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यात्रावृत्त | यात्रावृत्त की विशेषताएँ | रेखाचित्र और रिपोर्ताज में प्रमुख अन्तर | रिपोर्ताज | रिपोर्ताज की विशेषताएँ

यात्रावृत्त | यात्रावृत्त की विशेषताएँ | रेखाचित्र और रिपोर्ताज में प्रमुख अन्तर | रिपोर्ताज | रिपोर्ताज की विशेषताएँ

यात्रावृत्त

‘यात्रा की शाब्दिक अर्थ है एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया। मनुष्य जाति का इतिहास उसकी यायवरी प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ है क्योंकि यह उसकी आवश्यकता भी थी। प्रकृति एवं मानव जीवन की विविधताओं के प्रति मनुष्य के मन में आकर्षण बढ़ा यह उसकी जिज्ञासा एवं कौतूहल का प्रतिफल है। यही जिज्ञासा एवं कौतूहल मनुष्य में यायावरी प्रकृति का सृजन करती है। यायावरी प्रवृत्ति ही मनुष्य में एक नई एवं उष्मा को संचार करती है।

यात्रा की कूप-मण्डूकता की सीमा गोड़कर मनुष्य के ज्ञान क्षितिज का विस्तार कर भूमण्डल की प्रेम एवं एकता के सूत्र में बांधती है। यात्रा मनुष्य में साहस, संघर्षशीलता, प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बना देने की क्षमता, धैर्य, सन्तुलन आदि गुणे का निर्माण करती है। संसार में बड़ो- बड़े विदेशी यायावरों फाहियान, हेनसांग, इत्सिंग, इब्नबतूता, अलबरूनी, मार्कोपालो, वर्नियर तथा भारत के बड़े-बड़े धर्मगुरुओं की भारत के उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम की यात्राओं की उपयोगिता निर्विवाद है, अतः यात्रा का मानव जीवन में सर्वाधिक महत्व है।

यात्रावृत्त देखे गये स्थानों का केवल विवरण ही नहीं है बल्कि यात्रा के दौरान दृश्यों का स्थलों के साथ भोगी गई जिन्दगी की क्रमबद्ध भाव प्रवण प्रस्तुति है। इनमें निबन्ध, कथा, संस्मरण आदि कई गद्य रूपों का आनन्द एक साथ मिल सकता है।

यात्रावृत्त की विशेषताएँ

  1. यात्रावृत्त तथ्यात्मक होता है। 2. यात्रावृत्त क्रमबद्ध होता है। 3. यात्रावृत्त सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति, सहजता, कल्पना, प्रवणता से युक्त होने चाहिए। 4. यात्रावृत्त में जिन्दादिली होनी चाहिए।

रेखाचित्र और रिपोर्ताज में प्रमुख अन्तर

रेखाचित्र और रिपोर्ताज

रेखाचित्र और रिपोर्ताज इन दोनों में पटना, स्थान और व्यक्ति का चित्रण किया जाता है। इन दोनों में अन्तर यह है कि रिपोर्ताज को कल्पना के रंग में उतना नहीं रंगा जा सकता जितना कि रेखाचित्र को। दोनों के अन्तसम्बन्ध पर डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय का कथन द्रष्टव्य है-“ऐसी (रिपोर्ताज) सक्रिय विधा में शब्द उसी प्रकार त्वरा पकड़ते हैं जैसे स्वचालित बन्दूक से निकलने वाली गोली। यह स्वयंचलित प्रक्रिया रिपोर्ताज लेखन के समय उपर्युक्त शब्दों को स्वतः चेतना में अवतरित कर देते है क्योंकि शब्द-शिल्प के लिए वरण और चयन का समय रेखचित्र संस्मरण आदि में मिल सकता है, रिपोर्ताज में नही। अतः यहाँ सरस्वती जैसे विद्युत आधात पा जाती है और लेखक के मुख या लेखनी के बाझ प्रत्यक्ष घटना विद्युत की तरह झटके दे-देकर उसका श्रेष्ठ रचनात्मक तत्व खींचकर बाहर निकाल लेती है। इस प्रकार रिपोर्ताज में ध्यान, धारण, कल्पना और भाव की गति समन्वित होती है, जबकि रेखाचित्र में इन सबकी संगति स्थिर गति से होती है।”

रेखाचित्र और आत्मकथा में अन्तर

आत्मकथा की रचना तटस्थ भाव से की जाती है क्योंकि यह एक प्रकार से लेखक का इतिहास है। इसमें वर्णन की प्रधानता होती है, चित्रण की नहीं। रेखाचित्र में तटसथता या वर्णन की प्रधानता नहीं होती, उसमें लेखक की स्वानुभूति और आस्था का पुट मिला रहता है।

रिपोर्ताज एवं उनकी विशेषताएँ

रिपोर्ताज (Reortals) हिन्दी गद्य की आधुनिकतम विधाओं में से एक है। यह मूलतः फ्रेंच भाषा का शब्द है। इसका पूर्वाश ‘रिपोर्ट’ (Report) अंग्रेजी भाषा से लिया गया है। रिपोर्ट का लेखक समाचार-पत्रों का संवाददाता होता है, जबकि रिपार्ताज का लेखक विशुद्ध रूप से एक साहित्यकार होता है। रिपोर्ट पत्रकारिता का विषय है, तो रिपोर्ताज साहित्य की एक विधा है। हिन्दी में रिपोर्ताज’ के लिए ‘सूचनिका’ और ‘प्रसंग चित्र’ इन दो नामों का भी व्यवहार किया जाता है। हिन्दी साहित्य कोश में रिपोर्ताज की परिभाषा इस प्रकार है- “रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते है।” प्रसिद्धि साहित्यकार प्रकाशचन्द्र गुप्त ‘रिपोर्ताज’ के शिल्पगत स्वरूप पर अपना मत इस प्रकार देते हैं-‘रिपोर्ताज तीव्र भावना में रंगा साहित्यिक रिपोर्ट मार होता है। इस विधा का जन्म रिपोर्ट की खन्दको में हुआ है। इन्हें वसवर्थ की काव्य भावनाओं के समान शान्ति के क्षणों में लिखने के लिए छोड़ देने का अवकाश नहीं होता”बापू गुलागराय ने रिपोर्ताज के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है-“रिपोर्ट की भांति वह घटना या पटनाओं का वर्णन अवश्य होता है, किन्तु इसमें लेखक के हदय का निजी उत्साह रहता है, जो वस्तुगत सत्य पर बिना किसी प्रकार का आवरण डाले उसको प्रभावमय बना देता है। इसमें लेखक छोटी-मोटी पटनाओं को लेकर पाठक क मन पर एक सामूहिक प्रभाव डालने का प्रयत्न करता है। इसका सम्बन्ध वर्तमान से होता है। ये घटनाएँ कल्पनाप्रसूत नहीं होती हैं इन घटनाओं के वर्णन द्वारा वह चरित्र को भी प्रकाश में ले आता है। इसका लेखक घटन-स्थल पर उपस्थित होता है और प्रायः आँखों देखी बाते ही लिखता है।” डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा रिपोर्ताज का स्वरूप-विवेचन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है- “रिपोर्ताज साहित्य का सबसे लचीला रूप है जिसकी सीमा एक पृष्ठ से लेकर कई सौपृष्ठों की मोटी पुस्तक हो सकती है।”

रिपोर्ताज की विशेषताएँ-‘रिपोर्ताज’ एक साहित्यिक विधा है। रचनात्मक साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति रचनाकार की अनुभूति, कल्पनाशीलता और वर्णन चारुत्व का योग रिपोर्ताज में भी होता है। रिपोर्ताज की विशेषताओं को विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर उद्घाटित किया है। वे इस प्रकार हैं-

  1. ‘रिपोर्ताज’ घटना-प्रधान होने के साथ-साथ कथा-तत्व से युक्त होता है।
  2. रिपोर्ताज किसी स्थान या घटना का यथार्थ, सजीव, मर्मस्पर्शी एवं संवेदना को उभारनेवाला वर्णन होता है।
  3. लेखक में संवेदनाभूति, कलात्मक अभिरुचि और सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति आवश्यक है।
  4. सरसता, सजीवता, मर्मस्पर्शिता , प्रवाह और भावप्रवणता उसके अनिवार्य गुण है।
  5. रिपोर्ताज में घटना या दृश्य प्रधान होता है, व्यक्ति नहीं, किन्तु जो भी पात्र हों उनका चित्रण अत्यन्त प्रभावपूर्ण और निखरा हुआ हो।
  6. रिपोर्ताज में आकार का कोई बन्धन नहीं होता, वह छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी।
  7. तथ्यात्मकता, कलात्मकता और साहित्यिकता रिपोर्ताज के अन्य प्रमुख गुण हैं।
  8. रिपोर्ताज लेखक तटस्थ तथा मानसिक रूप से अधिक जागरूक होता है।
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Pankaja Singh

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