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अनुसूचित जन-जातियों का अर्थ एवं परिभाषा | अनुसूचित जनजातियों की समस्याएँ | भारत में अनुसूचित जनजातियों की विविध समस्याएँ

अनुसूचित जन-जातियों का अर्थ एवं परिभाषा | अनुसूचित जनजातियों की समस्याएँ | भारत में अनुसूचित जनजातियों की विविध समस्याएँ

अनुसूचित जन-जातियों का अर्थ एवं परिभाषा

(Scheduled Tribes-Meaning and definition)

अनुसूचित जनजातियों से अभिप्राय उन व्यक्तियों से है जो आधुनिक सभ्यता से दूर पर्वतों अथवा जंगलों आदि में निवास करते हैं। इनका अपना एक पृथक् रहन-सहन, धर्म एवं व्यवसाय होता है। इन व्यक्तियों को अपने परम्परागत निषेधों का पालन भी करना पड़ता है। जनजातियों को अदिम समाज, आदिवासी एवं वन्य जाति आदि नामों से भी जाना जाता है।

सन् 1991 ई. की जनगणना के अनुसार देश में जनजातियों की संख्या 6.45 करोड़ अधिकांश जनजातियाँ हिन्दू धर्म की अनुयायी हैं इसीलिए डॉ. घुरिये ने इन्हें ‘पिछड़े हिन्दु‘ की संज्ञा दी है।

जनजाति को परिभाषित करते हुए बोअस ने लिखा है, “जनजाति से हमारा तात्पर्य आर्थिक रूप से स्वतन्त्र, सामान्य भाषा बोलने वाले तथा बाहर वालों से अपनी रक्षा के लिए संगठित व्यक्तियों के समूह से हैं।”

गिलिन और गिलिन के अनुसार, “स्थानीय आर्थिक समूहों के किसी भी संग्रह को जो एक सामान्य क्षेत्र में रहता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता हो, एक जनजाति कहते हैं।”

क्रोवर का कथन है, “आदिम जातियाँ (जनजातियाँ) ऐसे लोगों का समूह है जिनकी अपनी एक सामान्य संस्कृति होती है।”

डॉ. मजूमदार ने अपनी परिभाषा में जनजातियो को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है, “जनजाति परिवार या परिवारों के समूह का एक संकलन है जिसका एक सामान्य नाम होता है जिसके सदस्य एक सामान्य भू-भाग पर रहते हैं एवं सामान्य भाषा बोलते हैं जो विवाह, व्यवसाय या पेशे के सम्बन्ध में कुछ निषेधों का पालन करते हैं और जिन्होंने एक निश्चित और मूल्याकिंत परस्पर आदान-प्रदान की व्यवस्था का विकास किया है।”

अनुसूचित जनजातियों की समस्याएँ

(Problems of Scheduled Tribes)

मजूमदार और मदान ने भारतीय जनजातियों की समस्याओं को दो भागों में विभक्त किया  है – प्रथम तो वे समस्याएँ हैं जो सम्पूर्ण भारतीय समाज से सम्बन्धित हैं और दूसरी समस्याएँ वे हैं जो केवल जनजातियों की विशिष्ट समस्याएँ हैं। प्रथम प्रकार की समस्याओं को इन विद्वानों ने ‘सामाजिक आर्थिक समस्याएँ कहा है और दूसरी समस्याओं का सम्बन्ध संस्कृति सम्पर्क से है। भारतीय जनजातियों की मुख्य समस्याओं का संक्षिप्त विश्लेषण निम्न प्रकार किया जा सकता है-

(1) मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव- सांस्कृतिक सम्पर्क का एक मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव जनजातियों पर यह पड़ा कि वे बाहरी लोगों को श्रेष्ठ और स्वयं को निष्कप मानने लगे। बाहरी लोगों ने इन भोली जनजातियों को सभ्य बनाने के लिए उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में परिवर्तन करने की कोशिश की जिससे उनके मन में हीन भावना पनपने लगी और वे अपने हर व्यवहार को खराब समझने लगे।

(2) धर्म-परिवर्तन के कारण परम्परागत जीवन का परित्याग- जिन आदिवासियों ने अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया था जो सभ्य लोगों के निकट सम्पर्क में आये उन्होंने उपरोक्त हीन-भावना के परिणामस्वरूप अपनी परम्परागत जीवन पद्धति का ही परित्याग कर दिया। धर्म- परिवर्तन के कारण अनेक आदिवासी ईसाई मिशनरियों के रहन-सहन का अनुकरण करने लगे। डा. मजूमदार के अनुसार इस अनुकरण में उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मजूमदार ने एक उदाहरण दिया है जिसमें बताया गया है कि क्रिसमस के पर्व पर एक ईसाई पादरी की दावत करने के लिए एक ईसाई आविासी को कई दिन उपवास करना पड़ा। उसने अंग्रेजी ढंग से मेहमान-नवाजी करने के लिए चारों तरफ ईंट के पाये जमाकर और उनके ऊपर एक चपटा पत्थर बिछाकर ‘डाइनिंग टेबुल’ बनाई।

(3) सभ्य समाज द्वारा शोषण- सभ्य समाज के अनेक लोगों ने इन सीधे-सीधे लोगों का अनेक प्रकार से शोषण किया है। राजकीय अधिकारियों ने इन्हें गँवार और नीचा माना। योगेश अटल के शब्दों में, “पुलिस अधिकारी इन पर अपना दबदबा जमाते हैं, पटवारी लोग इन्हें परेशान करते हैं और ठेकेदार तथा व्यापारी लूटते हैं।” प्रशासक भी इनके साथ सहानुभूतिपूर्ण आचरण नहीं करते। उधार देने वाले सभ्य समाज के महाजनों ने इन्हें मुटठी भर छोटे सिक्के उधार देकर इनकी बीघों जमीनें हड़प कर ली हैं। हाल ही में बिहार के आदिवासियों की बिस्तयों में पुलिस और ठेकेदारों के गुण्डों (मसलन) की शर्मनाक बर्बरता के समाचार सभी ने पढ़े हैं। यौन-सम्बन्धी की शिकायत का लाभ उठाकर बाहरी लोगों ने आदिवासी नारियों के शरीर से खिलवाड़ किया और अनेक गुप्त संक्रामक रोगों का प्रसारण कर दिया। आदिवासी जनता का शोषण बहुपक्षीय है।

(4) शिक्षा सम्बन्धी समस्याएँ- इन जनजातियों में शिक्षा का अभाव है जिसके कारण वे अभी तक अज्ञानता, सामाजिक कुरीतियों, बुराईयों तथा रूढ़िवादिता क शिकार बने हुए हैं, लेकिन आजादी के बाद इनमें शिक्षा का प्रसार हो रहा है, लेकिन वे इस शिक्षा के प्रति उदासीन हैं क्योंकि ये उनके लिए अनुत्पादक है।

यद्यपि ईसाई मिशनरियों ने तथा सरकार एवं अन्य सामाजिक संस्थाओं ने इनके लिए जनजातीय स्कूल खोल दिए हैं पर इससे इनके समक्ष कुछ समस्याएँ खड़ी हो गई हैं। एक ओर तो जो बच्चे स्कूलों में पढ़ने लगे हैं वे अपनी संस्कृति को घृणापूर्वक देखने लगे हैं और दूसरी ओर शिक्षित बेकारी बढ़ने लगी है।

(5) निर्धनता के कारण रोगों का प्रसार- सभ्य लोगों ने अर्धनग्न आदिवासियों को अश्लीलता के विशेषण दिये तो नये लोगों की शर्म निभाने के लिए उन्होंने थोड़े-बहुत कपड़े पहनने प्रारम्भ कर दिये किन्तु कपड़े पहनना ही काफी नहीं होता, धोना और बदलना भी जरूरी है पर साबुन और कई जोड़ी कपड़े कहाँ से आयें ? फलस्वरूप आर्थिक हीनता के शिकार आदिवासी गन्दे फटे और अनधोये कपड़ों, का प्रयोग करते रहते हैं। ये फटने पर ही शरीर से उतारते हैं। इन कपड़ों में नँयें पैदा हो जाते हैं, पसीना और धूल इनसे लिपटे रहते हैं। बेचारे आदिवासी अनेक चर्म रोगों के साथ बुखार के शिकार हो जाते हैं।

(6) गलत आदतों के शिकार- दूर बाहर के क्षेत्रों में काम करने जाने वाले आदिवासी अनेक गन्दी आदतों के शिकार हो जाते हैं। नशीली दवाएँ, शराब और जुआ आदि की आदतें वे लौटने पर अपने समाज में भी फैला देते हैं।

(7) झूठी प्रतिष्ठा पर अपव्यय- बाहर जाने वाले आदिवासी छुट्टियों में जब घर वापस आते हैं जो कुछ थोड़ा बहुत वे कमाकर लाते हैं उसे अपने समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने की दृष्टि से अन्धाधुन्ध खर्च कर देते हैं। इस प्रकार वे फिर गरीब के गरीब रह जाते हैं।

(8) आदिवासी पंचायतों का ह्रास- आदिवासी पंचायतें सभी प्रकार के झगड़े अपने परम्परागत ढंग से सुलझाती थीं। बाहरी लोगों ने आदिवासियों को उधार देना शुरू किया तो कर्ज सम्बन्धी मुकदमें सरकारी अदालतों में आने लगे। वकीलों ने अपना पैसा बनाने के लिए आदिवासी समाज के आन्तरिक झगड़ों के मुकदमों को भी अदालतों में लाने की प्रेरणा दी।

संक्षेप में, भारत की जनजातियों की समस्याएँ अनेक हैं। मजूमदार तथा मदान ने कहा है, “इनकी समस्याएँ सांस्कृतिक संकट और साथ ही आर्थिक पिछड़ेपन एवं शोषण की समस्याएं हैं।” किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझा जाना चाहिए कि जनजातियों को सम्पर्क का लाभ नहीं हुआ है। सम्पर्क का एक सुखद पक्ष भी है। सम्पर्क ने आदिवासियों में सामाजिक चेतना का विकास किया है। आनन्ददायक और सुविधाजनक साधनों का उपयोग भी उन्हें प्राप्त हुआ है। किन्तु वे एक दुविधाजनक स्थिति में फंस गये हैं।

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Pankaja Singh

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