जैन कालीन राजनीतिक व्यवस्था | Jain political system in Hindi
जैन कालीन राजनीतिक व्यवस्था
बौद्ध राजनीतिक समाज के समान ही जैन राजनीतिक समाज के विषय में जैन साहित्य पर ही निर्भर होना पड़ता है। क्योंकि इस युग की कोई राजनीतिक रचना या विचारक उपलब्ध नहीं है। इस युग की रचनावों मैं सोमदेव सूरी, हेमचंद ही ऐ जेविचारक हैं जिनकी कृति से हमें जैन कालीन भारत के राजनीतिक रूपरेखा संक्षिप्त रूप से उपलब्ध हो पाती है। “सोमदेव सूरी” जैन धर्मावलंबी या उसकी ख्याति उसके प्रसिद्ध ग्रंथ “नीति वाक्यामृत” के फल स्वरुप है। इस ग्रंथ की रचना के काल के समय में पर्याप्त मतभेद है। परंतु यह निश्चित है कि यह ग्रंथ जैन कालीन भारत का प्रतिनिधित्व करती है। “नीति वाक्यामृत” गद्य रचना है। इसके छोटे-छोटे वाक्य सूत्रों में महत्वपूर्ण राजनीतिक विषयों को प्रतिपादित किया गया है। संपूर्ण ग्रंथ का विभाजन “32 भागो” में किया गया है। जिसमें मैत्री, दंड नीति, समुददेश्य, राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में ‘1525’ सूत्र ऐसे हैं, जो राजनीति के विविध पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। आचार्य “हेमचंद” की “आदर्श चरित्र” नामक उनकी रचना राजनीतिक दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इस रचना में “63 जैन संतो” की राज शास्त्री दृष्टिकोण को स्पष्ट किया गया है।
राजनीति में यह पुस्तक पूर्व कालीन विचारों का अनुसरण करता होते हुए भी जैन धर्म के प्रभाव के कारण अपना महत्व रखती है।
कुछ विद्वानों का मत है कि “सोमदेव सूरी” ने कौटिल्य के सूत्र को सरल एवं लघु आकार में वर्णित करने के लिए “नीति वाक्यामृत” की रचना की थी, क्योंकि इस शास्त्र की बहुत सी बातें ‘कौटिल्य’ के ‘अर्थशास्त्र’ से मिलती- जुलती हैकिंतु अर्थशास्त्र का यह रूपांतर नहीं है। यह अवश्य है कि ‘सोमदेव सूरी’ ने अर्थशास्त्र के विषय वस्तु का उपभोग अर्थ शास्त्रों की अपेक्षा अधिक किया है।
“नीति वाक्यामृत” प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों, नीतिशास्त्रोंऔर धर्म शास्त्रों का मिश्रित प्रतिफल है। जैन कालीन भारत के विचारधारा एवं उस युग के राजनीतिक संस्थाओं के संबंध में अध्ययन के लिए इसका अध्ययन आवश्यक है।
राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत–
जैन साहित्य में राज्य की उत्पत्ति के संबंध में किसी विशेष सिद्धांत का वर्णन नहीं है। इसी कारण राज्य की उत्पत्ति के संबंध में देवी सिद्धांत में उनकी आस्था थी। सोमदेव सूरी एवं हेमचंद की रचनाओंमें जगह-जगह ऐसे संकेत मिलते हैं जो राज्य की उत्पत्ति के देवी सिद्धांत में उनके विश्वास को प्रकट करते हैं। सोमदेव की रचनाओं में राजा के देवी गुणों का वर्णन है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में राजा को “परमदेव” कहां है। राजा “ब्रह्मणों” एवं “गुरुओं” के द्वारा भी नमस्कार का पात्र है। फिर साधारण प्राणियों के लिए वह पूज्य तो होगा ही सूरी ने मनु की भांति ही राजा को प्रनीति एवं मर्यादा पुणे माना है। जैन साहित्य में राजा को “त्रिदेव” का साक्षात मूर्ति कहा गया है। राज्य की भूमि पर उसके स्वामित्व के कारण वह “इंद्र” है, राजकोष पर अधिकार होने के कारण वह “लक्ष्मीपति” (विष्णु), है। शत्रुओं का नाश करने के कारण वह “त्रिनेत्र धारी शंकर” है, ऐसा वर्णन है राजा की नियुक्ति हेतु जैन साहित्य में अनेक साहित्य का वर्णन मिलता है जिसमें प्रमुख है-कर्म सिद्धांत, संपत्ति सिद्धांत, विक्रम सिद्धांत, संस्कार सिद्धांत, चरित्र सिद्धांत एवं शारीरिक पूर्णतया सिद्धांत आदि।
इन सिद्धांतों से यह स्पष्ट होता है कि राज्य पद का अधिकारी वही व्यक्ति होगा जो शत्रुरक्त, उच्च वर्ग, अच्छा आचरण हो और जो पराक्रमी हो तथा जिसमें कोई अंग दोष न हो।
“हेमचंद्र ने राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश डालते हुए बताया”-
- अपराधियों को दंड देना
- कमजोर एवं वृद्धों के प्रति नम्रता पूर्वक व्यवहार
- उदारफरारोपण
- राजा के अधिकारों की रक्षा
- वाह्य आक्रमणों से देश की सुरक्षा
- आंतरिक क्षेत्र में शांति और व्यवस्था
- अंतरजातीय संबंधों में साम, दाम, दंड, भेद आदि
नीति का पालन करना राजा का प्रमुख कर्तव्य है। “सोमदेव सूरी” का मत है कि राजा का सर्वप्रथम कर्तव्य “वर्णाश्रम” धर्म की व्यवस्था है। उसे प्रजा पालक होना चाहिए वृद्ध, बच्चों, ब्राह्मणों, तपस्वी, गर्भवती स्त्रियों आदि की विशेष सुरक्षा करनी चाहिए।उसने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वह हर व्यक्ति राजा कहलाने योग्य नहीं है जो प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता है।
राजा को कार्य संचालक मेंनिपुण होना चाहिए। जैन साहित्य में राजा के कर्तव्य और दिनचर्या का विस्तार से उल्लेख मिलता है जो “मनु” द्वारा बताए गए दिनचर्या से मिलती जुलती है।
“सोमदेव सूरी”–
सोमदेव सूरी का मत है कि राजा के संकल्पों को मंत्रिपरिषद कार्यान्वित करती है। अतः मंत्रियों के सहयोग के बिना राजा कोई काम पूर्णतया से संपन्न नहीं कर सकता अतः राज काज को संपन्न करने के लिए मंत्रियों का होना आवश्यक है। मंत्रियों की संख्या के विषय में सोमदेव सूरी ने कोई स्पष्ट राय नहीं दी है किंतु उसने सुझाव दिया है कि मंत्रियों की संख्या 3 से 7 के बीच होनी चाहिए। मंत्रियों की योगिता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि उन्हें स्वदेशी, शुद्ध आचरण वाला, अध्ययन शील, कर्मठ, व्यवहार कुशल, व्यामिचार रहित, प्रशासनिक, कला में निपुण और अहंकार रहित रहना चाहिए।
जैन साहित्य में मंत्रियों के कर्तव्यों का उल्लेख है उसमें लिखित है मंत्रियों को जरूरी कार्यों को आरंभ करना चाहिए, आरंभ किए गए कार्यों को पूर्ण करना चाहिए, पुण्य किए गए कार्यों को श्रेष्ठता की ओर ले जाना चाहिए।
इस प्रकार मंत्रियों को कार्यारंभ करना तथा उसे विधिवत समाप्त करना अथवा बाधाओं को समाप्त करना चाहिए। कार्यों में विशिष्टता लाने के लिए विपक्षी को सलाह देना मंत्रियों का प्रमुख कार्य था।मंत्रियों को अपने कार्यों को गुप्त रखने के लिए यह शपथ लेनी पड़ती थी इस शपथ को भंग करने वाले को राजा सजा दे सकता था तथा पद मुक्त कर सकता था। राजद्रोही, कर्तव्य मुख्यमंत्री के दंड देने का समर्थन “हेमचंद” ने भी अपनी रचनाओं में किया है। अतः मंत्रियों को अपना कार्य भली-भांति समझ कर बिना विलंब किए जनता के हित में करना पड़ता है।
“दूत प्रणाली”–
सोमदेव ने राजा को दूतों की नियुक्ति में विशेष सावधानी बरतने की सलाह दी है। जैन ने साहित्य में इसको सिर्फ ‘चर’ ना मानकर बल्कि उन्हें मंत्रियों की श्रेणी में परिणत कर दिया गया है उसके अनुसार इस राज्य का वाह्य मंत्री होता है। (विदेशी मामलों में) उसमें कुछ विशेष योग्यताएं होनी चाहिए-स्वामी, नम्रता, सुचिता, बुद्धिमत्ता, वाक्ययुक्ता, प्रतिभा, कुलीनता, व्यस्नरहित। सोमदेव ने दूतों के पांच भेद बताए हैं-संदेशवाहक
(1) जिस दूध को अपने स्वामी की ओर से संधि अथवा विग्रह करने का अधिकार प्राप्त होता है उसे विशिष्टता कहते हैं।
(2) परिमितार्थ तथा शासनहट दूत के संबंध में सोमदेव ने कहा है कि जो राजा के शत्रुओं का पता लगाता है वह “शासनहट” कहलाता है।
दूतों के कर्तव्यों के विषय में जैन ग्रंथों में लिखा है कि “राज्य में जो लोग योग्य हैं, उन्हें अपने स्वामी के पक्ष करना, प्रजा में स्वामी के प्रति संतोष उत्पन्न करना, शत्रुओं के रानी, पुत्र, पुत्रियों, दास-दसियों और प्रजा में भेद उत्पन्न करना,शत्रु के मंत्रियों से संपर्क करके अपने स्वामी की हित साधना करना, शत्रु के चरों का पता लगाना, युद्ध के समय शत्रु की सेना व शक्ति का भेदन करना, उनके सैन्य बल और मित्रों के विषय में ज्ञान प्राप्त करना, अभीष्ट योग्य पुरुषों को राजा के पक्ष में संगठित करना, यह सभी दूत गर्म है। हेमचंद ने बताया कि दूत को बिना सूचना दिए दूसरे राज्य में प्रवेश नहीं करना चाहिए, कमजोर और छोटे राज्यों में आक्रमण करते समय इस नियम का उल्लंघन किया जा सकता है। को अपने स्वामी के स्वाभिमान के रक्षा के लिए अपमानजनक शब्दों का विरोध करना चाहिए।
“चर व्यवस्था”–
इस व्यवस्था में भले बुरे सभी प्रकार के लोग होते हैं इसके व्यवहारों के प्रतिपादन की सूचना राजा को पहुंचाने हेतु चरों को अपने पास रखना चाहिए। चेयर व्यवस्था की अवस्था तथा उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए “नीतिवाक्यामृत” मे लिखा है- “अपने राज्य मंडल में जो कार्य पार हो रहा है अथवा जो होने वाला है उसका ऑल ओपन करने के लिए ‘चर’ ही राजा के ‘चक्षु’होते हैं।”
गुप्तचरों को गंभीर, आलस्य त्यागी, सत्यप्रिय, शीघ्र निर्णय की क्षमता से युक्त होना चाहिए, उन्हें अपनी जीविका के लिए आवश्यक कठिनाई न हो, ‘चरों’ को प्रत्येक राज्य की सूचना राजा को शीघ्र देनी चाहिए।
“दंड अथवा न्याय व्यवस्था”–
ग्रंथों के अंतर्गत न्याय एवं दंड व्यवस्था का उल्लेख हुआ है। बौद्ध साहित्य के उल्लेख से पता चलता है कि न्याय प्रणाली अपनी पूर्णतया पहुंच चुकी है। बहुत कम मुकदमेंन्यायालय में पहुंच पाते थे अधिकांश विवाद सामाजिक स्तर पर ही निपटा लिए जाते थे पूर्णविराम न्याय में पक्षपात का कोई अस्थान नहीं था, इस युग में कठोर न्याय व्यवस्था थी, किंतु दंड अपराध के अनुकूल दिया जाता था, दंड में अंग भंग की सजा यहां तक कि अपराधी के हाथ पैर भी काट लिए जाते थे, अपराधी को हाथी से कुचल वादिया जाता था, कोडें से मारना तथा विष देने की प्रथा प्रचलित थी। “हेमचंद” ने न्यायालय को नागरिकों की रक्षा हेतु बहुत विस्तृत अधिकार बताए हैं, उनका कहना था कि नागरिकों की रक्षा हेतु दंड व्यवस्था कठोर होनी चाहिए किंतु वृद्धों, बच्चों, गर्भवती स्त्रियों, तपस्या को दंड से छूट देने का प्रावधान था, अतः हम कह सकते हैं कि ‘हेमचंद’ दंड विधान को कम महत्वपूर्ण बनाने के पक्षपाती थे।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि बौद्ध युग की राजतंत्रात्मक व्यवस्था उनकी परिपक्व को नहीं थी जितनी पूर्वी भारत में हिंदू राज्यों में देखने को “वैदिक युग” मैं मिला था। राजा गणपरिषदों, मंत्री परिषद, तथा धर्म एवं नैतिकता से घिरा हुआ था,धर्म क्षेत्र में राजा का प्रभाव कम हो गया था, सामाजिक क्षेत्रों में “गण परिषद” ज्यादा प्रभावशाली थी, उसके अधिकार समिति हो चुके थे। सत्य तो यह है कि बौद्ध युग गणतंत्रात्मक व्यवस्था का युग रहा परंतु साथ ही साथ इसमें “राजतंत्रात्मक” व्यवस्था का युग रहा परंतु साथ ही साथ ही इसमें राजतंत्रात्मक व्यवस्था भी फलीभूत हुई थी।
राजनीति शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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