बौद्ध युग में राजतंत्र का स्वरूप | The form of monarchy in the Buddhist era in Hindi

बौद्ध युग में राजतंत्र का स्वरूप | The form of monarchy in the Buddhist era in Hindi

बौद्ध युग में राजतंत्र का स्वरूप

महाभारत काल में ‘हिंदू सभ्यता’ को राजनीतिक विकास अपने धर्मोत्कर्ष पर था किंतु महाभारत के युद्ध के बाद से लेकर महात्मा बुध तक का काल भारतीय इतिहास में ‘अंधकार’ युग के नाम से जाना जाता है इस काल के शासन व्यवस्था के संबंध में जानकारी के लिए किसी विशेष ग्रंथ की प्राप्ति नहीं होती है। छठी शताब्दी ई. के पूर्व में महावीर स्वामी एवं महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने बौद्ध एवं जैन साहित्यों की रचना की बौद्ध एवं जैन कालीन भारत की राजनीतिक दशा जानने के लिए हमें राजनीतिक साथियों एवं सामग्रियों के अभाव का सामना करना पड़ता है। पौधे धार्मिक पुस्तक ‘जातक’ पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ एवं विदेशी यात्रियों के वर्णनोंके द्वारा उस युग के शासन व्यवस्था पर प्रकाश डाला जा सकता है। समाज पर जातकों एवं पाणिनी अष्टाध्यायका गहरा प्रभाव पड़ा था महाभारत की तरह ही बहुत ही युग में भी राजतंत्र एवं गणतंत्र दोनों ही प्रकार की शासन का उल्लेख मिलता है।

  • बौद्ध ग्रंथों में वर्णित राजा या राजपद-

बहुत ही युग में राजा की गरिमा एवं शक्तियांवैदिक कालीन राजा एवं महाकाव्य कालीन राजाओं की तुलना में काफी घट गया था। वह हिंदू कालीन राजा की शांति सर्वशक्तिमान संप्रभु नहीं था।जातक कथाओं से यह जानकारी प्राप्त होती है कि राजा का कार्य केवल दुष्टों का दमन करना राज्यों में शांति व्यवस्था स्थापित करना तथा वाक्य शक्ति से राज्य की रक्षा करना था। बौद्ध जातक में वर्णित है कि राजा को अपने अधिकारों से बाहर जाने का छूट नहीं है। जातक से आदेश देते हैं कि “अब से उस व्यक्ति को दंड दिया करोगी जो दंड देने योग्य है और उसे पुरस्कृत किया करेंगे जो पुरस्कार देने योग्य है।” अतः इस वर्णन से स्पष्ट है कि बौद्ध है युग में राज्य के अधिकार सीमित हो गए थे। जातकों में वर्णित उपबंधों से स्पष्ट है कि वाह्य एवं आंतरिक शत्रुओं से राज्य की रक्षा करना, कर वसूल करना, दंड देना आदि था। वह मनुष्यों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था क्योंकि बौद्ध युग में राजा दैवी वरदान नहीं था। बल्कि वाह मनुष्य में से चुना हुआ एक योग्य व्यक्ति था। एक जातक कथा से राजा की स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। जब एक बार एक रानी ने एक राजा से अमर्यादित कार्यों की मांग की तो राजा ने कहा हे रानी राशि की संपूर्ण अधिकारियों पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। मैं उनका स्वामी नहीं हूं “जो शासकीय नियमों का उल्लंघन कर तुम्हें राज्य के संपूर्ण निवासियों को स्वामित्व प्रदान करने में असमर्थ हूं”उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है कि राजा के पास सिर्फ सीमित तथा नकारात्मक शक्तियां ही थी बौद्ध साहित्य एवं जातकों से यह जानकारी प्राप्त होता है कि राजा का आचरण अब मर्यादित एवं नैतिक नहीं रह गया है। क्योंकि जातकों में निर्दयी, क्रूर, अत्याचारी, भ्रष्ट, राजाओं से संबंधित अनेक कथाएं मिलती है। “केरिचशील जातक” मैं एक राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख हुआ है जो निर्दयी अत्याचारी तथा हिंसक प्रवृत्ति का था। तथा प्रजा पर अनेकों अत्याचार करता था। अतः प्रजा में ऐसी राजा के प्रति विद्रोह करके उसे शासन आयुक्त किया अर्थात शासन से हटा दिया।

“रवाडजल जातक” में इस प्रकार के एक और अत्याचारी राजा का उल्लेख हुआ है। पुष्पवती नगरी का राजा अपने ब्राम्हण पुरोहित के कहने पर स्वर्ग जाने की इच्छा से अपनी पत्नी व बच्चों की हत्या करने का निश्चय किया और जब जनता को इसका पता चल गया तो उन्होंने राजा की हत्या कर दी और उसके स्थान पर न्याय प्रिय राजा की नियुक्ति की। जातकों में अत्याचारी राजाओं के अलावा ऐसे राजाओं का उल्लेख किया है जो न्यायी, दयालु, दानी और प्रजा पालक है।

  • उत्तराधिकार के नियम

बौद्ध साहित्य की परंपरा प्रचलित थी कि उसे राजा के जेष्ठ पुत्र को बनाया जाता था किंतु उसे जनता के द्वारा पसंद किया जाना भी आवश्यक था। जनता उसी राजा को स्वीकार करती थी जो प्रजा पालक योग्य स्वरूप और चरित्रवान होता था विष्णु भगवान के समान।

बौद्ध ग्रंथों में अंधे, विकलांग और कोढीं व्यक्ति को राजा बनाया जाना वर्जित था राजा की कुपुत्र होने पर उसका भाई, दामाद या विधवा रानी को सिंहासन युक्त किया जाता था। उदय जातक के अनुसार, राजा उदय की मृत्यु के पश्चात उस की रानी उदया भट्टा ने शासन किया। अमात्यों और जनता ने भी उसका सहयोग किया। पौधे में कहीं-कहीं राजा के चुनाव की पद्धति भी प्रचलित थी। जब राजवंश में ऐसी योग्य व्यक्ति नहीं मिलते थे जो राजा के गुणों से युक्त हो तो अमात्य जन पुष्परथ निकालते थे। उस पर पांच चिन्ह हाथी, घोड़े, छात्र, कामद और कुंभ अंकित होता था। रथ चलते-चलते जिस व्यक्ति के पास रुक जाता था वह राजा बनाया जाता था। हरिमुत्त नामक जातक ने लिखा है “बनारस का राजा संतान हिना था। उसकी मृत्यु के पश्चात अमात्यों के सम्मुख यह समस्या उत्पन्न हुई कि वह राजा किसको बनाए तो अमात्यों ने पुष्परथ पद्धति का आश्रय लिया और बोधी दत्त को राजा बनाया।”बौद्ध युग में ऐसे राजकुमारों का भी उल्लेख मिलता है कि जिन्होंने अपने पिता की हत्या करके सिंहासन को प्राप्त किया। मगध में अज्ञात शत्रु अपने पिता को मारकर सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था। सकिच जातक ने लिखा है। ‘जब ब्रह्मदत्त तक्षशिला में विद्या

अध्ययन करने गया उसने सोचा कि मेरे पिता की आयु बहुत है यदि मैं उनकी मृत्यु के पश्चात राजा बनने की कोशिश करूंगा तो मैं बूढ़ा हो जाऊंगा अतः मैं अपने पिता की हत्या कर दूंगा क्योंकि बूढ़ा होकर राजा बनना बेकार है। और उसने वही किया साथ ही बौद्ध ग्रंथों में अन्य घटनाएं भी मिलती हैं कि निरंकुश राजाओं की जनता ने जनप्रतिनिधियों तथा अमात्यों ने विद्रोह करके उसे सिंहासन से हटा दिया था राजा की हत्या कर दी।

  • राजा की योग्यताएं

जातक ग्रंथों में राजा के 10 गुणों का उल्लेख मिलता है यथा, दानशीलता, तप, त्याग, अर्चना, विनम्रता, क्रूरता, अहिंसा, शांति, अवरोधन, पूसपदम जातक के अनुसार राजा पदम प्रतिदिन सात लाख स्वर्ण मुद्राओंको दान करता था। इससे पता चलता है कि उस युग में दानशीलता का विशेष महत्व था।

बौद्धि युग में राजा अत्यंत ठाट- बाट से जीवन व्यतीत करते थे उनके महल में आमोद-सामोद की विशेष व्यवस्था रहती थी। ‘सूरभि- जातक’ के अनुसार,राजा कई विवाह कर सकता था परंतु रानियों का एक पतिव्रता होना आवश्यक था। सुरभि जातक में यह कहा है कि बनारस का राजा अपनी कन्या का विवाह ऐसे राजा के साथ करना चाहता था जो एक पत्नीव्रता हो मिथिला के राजकुमार सुरभि के साथ राजकुमारी सुमेधा के विवाह की बातचीत चल रही थी। राजकुमारों ने जब सुना कि सुमेधा का विवाह उसी से होगा जो पतिव्रता हो तो वह तैयार नहीं हुए राजकुमार सुरुचि ने कहा मिथिला नगरी का विकास सात योजन है और राज्य का विस्तार तीन सौ योजन तक है इतनी अधिक भूमि के स्वामी को ‘रानी को’ रानिवास में कम से कम 16 रानी होनी चाहिए इससे पता चलता है कि राजा कई विवाह कर सकता है।

  • राजा और मैत्री का संबंध-

राजा का प्रमुख दायित्व राज्य की सीमा की रक्षा करना, राज्य में शांति व्यवस्था करना था। अपने इस दायित्वों के निर्वहन के लिए राजा मंत्री परिषद का निर्माण करता था। जातक साहित्य के कथाओं के अनुसार अमात्य राजाओं को शासक कार्य में परामर्श देते थे। ये अमात्य सभी विधाओं में निपुण हुआ करते थे।राजा की अनुपस्थिति में एवं राजा के निर्देशन में सौंपे गए शासन कार्यों का संचालन करते थे। राजा पुरोहित वर्ग को सामान्यतः वंशानुगत आधार पर चलता था। बढ़ता पुरोहित का वंश एक ही निहित होता है था। पुरोहित चुनाव के समय होने वाले विवाहों का बौद्ध साहित्य में मत्र तत्र वर्णन मिलता है। राजा पुरोहित का बहुत ही सम्मान करता था परंतु कुछ अपवाद भी मिलता है। बौद्ध साहित्य मेरे का वर्णन मिलता है कि राजा पुरोहितों से यह अपेक्षा करती थी कि राजा के पद भ्रष्ट तथा दिग्भ्रमित होने पर वह उसे सदमार्ग पर ले जाएगा।

भ्रष्ट राजाओं को पुरोहित के द्वारा डांटने फटकार ने का वर्णन भी पौधे साहित्य की कथाओं में मिलता है पुरोहित के बाद सेनापति का पद महत्वपूर्ण था जातकों में शाइनी व्यवस्था का विस्तार से वर्णन लिखा है। सेनापति को अमात्यों मैं प्रमुख कहा गया है उसे राज व्यवस्था तथा रक्षा का प्रमुख कार्य सौंपा गया है। सेना में विदेशी सैनिकों की भर्ती वर्जित था। पैतृक सैनिकों को विशेष महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। ‘धन का जातक’ में उल्लेख है कि कुरुक्षेत्र के राजा धनंजय पुराने सैनिकों की अपेक्षा करके जब नए सैनिक को सेना में भर्ती करना प्रारंभ किया तो पुराने सैनिकों के अभाव सीमा प्रांत पर राजा को युद्ध में हार खानी पड़ी थी पूर्णविराम उसे अपने कार्यों का दुख हुआ उसने पुनः पुराने सैनिकों की सहायता ली जिसके फलस्वरूप उसे विजयश्री मिली। न्याय मंत्री की नियुक्ति मेंराजा को न्याय मंत्री में विशेष सावधानी बरतने की सलाह जातकों में दिया गया है। न्याय मंत्री का राजा को न्याय धर्म एवं कानून के क्षेत्र में परामर्श देना था। न्यायाधीश न्याय का कार्य करते थे।

बौद्ध ग्रंथों में इस बात का उल्लेख हुआ है कि बहुत कम मुकदमे न्यायालय में पहुंचते थे अधिकांश मामले समाज के सम्मानित व्यक्तियों द्वारा सुलझा दिए जाते थे पूर्णविराम मुकदमे कम होने से पक्षपात का कोई स्थान नहीं था। कठोर दंड व्यवस्था थी। राजा के द्वारा अंग भंग की सजा देना अनुचित नहीं माना जाता था। अपराधियों के हाथ पैर ही काट दिए जाते थे अपराधियों को हाथी से कुचल वादिया जाता था कोड़े भी लगवाए जाते थे। जातकों में राजा को सावधान किया गया था कि दंड की कठोरता निरंकुशता के लिए नहीं बल्कि अपराध को कम करने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए।

  • प्रशासनिक व्यवस्था

बौद्ध साहित्य में राजा को राज्य और राजधानी की सुरक्षा के लिए विशेष ध्यान देने की सलाह दी गई है। राज्य की 3 इकाइयां थी-

  • राजधानी
  • जनपद
  • ग्राम

ग्राम का शासक ‘ग्राम भोजक’ कहलाता था। वह गांव के भूमि, संपत्ति संबंधित, बंटवारे के झगड़े, अकाल के समय जनता की सहायता आदि का कार्य सौंपा गया था। वह गांव में मादक द्रव्यों के उत्पादन व विक्रय पर भी नियंत्रण रखता था। जनपदों का प्रधान ‘नगरपाल’ कहलाता था। नगरों में व्यापारिक संस्था होने के कारण भ्रष्टाचार के अवसर अधिक थे इसलिए “सुलया जातक” मैं यह उल्लेख है कि “एक वैश्या ने अपने प्रेमी को छुड़ाने के लिए 1000 स्वर्ण मुद्राएं नगरपाल को रिश्वत दी थी।” नगर पाल नगर में नव आगंतुकों की निगरानी, नगर व्यवस्था, बाजार हटा दी व्यापारियों को उपलब्ध कराना, सराय, रंगशाला इत्यादि का निर्माण करना आदि अनेक कार्यों का दायित्व नगरपाल पर था।

उपर्युक्त विवरण एवं विवेचना से यह स्पष्ट है कि बौद्ध ही युग में राज्यात्मकव्यवस्था जीवित तो अवश्य थी परंतु उसमें वह गरिमा परिपक्वता नहीं थी जो प्राचीन हिंदू राज्यों में देखने को मिलती थी। राजा का धर्म पर से प्रभाव बहुत कम हो चुका था। अधिकार समिति हो गए थे कि गांव की इस युग में गणतंत्रामकशासन पद्धति का प्रचार प्रभाव हो चुका था जिसमें राजतंत्र की गरिमा को कम कर दिया था।

  • बौद्ध कालीन गणराज्य

प्राचीन भारत में गण राज्यों का वर्णन पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ तथा बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित गण राज्यों में शाक्य और लिछवी प्रमुख रूप से है। जातक कथा लिपिठकों मैं दी गई है घटनाओं एवं कथाओं के आधार पर गणतंत्रीय देव आस्था प्रकट होती है। गणराज्य में एक संस्थागार होता था जिसे संभवतःश्रेष्ठ वर्ग के लोग एकत्रित होते थे। संस्था कार में बैठकर विविध विषयों पर विचार करते थे। बौद्ध साहित्य में वर्णन है ‘जब कौशल राजा ने एक शाक्य  कन्या से विवाह का प्रस्ताव रखा तब उस पर शाक्यों ने सम्मिलित रूप से विचार किया’।अमबद्ध नामक एक तरुण ब्राह्मण ने लिखा है कि जब वह कपिलवस्तु आता है तब वह छोटे बड़े शाक्यों को बैठा हुआ पाता है। शाक्य लोग विभिन्न प्रश्नों पर विचार कर रहे होते हैं और वह मिलजुल कर बुद्ध का स्वागत करते हैं। इस वर्णन से स्पष्ट है कि शाक्य संस्थागार के द्वारा प्रमुख शासन कार्य संपन्न किया जाता था। बुद्ध के भाई ‘देवदत्त’ एक कथा में इस बात पर दुख प्रकट करता है कि राजकुलों के संस्थागार द्वारा उसको त्याग दिया गया है इस वर्णन से पता चलता है कि संस्थागार में कुल प्रमुखों को स्थान प्राप्त होता था। अंगुन्तर निकाय में कुलश्रेष्ठों को सम्मानित करने का वर्णन मिलता है। जो इस बात की पुष्टि करता है कि शाक्यों के 250 राजकुमारों को बुद्ध के साथ जाने का वर्णन जातकों में मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि राज्य में अनेक कुल होते थे और संभवतः इन्हीं के सदस्य संस्थागार मैं उपस्थित रहते थे और अनेकों कार्यवाहियों कि बौद्ध कथाओं में बुद्ध के पिता सुद्रोधन को राजा के रूप में चित्रित किया गया है। जबकि दूसरे स्थान पर उसे एक साधारण नागरिक के रूप में दर्शाया गया है। इससे लगता है कि शाक्य लोग कुछ समय के लिए अपने में से किसी को प्रमुख शासक निर्वाचित करते रहे होंगे और शेष सदस्य (कुलाधिपति) ऊपर आजा के रूप में शासन काल में भाग लेते थे। यह गाने राज एक प्रकार का कुलीनतंत्र था। जातकों के अनुसार राजा और इतने ही उप राजा सेनापति एवं भंडारिक थे। श्री केसी जायसवाल ने इसका यह अर्थ निकाला कि गणराज्य 7707 प्रमुख परिवार थे। एक राजा चुना जाता था उनके कुलों के अधीन एक भाग का शासन था इसी कारण उन्हें राजा कहा जाता था। ‘महापरिनिबाम्ब’शुभ सूप्त मैं बुद्धू गोस की टीका में एक राजा सेनापति भंडारी आदि के होने का उल्लेख मिला है।

“बौद्ध साहित्य” महावस्तु के अनुसार, वैशाली नगरी में भी गणतंत्रीय शासन का अस्तित्व था। जिसके तीन स्कंध पार्ट थे। वैशालीयों की संख्या 16 लाख 70 हजार भी ‘ललित विस्तार’ नामक ग्रंथ में भी इसका वर्णन होना एक दूसरे प्रकार से वर्णित है। इसमें कहा गया है कि लोगों में अच्छा मध्य बुद्ध और ज्येष्ठ कम नहीं है। प्रत्येक दूसरे से कहता है ‘मैं राजा हूं’ कोई किसी का अनुयायी नहीं है। ‘इस वर्णन से स्पष्ट है कि वैशाली के शासन में भी कई शासकों का अस्तित्व था’ “अद्दकथा” नामक ग्रंथ में वर्णित है जब श्रेष्ठजन संस्थागार मैं आते थे तब घंटा बजता था जहां राजनीतिक प्रश्नों पर विचार विमर्श होता था। “अद्दकथा” में वर्णित न्याय पद्धति से श्रेष्ठजन की स्थिति का आकलन कर सकते हैं उसमें चार प्रकार के न्यायालयों का वर्णन है-

  • विनिच्चय (महामात्तय)
  • बोधरी
  • शुक्लधर
  • अष्टकुतल

इनमें से क्रमशः प्रत्येक के द्वारा दिए गए निर्णय पर आगे भी न्यायालय में पुनः विचार होता था। एक ऐसी पुस्तिका का कुछ अंश उपलब्ध है जिस पर अंकित है कि न्याय एवं दंड का कार्य राजा एवं उपराजा के द्वारा दिए गए आदेशों के आधार पर सेनापति न्यायधीश एवं गांव के मुखिया द्वारा संपन्न होता था। इस पुस्तक के आधार पर यह निश्चय नहीं हो पाया है कि इसके निर्णयों पर पुनः विचार होता था या नहीं।कुछ अन्य निर्णय के आधार पर ऐसा पता चलता है कि न्यायों के द्वारा पुनः विचार किए जाने की प्रथा के कारण दंड देना इतना सरल नहीं था क्योंकि ऊपर के न्यायालय उनके दंड पर पुनः विचार कर सकता था। बुद्ध के समय “विदेह एवं लिच्छवियों के एक संयुक्त संघ का भी उल्लेख है। जिसे “संघवडिज” कहा गया है।

के.सी. जायसवाल के अनुसार, संयुक्त संघों में भी कुलपतियों का “संस्थागार” ने महत्वपूर्ण स्थान होता था जो राजनीतिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे।” जैन ग्रंथ “कल्पसूत्र” के अनुसार लिच्छवियों का मल्लों के साथ संयुक्त संघ था। इस संघ में 18 व्यक्तियों का एक समूह होता था। जिसमें “9 लिच्छवी” तथा “9 मल्ल” सदस्य थे। इस संयुक्त संघ की कौशल राज्य के साथ मित्रता और मगध के साथ शत्रुता थी इसके अतिरिक्त गीत लेखकों के सिकंदर के संपर्क में आने वाले कुछ गणतंत्रियों का उल्लेख किया है। “मेगस्थनीज” केवर्णन के आधार पर हम गणतंत्र के बारे में कुछ जानने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। चंद्रगुप्त के शासन काल में जो संघ पाए गए उनकी जडें, अस्तित्व, बौद्ध एवं जैन कालीन भारत में पाए गए।

इन संघों में जो प्रतिनिधि समाये थे उनकी कार्य पद्धती का अनुमान “बौद्ध संघ” की कार्य पद्धति से लगाया जा सकता है इसका कारण है कि बौद्ध ने अपने धार्मिक संघों की रचना राजनीतिक संघों की पद्धति पर डालने का प्रयत्न किया होगा। “महापरि निवर्णाम” सूत्र में वर्णित है कि मगध के राजा ने ब्रज्जसंघ पर आक्रमण करने की इच्छा की तो उसने अपने मंत्री को “भगवान बुद्ध” का मत जानने के लिए भेजा “जन्मवती” ने बुद्ध से यह प्रश्न किया तो बुद्ध ने मंत्री आनंद को संबोधित करते हुए कहा कि क्या तुमने सुना है कि वज्जि लोग पूर्णतया (जनसभा) का बहुधा आयोजन करते हैं।

आनंद ने सकारात्मक उत्तर दिया तब बुद्ध ने मगध के मंत्री को सुनाते हुए वज्जियोंकी सरलता के कारण बताएं जब तक लोग पूर्ण सभा का आयोजन करते रहेंगे तब तक वह सहयोग पूर्वक मिलते रहेंगे कार्य एकाग्र मन से पूर्ण करते रहेंगे। जब तक ऐसी विधियों को प्रस्थापित करेंगे जो सभी को मान्य हो तथा  जो सभी को मानने हो तथा उन्हें भंग नहीं करेंगे जो अभी तक स्थापित थी तथा वज्जियों की प्राचीन काल से स्थापित संस्थाओं के अनुसार कार्य करेंगे। जब तक वज्जि वृद्धों का सम्मान, आदर, पोषण तथा अनेक वचनों के अनुसार चलना अपना कर्तव्य समझेंगे, जब तक स्त्री व कन्या को बलपूर्वक रोका नहीं जाएगा, उनका अपहरण नहीं होगा जब तक वज्जि चैत्यों (धर्म स्थान)का सम्मान और आदर करते रहेंगे तब तक यह आशा करनी चाहिए कि वज्जियों का पता नहीं होगा और वह निरंतर समृद्ध होते रहेंगे। इस उदाहरण से पता चलता है कि बुद्ध ने सब शर्तों का वर्णन किया है जो किसी को शक्तिशाली बनाए रखती है तथा उनका पतन नहीं होने देती है। जब मगध का मंत्री चला गया तब बुद्ध ने “भिक्षु समिति संघ” की बैठक बुलाई और उन्होंने उसी शब्दों में बौद्ध समूहों कीसमृद्धि और उनको पतन से बचाने की इच्छा की। इसका अर्थ यह है कि बुद्ध राजनीतिक एवं धार्मिक संघों को समान मानते थे इससे इतिहासकारों का विश्वास दृढ़ हो हुआ कि धार्मिक संघों में जो कार्य पद्धति वहीं राजकीय संघों में थी बौद्ध साहित्य में ऐसी कई घटनाओं का वर्णन यह सिद्ध करता है कि वह दोनों संस्थाएं समान थी।

“मल्ल सरस्वी” शाखा में वर्णन है कि एक कौशल राजा शाक्य राजधानी को घेर लिया है। कौशल ने एक दूत भेजा कि वह शाक्यों में विद्रोह नहीं रखते उनकी पराजय निश्चित है अतः वह नगर के द्वार खोल दें शाक्यों ने सम्मिलित होकर यह विचार निश्चित किया कि वह नगर के द्वारा खोलें अथवा नहीं सभा में कुछ ने द्वार खोलने का निर्णय किया और कुछ इसके विरोधी थे अतः निर्णय बहुमत का हुआ बहुमत मतदान का विचार बौद्ध संघों की प्रतिक्रिया से भी मिलता है। इसी प्रकार “चीववस्तु” नामक ग्रंथ में सेनापति निवोधन की घटना का वर्णन है लिच्छिवियों के सेनापति की मृत्यु हो गई तो उनके उत्तराधिकार के लिए वैशाली के गणों की सभा हुई। कुछ ने खण्ड ज्येष्ठ पुत्र गोप का नाम प्रस्तावित किया कुछ ने कोधी गोप की तुलना में उनके छोटे पुत्र सिंह का नाम प्रस्तावित किया। अतः गणों की सर्वसम्मति से सिंह को निर्वाचित किया गया इन दोनों घटनाओं से यह स्पष्ट है कि गण परिषद सामान्यतः सर्वसम्मति से निर्णय लेता है विवादित विषय में ही बहुमत एवं मतदान आश्रय लिया जाता था जातकों में भी ऐसा वर्णन है कि राजा एवं शासक गुण परिषदों के द्वारा निर्वाचित होते थे जातक में वर्णित है कि एक नगर में राजा का स्थान रिक्त होने पर मंत्रियों एवं नगर निवासियों ने “छंद” नामक एक राजा को निर्वाचित किया गया। “छंद” शब्द का प्रयोग अतः इससे ऐसा लगता है कि बौद्ध संघ की कार्य पद्धति एवं राज्य कार्य पद्धति पद्धति में समानता थी “जातक”मैं दूसरी कथा में पक्षियों के द्वारा अपने राजा के निर्वाचन की घटना का वर्णन है। पक्षियों में उल्लू को राजा के पक्ष के लिए प्रस्तावित किया इस प्रस्ताव को दोहराया गया किंतु प्रस्ताव के तीसरी बार दोहराये जाने के पूर्व सभा के सदस्यों ने इस प्रस्ताव काविरोध किया तथा मांग की उसे अपने पक्ष के मत में भाषण देने की अनुमति दी जाए और शर्त रखी गई कि वह अपना विरोधी धर्म और आदि के आधार पर करेगा। विरोध करने वाले भाषण के पश्चात विरोध स्वीकृत हो गया और सभा में “हस को राजा चुना”।यद्यपि या पक्षियों से संबोधित परंतु यह गणतंत्र की राजनीतिक पद्धति को प्रतिबिंबित करती है। प्रस्ताव कोतीन बार दोहराया जाना विरोध होने पर उसका स्वीकृत होना विरोध होने पर विरोधी के अपने विचार प्रकट करना व समस्त गणतंत्र परिषद में बौद्ध संघों की कार्य पद्धति में देखने को मिलता है। इस आधार पर इतिहासकारोंने यह निष्कर्ष निकाला कि बौद्ध संघीय कार्य पद्धति तथा राजनीतिक पद्धति समान थी।

भाग्य संघों की कार्य पद्धति के वर्णन से राजनीतिक पद्धति की कल्पना की जा सकती है। यह कार्य पद्धति स्पष्ट भी कार्य पद्धतियों के लिए सुनिश्चित की सभा में बैठने की समुचित व्यवस्था होती थी इस व्यवस्था के लिए अधिकारी नियुक्त होते थे। जिसे “प्रज्ञापत्र” कहां जाता है था। “चल्यवल्गा” मैं बौद्ध संघों के विस्तृत वर्णन आया है। सभा में विचार करने की प्रारंभिक क्रिया का प्रस्ताव (आपला) का नाम दिया गया था जो निर्णय संघ के द्वारा लिया जाता था उसे “प्रतिज्ञा” कहा जाता था। “चल्यवल्गा” में एक उदाहरण है कि बुद्ध के निर्देशन पर सभा में प्रस्तावक ने कहा आदरणीय संघ मेरी बात सुने अपराधी भिक्षु ने प्रथम अपना अपराध स्वीकार किया सभा के द्वारा पूछे जाने पर उसे स्वीकार किया सभा के द्वारा उचित लगे जाने पर भिक्षु (तीन बात) के विरुद्ध (दंड की प्रक्रिया पूरी करें) इस प्रस्ताव को सभा में तीन बार दोहराया गया विरोध न होने पर इसे स्वीकृत कर लिया गया इससे पता चलता है कि सभा में “अतियुक्ति” प्रस्ताव भी रखा जा सकता है। “अतियुक्ति” प्रस्ताव सभा के निर्णय के पश्चात संशोधन करने हेतु रखा जाता था। भिक्षुऔं की सभा में कुछ अल्पमत सदस्यों का होना आवश्यक था यह संख्या 20 थी यदि अल्पमत सभा के निर्णय में अपनी सम्मति नहीं देता था तो वह विचार हम अन्यथा लागू करने योग्य नहीं माना जाता था। सभा में मतदान (इच्छा) अर्थात स्वेच्छा पूर्वक होता थाउन लोगों का मत भी एकत्रित कर लिया जाता था जो सभा में किसी कारण अनुपस्थित होते थे।  “बौद्ध त्रिपटकों” में कहा गया है कि यदि सभा में उपस्थित भिक्षुओं से निर्णय हो जाए और अनुपस्थित सदस्य इसका विरोध ना करें तो वह निर्णय अपूर्ण माना जाएगा। यदि सभा में किसी प्रस्ताव पर सर्वसम्मति रखता हो तो उस पर मतदान नहीं होता  था मतपत्रों को “सलाका” और मतपत्रों को ग्रहण करने वालों को “शलाका ग्राहक” कहां गया है। “चाल्यवल्लक” त्रिपिटक मैं एक वर्णित है जिसमें “सलाका ग्राहक” के गुणों का पता चलता है। वह भिक्षुओं का “सलाका ग्राहक” नियुक्त होगा जिसमें 5 गुण होते हैं।

  • जो पक्षपात पूर्ण आचरण न करें
  • जिसकी वाणी दोष होने न हो
  • जो मूर्ख न हो
  • जो भिरू (डरपोक) न हो
  • जिसमें यह समझना हो कौन मत पक्ष में है और कौन निष्पक्ष में

 बौद्ध साहित्य में मतदान की तीन पद्धतियां है। गुप्त पद्धति “गुल्लहामक” कहां गया है चुपचाप मत बनाने वाले को “श्कष्ण जष्ककम” कहां गया है। श्लकायें निवेदन रंग की होती थी पूर्णविराम मतदान की निविदत रंग की श्लाकाकिस्मत की प्रति रंगी है बता दिया जाता था प्रस्तावक जब कभी भाषण केद्वारा अपने विचारों को प्रकट करने में असमर्थ होता था तो वह प्रश्न कुछ व्यक्तियों को सौंप दिया जाता था जो वर्तमान समय की संसदीय समिति की प्रस्तावक सामान्यतः योग्य और समझदार व्यक्तियों के द्वारा सदन में रखा जाता था। “चाल्यवल्लक” मेरी एक घटना का वर्णन है की भिक्षु श्वेत के प्रस्ताव वह जब कोई निर्णय चार -चार आधार आठ भिक्षुऔं का निर्णय करने के लिए वह प्रश्न सौंप दिया गया इस पद्धति का नाम “सम्मुख विनय” दिया गया है। भिक्षु की यह समिति यदि सौपें गए प्रश्न को सुलझा देता है तो वह प्रश्न निर्णित माना जाता था।यदि कोई प्रस्ताव आपके भाषण में परस्पर विरोधी विचार प्रकट करता था तो समिति उसके विरुद्ध निंदा की कार्यवाही कर सकती थी। एक प्रश्न का निर्णय हो जाने के पश्चात उस पर पुनः विचार नहीं हो सकता था यदि कोई विचार अपूर्ण सभा के द्वारा निर्णय किया गया होता तो उसे फोन सभा में रखना अनिवार्य था कौन सभा इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकती थी उस विषय में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी।

प्रश्नों पर पुनर्विचार करना चाहता था ‘या’ इस प्रश्न को फिर से उठाना चाहता था तो यह प्रयास “पिचित्याथि” अपराध माना जाता था।

उपरोक्त वर्णन ओसिया ही स्पष्ट है कि बौद्ध एवं जैन कालीन भारत में गणराज्य थे और इन राज्यों की एक निश्चित कार्य पद्धति थी। कार्य पद्धतियों की निश्चित शब्दावली थी जो एक परिपक्व शासन पद्धति का प्रतीक है।

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