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रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी | बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ | बिहारी की काव्य कला

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी | बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ | बिहारी की काव्य कला

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी

रीतिकाल की सामान्यः प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

(i) रीति-निरूपण- इस युग में रीति-ग्रन्थों की रचना मुख्यतः तीन दृष्टियों से की गयी है। इनमें प्रथम उन रीति-ग्रन्थों का निर्माण हैं, जिनका उद्देश्य काव्यांश विशेष का परिचय कराना है, इनमें कवित्व का आग्रह नहीं है। जसवन्तसिंह का ‘भाषा-भूषण’, याकूबखों का ‘रस- भूषण’, दलपतिराय बंशीधर का ‘अलंकार-रत्नाकर’ आदि रचनाएँ इसी कोटि में आती हैं। द्वितीय दृष्टि में रीति-कम और कवि-कम का समन्वय मिलता हैं इनमें चिन्तामणि, मतिराम, भूषण, देव, पद्माकर, ग्वाल आदि आते हैं। लक्षणों का निर्माण न करके काव्य-परम्परा के अनुसार साहित्य सृजन करने वाले कवियों को तीसरी कोटि में रखा जाता है। यथा बिहारी, मतिराम, भूपति आदि।

(ii) श्रृंगारिकता- श्रृंगार की प्रवृत्ति रीति-काल की कविता में प्रधान है। श्रंगार के संविधान में नायक-नायिकाओं के भेद, उद्दीपक सामग्री, अनुभावों के विविध रूपों संचारियों, संयोग के विविध भावों तथा वियोग की विभिन्न कार्य-दशाओं का निरूपण इस प्रवृत्ति का प्राण हैं इसमें नारी के बाह्य सौन्दर्य-चित्रण की प्रमुखता है।

(iii) भक्ति और प्रवृत्ति- रीति-ग्रन्थों के प्ररम्भ में मंगलाचरणों और अन्त में आशीर्वचनों, भक्ति एवं शान्त रसों के उदाहरणों में यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है। राम और कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में ग्रहण किया गया है। इस काल के कवियों के आकुल मन के लिए भक्ति शरणभूमि थी। विलासिता के वर्णन से ऊबे हुए कवियों के द्वारा भक्तिभावपूर्ण फुटकर रचनाएँ बडी सुन्दर हैं।

(iv) नीति की प्रवृत्ति- अन्योपदेश तथा अन्योक्तिपरक रचनाओं में प्रायः नीति की प्रवृत्ति मिलती है। इस प्रकार की रचनाओं में वैयक्तिक अनुभवों का विशेष स्थान है। रीति-काल के कवियों के तीन भेद किये गये है- (i) रीति बद्ध (ii) रीति-सिद्ध (iii) रीति-मुक्त।

कविवर बिहारी रीति-बद्ध कवियों की श्रेणी में आते हैं। इस श्रेणी की विशेषताओं का अवलोकन कीजिए-

(i) हिन्दी की श्रृंगारकालीन रीति-बद्ध काव्य संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर लक्षण देते हुए लिखे गये। कुछ ग्रन्थ तो संस्कृत रचनाओं के मूल अनुवाद हैं और कुछ छायानुवाद के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं इन ग्रन्थों में मौलिक उद्भावनाएं नहीं के बराबर हैं।

(ii) रीति-बद्ध काव्यों में कवि शिक्षक के पद पर आसीन होकर काव्य की विशेषताओं को समझाने और समझने का प्रयत्न करता हैं दूसरे रूप में, ये शास्त्रीय कवि भी कहे जा सकते हैं।

(iii) रीति-बद्ध काव्यों में लक्षणों से अधिक उदहारणों को महत्ता प्राप्त हुई है। एक ओर तो इनके सृष्टाओं ने विशुद्ध लक्षण ग्रन्थों की रचना का, दूसरी ओर सरस उदाहरण एकत्र करके श्रृंगार रसपूर्ण काव्य-ग्रन्थ भी लिखे।

(iv) रीति-बद्ध आचार्य कवियों में आचार्यत्व एवं कवित्व का अद्भुत समन्वय मिलता है। संस्कृत में

प्रतिनिधि कवि- बिहारी रीतिकालीन श्रृंगारी कवि हैं उन्होंने अपनी रचनाओं में रीतिकालीन समस्त परम्पराओं का बड़ी सफलतापूर्वक निर्वाह किया हैं डॉ. गुलाबराय ने लिखाहै कि रीतिकाल के कवियों में कला का प्राधान्य था। भाव, कला के आश्रित हो गया था। कला  भाव के प्रसार में सहायक न थी, वरन् कला के उद्घाटन के लिए भावों का अस्तित्व था। उस समय के कवियों में प्रायः कवित्व और आतिव साथ-साथ चलता थां कुछ ऐसे भी कवि थे, जिनमें आचार्यत्व स्वतन्त्र रूप से तो न था, वरन् उनका कवित्य आचार्यत्व की पृष्ठभूमि पर पोषित और पल्लवित हुआ था। बिहारी इसी प्रकार के कवि थे। उनमें काव्यांगों के लक्षण तो नहीं हैं, किन्तु श्रृंगार-सम्बन्धी काव्य में सभी उपादन (संचारी, अनुभाव तथा हाव-भाव आदि) अलंकारों के सूत्र में गुंथे हुए मिल जाते हैं यदि लक्षण लिखने को ही आचार्यत्व की कसौटी माना जाय तो बिहारीआचार्य नहीं थे, किनतु यदि शास्त्रज्ञान को आचार्यत्व का निर्णायक माना जाय तो बिहारी के आचार्यत्व में किसी प्रकार की कमी न थी। कहने का भाव यह है कि बिहारी ने अपनी ‘सतसई द्वारा रीति-बद्ध कवियों को शास्त्रीय कवियों की समता में सम्मान दिलाने का कार्य किया। रीतिकाल में लक्षण ग्रन्था रचनो की परम्परा को छोड़कर स्वतन्त्र मुक्तक द्वारा शास्त्र-बोध कराने का मार्ग बिहारी ने ही प्रशस्त किया। बिहारी हिन्दी के अमर कवि हैं हिन्दी में उनका वही स्थान है जो अंग्रेजी साहित्य में बायरन का ओर संस्कृत-साहित्य में अमरुक का है।

बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ

(i) शास्त्रीय दृष्टि- बिहारी ने लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखे हैं, परन्तु रीति ग्रन्थों की पृष्ठभूमि में सुन्दर उदाहरण लिये हैं। लक्षणों के अनुरूप लक्ष्य प्रस्तुत करना ही सतसईकार का ध्येय थो। जिस काल में बिहारी ने ‘सतसई’ लिखी, वह संस्कृत और हिन्दी काव्य-साहित्य में लक्षण ग्रन्थों के उत्कर्ष का समय था।

(ii) गागर में सागर भरने की कला- बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भरने की उक्ति का चरितार्थ किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- यह बात साहित्य-क्षेत्र में इस तथ्य की स्पष्ट घोषण करती है कि किसी कवि का यश उनकी रचनाओं के परिमाण की दृष्टि से नहीं होता, गुणों की मात्रा से होता हैं कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में चरम उत्कर्ष को पहुंचा है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

(iii) बिहारी के काव्य में श्रृंगार की प्रधानता- बिहारी ने श्रृंगार रस के सभी अंगों को अपनाया है और अपने दोहों में प्रायः सभी प्रमुख अंलकारों का समावेश किया है। रीतिकालीन-श्रृंगार -रस के मुक्तक-ग्रन्थों में ‘बिहारी सतसई” से अधिक प्रचार और किसी ग्रन्थ का नहीं हुआ। श्रृंगार रस के अतिरिक्त अन्य भावों को भी बिहारी ने अपनाया है। संचारियों और सात्विक भावों की दृष्टि से प्रायः सभी के उदाहरण मिल सकते हैं, किन्तु यहाँ प्रमुख भावों की ओर संकेत करना ही पर्याप्त होगा।

(iv) विलासमय समाज- बिहारी ने अपने समय के विलासमय समाज का अच्छा वर्णन किया है। प्रायः रीतिकाल के सभी कवि अपने-अपने आश्रयदाताओं के शीश-महलों, उच्च अट्टालिकाओं, झाड़-फानूसों, कुसुमित कुंजों, बिहार-भूमियों, संकेत-स्थलों, सुरम्य-बागों एवं तालाबों, शीतल फब्बारों, सुरभित उपवनों, क्रीड़ा-पर्वतों आदि के वर्णन में ही लीन दिखाई देते हैं इस प्रकार बिहारी ने तत्कालीन जीवन में व्याप्त विलासिता का जीता-जागता चित्र अंकित किया है।

(v) राज्याश्रिता- रीतिकालीन कवि न तो निर्जन प्रदेश, न तीर्थ स्थानों या गिरि-कन्दरा या देव मन्दिर में रहना पसन्द करते थे और न किसी प्राकृत-जन के गुणगान करने में उन्हें कोई संकोच था। उनकी माता सरस्वती सिर धुनकर पश्चाताप करती थी। सामन्तकालीन वातावरण में पालन-पोषण होने के कारण वे राजा-महाराजाओं के सुसज्जित महलों में रहना इच्छा समझते थे तथा किसी अलौलिक सत्ता की अपेक्षा लौकिक सत्ता अविा प्राकृत-जन का गुण-गान करना अपना परम सौभाग्य मानते थे।

(vi) नायिका भेद- रीतिकालीन कवियों ने नायिकाओं के सामाजिक व्यवहार, नायक के साथ संयोग एवं वियोग, नायक के प्रति प्रेम, स्वभाव, यौवन, गुण आदि के आधार पर कितने ही भेद-अभेद किये हैं, जिसके परिणामस्वरूप नायिकाओं के तीन-सौ-चौरासी भेद तक किये है। इस प्रकार बिहारी ने पुर्वानुरागिनी, अन्य संयोग-दुखिता, स्वयं-दूतिका, अज्ञात-यौवना, मुग्धा, नवोढ़ा, प्रौढ़ा ज्ञात-यौवन विरहोत्कण्ठिता, स्वाधीनपतिका, वासक-सज्जा आदि विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के बड़े ही मार्मिक एवं मनोरंजक चित्र अंकित किये है।

(vii) नख-शिख- रीतिकालीन कवियों की यह प्रवृत्ति रूप भी प्रमुख से रही है कि वे नारी के रूप-सौन्दर्य को अंकित करने के लिए उसके नाखून से लेकर शिखा तक अंग-प्रत्यंग की छवि का चित्र प्रस्तुत किया करते थे। बिहारी का यह नखशिख-वर्णन श्रृंगारिकता के साथ-साथ सौन्दर्य-चेतना को भी उबुद्ध करने वाला है। इसमें विलक्षणता का प्राधान्य है।

संस्कृत कवियों में कविकुलगुरु कालिदास जिस प्रकार श्रृंगार रस वर्णन में, प्रसादजी गुण, उपमा आदि अलंकारों के कारण सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं उसी प्रकार हिन्दी कवियों में महाकवि बिहारी लालजी का आसन सबसे ऊंचा है। उपर्युक्त सभी विशेषताओं के कारण यह कहा जा सकता है कि बिहारी के काव्य में वे सभी विशेषताएं मिल जाती है। जो रीतिकाल की विशेषताएँ मानी जाती है अर्थात् बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं।

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Pankaja Singh

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