राजनीति विज्ञान

लोकसेवकों का प्रभाव एवं महत्त्व | मंत्रियों और लोकसेवकों का पारस्परिक सम्बन्ध | मन्त्रियों पर लोकसेवकों का प्रभाव

लोकसेवकों का प्रभाव एवं महत्त्व | मंत्रियों और लोकसेवकों का पारस्परिक सम्बन्ध | मन्त्रियों पर लोकसेवकों का प्रभाव

लोकसेवकों का प्रभाव एवं महत्त्व

प्रशासन में लोकसेवकों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होता है और मन्त्रियों के कार्यों पर उनका काफी प्रभाव पड़ता है। मन्त्री सदैव उनके सहयोग पर निर्भर रहते हैं। नीति निर्धारण और योजनाओं के प्रारूप बनाने से लेकर उनकी सफलता तक मन्त्रियों के लिए लोकसेवकों का सहयोग आवश्यक होता है। प्रशासन में लोकसेवकों के प्रभाव अनेक कारण से होते हैं; जैसे-

(अ) मन्त्रीगण प्रशासन के विशेषज्ञ नहीं होते जबकि लोकसेवक उसके विशेषज्ञ होते हैं तथा अपने अनुभव के आधार पर मंत्रियों को उचित सलाह देते हैं। अतएव उन पर लोक सेवकों का प्रभाव स्वाभाविक है।

(ब) मन्त्रीगण अपनी और दल की बदनामी से बचने के लिये प्रत्येक कार्य त्रुटिरहित करना चाहते हैं जो लोकसेवक विशेषज्ञ के परामर्श से ही सम्भव होता है।

(स) पुरानी चली आई समस्याओं का पूर्ण ज्ञान लोकसेवकों को ही होता है; अतः किसी योजना को बनाते समय इनका परामर्श आवश्यक होता है।

(द) कभी इस प्रभाव के कारण मन्त्रियों को लोकसेवक के हाथ की कठपुतली कहा जाता है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। बल्कि मन्त्रीगण लोकतन्त्र को सशक्त बनाने में महान् योगदान देते हैं।

मंत्रियों और लोकसेवकों का पारस्परिक सम्बन्ध

(Relationship between the Ministers and the Civil Servants)

मन्त्रियों और लोकसेवकों के पारस्परिक सम्बन्ध में मतभेद है। परन्तु वैधानिक स्थिति के अनुसार प्रशासन का अन्तिम उत्तरदायित्व मन्त्रियों पर ही है; अत: लोकसेवकों को उन्हीं की इच्छा के अनुरूप चलना पड़ता है। मन्त्री ही मन्त्रिमण्डल द्वारा किये गये निर्णयों की सीमा के अन्तर्गत अपने-अपने विभाग की नीति का निर्धारण करते हैं और लोकसेवकों के माध्यम से उनको क्रियान्वित करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में लोकसेवकों का मन्त्रियों पर प्रभावी रहने का तब तक कोई प्रश्न नहीं उठता जब तक कि मन्त्री स्वेच्छा से अथवा अनजाने में उन्हें ऐसा अवसर न दें।

मन्त्रियों पर लोकसेवकों का प्रभाव

प्रशासन के क्षेत्र में लोकसेवकों का स्थान बड़े महत्त्व का है। मन्त्रियों के कार्यों पर उनका बहुत प्रभाव रहता है। मन्त्रियों को उनके सहयोग की आवश्यकता बनी रहती है। नीति- निर्धारण और योजनाओं के प्रारूप बनाने से लेकर उनकी अन्तिम सफलता तक लोकसेवकों के सहयोग का निश्चित मूल्य है। शासन-सूत्र में उनके इस प्रभाव के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:-

(1) मन्त्रिगण प्रशासन के विशेषज्ञ नहीं होते जबकि लोकसेवक उसके विशेषज्ञ होते हैं; अत: मन्त्रियों को विभिन्न मामलों में उनसे परामर्श लेना पड़ता है। लोकसेवक अपने वृहत् प्रशासकीय ज्ञान और दीर्घकालीन अनुभव के कारण प्रशासन का तकनीकी पक्ष और उनकी बारीकियाँ मन्त्रियों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं ताकि वे (मन्त्री) अपने निर्णय करने में यथासम्भव कोई भूल न कर पायें। चूँकि मन्त्रिगण प्रशासनिक मामलों में इतना अनुभव नहीं रखते; अतः उन्हें स्वभावतः दक्ष एवं विशेषज्ञ लोकसेवकों के प्रभाव में रहना पड़ता है।

(2) मन्त्रियों की यह विशेष प्रवृत्ति होती है कि वे प्रशासन की किसी बात को प्रयोग पर नहीं छोड़ते। क्योंकि ऐसा करने से उनकी त्रुटियाँ प्रकाश में आती हैं, जिनका न केवल उनके स्वयं के भविष्य पर अपितु उस राजनीतिक दल पर भी जिसके वे सदस्य हैं, विपरीत प्रभाव पडता है। स्वयं और अपने राजनीतिक दल पर दोषारोपण की स्थिति से बचे रहने के लिए  मन्त्रिगण प्रायः प्रत्येक प्रशासनसम्बन्धी कार्य लोकसेवा के विशेषज्ञों से परामर्श लेकर करना ही अधिक अच्छा समझते हैं।

(3) मन्त्रियों के समक्ष होने वाली अनेक प्रशासनिक समस्याएँ सर्वथा नवीन न होकर पूर्ववर्ती होती हैं। अतः उनके सम्बन्ध में आगे की योजना बनाने के लिए यह जान लेना जरूरी होता है कि उन समस्याओं के सम्बन्ध में पहले क्या-क्या किया जा चुका है और उसका क्या परिणाम हुआ? यह आवश्यक जानकारी सही रूप में लोकसेवक ही मन्त्रियों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। ऐसे मामलों में मन्त्रियों को प्रायः लोकसेवकों के परामर्श का पूर्ण आदर करना पड़ता है।

क्या मन्त्री लोकसेवकों के हाथों की कठपुतली होते हैं ?

वैधानिक रूप से लोकसेवक यद्यपि मन्त्रियों के अधीनस्थ होते हैं और उन्हें मंत्रियों द्वारा निर्धारित नीति को क्रियान्वित करने में अपनी शक्ति लगानी पड़ती है तथापि व्यावहारिक रूप में वे मन्त्रियों के क्रिया-कलापों पर अपनी पर्याप्त छाप छोड़ते हैं। किन्तु यह मानना कि मन्त्री लोकसेवकों के हाथ की कठपुतली मात्र हैं, उचित नहीं हैं। मन्त्रियों को लोकसेवकों के हाथों का खिलौना मात्र समझने वाले यह त्रुटिपूर्ण धारणा लेकर चलते हैं कि मन्त्री निरे काठ के उल्लू होते हैं अथवा अपने कार्य से वे पूर्णत: अनभिज्ञ होते हैं। लोकसेवक मन्त्रियों की कुशाग्र बुद्धि के प्रति सदैव चौकन्ने रहते हैं। वस्तुतः मन्त्रियों में इतना अनुभव होता है कि वे लोकसेवकों द्वारा दिये गये परामर्श का औचित्य-अनौचित्य देख सकें और निर्णय कर सकें कि अमुक परिस्थिति में क्या करना अधिक हितकर होगा। लॉस्की के कथनानुसार-“मन्त्रिपद के अधिकारी का पहला गुण सामान्य विवेक है, दूसरा मनुष्य को परखने की कला है, और फिर उसके लिए यह जानना भी आवश्यक है कि आज्ञाएँ कैसे दी जाती हैं और कैसे यह देखा जाता है कि उनका पालन हो रहा है।”

मन्त्रियों को लोकसेवकों के हाथों में कठपुतली मानने की भ्रामक विचारधारा का एक दूसरा आधार यह है कि इस विचारधारा के समर्थक प्रशासन को संगीत या नृत्य जैसी एक कला समझते हैं, जिसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए कलाकार को विधिवत् प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक है। किन्तु प्रशासन एक ऐसी कला नहीं है जिसके लिए सतत् अभ्यास की आवश्यकता हो । कुशाग्र बुद्धिवाला और दैनिक सामान्य प्रशासन की समस्याओं को समझने की योग्यता रखने वाला कोई भी व्यक्ति मन्त्रिपद सम्भाल सकता है और सावधानी तथा विवेक से कार्य करते हुए प्रशासन चला सकता है।

मन्त्रियों को लोकसेवा के सदस्यों के हाथों में खिलौना मानने वालों के इस विचार का तीसरा भ्रामक आधार यह है कि वे सम्भवत: सभी मन्त्रियों को प्रशासनिक नौसिखिया और सभी लोकसेवकों को प्रशासनिक विशेषज्ञ मानकर चलते हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि न तो सभी नौसिखिए होते हैं और न सभी लोकसेवक विशेषज्ञ।

शक्तिशाली एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व वाले मन्त्री लगभग सभी प्रशासनिक समस्याओं को अपने सामान्य विवेक से समझ लेते हैं और उनके समाधान के लिए लोकसेवकों पर आश्रित नहीं रहते अपितु अवसरानुकूल निर्णय करके लोकसेवकों को उसे (निर्णय को) लागू करने का आदेश दे देते हैं। वे इस बात के प्रति पूर्ण सजग रहते हैं कि लोकसेवक कोई गलती न कर बैठें और लोकसेवक स्वयं इस भय से आशंकित रहते हैं कि कहीं उनसे असावधानी न हो जाय । वे ऐसे मन्त्रियों के निर्णय के मुखापेक्षी रहते हैं।

कुछ मन्त्री यद्यपि शक्तिशाली व्यक्तित्व के धनी नहीं होते, किन्तु अपनी लोकप्रियता के बल पर लोकसेवकों पर हावी रहते हैं। उन्हें लोकसेवकों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली प्रशासकीय बारीकियों की परवाह नहीं होती। वे तो प्रत्येक निर्णय और नीति को जनता की पसन्द की तराजू में तोलते हैं। लोकसेवकों के प्रत्येक परामर्श पर वे उसकी लोक प्रियता की दृष्टि से विचार करते हैं।

कुछ मन्त्री न तो प्रतिभासम्पन्न ही होते हैं और न लोकप्रिय ही। वे तो भाग्य के भरोसे चलने वाले होते हैं। उन्हें अपने प्रभाव और व्यक्तित्व की नहीं, प्रत्युत् अपने पद की चिन्ता सदैव बनी रहती है। वे प्रायः स्व-निर्णय की अपेक्षा लोकसेवक-विशेषज्ञों के परामर्श पर अधिक आश्रित रहते हैं।

उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि मन्त्रियों के क्रिया-कलापों पर लोकसेवकों का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है और लोकसेवकों का सहयोग प्रशासन यन्त्र को सुगमतापूर्वक चलाने के लिए वांछनीय भी है। परन्तु मन्त्रिगण की स्थिति लोकसेवकों के हाथों की कठपुतली जैसी नहीं है। नीति के निर्माता मन्त्री ही हैं और लोकसेवकों को व्यवहार में उनकी इच्छा का पालन करना पड़ता है।

मन्त्री और लोकसेवक में सम्बन्ध लार्ड मिलन के अनुसार-“प्रायः नियुक्त होते समय मन्त्री विभागीय कार्य संचालन के विषय में कुछ नहीं जानते। उनके पास नीति होती है, अपने विचार होते हैं, लेकिन जब उनका संसर्ग उन व्यावहारिक कठिनाइयों, नये संकटों, विस्तृत संचित ज्ञान तथा अनुभव से होता है | जो स्थायी अधिकारी विषय के बारे में रखते हैं, तब उन विचारों में बहुत परिवर्तन हो जाता है, वस्तुतः उच्च श्रेणी के प्रशासनिक अधिकारियों का मुख्य कर्तव्य राजनीतिज्ञों की अस्पष्ट आकांक्षाओं तथा उनके धुंधले विचारों को मूर्तरूप देना है। जब मन्त्री की नीति को असफल न बनाने की निष्कपट भावना से कर्तव्य का सच्चाई के साथ पालन किया जाता है और कुछ उपयोगी वस्तु का निर्माण करने की सद्भावना रहती है तव प्रशासकीय अधिकारी राज्य की नीति को पर्याप्त प्रभावित करते हैं।”

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Pankaja Singh

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