थापित किया जाये।

(3) विद्यार्थियों में सामूहिक खेलों तथा पाठान्तर क्रियाओं को प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए।

(4) विद्यार्थियों के विभिन्न कार्यक्रमों के संचालन के लिए स्व-शासन पद्धति का आलम्बन किया जाये।

(5) विद्यार्थियों को स्काउटिंग, एन० सी० सी० एवं जूनियर रेडक्रास की शिक्षा हेतु प्रोत्साहन देना चाहिए।

धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा (Religious and Moral Education)

आयोग के अनुसार, विद्यार्थियों के चारित्रिक विकास में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा का बड़ा महत्व है। इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं-

(1) धार्मिक शिक्षा शिक्षालयों में प्रदान की जा सकती है।

(2) धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा विद्यालय के अध्ययन के समय न दी जाकर उसके पूर्व या उसके उपरान्त दी जाये।

(3) इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के लिये किसी विद्यार्थी को बाध्य न किया जाये।

स्त्री शिक्षा (Women Education)

(1) बालकों की तरह बालिकाओं को भी किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार हो ।

(2) बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान के अध्ययन की व्यवस्था की जाए।

(3) माध्यमिक स्तर पर गृह विज्ञान वर्ग की अलग से व्यवस्था की जाए।

(4) आवश्यकतानुसार बालिका विद्यालय खोले जाएँ।

(5) जहाँ बालिका विद्यालय खोलना सम्भव न हो वहाँ सहशिक्षा की स्वीकृति दी जाए।

मार्ग-प्रदर्शन एवं समुदेशन (निर्देश एवं परामर्श) (Guidance and Counselling)

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् समाज तथा स्वयं विद्यार्थी के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी रुचियों, क्षमताओं और व्यवसायों के ज्ञान के अनुसार कोई न कोई व्यवसाय ग्रहण कर सके। इसके लिए आवश्यक है कि माध्यमिक विद्यालयों के विद्यार्थियों को समुचित मार्गदर्शन तथा समुदेशन प्रदान किया जाये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रदान किए हैं-

(1) शिक्षा से सम्बन्धित अधिकारियों को चाहिए कि वे विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक मार्गदर्शन’ की व्यवस्था करें।

(2) छात्रों को विभिन्न उद्योगों तथा व्यवसायों के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान की जाये और उन्हें समय-समय पर कारखाने ले जाया जाये।

(3) विद्यालयों में जीविकोपार्जन प्रशिक्षण शिक्षक यथा मार्गदर्शन अधिकारियों की नियुक्ति की जाये।

(4) इन अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए केन्द्रीय सरकार व्यवस्था करे।

शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा (Physical and Health Education)

आयोग ने विद्यार्थियों के शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षण के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

  1. समय-समय पर छात्रों की पूर्ण रूप से स्वास्थ्य परीक्षा की जाये।
  2. प्रत्येक राज्य में शिक्षालय स्वास्थ्य सेवा’ को संगठित किया जाये।
  3. सभी रोगी विद्यार्थियों को विद्यालय स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा चिकित्सा कराई जाये।
  4. ‘निवास विद्यालयों’ एवं छात्रावासों में पौष्टिक तथा संतुलित आहार की व्यवस्था की जाये।
  5. छात्रों की विभिन्न शारीरिक क्रियाओं का पूरा-पूरा लेखा-जोखा रखा जाये।
परीक्षा और शैक्षणिक मूल्याँकन (Examination and Educational Evaluation)
  1. बाह्य परीक्षाओं की संख्याओं में कमी कर दी जाय ।
  2. निबन्धात्मक परीक्षाओं को हटाने का प्रयास किया जाये और वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की व्यवस्था की जाये।
  3. अन्तिम मूल्यांकन के समय आन्तरिक परीक्षाओं के अतिरिक्त नियतकालीन परीक्षाओं तथा विद्यालय अभिलेख पर उचित ध्यान दिया जाये।
  4. आन्तरिक तथा बाह्य परीक्षाओं में छात्रों के कार्य का मूल्याँकन अंकों में न किया जाये बल्कि प्रतीकात्मक होना चाहिए।
  5. सम्पूर्ण माध्यमिक विद्यालय का पाठ्यक्रम पूरा होने के बाद अन्त में सार्वजनिक परीक्षा’ ली जाये।
पाठशाला भवन  (College of School Building)

(1) पाठशाला का भवन किसी योजना को ध्यान में रखते हुए बनाया जाये।

(2) यह नगर के कोलाहलपूर्ण वातावरण से दूर होना चाहिए।

(3) भवन में प्रकाश तथा वायु का प्रबन्ध होना चाहिए।

(4) पाठशालाओं की ‘साज-सज्जा’ आधुनिक ढंग से की जाये।

(5) पाठशाला के कमरे इतने बड़े हों कि उनमें 40 विद्यार्थी बैठ सकें।

आयोग ने इस तथ्य का कि अध्यापक शिक्षा के प्रमुख आधार-स्तम्भ हैं, ध्यान रखते हुए उनकी प्रगति तथा प्रशिक्षण के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रदान किए हैं-

(1) सम्पूर्ण देश में अध्यापकों का ‘चुनाव’ तथा ‘नियुक्ति’ एक समान होनी चाहिये।

(2) अध्यापकों को पर्याप्त वेतन नहीं प्राप्त होता है। अतः विशिष्ट समितियों की नियुक्ति की जाये जो यह सुझाव दें कि वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अध्यापकों को वेतन दिया जाये।

(3) अध्यापकों को अपनी एवं आश्रित सम्बन्धियों की चिन्ताओं से मुक्त रखने के लिए पेन्शन, प्रॉविडेन्ट फण्ड तथा जीवन बीमा की सुविधायें दी जायें।

(4) अध्यापकों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा दी जाये। उन्हें विद्यालय के समीप निवास स्थान की सुविधा दी जाये और चिकित्सालयों में निःशुल्क इलाज की सुविधा दी जाये।

(5) अध्यापकों के प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की जाये। प्रशिक्षण विद्यालयों के छात्राध्यापकों को निःशुल्क प्रशिक्षण प्रदान किया जाये।

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Pankaja Singh

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