अर्थशास्त्र

साख नियंत्रण का अर्थ | साख नियन्त्रण का उद्देश्य | साख नियंत्रण की विधियाँ | परिमाणात्मक नियंत्रण | गुणात्मक विधियाँ

साख नियंत्रण का अर्थ | साख नियन्त्रण का उद्देश्य | साख नियंत्रण की विधियाँ | परिमाणात्मक नियंत्रण | गुणात्मक विधियाँ

साख नियंत्रण का अर्थ-

केन्द्रीय बैंक की सहायता का एक प्रमुख उद्देश्य साख नियंत्रण है। साख के सम्बन्ध में पीछे वर्णन किया जा चुका है। साख नियमन से आशय व्यापारिक बैंक का सम्पत्ति नियमन होता है। इसका कारण यह है कि उनकी सम्पत्ति का अधिकांश भाग ऋण तथा विनियोजन कार्यों में व्यय होता है। साख नियंत्रण का उद्देश्य समयानुसार परिवर्तित होता रहा है। परम्परावादी विचारकों के अनुसार साख नियंत्रण का प्रमुख उद्देश्य विदेशी विनिमय दर में स्थायित्व बनाये रहना था। कुछ अर्थशास्त्रियों के विचारानुसार साख नियंत्रण का उद्देश्य व्यापार चक्र सम्बन्धी घटनाओं को रोकना था। वर्तमान समय में केन्द्रीय बैंक साख नियंत्रण का प्रयोग निम्नलिखित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए करता है-

साख नियन्त्रण का उद्देश्य

(1) आन्तरिक मूल्यों में स्थायित्व- स्वर्णमान के टूट जाने पर विश्व के सभी देशों में मूल्य स्तर में अस्थिरता लाने का प्रयास किया। इस प्रकार साख नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य आन्तरिक मूल्य में स्थायित्व लाना था।

(2) विदेशी विनिमय दर में स्थायित्व लाना- साख नियंत्रण का उद्देश्य विनिमय दर में भी स्थायित्व लाना था, क्योंकि विनिमय अस्थिरता से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(3) उत्पादन तथा रोजगार में नियंत्रण- साख नियंत्रण का उद्देश्य उत्पादन तथा रोजगार में स्थायित्व लाना था जिससे देश के समस्त साधनों का पूर्ण उपयोग हो सके और उद्योग में निरनतर वृद्धि हो सके।

(4) व्यापार चक्रों में नियंत्रण- साख नियंत्रण का उद्देश्य व्यापार-चक्रों पर नियंत्रण करना है, जिससे आर्थिक स्थायित्व आ सके।

साख नियंत्रण की विधियाँ

समयानुसार केन्द्रीय बैंक ने साख नियंत्रण की अलग-अलग विधियों को अपनाया। इनको दो भागों में विभाजित किया गया। इसका विशद वर्णन नीचे दिया गया है-

(1) परिमाणात्मक नियंत्रण- (क) बैंक दर अथवा कटौती दर, (ख) खुले बाजार की क्रियायें, (ग) परिवर्तनशील न्यूनतम कोष दर, (घ) तरल कोषानुपात।

(2) गुणात्मक विधियाँ- (क) चुने हुए साख नियंत्रण, (ख) साख की राशनिंग, (ग) नैतिक दबाव, (घ) विज्ञापन विधि, (ङ) प्रत्यक्ष कार्यवाही।

(1) परिमाणात्मक नियंत्रण-

यह साख नियंत्रण का वह साधन है, जो बैंक के नगद कोषों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। इस विधि में निम्नलिखित विधियों का समावेश है।

(क) बैंक दर अथवा कटौती दर- बैंक दर ब्याज की वह न्यूनतम दर है, जिस पर देश का केन्द्रीय बैंक सदस्य बैंकों के प्रथम श्रेणी के बिलों की कटौती करके भुनाता है और उन्हें ऋण देने की सुविधा प्रदान करता है। कुछ देशों में बैंकर दर की बिलों को भुनाने में कटौती के कारण कटौती की दर कहते हैं। पीटर फासिक के अनुसार “कटौती दर नीति वह है, जिसके अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक अपने द्वारा चुनी हुई अल्पकालीन सम्पत्ति की समयानुसार फिर से कटौती की शर्तों को बदलती रहती है अथवा सुरक्षित ऋण देती रहती है।”

इस रीति का सर्वप्रथम प्रयोग बैंक ऑफ इंग्लैण्ड ने सन् 1839 में किया। इस विधि के अनुसार जब केन्द्रीय बैंक साख की मात्रा में कमी करना चाहता है, वह बैंक दर में कमी कर देता है। इससे केन्द्रीय बैंक से ऋण प्राप्त करना महँगा हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि व्यापारिक बैंक भी अपने ब्याज की दरों में वृद्धि कर देते हैं, जिससे व्यापारी तथा उद्योगपति बहुत ही कम तथा अनिवार्य कार्यों के लिए ही ऋण लेने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार देश में सभी बैंकों की साख कम होने लगती है। इसके विपरीत जब केन्द्रीय बैंक यह अनुभव करता है कि बैंकों की साख में वृद्धि होना श्यक है तो वह दर में कमी कर देता है, जिससे अन्य व्यापारिक बैंक अधिक मात्रा में कर्ज लेने के प्रयास करते हैं और वे बैंक भी अपनी ब्याज की दर को कम कर देते हैं, जिससे व्यापारी उद्योगपति अधिक ऋण लेने का प्रयास करते हैं। इससे केन्द्रीय बैंक बैंक दर को घटा-बढ़ाकर साख का नियंत्रण करती है।

(ख) खुले बाजार की क्रियायें- इस रीति का प्रयोग जर्मनी ने प्रथम महायुद्ध के पूर्व किया। युद्ध के पश्चात् अन्य देशों में इसे कार्यान्वित किया। खुले बाजार की क्रियाओं का अर्थ प्रतियोगिता बाजार में केन्द्रीय बैंकों द्वारा स्वीकृत प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय है। खुले बाजार की प्रतिक्रियाओं केन्द्रीय बैंक साख नियंत्रण करती है। जिस समय बैंकों की साख बहुत बढ़ जाती है और मुद्रा बाजार में मुद्रा की अधिकता होती तो केन्द्रीय बैंक ऋणपत्रों तथा प्रतिभूतियों का बेचना प्रारम्भ कर देता है और लोग बैंक से रुपये निकाल कर इन्हें खरीदने लगते हैं। इससे बैंकों की साख कम हो जाती है तथा मुद्रा के केन्द्रीय बैंक के पास आने लगती है। इसके विपरीत जब केन्द्रीय बैंक यह अनुभव करता है कि बैंकों की साख बहुत कम हो गई है तथा लोगों के पास मुद्रा क कमी है तो वह उन ऋण पत्रों तथा प्रतिभूतियों को खरीदने लगती है, जिससे जनता में मुद्रा पहुँचती है और वे इस रुपये को बैंक में जमा करने लगते हैं। केन्द्रीय बैंक इन क्रियाओं से साख नियंत्रण करती है।

केन्द्रीय बैंक इस रीति को निम्नलिखित परिस्थितियों में कार्यान्वित करती है-

  1. स्वर्णमान में स्वर्ण के आयात या निर्यात में प्रभाव को असफल बनाने के लिए।
  2. पूँजी निर्यात पर रोक लगाने के लिए।
  3. आपत्ति काल में जनता का विश्वास बढ़ाने के लिए।
  4. मुद्रा बाजार में मुद्रा की कमी को दूर करने के लिए।
  5. साख नियंत्रण की बैंक दर नीति असफल होने पर

खुले बाजार की सफलता की शर्ते-

  1. देश में प्रतिभूतियों तथा ऋणपत्रों की समुचित माँग तथा पूर्ति होना चाहिए। ऐसा होने पर यह विधि सफल नहीं होगी।
  2. केन्द्रीय विधि की इन क्रियाओं से अन्य बैंक की निधि पर प्रभाव पड़ना चाहिए।
  3. व्यापारिक बैंक की ऋण देने की नीति में किसी प्रकार का अन्तर नहीं होना चाहिए।
  4. ऋण की माँग में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  5. केन्द्रीय बैंक में इतनी अधिक शक्ति होनी चाहिए कि वह प्रतिभूतियों तथा ऋण पत्रो को अधिक मात्रा में क्रय-विक्रय कर सके।
  6. देश में समुचित मुद्रा विकास बाजार के होने पर ही यह नीति सफल हो सकती है।
  7. खुले बाजार की नीति की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि एक संगठित मुद्रा तथा प्रतिभूति बाजार हो।

(ग) परिवर्तनशील न्यूनतम कोष दर- केन्द्रीय बैंकों को यह अधिकार होता है कि सदस्य बैंकों के चालू तथा स्थायी निक्षेपों का कुछ प्रतिशत नकद में अपने पास रखें तथा इसमें योग्यतानुसार परिवर्तन भी करें। जब केन्द्रीय बैंक और बैंकों की साख में वृद्धि करना चाहता है तो इस प्रतिशत को कम कर देता है जिससे बैंक अधिक मात्रा में पूँजी निकाल सकें और लोगों को उधार दे सकें। इससे उनकी साख में वृद्धि होती है। इसके विपरीत जब केन्द्रीय बैंक साख को घटाना चाहती है तो न्यून कोष दर के प्रतिशत को बढ़ा देती है जिससे सदस्य बैंक अधिक जमा धन न निकाल सके और लोगों को अधिक धन उधार न दे सकें। इससे इनकी साख घटती है। इस प्रकार न्यूनतम कोष की दर की प्रतिशत को परिवर्तन करके केन्द्रीय बैंक साख का नियंत्रण करती है।

(घ) तरल कोषानुपात- इस पद्धति का आविष्कार द्वितीय महायुद्ध काल से हुआ। इसके अन्तर्गत देश के व्यापारिक बैंकों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अपनी कुल सम्पत्ति का एक भाग तरल रूप में देखें। इसमें नकद राशि तथा अनुमोदित प्रतिभूतियाँ सम्मिलित होती हैं। बैंक की इस कार्यवाही से साख निर्माण की शक्ति में कमी आ जाती है। इस विधि से लाभ यह है कि खुले बाजार की क्रियायें सरलतापूर्वक कार्यान्वित की जा सकती हैं।

(2) गुणात्मक विधियाँ-

साख नियंत्रण की गुणात्मक विधियों में प्रमुख का विवरण निम्नलिखित हैं-

(क) साख की राशनिंग- केन्द्रीय बैंक देश के व्यावसायिक बैंकों तथा मुद्रा बाजार की संस्थाओं के अन्तिम ऋणदाता के रूप में कार्य करता है। केन्द्रीय बैंक जब अन्य बैंकों की माँ को पूरा नहीं कर पाता है तब इसकी राशनिंग कर देता है अथवा दी जाने वाली उधार राशि पर कुछ प्रतिबन्ध लगा दिए जाते हैं जिससे वाणिज्य बैंकों की साख सृजन की शक्ति कम हो जाती है। साख की राशनिंग विधि में केन्द्रीय बैंक के पुनः भुनाने की सुविधा को बिल्कुल समाप्त या भुनाने की साख निर्धारित कर देता है अथवा भिन्न बैंक द्वारा उद्योगों को दिए जाने वाले साख के अभ्यंश को निश्चित कर देता है। इस प्रकार साख की मात्रा पर नियंत्रण हो जाता है।

(ख) प्रत्यक्ष कार्य- प्रत्यक्ष कार्य विधि के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक व्यावसायिक बैंक को अपनी नीति का अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है जो केन्द्रीय बैंक की नीतियों का पालन नहीं करता है। उस बैंक को केन्द्रीय बैंक पुनः भुगतान की सुविधा देना बन्द कर देता है। इस प्रत्यक्ष कार्यवाही विधि को सफलता तभी मिल सकती है जबकि मुद्रा बाजार में केन्द्रीय बैंक का पूरा नेतृत्व हो, केन्द्रीय बैंक की पर्याप्त शक्ति हो तथा अन्य बैंकों के साथ इसका सहयोग वातावरण हो।

(ग) नैतिक दबाव- इस नीति के अनुसार केन्द्रीय बैंकर्स व्यावसायिक बैंकों की स्थिति की जाँच करने के बाद उन्हें अनुकूल परामर्श देता है। इसमें शक्ति का प्रयोग नहीं होता। अतएव केन्द्रीय बैंक एवं अन्य बैंको के बीच सद्भावना बनी रहती है। भारत में सन् 1949 में इस नीति का प्रयोग करते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर ने देश के प्रमुख-प्रमुख बैंकरों की एक बैठक में इस बात की सिफारिश की थी कि उन्हें परिकल्पना सम्बन्धी कार्यों के लिए उधार देना बन्द क देना चाहिए। लेकिन इस विधि में किसी प्रकार का दबाव न होने के कारण साख नियंत्रण की यह विधि अधिक सफल नहीं है।

(घ) प्रचार- इस विधि के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक विज्ञापन तथा प्रचार की नीति के द्वारा अपनी नीति के प्रति संप्रभावित जनमत तैयार करता है। साथ ही समय-समय पर मुद्रा बाजार की स्थिति उद्योग, व्यवसाय, व्यापार एवं आयात-निर्यात इत्यादि के सम्बन्ध में आँकड़ें एवं विवरण प्रकाशित करके मुद्रा बाजार पर अपना प्रभाव स्थापित करता है लेकिन यह विधि भी साख नियंत्रण की एक सकल विधि नहीं कही जा सकती है।

(ङ) उपभोक्ता साख का नियंत्रण- उपभोक्ता की साख के नियंत्रण की नीति के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक ऐसा नियम बनाता है जिसके अनुसार उपभोक्ताओं को थोड़ा-थोड़ा करके साख की सुविधा दी जाती है। इस प्रकार के ऋण का एक अंश नकद मुद्रा के रूप में भी दिया जाता है जिससे साख का निर्माण एक निश्चित सीमा से अधिक न होने पाये।

साख नियंत्रण की परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विधियों का अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन दोनों विधियों को एक दूसरे के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि किसी एक विधि के प्रयोग उसे समुचित एवं प्रभावपूर्ण साख नियंत्रण सम्भव नहीं है।

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Pankaja Singh

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