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ब्रजभाषा का संक्षिप्त परिचय | ब्रजभाषा की व्याकरणिक विशेषताएं | बघेली का संक्षिप्त परिचय | ब्रजभाषा और राजभाषा में अन्तर | ब्रजभाषा की विशेषताएं

ब्रजभाषा का संक्षिप्त परिचय | ब्रजभाषा की व्याकरणिक विशेषताएं | बघेली का संक्षिप्त परिचय | ब्रजभाषा और राजभाषा में अन्तर | ब्रजभाषा की विशेषताएं

ब्रजभाषा का संक्षिप्त परिचय

पश्चिमी हिन्दी की ओकार बहुला उपवर्ग की प्रतिनिधि बोली ब्रजभाषा का क्षेत्र मथुरा, आगरा, भरतपुर, धौलपुर, करौली, ग्वालियर का पश्चिमी हिस्सा, जयपुर का पूर्वी हिस्सा, गुड़गाँव का पूर्वी हिस्सा, बुलन्दशहर, अलीगढ़, एटा, मैनपुरी तथा गंगापार के क्षेत्र बदायूँ, बरेली, नैनीताल की तराई में फैला है। शौरसेनी प्राकृल से विकसित व्रजभाषा के अध्ययन से अन्य कई बोलियों बुन्देली, कन्नौजी, राजस्थानी, गढ़वाली, कुमायूँनी आदि को सरलता से समझा जा सकता है। 27 हजार वर्गमील में विस्तृत क्षेत्र में बोलीगत समरूपता नहीं रह सकती। यही कारण है कि इस क्षेत्र में अनेक उपबोलियाँ बन गई हैं, जैसे-नैनीताल की बोली भुक्सा, एटा, मैनपुरी, बदायूं और बरेली जिले की बोली अन्तर्वेदी, धौलपुर और पूर्वी जयपुर की बोली, डांगी, करौली की जादोबाटी। मथुरा, अलीगढ़ तथा पूर्वी आगरे की बोली आदर्श ब्रजभाषा के रूप में मान्य है। बोलनेवालों की संख्या 1 करोड़ 30 लाख से अधिक है।

ब्रजभाषा की व्याकरणिक विशेषताएं

ध्वनि व्यवस्था- व्रजभाषा में प्रायः वही ध्वनियाँ हैं जो मानक हिन्दी में हैं, कुछ ध्वनियों के उच्चारण में किंचित् अन्तर अवश्य है। मूल स्वर अ, आ, इ, ई उ, ऊ, ए, ऐ ओ, औ हैं। इनमें ऐ तथा औ के हस्व रूप भी प्रचलित हैं। स्वरों के अनुनासिक तथा संयुक्त रूप भी प्रयुक्त होते हैं। उदासीन अ, इ, उ के जपित रूप भी ब्रजभाषा में हैं। ऋका उच्चारण हिन्दी की अन्य बोलियों की तरह रि होता है। अपभ्रंश प्रभाव के कारण शब्दान्त में इ, उ के अवशेष उपलब्ध होते हैं। जैसे-रामु, आनु, कालि।

परिनिष्ठित हिन्दी के ए, ओ स्वर ब्रजभाषा में ऐ, औ हो जाते हैं जैसे-ऊधो >उधौ, करें >करैं, ने >नै। शब्दान्त आ के ओ होने की भी प्रवृत्ति है-झगड़ा >झगरो, बसेरा >वसेरो। ब्रजभाषा में पाई जानेवाली व्यंजन ध्वनियाँ इस प्रकार हैं-

कंठ्य- क्, ख्, ग्, घ्, ङ्

तालव्य- च, छ, ज, झ,ञ्

मूर्धन्य- ट् ल्, ड्, द, ड, ढ़

दन्त्य– त, थ्, द्,ध्, न्

ओष्ठ्य- प, फ, ब, भ, म्

अन्तस्थ- य्,र्,ल्,व्,

ऊष्म- स्, ह्

उपर्युक्त व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण स्थान का निर्देश डॉ० धीरेन्द वर्मा के अनुसार है। (ब्रजभाषा व्याकरण-पृ0 46) हिन्दी की व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण स्थान के किंचित परिवर्तन का संकेत अनेक विद्वानों द्वारा किया गया है। ब्रजभाषा को इसका अपवाद नहीं कहा जा सकता। क वर्गीय ध्वनियों का उच्चारण स्थान कोमल ताल, च वर्गीय ध्वनियों का तालु वर्त्य, न का स्थान वर्ण्य, च का स्थान तालु निर्दिष्ट किए गए हैं। घ, ब, ण, न, म अनुनासिक हैं। इनका प्रयोग वर्गाधीन है। ण का उच्चारण ब्रजभाषा में नहीं होता। इसका स्थान न ध्वनि ले लेती है। साहित्य में ण के प्रयोग दो स्वरों के मध्य में हुए हैं। न और म का प्रयोग शब्द के आदि, मध्य दोनों में मिलते हैं। ल और ड ध्वनियों को कई स्थानों पर र में बदल दिया जाता है-झगड़ा > झगरो, साड़ी > सारी। य और व का यथावत् उच्चारण करते हैं किन्तु य का ज और व का ब भी हुआ है। ड, ढ़ शब्द के मध्य में आनेवाले व्यंजन हैं। श, ष का समाहार स में हो गया है। ष को ख भी बोलते हैं। परिनिष्ठित हिन्दी में न, म, र, ल के महाप्राण रूप नहीं हैं, ब्रजभाषा में इनके महाप्राण भी हैं, जैसे- न्हात, सम्हारो, उरहानों।

बघेली का संक्षिप्त परिचय

बघेलखंड की बोली का नाम बघेली है। बघेले राजपूतों के नाम पर इस क्षेत्र का नाम बघेलखंड प्रचलित हुआ। यह बोली रीवां, जबलपुर, दमोह, मॉडला, बालाघाट, बाँदा, फतेहपुर तथा हमीरपुर जिलों के कुछ भागों में बोली जाती है। अनेक भाषावैज्ञानिक बघेली को स्वतन्त्र बोली की मान्यता  नहीं प्रदान करते। इसे अवधी की एक उपबोली माना जाता है। बघेली में लोक साहित्य उपलब्ध है।

विशेषताएं- अवधी और बघेली में बहुत-सी समानताएँ हैं।

अवधी की ओ और ए ध्वनियों के उच्चारण में क्रमशः व और य श्रुति ला दी जाती है, जैसे- घोड़ = ध्वाड़, पेट = प्याट, खेत = ख्यात। अवधी व को बघेली में ब बोलते हैं, जैसे-आवा = आबा।

परसर्गों में कर्म-सम्प्रदान में कहा, करण-अपादान में तार अवधी परसर्गों से अतिरिक्त हैं।

सर्वनाम में उच्चारण की भिन्नता है, जैसे-हम्ह, म्वार (मोर), चार आदि।

विशेषण में हा अतिरिक्त जोड़ दिए जाते हैं, जैसे-अधिकहा, निकहा। पूर्वकालिक क्रिया में देखके, करके, के प्रयोग होते हैं। भूतकाल में ता, ते, तो रूप भी प्रचलित हैं, जैसे रहे ते, रही ती (रहे थे, रही थी), भविष्य में ह रूप अधिक प्रभावी है, जैसे-जहाँ, करिहौं।

ब्रजभाषा और राजभाषा में अन्तर

राजभाषा के रूप में विकास

राजभाषा (official Language) क्या है ?

  1. राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है-राज-काज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह ‘राजभाषा’ कहलाती है। राजाओं-नवाबों के जमाने में इसे ‘दरबारी भाषा’ कहा जाता था।
  2. राजभाषा सरकारी काम-काज चलाने की आवश्यकता की उपज होती है।
  3. स्वशासन आने के पश्चात् राजभाषा की आवश्यकता होती है। प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात् राजभाषा बन जाती है। भारत में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
  4. राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 ई० को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसीलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
  5. राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के द्वारा राजनीतिक-आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात् राजभाषा की प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना है।
  6. राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है, यथा : वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों-हिन्दी क्षेत्र के राज्यों में राज-काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं, महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।
  7. राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है स्वभाषा या परभाषा। जैसे, मुगल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल तक फारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया जो कि स्वभाषा है।
  8. राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।
  9. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति व उसकी समीक्षा

* स्वतंत्रता के पूर्व जो छोटे-बड़े राष्ट्रनेता राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के मुद्दे पर सहमत थे, उनमें से अधिकांश गैर-हिन्दी भाषी नेता स्वतंत्रता मिलने के वक्त हिन्दी के नाम पर बिदकने लगे।

* यही वजह थी कि संविधान सभा में केवल हिन्दी पर विचार नहीं हुआ; राजभाषा के नाम पर जो बहस वहाँ 11 सितम्बर, 1949 ई0 से 14 सितम्बर, 1949 ई0 तक हुई, उसमें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर विचार किया गया।

ब्रजभाषा

* केन्द्र-मथुरा

* प्रयोग क्षेत्र-मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुरी, मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली तथा आस- पास के क्षेत्र

* बोलनेवालों की संख्या-3 करोड़

* देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में ब्रजभाषा बोली जाती है जिसे ‘ताज्जुवेकी ब्रजभाषा’ कहा जाता है।

* साहित्य–कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र भाषा, लगभग सारा रीतिकालीन साहित्य। साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बोली। साहित्यिक महत्व के कारण ही इसे ब्रजबोली नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार पाया। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम ‘ब्रज बुलि’ पड़ा। असम में ब्रजभाषा ‘ब्रजावली’ कहलाई आधुनिक काल तक भाषा में साहित्य सृजन होता रहा । पर परिस्थितियां ऐसी बनीं कि ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया।

* रचनाकार-भक्तिकालीन : सूरदास, नंद दास आदि।

रीतिकालीन : बिहारी, मतिराम, भूषण, देव आदि।

आधुनिक कालीन : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ आदि।

* नमूना-एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो डिल्ली सैहर को चले। गाड़ी वारे बनिया से चौबेजी की भेंट है गई। तो वे चौबे बोले, अर मइया सेठ, कहाँ जायगो। वो बोलो, महराजा डिल्ली जाऊंगौ। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले, अन्छा भइया चारी दिंगे।

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Pankaja Singh

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