
भुगतान सन्तुलन का अर्थ | भुगतान सन्तुलन का महत्व | प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन के कारण | प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को सुधारने के उपाय
असाम्य भुगतान सन्तुलन का महत्व | असाम्य भुगतान सन्तुलन का कारण | असाम्य भुगतान सन्तुलन को सुधार के उपाय
भुगतान सन्तुलन का अर्थ (Meaning of Balance of Payments)-
भुगतान सन्तुलन उन समस्त आर्थिक सौदों का एक लेखा-जोखा (Account) है जिन्हें एक देश के निवासी अन्य देशों के निवासियों के साथ एक निश्चित अवधि (प्रायः एक वर्ष ) में सम्पन्न करते हैं। इसमे वस्तुओं के आयात व निर्यात (दृश्य व्यापार) के अतिरिक्त अन्य मदें भी शामिल की जाती हैं। जैसे- पूँजी का आदान-प्रदान ब्याज का लेन-देन, जहाजरानी की सेवायें, पर्यटकों के आवगमन से प्राप्ति व देनदारी, विशेषताओं की सेवओं का लेनदेन इत्यादि।
भुगतान सन्तुलन को भुगतान शेष भी कहा जाता है।
प्रो. वॉल्टर क्रास के अनुसार, “भुगतान सन्तुलन किसी देश के निवासियों एवं शेष विश्व के निवासियों के मध्य एक विशेष समय में साधारणतयः एक वर्ष में किये गये समस्त आर्थिक लेन-देनों का एक व्यवस्थित विवरण है।”
पी. टी. एल्सवर्थ के अनुसार, “भुगतान सन्तुलन एक देश के निवासियों और शेष विश्व के बीच किये गये समस्त लेन-देनों का लिखित विवरण है। यह किसी दिये हुए समय साधारणतया एक वर्ष के लिए होता है।”
स्पष्ट है कि एक देश के भुगतान को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि देश विशेष की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति कैसी है। अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों के निपटाने के लिए वह देश कैसी स्थिति का सामना कर रहा है? विश्व देश की अर्थव्यवस्था में उसका कितना हिस्सा है? इस बात की जानकारी हमें उसके अनुपात सन्तुलन से ज्ञात हो सकती है।
भुगतान सन्तुलन का महत्व
भुगतान सन्तुलन का महत्व निम्न बातों से स्पष्ट हो जाता है.
- देश की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति का ज्ञान (Knowledge of International Economic Condition of the Country)- भुगतान सन्तुलन के विवरण से देश की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति की जानकारी होती है। इससे ज्ञात हो जाता है कि कितनी आय प्राप्त होनी है तथा कितना भुगतान करना है। इससे मौद्रिक व वित्तीय नीति, विदेशी व्यापार तथा विदेशी विनिमय सम्बन्धी निर्णय लेने में सहायता मिलती है।
- मौद्रिक तथा विनिमय नियन्त्रण नीतियों की सफलता का अनुमान (Estimate of Success of Monetary & Exchange Control Policies)- भुगतान सन्तुलन की स्थिति से इस बात का ज्ञान हो जाता है कि एक देश ऋण ले रहा है या दे रहा है, उसकी चलन तथा विदेशी विनिमय स्थिति कमजोर या सुदृढ़ तथा उसके द्वारा अपनाई गयी मौद्रिक तथा विनिमय नियन्त्रण नीति कहाँ तक प्रभावपूर्ण है।
- अवमूल्यन के प्रभाव का ज्ञान (Knowledge of Effect of Devaluation)- भुगतान सन्तुलन के विवरण से यह ज्ञात किया जा सकता कि किसी देश द्वारा अवमूल्यन की नीति अपनाने के परिणामस्वरूप उसके निर्यातों में पर्याप्त वृद्धि हुई है या नहीं।
- देश का राष्ट्रीय आय पर विदेशी व्यापार के प्रभाव की माप (Measurment of Effect of Foreign Trade on National Income of the Country)- भुगतान सन्तुलन के विवरण से देश की राष्ट्रीय आय पर पड़ने वाले विदेशी व्यापार तथा व्यवहारों के प्रभाव को मापा जा सकता है।
प्रतिकूल (असाम्य) भुगतान सन्तुलन के कारण –
भुगतान सन्तुलन की असाम्यता या प्रतिकूलता निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न होती है।
(1) व्यापार चक्र के कारण भुगतान सन्तुलन में असाम्यता उत्पन्न हो जाता है।
(2) विकासशील देशों/अर्द्धविकसित देशों द्वारा विकास कार्यक्रम पर अत्यधिक खर्च करना असाम्यता की समस्या उत्पन्न करता है।
(3) विकासशील देशों में भुगतान सन्तुलन में असाम्यता का प्रमुख कारण उनके निर्यात की माँग का बेलोच होना है।
(4) आय एवं कीमतें प्रभाव इस समस्या को जन्म देती हैं आय एवं कीमत स्तर में वृद्धि के कारण आयात बढ़ जाता परन्तु निर्यात उसी अनुपात में नहीं बढ़ता है।
(5) संरक्षणात्मक नीतियाँ इस समस्या को व्यापक बना देती है। इस नीति के परिणामस्वरूप विकासशील देशों का निर्यात स्तर वांक्षित स्तर नहीं प्राप्त कर पाता है।
(6) विदेशी ऋण भुगतान सन्तुलन की समस्या को अत्यधिक असाम्य बना देता है।
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को सुधारने के उपाय
निम्नलिखित हैं-
(1) मुद्रा संकुचन- एक देश महँगी मुद्रा व साख नीति अपनाते हुए मुद्रा संकुचन करके भुगतान संतुलन के असाम्य या प्रतिकूलता को दूर कर सकता है। मुद्रा संकुचन के फलस्वरूप मुद्रा की मात्रा में कमी हो जाती है। जिसके कारण साधन व अन्य सामान की कीमतों में कमी हो जाती है जिसके फलस्वरूप उत्पादन लागत और इस प्रकार वस्तु की कीमतें गिर जाती हैं जिसके फलस्वरूप विदेशों में इस देश की वस्तुयें अपेक्षाकृत सस्ती हो जायेंगी और निर्यातों में वृद्धि हो जायेगी।
(2) विनिमय मूल्य ह्रास – जब एक देश अपनी मुद्रा के बाह्य मूल्य को कम कर देता है तो इसे विनिमय मूल्य ह्यस कहते हैं। यह स्वतन्त्र विनिमय दर की स्थिति में होता है। यह बाजार की शक्तियों किन्तु विनिमय बस की इस सन्दर्भ में सफलता आयात व निर्यात के लिए माँग की लोच पर निर्भर है। विनिमय ह्रास वाले देश की आयात व निर्यात दोनों के लिए माँग की लोच इकाई से अधिक होने चाहिए। यदि दोनों ही अथवा किसी एक की माँग की लोच इकाई से कम है तो या तो आयात नहीं घट पायेंगे अथवा और निर्यातों में वृद्धि नहीं हो पायेगी और भुगतान सन्तुलन में घाटा बना रहेगा।
(3) अवमूल्यन- भुगतान सन्तुलन के असाम्य को दूर करने के लिए अवमूल्यन का भी सहारा लिया जाता है। अवमूल्यन में देश की मुद्रा के बाह्य मूल्य को सरकारी घोषणा द्वारा कम कर दिया जाता है। अवमूल्यन के फलस्वरूप करने वाले देश की मुद्रा की एक इकाई के बदले विदेशी मुद्रा को पहले की अपेक्षा कम मात्रा प्राप्त होने लगती है। अवमूल्यन के कारण आवश्यक रूप से मुद्रा का आन्तरिक मूल्य कम नहीं होता है। अवमूल्यन सामान्यत: विश्व के सभी देशों की मुद्राओं के सन्दर्भ अथवा किसी एक देश की मुद्रा के सन्दर्भ में अपनाया जा सकता है।
(4) विनिमय नियंत्रण- भुगतान सन्तुलन के असाम्य को दूर करने के लिए विनिमय नियंत्रण एक अन्तिम मौद्रिक अस्त्र है। यदि मुद्रा-संकुचन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए घातक है तो अवमूल्यन दूसरों का मुंह देखता है। इसलिए इन उपायों के प्रयोग से बचा जाता है।
हैबरलर के अनुसार, “विनिमय नियंत्रण वह सरकारी नियमन है जो विदेशी विनिमय बाजार में अधिक शक्तियों के स्वतन्त्र कार्यकरण पर रोक लगता है।”
(5) अमौद्रिक उपाय (Non-Monetary Measures)- प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के लिए मौद्रिक उपायों की अपेक्षा अमौद्रिक उपाय जिनसे विदेशी व्यापार पर प्रत्यक्षतः नियंत्रण होता है अधिक महत्वपूर्ण है। इन उपायों में आयातों को नियंत्रित करने के लिए आयात अभ्यंश (Import Quota), आयात-कर (tariffs) निर्यात प्रोत्साहन कार्यक्रम, विदेशी पर्यटकों को प्रोत्साहन आदि महत्वपूर्ण है।
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