सूरदास की भाषा की विशेषताएँ | सूरदास की भाषा की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए
सूरदास की भाषा की विशेषताएँ-
ब्रजभाषा का प्रयोग में सूर की कुछ विशेषताएं दृष्टव्य हैं। वैदिक ‘ऋ’ के स्थल पर ‘रि’, ‘र’ का प्रयोग करके सूर ने भाषा को कमल बनाने का प्रयास किया है। उन्होंने इसी हेतु स्वरों का प्रयोग भी किया है। अनुनायिकता उसपत्र कोमलता निम्नलिखित पंक्तियों में देखिये-
“कहौ तौ सुख आपनौं सुनाऊं।
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कर अंकन तैं, मुझ टांड भई।
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ब्रज तैं द्वै रितु पै न गई।
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एसौ सुनियत है द्वै सांवन।।”
ध्वन्यार्थ-मूलक शब्दों का प्रयोग भी सूर की भाषा की एक विशेषता है। ध्वनि-अनुकरणमूलक शब्दों का प्रयोग ‘सूरसागर‘ में देशज शब्दों से कहीं अधिक मिलता है। सूर ने संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में किया है। विशेष रूप से ऐसा प्रयोग वहाँ दिखाई देता है, जहाँ वे भागवत का आधार अधिक लेते हैं। एक उदाहरण देखिये-
“पानि-पल्लव-रेख मनि गुन, अवधि विधि बंधान।
चन्द्र कोटि प्रकास भ्रम, अवतरे कोटिक भान।
कोटि मन्मथ बारि छबि पर, निरखि दीजति ध्यान।
भ्रकुटि कोटि कोदंड रुचि अवलोकनी संधान।
कोटि बारिज बंक नयन, कटाच्छ कोटिक बान॥”
तत्सम शब्दाबली का प्रयोग सूर वहीं अधिक करते हैं, जहाँ उन्हें चित्रण करना होता है। जहाँ वे भाव-प्रवाह में प्रवृत्त होते हैं, वहाँ तत्सम शब्दावली का प्रयोग कम होता चला जाता है।
श्री प्रेमनारायण टंडन ने ठीक ही लिखा है कि सूर में स्वर-सन्धि-प्रधान शब्द ही अधिक मात्रा में मिलते हैं। व्यंजन सन्धि तो अपवाद रूप में ही है। सूर ऐसे शब्दों के प्रयोग से प्राय: अलग ही रहने का प्रयास करते हैं जो भाव-प्रवाह के मध्य बाधा बनकर काव्य की प्रेषणीयता को हानि पहुंचाते हैं कहने का तात्पर्य यह है कि जिस शब्दा से सौन्दर्य में वृद्धि होती है, सूर ने परिस्थिति और भाव के अनुसार उसी शब्द का प्रयोग किया है। सूर ने विदेशी शब्दों, जैसे- अरबी, फारसी आदि को भी ग्रहण किया है, किन्तु मधुर बनाकर। एक उदाहरण दृष्टव्य है-
“कोउ सखि नई चाह सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति पै, मदन मिलिक करि पाई।
घन-धावन, बगपाँति पटोसखि, ऐरस तड़ित सुहाई॥”
यहाँ ‘मिलिक’ शब्द अरबी भाषा का है।
कहावतों एवं मुहावरों का काव्य में विशेष महत्व है। इनके प्रयोग से काव्य शिक्षित और सामान्य-जन सभी की वस्तु बना रहता है। वह व्यावहारिक जीवन से दूर नहीं जा पड़ता। सभी उसे हृदयंगम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए छायावादी और प्रयोगवादी काव्य में लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं मिलता, क्योंकि वे वाद जनता के व्यावहारिक जीवन से बहुत दूर जा पड़े हैं। रीतिकाल की अलंकृत शैली में भी इनका प्रयोग कम मिलता हैं रीतिकालीन आचार्यों ने तो ‘लोकोक्ति’ को एक अलंकार के रूप में परम्परा-निर्वाह के लिए ही प्रयुक्त किया है, किन्तु सूर ने लोकोक्तियों का बहुत अधिक प्रयोग किया हैं, जिनसे उनकी भाषा में सजीवता आ गई है। कुछ उदाहरण दृष्टाव्य हैं-
“हमारे हरि हारिल की लकरी।”
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“बिना भीति तुम चित्र लिखत ही।”
“कहुँ सटपद, कैसे खैयतु है हाथिन के संग गाँड़े।
काकी भूख गई बयारि भखि, बिना दूध घृत माँड़े।
सूरदास तीनों नहिं उपजत, धनियाँ, धान, कुम्हाड़े।”
अलंकार-प्रधान भाषा-अलंकारों के निर्वाह में भी सूर की भाषा चमत्कार दिखाई देता है। इनसे भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि होती है। सूरदासजी ने अलंकारों में यमक, अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि कुछ अलंकारों का प्रयोग अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से किया है। इनमें भी उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग कुछ अधिक मात्रा में दिखाई देता है। इनकी उपमाएं यदि भावचित्र प्रत्यक्ष उपस्थित कर देती हैं तो इनकी उत्प्रेक्षा के प्रयोग में कल्पना की नवीनता देखते ही बनती है। किसी भी कवि का भाषा पर अधिकार सांगरूपक के निर्वाह में दिखाई देता है। सूर ने कितने ही पदों में सांगरूपक का सुन्दर निर्वाह किया है। यो तो ‘सूरसागर’ में लगभग सभी अलंकारों का प्रयोग है। उदाहरणार्थ, उत्प्रेक्षा और सांगरूपक के प्रयोग प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
उपमा – “लोग हमें ऐसो लागत, ज्यों तोहि चंपक फूल॥“
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“अब मन भयो सिंध के खग ज्यों, फिरि-फिरि परत जहाजन।”
उत्प्रेक्षा – “कहियों नन्द कठोर भये।
हम दोऊ बीर डारि परचारे, मानों थाती सौंपि गये॥’
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“रतन जटित कुंडल श्रवननि कर गंड कपोलनि झांई।
मनु दिनकर-प्रतिबिम्ब मुकुर महँ ढूँढत यह छवि पाईं।”
सांगरूपक – “प्रीति करि दीन्ही गरे छुरी।
जैसे वधिक चुगाय कपट-कन, पाछे करत बुरी॥
मुरली मधुर चेंप कर कांपो, मोर चन्द ठटवारी।
बंक बिलोकनि लूक लागि बस, सकीं न तनहिं सम्हारी॥
तलफत छाँड़ि चले मधुवन को, फिरि कै लई न सार।
सूरदास वा कलप तरोवर, फेरि न बैठीं डार॥”
शब्द शक्ति-
वास्तव में सूर की भाषा अर्थ-गाम्भीर्य से पूर्ण है उसमें लक्षणा और व्यंजना का अत्याधिक प्रयोग हुआ हैं इन उदाहरणों से सूर का भाषाधिकार स्वतः ही प्रकट हो जायेगा-
- रूढ़ि लक्षणा-
“आए जोग सिखावन पाँड़े।
काकी भूख गई बयारि भखि, बिना दूध घृत माँड़े।
सूरदास तीनों नहीं उपजाति, धनियाँ, धान, कुम्हाड़े॥“
- गौण प्रयोजनवती लक्षणा-
“मुरली मधुर चेंप कर कांपौं, मोर चन्द्र ठटवारी।
बंक विलोकनि लूक लागि बस, सकी न तनहिं सम्हारी॥”
- शुद्ध-प्रयोजनवती लक्षणा-
“ऊधौ! तुम सब साथी मोरे।
वै अक्रूर क्रूर-कृत तिनके, रीति-भरे गहि ढोरे॥”
- उपादन लक्षणा-
“सूर जहाँ लौं स्यामगात हैं तिनसौं क्यों कीजिए लगावा।”
- लक्षण लक्षणा-
“यह तनु जरि के भस्म ह्वै निबर्यौं, बहुरि मसान जगायौ।’
- सारोपा लक्षणा-
“तुम्हरे विरह, ब्रजनाथ अहो प्रिय नयनन नदी बढ़ी।
लीने जात निमेष कूल दोऊ एते मान चढ़ी।।
गोलक नव नौका न सकति चलि, स्यों, सरकि न बढ़ि बोरति।
ऊरध स्वास समीर तरंगनि, तेज तिलक तरु तोरति।”
- साध्यवसाना लक्षणा-
“अच्छे कमल-कोस-रस लोभी, वै अलि सोच करै।
कनक बेलि और नवदल के ढिंग बरु ते उझकि परै।”
- अभिधामूला व्यंजना- “
रहु रे मधुकमर!मधु मतवारे।”
9. लक्षणामूला व्यंजना –
“ऊधो!भली करी अब आये।”
इस प्रकार सिद्ध है कि सूर का भाषा पर असाधारण अधिकार था। उनकी कविता के अधिकांश विषय वात्सल्य एवं श्रृंगार सम्बन्धी हैं, अतः उनके काव्य में ओज की अपेक्षा प्रसाद एवं माधुर्य गुण ही अधिक परिमाण में प्राप्त होते हैं। इस पर उनके काव्य में कोमलकान्त पदावली का ही बाहुल्य दिखाई देता है। सूरदास की भाषा की एक विशेषता यह भी है कि वे भावों के अनुकूल ही शब्दों का प्रयोग करते हैं शब्द-चयन में सूर बहुत ही कुशल है। जो शब्द उन्होंने जहाँ बैठा दिया, उसके स्थान पर उसका कोई पर्यायवाची शब्द उतना ठीक नहीं बैठ सकता। स्पष्ट होता है कि उनका भाषा पर असाधारण अधिकार था। सार्थक शब्द-योजना वस्तुतः सूर की भाषा की बहुत बड़ी विशेषता है। उनकी भाषा की एक अन्यतम विशेषता है, उसका धारा-प्रवाह जो संगीत और ताल के संयोग के कारण अत्यधिक चमक उठा है। उनकी भाषा निःसन्देह अत्यधिक बलवती एवं सजीव कहीं जा सकती है। भावों के अनुरूप विशिष्ट शब्दावली, मुहावरे एवं लोकोक्तियों के प्रयोग ने भाषा में जो प्रवाह एवं सजीवता उत्पन्न कर दी है। उससे सूर का भाषाविज्ञ होना तो प्रमाणित होता ही है, उनका भाषा पर असाधारण अधिकार भी दृष्टिगत होता है।
महात्मा सूरदास कवि होने के साथ-साथ भक्त तथा कथावाचक के रूप में भी हमारे सम्मुख आते हैं। कथावाचक के रूप में उनकी भाषा का वह साहित्यिक रूप नहीं है, जो कवि-रूप में दृष्टिगत होता है। एक उदाहरण इस बात को स्पष्ट कर देगा-
“भारत युद्ध जीतन जब भयो। दुर्योधन अबल तहाँ रह्यों।
अश्वत्थामा तापै जाई। ऐसी भांति कह्यो समुहाई॥
हमसो तुम सों बाल मिताई हमसों कछू न भई भलाई॥”
स्पष्ट है कि उपर्युक्त पंक्तियाँ सूर का भाषा पर असाधारण अधिकार प्रदर्शित नहीं करती। जहाँ सूर ने भक्त तथा कवि-रूप में भाषा का प्रयोग किया है, वहाँ निश्चित रूप में वे भाषा के महान् शिल्पी ठहरते है। ‘सूरसागर’ में सूर अधिकांश में भक्त और कवि के रूप में ही हमारे सम्मुख आते हैं अतः उन्हें भाषा की दृष्टि से भी महान् पंडित ही माना जाएगा। यदि ऐसा नहीं है, तो फिर एक ही लीला पर अनेक पद होते हुए भी सरसता किस प्रकार बनी रह सकती है? पाठकों को अरुचि क्यों नहीं होती? स्पष्ट है कि सूर का ब्रजभाषा पर असाधारण अधिकार था। ब्रजभाषा सूर के प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगी। सूर ब्रजभाषा के अप्रतिम शिल्पी हैं। सूर के ब्रजभाषा से सम्बद्ध उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा को साहित्यिक एवं सशक्त रूप प्रदान करने में जो कार्य वाल्मीकि ने किया, वही भूमिका सूर ने ब्रजभाषा साहित्य की समृद्धि में प्रस्तुत की।
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