अर्थशास्त्र

भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित रहता है | भुगतान शेष की स्वायत्त या स्व-प्रेरित तथा समायोजक मदें

भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित रहता है | भुगतान शेष की स्वायत्त या स्व-प्रेरित तथा समायोजक मदें

भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित OP2 रहता है

‘भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित रहता है” इस कथन लेखाशास्त्रीय (Accounting) सिद्धान्तों पर निर्भर है। दोहरी लेखा प्रणाली के सिद्धान्तों के अनुरूप इस वाक्यांश का अर्थ है कि एक खाते अथवा लेखे के रूप में भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित रहता है। सरल शब्दों में, भुगतान सन्तुलन के दोनों पक्षों की बराबरी केवल हिसाबी बराबरी होती है, वास्तविक बराबरी नहीं।

हिसाबी भुगतान के सन्तुलन तथा वास्तविक भुगतान के सन्तुलन के अन्तर को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की आय 600 रु. हो परन्तु उसका व्यय 800 रु. हो तो उसके वास्तविक बजट में घाटे की दशाएँ विद्यमान होंगी।

स्थिति होंगी-

आय600

व्यय800

परन्तु वह व्यक्ति इस घाटे को किस प्रकार पूरा करेगा। इसकी पूर्तिं वह व्यक्ति अपनी पुरानी बचत को निकालकर या किसी व्यक्ति से ऋण लेकर करेगा।

उदाहरण-

 

आय

व्यय

वर्तमान

600 रु.

800रु.

ऋण, पुरानी बचत

200रु.

 

आदि

800रु.

800रु.

अत: जिस प्रकार व्यक्ति के कुल लेन और कुल देन में सदा सन्तुलन रहता है, उसी प्रकार भुगतान सन्तुलन में भी प्राप्तियों और भुगतानों के बीच हमेशा सन्तुलन होता है। ध्यान रहे कि भुगतान सन्तुलन के दोनों पक्षों की बराबरी केवल हिसाबी बराबरी होती है; वास्तविक बराबरी नहीं। ज कभी एक देश के भुगतान सन्तुलन में व्यय की मात्रा आय की मात्रा से बढ़ जाती है तो इस घाटे की पूर्ति के लिए अनेक उपाय अपनाकर यह प्रयास किया जाता है कि जमा और खर्चे के बीच सन्तुलन बना रहे।

जब भुगतान सन्तुलन में घाटा होता है तो देश अपने घाटे की पूर्ति निम्न रीतियों से करता है:

(i) स्वर्ण का निर्यात करके,

(ii) विदेश में कमाए गए अपने लाभ को स्थानान्तरित करके,

(iii) घाटे को पूरा करने के लिए विदेशों से दीर्घकाल अथवा अल्पकालीन ऋण लेकर। ये तीनों साधन जो पूँजी-खाता’ बनाते हैं, चालू, जमा और नाम के बीच का अन्तर पाटने में सहायक होते हैं। भुगतान की स्थिति दिखाने वाली बैलेंस-शीट को दो भागों में बाँटा जाता है- ‘चालू खाता’ व ‘पूँजी खाता’। चालू खाते में व्यापार सम्बन्धी सामयिक वास्तविक भुगतान दिखाया जाता है तथा दूसरे शब्दों में, पूँजी सम्बन्धी भुगतान । पहला भाग लेन-देन की क्रियाओं का वास्तविक रूप दर्शाता है और दूसरा भाग क्षतिपूरक क्रियाओं को अंकित करता है जिनसे वास्तविक भुगतान के घाटे अथवा अतिरेक को सन्तुलित करते हैं। यदि भारत का वास्तविक भुगतान का सन्तुलन 100 रु. का घाटा प्रदर्शित करता है तो उसके पूँजी सम्बन्धी भुगतान में 100 रु. का अतिरेक अवश्य होगा जिससे घाटे की पूर्ति की जाती है।

किसी देश का भुगतान के सन्तुलन के दोनों पक्षों की बराबरी केवल हिसाब बराबरी है, वास्तविक बराबरी नहीं।

संक्षेप में, “भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित रहता है।” इस वाक्य को सरल रूप से समझने में निम्न बिन्दु महत्वपूर्ण हैं :

(i) चालू खाते का सन्तुलन अनुकूल अथवा प्रतिकूल किसी भी स्थिति में हो सकता है।

(ii) चालू खाते में भुगतान सन्तुलन को विदेशी मुद्रा द्वारा सन्तुलित किया जाता है जब चालू खाते में घाटा होता है।

(iii) यदि पूँजीगत खाते के अतिरेक का मूल्य चालू खाते के घाटे से कम होता है तो घाटे का जो शेष बच जाता है, उसका वित्तीयन विदेशी मुद्रा भण्डार से विदेशी मुद्रा लेकर किया जाता है।

(iv) इसी तरह यदि पूँजीगत खाते के अतिरेकों का मूल्य चालू खाते के घाटे से अधिक हो तो शेष राशि को विदेशी मुद्रा भण्डार में जोड़ दिया जाता

भुगतान शेष की स्वायत्त या स्व-प्रेरित तथा समायोजक मदें

(Autonomous and Accommodating Items in BOP)-

भुगतान शेष या सन्तुलन खाते की मदों को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- (1) स्व-प्रेरित अथवा रेखा के ऊपर की मदें और (2) समायोजक अथवा रेखा के नीचे की मदें

(1) स्व-प्रेरित मदें (Autonomous or above the Line Items)- (अ) स्व-प्रेरित मदों से तात्पर्य उन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक लेन-देनों से है जो अधिकतम लाभ-प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाते हैं। (ब) ये लेन-देन देश के भुगतान शेष की स्थिति पर निर्भर या उससे सम्बन्धित नहीं होते हैं इसलिए इन्हें स्व-प्रेरित मदें कहा जाता है। (स) चूँकि ये मदें भुगतान शेष खाते में घाटा या बचत की गणना करने से पहले रिकॉर्ड की जाती है अत: इन्हें रेखा के ऊपर की मदें कहा जाता है। (द) भुगतान शेष या सन्तुलन के खाते में घाटे या बचत की गणना इन स्व-प्रेरित मदों के आधार पर ही की जाती है।

संक्षेप में,

(i) स्व-प्रेरित मदों से प्राप्तियाँ < स्व-प्रेरित मदों के लिए भुगतान = भुगतान शेष या सन्तुलन का घाटा।

(ii) स्व-प्रेरित मदों से प्राप्तियां >स्व प्रेरित मदों के लिए भुगतान=भुगतान से शेष या सन्तुलन की बचत।

(2) समायोजक मदें (Accommodating or Below the Line Items)- समायोजक मदों से आशय उन लेन-देनों से है जो सरकार द्वारा भुगतान सन्तुलन को सन्तुलित रखने के लिए किये जाते हैं, जब कभी देश के भुगतान सन्तुलन में असाम्यता या असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है तो सरकार अथवा मौद्रिक अधिकारियों को इसके समाधान के लिए मौद्रिक अन्तरण करने पड़ते हैं।

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Pankaja Singh

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