राजनीति विज्ञान

लॉक के राजनीतिक विचार | लॉक की विचारधारा के दोष

लॉक के राजनीतिक विचार | लॉक की विचारधारा के दोष

लॉक के राजनीतिक विचार

(1) मानम स्वभाष- 

हॉब्स एवं रूसो के समान लॉक भी ‘संविदावादी (Contractualist) था। अन्य संविदावादियों की भाँति उसने भी मानव स्वभाव की व्याख्या की है। परन्तु उसकी यह व्याख्या हॉब्स एवं रूसो की व्याख्या से भिन्न है। हॉब्स ने मनुष्य को लड़ाकू, स्वार्थी, जंगली एवं संघर्षशील बताया है। परन्तु लॉक के अनुसार मनुष्य सहयोगी है तथा उसमें सामाजिकता की भावना पाई जाती है। लॉक प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य के स्वभाव का चित्रण करते हुए कहता है कि ‘सब मनुष्य प्रकृतितः समान हैं। जिसमें सम्पूर्ण शक्ति और अधिकार-क्षेत्र  पारस्परिक हैं तथा किसी को एक दूसरे से अधिक प्राप्त नहीं है, क्योंकि इससे अधिक स्पष्ट और कोई बात नहीं है कि एक ही नस्ल एवं बंश की सन्तान जिन्हें प्रकृति के सब लाभ समान रूप से प्राप्त होते हों, बिना किसी आधिपत्य के समान हों। यद्यपि लॉक के इस कथन का. तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से समान हैं। उसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति नैतिक रूप से समान है तथा उसे अन्य व्यक्तियों के समान ही अधिकार प्राप्त हैं। 18वीं शताब्दी में कान्ट ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये थे। कान्ट के अनुसार मानव एक विकासशील प्राणी है तथा निरपेक्ष-आज्ञा के निर्देशों के अनुसार कार्य करता है। लॉक भी यह मानता है कि व्यक्ति चाहे बौद्धिक एवं भौतिक दृष्टि से समान न हो परन्तु वे नैतिक दृष्टि से समान हैं। लॉक के अनुसार मानव स्वभाव की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(i) मनुष्य एक विवेकशील (Rational) प्राणी है- विवेकशीलता (Rationality) को लॉक मनुष्य के स्वभाव का प्रधान लक्षण मानता है। उसके अनुसार मनुष्य स्वयं साध्य है; अतः उसका प्रयोग साधन की भाँति नहीं किया जा सकता। लॉक विवेकशीलता को मानव स्वभाव का दैवी गुण मानता है। इस गुण के द्वारा ही मनुष्य प्रकृति के नियमों को समझता है और उनका पालन करता है। इसलिए प्राकृतिक अवस्था युद्ध की अवस्था नहीं हो सकती।

(ii) मनुष्य सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है- लॉक की धारणा है कि मनुष्य दुख एवं कष्ट से बचना चाहता है तथा सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। इसी कारण वह अन्य लोगों के साथ सहयोग के साथ रहता है।

(iii) मनुष्य सामाजिक एवं सहयोगी प्राणी है- लॉक मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानता है। उसका विचार है कि मनुष्य में सहयोग, सामाजिकता, प्रेम, दया, आदि गुण पाये जाते हैं। इस प्रकार लॉक का मनुष्य हॉब्स के मनुष्य के समान लड़ाकू, जंगली तथा संघर्षशील नहीं है। लॉक के व्यक्ति में स्वार्थ तथा संघर्ष की भावना नहीं पायी जाती। इस प्रकार लॉक का व्यक्ति हॉब्स के व्यक्ति से अधिक सभ्य है और वह अनुशासन में रहता है। उसमें आसुरी प्रवृत्तियों का अभाव है।

(2) प्राकृतिक अवस्था (State of Nature)-

हॉब्स और रूसो के समान लॉक ने भी पूर्व सामाजिक तथा पूर्व राजनीतिक अवस्था की कल्पना की है जिसे वह प्राकृतिक अवस्था कहता है। लॉक के अनुसार यह अवस्था शान्ति, सहयोग समानता एवं सम्पन्नता की अवस्था है। लॉक के ही शब्दों में, “यद्यपि यह अवस्था स्वतन्त्रता की अवस्था है तथापि यह स्वेच्छाचारिता की अवस्था नहीं है। यद्यपि इस अवस्था में मनुष्य को अपने व्यक्तित्व या सम्पत्ति के प्रयोग करने की असीमित स्वतन्त्रता है। पर उसे तब तक अपने को नष्ट करने की स्वतन्त्रता नहीं है जब तक कि ऐसा करने की आवश्यकता जिन्दगी बनाये रखने के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य के लिए आवश्यक न हो।

लींक यह मानता है कि यह प्राकृतिक अवस्था में भी सामाजिक व्यवस्था थी। राज्य का अस्तित्व न होने के कारण राज्य के कानून नहीं थे। परन्तु लॉक की सामाजिक व्यवस्था कानून विहीन (Lawless) नहीं थी क्योंकि समाज में प्राकृतिक कानूनों का अस्तित्व था तथा मनुष्य इन विषयों का पालन करता था। समाज में राज्य का अस्तित्व नहीं था; अतः अधिकारों की रक्षा की उचित व्यवस्था नहीं थी। इस कारण यह अवस्था असुविधाजनक थी। लॉक की प्राकृतिक अवस्था में केवल यही दोष था और इसी कारण उसे राज्य की स्थापना करनी पड़ी। उसकी प्राकृतिक अवस्था में निम्नलिखित विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं-

(i) लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पत्ति के अधिकार प्राप्त थे। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन अथवा उसकी स्वतन्त्रता का हरण करने का प्रयल नहीं करता था। सभी व्यक्तियों को सम्पत्ति रखने का अधिकार प्राप्त था। कोई भी उसके इन अधिकारों के उपयोग में बाधा नहीं पैदा करता था।

(ii) लॉक की प्राकृतिक अवस्था में कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करता था। सभी लोग प्राकृतिक नियमों का पालन करते थे। प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त था ।

(iii) लॉक की प्राकृतिक अवस्था शान्ति की अवस्था थी। इसमें राज्य के कानून नहीं थे। फिर भी मनुष्य एक दूसरे के साथ सहयोग एवं सद्भाव का व्यवहार करता था। मनुष्य स्वभाव से अच्छा था, इस कारण वह संघर्षों से दूर रहता था। प्राकृतिक कानूनों का पालन वह स्वेच्छा से करता था। उसमें उचित-अनुचित एवं पाप-पुण्य की भावना विद्यमान थी। इस कारण इस अवस्था में सर्वत्र शान्ति थी। इस विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह अवस्था अराजनीतिक तो थी परन्तु समाजविहीन नहीं थी।

(iv) लॉक द्वारा प्रतिपादित प्राकृतिक अवस्था में सभी लोग स्वतन्त्र थे तथा वे प्राकृतिक वस्तुओं का स्वतन्त्र रूप से उपयोग करते थे। लोगों में कोई भेद-भाव नहीं था । प्राकृतिक अवस्था में न तो कोई स्वामी था और न कोई दास । उसमें समानता एवं स्वतन्त्रता की भावना विद्यमान थी। सभी लोग आपस में सहयोगपूर्वक रहते थे।

(v) लॉक द्वारा प्रतिपादित प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक कानून थे। मनुष्य विवेकशील था तथा वह अपने विवेक का प्रयोग करता था। इस कारण कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को हानि नहीं पहुंचाता था। लॉक के अनुसार प्राकृतिक कानून ‘विवेक’ (Reason) पर आधारित था जो सभी व्यक्तियों के कार्यों को मर्यादित करता था।

(vi) लॉक द्वारा प्रतिपादित प्राकृतिक अवस्था की एक अन्य विशेषता यह थी कि इसमें लोगों में आपस में प्रतिस्पर्धा नहीं थी। सभी व्यक्तियों में समान क्षमताएँ थीं तथा सभी लोग प्रकृति की वस्तुओं का समान रूप से उपभोग करते थे । प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन की रक्षा का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। सभी लोग स्वतन्त्र तथा मुक्त थे।

(3) सामाजिक समझौता (Social contract)-

प्राकृतिक अवस्था की असुविधाओं से मुक्ति पाने हेतु लॉक के कथनानुसार मनुष्यों ने एक समझौता किया। सब मनुष्यों के समान होने के कारण यह समाज के सब व्यक्तियों का सब व्यक्तियों के साथ किया जाने वाला समझौता था; अत: इसे सामाजिक अनुबन्ध कहते हैं। इससे राजनीतिक समाज और राज्य का जन्म हुआ, किन्तु यह समझौता किसी सरकार या शासक के साथ नहीं किया गया था। इस समझौते का उद्देश्य जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकारों की आन्तरिक तथा बाह्य संकटों से रक्षा करना था। इस समझौते के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने इस प्राकृतिक अधिकार को छोड़ने के लिये सहमत हुआ कि वह स्वयंमेव प्राकृतिक नियमों को लागू करने का तथा इनके अनुसार दूसरों को दण्ड देने का कार्य नहीं करेगा।

लॉक का अभिमत है कि विधि और न्याय की असुविधा के कारण व्यक्तियों ने समझौते द्वारा राज्य को जन्म दिया। हॉब्स का कहना है कि राज्य की उत्पत्ति के लिये मनुष्यों ने परस्पर केवल एक समझौता किया परन्तु लॉक के अनुसार व्यक्तियों ने दो समझौते किये। पहला समझौता लोगों ने आपस में किया और दूसरा समझौता शासक वर्ग के साथ हुआ। लॉक के अनुसार पहला समझौता स्वाभाविक था। हॉब्स का मत है कि राज्य के जन्म के कारण ही समाज अस्तित्व में आता है, परन्तु लॉक का विचार है कि राज्य का जन्म समाज के जन्म के पश्चात् हुआ । व्यक्तियों ने सबसे पहले आपस में एक समझौता किया कि वे प्राकृतिक कानून की व्याख्या करने और उसे लागू करने का अधिकार सम्पूर्ण समाज को प्रदान करते हैं। इसी समझौते के द्वारा एक सभ्य समाज का जन्म हुआ। इसके बाद एक दूसरा समझौता होता है। यह समझौता शासक और व्यक्तियों के मध्य हुआ। शासक कोई एक व्यक्ति या व्यक्तियों का एक वर्ग हो सकता है। इस समझौते के द्वारा शासक को राज्य की शक्ति सौंप देते हैं। इसे राजनीतिक समझौता कहा जा सकता है क्योंकि राज्य की उत्पत्ति इसी समझौते के द्वारा होती है। शासक के अधिकार असीमित नहीं हैं। यदि वह निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी ढंग से शासन करने लगे, जनहित को भूल जाय, व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लंघन करे या समझौते की शर्तों को तोड़े तो जनता उसका विरोध कर सकती है और उसे पदच्युत् करके नया शासक नियुक्त कर सकती है। लॉक यह नहीं मानता कि राजनीतिक समझौता टूट जाने से समाज भी समाप्त हो जाता है और मनुष्य फिर प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जाता है।

इस प्रकार लॉक के समझौते में शासक के अधिकार सीमित हैं। वह एक ट्रस्ट के समान है और वह समझौते की शर्तों से बँधा है; अत: वह उन्हीं अधिकारों का उपयोग कर सकता है जो जनता ने उसे सौंप दिये हैं। मनुष्य अपने प्राकृतिक अधिकारों को अपने पास रखता है और शासक से अपेक्षा करता है कि उन्हें पवित्र मानकर उनकी रक्षा करे, यदि वह इनकी रक्षा करने में असफल होता है तो जनता को यह अधिकार है कि उसे अपदस्थ कर दे। इस प्रकार लॉक के समझौते में अनेक विशेषताएँ हैं जिनमें से प्रमुख का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है-

(1) इसकी पहली विशेषता यह है कि एक बार समझौता हो जाने के बाद कभी रद्द नहीं हो सकता है। इस बात में लॉक हॉब्स से सहमत है। उसके मतानुसार जिसने इस समझौते को स्वीकार कर लिया है उसे प्राकृतिक अवस्था में लौटकर जाने की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है।

(2) यह समझौता सबकी सहमति (Consent) पर आधारित है। कोई व्यक्ति इस नवीन समाज में सहमति के बिना प्रविष्ट नहीं हो सकता है। “सहमति ही दुनिया में प्रत्येक वैध सरकार का निर्माण करती है।” वह यह मानता है कि राज्य के प्रत्येक नागरिक के बच्चे सर्वथा स्वतन्त्र रूप में उत्पन्न होते हैं, उन्हें इस बात की पूरी स्वाधीनता है कि सहमति प्रदान करें या न करें, यदि वे ऐसा नहीं करते तो उस राज्य से बाहर जाने पर वे अपनी पैतृक सम्पत्ति के उत्तराधिकार से वंचित हो जायेंगे।

(3) इस समझौते से राज्य का जन्म होता है। वाघन (Vaughan) का यह मत है कि यद्यपि लॉक ने स्पष्ट उल्लेख नहीं किया फिर भी वह दो प्रकार के समझौते मानता है। पहला समझौता प्राकृतिक दशा को समाप्त करके उसके स्थान पर सभ्य नागरिक समाज की स्थापना करता है और दूसरे समझौते द्वारा व्यक्ति राज्य का निर्माण करते हैं किन्तु यह व्यक्तियों में ही होता है। समझौता सरकार के साथ नहीं किया जाता; अत: लॉक यह मानता है कि लोग मिलकर एक ट्रस्ट या न्यास बनाते हैं और सरकार का निर्माण कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिये करते हैं। इस प्रकार जनता इस ट्रस्ट को बनाने वाली तथा इससे लाभ उठाने वाली है। सरकार ट्रस्टी होने के नाते अपने अधिकारों की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकती और यदि वह ऐसा करती है तो उसे पदच्युत् किया जा सकता है।

(4) प्रभुसत्ता (Sovereignty)-

लॉक के सामाजिक अनुबन्ध के समझौते दो प्रकार से हुये हैं। लॉक के अनुसार सामाजिक समझौते के द्वारा प्राकृतिक अवस्था का अन्त होता है और उसके स्थान पर नागरिक समाज का जन्म होता है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति समाज या समूह में सम्मिलित होने और निर्गम करने का इकरारनामा करते हैं। समझौते के अन्तर्गत सभी व्यक्तियों ने अपने हितों की रक्षा के लिये कुछ अधिकार समाज को दिये, किन्तु जीवन का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार तथा स्वतन्त्रता का अधिकार अपने पास ही सुरक्षित रखा। लॉक का दूसरा समझौता राजनीतिक समझौता है जिससे सरकार की स्थापना होती है। सरकार लॉक के अनुसार एक ट्रस्ट है। यदि सरकार सामाजिक समझौता की शर्तों का पालन नहीं करती है तो उसे हटाया भी जा सकता है। लॉक के अनुसार प्रभुसत्ता न तो पूर्ण है और न अविभाज्य ही है। प्रभुसत्ता प्रजा और शासक दोनों में निहित है। इस प्रकार लॉक निरपेक्ष, असीमित और अनियन्त्रित प्रभुसत्ता का समर्थन नहीं करता जैसा कि हॉब्स की विचारधारा में था। लॉक के राजदर्शन में समुदाय या समाज सम्प्रभु है, यद्यपि लॉक ने प्रभुसत्ता शब्द का प्रयोग स्पष्ट रूप से नहीं किया है।

यदि सरकार प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन करती है तो सरकार बदली जा सकती है। लॉक के राजदर्शन में समाज की शक्ति सर्वोच्च है और समाज का अर्थ बहुसंख्यक का शासन है। लॉक ने प्रभुसत्ता को अविभाज्य, अदेय और निरंकुश नहीं माना है। लॉक कानूनी प्रभुसत्ता में विश्वास न करके लोकप्रिय प्रभुसत्ता में विश्वास करता है, सरकार की शक्ति सीमित है और वह शक्ति विभाजन पर आधारित है। लॉक यह मानकर चलता है कि “शासन व्यक्तियों की सहमति पर आधारित होता है।” इस विचार में हॉब्स जैसी निरंकुश प्रभुसत्ता के लिए कोई स्थान नहीं है। लॉक के अनुसार समाज की सार्वजनिक इच्छा ही सर्वोच्च शक्ति है और सरकार एक ट्रस्टी के समान है जो समाज के प्रति उत्तरदायी है। इस प्रकार लॉक निरंकुश एवं असीमित राजतन्त्र का विरोधी है और शासक के सीमित अधिकारों का समर्थन करता है। यह विचार आधुनिक युग के लोकतन्त्र के काफी निकट है।

(5) विद्रोह का अधिकार (Right to revolt)-

राज्य की स्थापना जनता के हित के लिए कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुई है। राजा को शासन का अधिकार न्यास या ट्रस्ट के रूप में मिला हुआ है। वह जनता की सहमति पर आधारित है तथा वैधानिक होता है। किन्तु यदि उसे जनता की सहमति प्राप्त न हो या वह अपने ट्रस्ट के विरुद्ध आचरण करे और वैधानिक शासन के स्थान पर स्वेच्छाचार बरतने लगे, अपने उत्तरदायित्त्वयों का पालन न करे तो जनता को शासक के विरुद्ध विद्रोह करने तथा उसे बदलने का अधिकार है। लॉक के ही शब्दों में, “जब जनता यह अनुभव करे कि विधानपालिका उसमें रखे जाने वाले विश्वास के प्रतिकूल कार्य कर रही है तो जनता को यह सर्वोच्च अधिकार प्राप्त है कि वह विधानपालिका को हटा दे या बदल डाले।” लॉक ने जनता द्वारा विद्रोह एवं क्रान्ति के अधिकार पर इतना अधिक बल दिया है कि उसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि उसने शासन विषयक सिद्धान्त का नहीं, अपितु क्रान्ति विषयक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। राजा को शासन करने का अधिकार प्रजा से मिला है; अतः वह अपने पद पर तभी तक रह सकता है जब तक कि वह इस कार्य को समुचित रीति से पूरा करता रहे।

(6) सीमित राजतन्त्र सम्बन्धी विचार (Limited Monarchy)-

लॉक के मतानुसार नागरिक समाज जनता की सहमति पर आधारित है। इस प्रकार यह कभी भी निरंकुश नहीं हो सकता। यह कहना उचित है कि निरंकुश प्रभुसत्ता के लिए लॉक के दर्शन में कोई स्थान नहीं है। वह संवैधानिक प्रकार (Constitutional Government) का पक्षपाती था। यह शक्ति के विभाजन पर आधारित था तथा इस पर उसने कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये थे। ये प्रतिबन्ध निम्नलिखित हैं:-

(i) सरकार जनता की इच्छा के विरुद्ध कोई आदेश नहीं दे सकती है।

(ii) वह व्यक्ति की सहमति के बिना उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति को नहीं ले सकती है।

(iii) सरकार व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों, जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकारों का अपहरण नहीं कर सकती है। राज्य का निर्माण इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए हुआ है इसलिए इनकी रक्षा करना ही उसका प्रमुख उद्देश्य है।

(iv) वह मनमाने ढंग से शासन नहीं कर सकता है। वह कानून के अनुसार शासन करेगा। लॉक सरकार की नहीं, परन्तु जनता की सहमति पर आधारित कानून की प्रभुसत्ता को मानता है।

(v) शासक की शक्ति सीमित है। यह जनता की सहमति पर आधारित शासन है और इसका जन्म कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। इसलिए जनता शासक को पदच्युत् कर सकती है।

(vi) विधानपालिका कानून बनाने के अधिकार को किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं कर सकती।

(7) व्यक्तिवाद (Individualism)-

लॉक व्यक्तिवाद का परम उपासक और भक्त है। यह उसके राजनीतिक विचारों की आधारशिला है। वह प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति की रक्षा के तीन अधिकार देता है। इन्हें वह व्यक्ति का जन्म-सिद्ध, स्वाभाविक और प्राकृतिक अधिकार मानता है। राज्य का जन्म इन्हीं की रक्षा के लिए होता है। उसका मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के अधिकारों को सुरक्षित रखना है। मैक्सी के मतानुसार लॉक का कार् राजसत्ता के प्रतिबन्धों का प्रतिपादन करना है। शासक समाज का प्रतिनिधि मात्र है। वह हॉब्स के लेवियाथन की भाँति निरंकुश शासक नहीं है। अतः लॉक के राज्य की तुलना एक बड़ी लिमिटेड कम्पनी से की जाती है जिसमें कम्पनी के संचालकों तथा हिस्सेदारों के दायित्व सीमित होते हैं। डनिंग (Dunning) के कथनानुसार, “व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार सम्पूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न समाज के अधिकारों को ठीक वैसे ही सीमित करते हैं, जैसे प्राकृतिक अवस्था में एक व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार दूसरे व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों को मर्यादित करते हैं।” बार्कर के शब्दों में, “लॉक में व्यक्ति की आत्मा की सर्वोच्च गरिमा को स्वीकार करने वाली महान भावना थी। उसमें यह प्यूरिटन अनुभूति थी कि आत्मा को परमात्मा के साथ अपने सम्बन्ध निश्चित करने का अधिकार है।” इस प्रकार लॉक ने व्यक्तिवाद को अजेय राजनीतिक तथ्य बनाया है।

(8) सरकार के कर्तव्य (Functions of Government)-

लॉक के कथनानुसार शासक का सबसे पहला कर्त्तव्य है कि उसे ऐसी विधियाँ बनानी चाहिये जो प्राकृतिक विधियों पर आधारित हों। शासन का दूसरा कार्य राज्य के विभिन्न समुदायों, वर्गों तथा व्यक्तियों के हितों के मध्य सामंजस्य स्थापित करना है। शासक का तीसरा कार्य युद्ध, शान्ति, सन्धियों आदि अन्तर्राष्ट्रीय कार्यों एवं कर्त्तव्यों की पूर्ति करना है। लॉक कहता है कि शासन अलग-अलग भागों में विभक्त होना चाहिये । कार्यपालिका (Executive) को न्यायपालिका के निर्णयों तथा विधान- मंडल द्वारा निर्मित विधियों के अनुसार कार्य करना चाहिये। इस प्रकार वह शासन में व्यवस्थापिका को प्रमुख स्थान देता है। प्रोफेसर सूद के शब्दों में

“By making the legislative organ the Supreme power in the State, Locke becomes the philosopher of parliamentary form of Government.” J.P. Sood.

इस प्रकार लॉक के राज्य में संप्रभुता रहती है परन्तु उसका प्रयोग बहुमत की इच्छा के अनुसार होता है। राज्य सदा सार्वजनिक कल्याण की भावना से ही कार्य करता है।

लॉक की विचारधारा के दोष

(Defects in the theory of Locke)

लॉक के विचार हॉब्स की भाँति सुस्पष्ट और तर्कसंगत नहीं है। उसके विचारों मे अस्पष्टता, परस्परा विरोध और असंगतियाँ हैं। एक ओर वह नैतिक व्यवस्थाओं को शाश्वत, पूर्ण तथा अन्तिम समझता है, दूसरी ओर वह उन्हें अस्थायी तथा समाज की विभिन्न परिस्थितियों का परिणाम मानता है। उसने एक शब्द का प्रयोग विभिन्न स्थलों पर विभिन्न अर्थों में किया । कई बार वह सम्पत्ति को आधुनिक अर्थ में प्रस्तुत करता है और कई बार इससे उसका आशय तीन वस्तुओं से अर्थात् व्यक्ति के जीवन, स्वतन्त्रता और धन दौलत से होता है। उसने सर्वोच्च प्रभुसत्ता का मूल स्रोत तीन विभिन्न तत्वों को माना है जनता या समुदाय (Community) विधानसभा, कार्यपालिका (Executive) का अधिकार रखने वाले व्यक्ति। एक ओर वह मनुष्यों को अपना सुख चाहने वाला मानता है दूसरी ओर वह यह भी मानता है कि सब मनुष्य सामान्य सार्वजनिक सुख की इच्छा करते हैं। परस्पर विरोध और असंगतियों के अतिरिक्त उसकी विचारधारा के प्रधान दोष निम्नलिखित हैं:-

(1) लॉक की व्यक्तिगत सम्पत्ति की धारणा दोषपूर्ण है। उसके विचारों की व्याख्या करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वह सम्पत्तिशाली वर्ग का समर्थक है। उसके अनुसार व्यक्ति सामूहिक सम्पत्ति में अपने श्रम को जोड़कर इसे वैयक्तिक सम्पत्ति के रूप में परिणित करता है। श्रम सम्पत्ति का मूल है। उसी के शब्दों में, “मेरे घोड़े ने जो घास खायी, या मेरे नौकर ने जो घास छीली या मैने किसी सार्वजनिक स्थान पर खोदने से. जो कच्ची धातु प्राप्त की, वह किसी की अनुमति के बिना ही मेरी सम्पत्ति बन जाती है। मेरे ही श्रम ने उसे उस प्राकृतिक अवस्था से हटाया है जहाँ सार्वजनिक सम्पदा थी; अत: वह मेरी सम्पत्ति हो गयी।” ‘रिची’ ने इसकी आलोचना करते हुये लिखा है कि इसके अनुसार अपने घोड़े तथा अपने नौकर के माध्यम से तथा श्रम से प्राप्त की गई सम्पत्ति अपनी हो जाती है। इस विचार के अनुसार पूँजीपति मजदूरों को लगाकर उनके श्रम से जो सम्पत्ति प्राप्त करता है वह उसक निजी सम्पत्ति मानी जानी चाहिये । इससे स्पष्ट है कि उसने पूँजीवाद का प्रबल पोषण किया है। आजकल इस सिद्धान्त को कोई भी सत्य नहीं मानेगा।

(2) लॉक सहमति के सिद्धान्त को आवश्यकता से अधिक महत्व देता है। वह इसे प्राकृतिक कानून के साथ सम्बद्ध मानता है। उसके मतानुसार इसका आशय यह है कि न्याय अन्याय का निर्णय अधिकांश व्यक्तियों की सहमति से होता है। यदि बहुत से व्यक्ति किसी कार्य को उचित या अनुचित मानते हैं तो उसे ऐसा स्वीकार करना चाहिये। यह विचार प्राकृतिक नियम के मौलिक सिद्धान्त के सर्वथा प्रतिकूल है क्योंकि उसके अनुसार जो सार्वभौम शाश्वत सत्य है, वह मनुष्यों के स्वीकार करने पर भी वैसा ही बना रहता है। यदि लॉक की बात मान ली जाय तो प्राकृतिक नियम मनुष्यों के बहुमत पर आधारित हो जायेंगे और उनकी स्वतन्त्र सत्ता समान हो जायगी।

(3) लॉक ऐसी प्राकृतिक दशा (State of Nature) की कल्पना करता है जो वास्तविकता से बहुत दूर है। उसके कथनानुसार इस अवस्था में अखण्ड शान्ति का साम्राज्य था; सब मनुष्य न्याय की स्थापना करने वाले प्राकृतिक नियम का पालन करते थे। यह विचार काल्पनिक है। यह स्थिति 20वीं शताब्दी के मनुष्य द्वारा इतनी वैज्ञानिक उन्नति कर लेने के बाद भी मानव समाज में नहीं पायी जाती। इस समय अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में घोर अशान्ति, अविश्वास, अराजकता और भय का साम्राज्य छाया हुआ है। यदि लॉक की कल्पना सत्य मान भी ली जाय तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि नैतिक और बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य का निरन्तर पतन हो रहा है। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है और इस कारण लॉक की प्राकृतिक दशा की उपरोक्त कल्पना असत्य जान पड़ती है।

(4) लॉक राज्य के कार्यक्षेत्र को अत्यन्त संकुचित और सीमित कर देता है। उसके अनुसार राज्य को केवल पुलिस का कार्य करना चाहिये । नागरिकों की शिक्षा सम्बन्धी संस्कृति या नैतिक उन्नति का कार्य उसे नहीं करना है, क्योंकि व्यक्ति प्रकृति से ही विवेकशील और नैतिक प्राण है। वह स्वयम् अपनी उन्नति करेगा। लॉक का पुलिस-राज्य (Police State) का विचार बडा संकीर्ण और दूषित है।

(5) वह व्यक्ति को अत्यधिक महत्त्व देकर राज्य की स्थिति को गौण बना देता है। उसका राज्य कोई स्वतन्त्र सामूहिक संस्था नहीं, किन्तु ऐसे व्यक्तियों का समूह मात्र है जो निश्चित तथा सीमित उद्देश्यों के लिये इसका निर्माण करते हैं। इन प्रयोजनों के अतिरिक्त वे सर्वदा स्वतन्त्र हैं। सर्वोच्च सत्ता, व्यक्ति में निहित है। इस प्रकार उसने व्यक्तिवाद के प्रबल समर्थन के कारण व्यक्ति को राज्य से बड़ा बना दिया है। उसके मत में राज्य व्यक्ति के लिये है न कि व्यक्ति राज्य के लिये।

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Pankaja Singh

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