रामचरित मानस | तारसप्तक | अष्टछाप | समकालीन कविता | नयी कविता
रामचरित मानस (तुलसीदास)
तुलसीदास को भक्तिकाल की सगुण-धारा की रामभक्ति शाखा का प्रतिनिधि कवि माना जाता है। उन्होंने अपने महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ की रचना अवधी भाषा में की है। यह अवधी जन-सामान्य की भाषा न होकर पण्डितों की भाषा है। इसमें संस्कृत का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ है। ‘रामचरितमानस’ की रचना. दोहा और चौपाई छन्दों में हुई है। दोहों के साथ और दोहों के स्थान पर कहीं-कहीं सोरठा का प्रयोग भी है। इसके बीच-बीच में पद और संस्कृत की स्तुतियाँ भी पायी जाती है। प्रत्येक काण्ड के आरम्भ में संसकृत के छन्द दिये गये हैं। ‘रामचरितमानस’ का विभाजन सात काण्डों में हुआ है। वे इस प्रकार हैं-1. बालकाण्ड, 2. योध्याकाण्ड, 3. अरण्यकाण्ड, 4. किष्किन्धाकण्ड, 5. सुन्दरकाण्ड, 6. लंकाकाण्ड, और 7. उत्तरकाण्ड। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस के आरम्भ में स्पष्ट कर दिया है कि उन्होंने रामचरिमानस की रचना स्वान्तः सुखाय की है तथा इसमें वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त पुराणों तथा अन्य ग्रन्थों से भी सहायता ली गयी है।
तारसप्तक
तार सपाका प्रयोगशील कविता की प्रणा सुनियोजित और शक्ति युक्त अभिव्यक्ति तार- सप्तक है, जिसका प्रकाशन सन् 1943 में हुआ। इस संग्रह के साथ कभी हैं- (1) गजानन माधव मुक्तिबोध, (2) नेमीचन्द्र जैन, (3) भारत भूषण आवाल, (4) प्रभाकर माचवे, (5) गिरिजाकुमार माथुर, (6) रामविलास शर्मा, (7) सविताना हीरानात पात्यायन गोय’। यह एक ऐतिहासिक सामूहिक प्रयास था जो अन्य गुगो में देखने को मिलता। तार सपाक को समझाते हुए, अज्ञेय ने कहा है कि “द्विवेदी गुग में खड़ी बोली को उपयोग और प्रयोग को आमत थे, तार सप्तक की अभिव्यक्ति की शैली में प्रयोग का आग्रह शुरू हुआ। ” तार सप्तक में भाव वैभव तथा जटिल अनुभूतियों के विम्बीकरण को भी सही रूप में समझ लिया है और इस कार्य में तार सप्तक में अगले संस्करणों ने पर्याप्त सहयोग किया है। सार रापाक’ का दूसरा सवारण सन् 1949 और तीसरा संस्करण सन् 1963 तथा चौथा संस्करण सन् 1970 में सामने आया। इन संस्करणों में परिवर्द्धन की दृष्टि से कुछ सामग्री जोड़ी गयी है। दूसरे संस्करण में अतिरित्ता पूमिका लिखकर सम्पादक ने कुछ और स्पष्टीकरण किया है जो प्रयोगवादी काव्यधारा पर नया प्रकाश डालता है। तीसरे संस्करण मे सातों कवियों ने पुनश्च लिखकर अपनी कविताओं और मान्यताओं के विषय में अतिरिक्त वक्तव्य दिये हैं तथा साथ ही कुछ नवीन कविताएँ भी प्रस्तुत की है।
‘अष्टछाप’
‘अष्टछाप’- वल्लभाचार्य के बाद उनके सुयोग्य पुत्र गोस्वामी विठ्ठलनाथ ने कुछ अपने पिता के और कुछ अपने शिष्यों को लेकर एक ‘अष्टछाप’ नामक कवि-समूह की स्थापना की । इन आठ भक्तकवियों के हाथों कृष्ण की ललित भक्ति आध्यात्मिकता के साथ ही उच्चकोटि की साहित्यिकता से भी मण्डित हो गयी।अष्टछाप के अन्तर्गत आनेवाले कवियों के नाम हैं-सूरदास, कुम्भनदास, मरमानन्ददास, कृष्णदास, नन्ददास, छीतिस्वामी, गोविन्दस्वामी तथा चतुर्भुजदास। इन आठों कवियों में सूरदास औन नन्ददास उच्चकोटि के काव्य-गन्थों के प्रणयन तथा पुष्टिमार्गी भक्ति- सिद्धान्तों के अनुसरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
अष्टछाप के कवियों में सूरदास और नन्ददास की रचनाएँ विशेष महत्व की हैं। अन्य कवियों में कुम्भनदास ने कुछ भक्ति सम्बन्धी फुटकल पदों की रचना की है। कृष्णदास ने राधा और कृष्ण के श्रृंगार से सम्बन्धित सुन्दर गेय पदों की रचना की है। अष्टछाप के कवियों में सूरदास और नन्ददास के बाद कवित्व की दृष्टि से इन्हीं का स्थान हैं। छीतिस्वामी के सरस पद और गीत उनकी ब्रजभूमि के प्रति अटूट आसक्ति के द्योतक है। गोविनदस्वामी के पद भक्ति से सराबोर होने के साथ ही उच्चकोटि की संगीतात्मकता से भी युक्त हैं चतुर्भजदास ने भक्ति और श्रृंगार सम्बन्धी पदों की रचना अत्यन्त सरस तथा सुव्यवस्थित ब्रजभाषा में की है। सूर तथा नन्ददास की भंति व्यवस्थिति ढंग से काव्यबद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन ऊपर गिनाये गये छह कवियों में नहीं मिलता। इन दोनों कवियों के समान उच्चकोटि की काव्यात्मक कृतियों का प्रणयन भी ये कवि नहीं कर सके। यही कारण है कि अष्ट छाप के कवियों की चर्चा उठने पर सूरदास और नन्ददास के ही कृतित्व पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
समकालीन कविता
सन् 1960 के बाद की कविता को अनेक नाम दिये गये, जिनमें प्रमुख हैं-साठोत्तरी कविता, समकालीन कविता, अकविता, अस्वीकृत कविता, वीट कविता, हज कविता आदि। इन अनेक नामों का अभिप्राय यह है कि साठोत्तरी या समकालीन कविता नयी कविता से कुछ अलग हटकर है।
समकालीन हिन्दी कविता में जीवन और जगत से जुड़ी प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति को अत्यन्त यथार्थपूर्ण ढंग से चित्रित किया गया है। भरसक प्रयासों के बाद भी अब स्वराज्य को आदर्श रामराज्य में परिणत न किया जा सका तो जनमानस में मोहभंग की स्थिति पैदा हो गयी। जीवन के इस कटु यथार्थ का सामना करने में उसे जिन दबावों तथा तनावों को झेलना पड़ा है, जिन-जिन आरोहों-अवरोहों, संकल्पों विकल्पों में से गुजरना पड़ा है, उसकी स्पष्ट छाप हमें समकालीन हिन्दी कविता में दिखाई पड़ती है। पारम्परिक मूल्यों मान्यताओं का विरोध करने वाली इस कविता में प्रतिक्रियात्मक स्वर ही अधिक प्रबल है। यथास्थिति को नकारकर आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आकांक्षा तथा समकालीन परिवेश एवं यथार्थ को स्पष्ट बेलाग शब्दों में व्यंजित करना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। समकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का अनुशीलन इस प्रकार किया जा सकता है-
- विघटित व्यवस्था के प्रति आक्रोश एवं विद्रोह- व्यवस्था एक व्यापक प्रत्यय है। यह समूचे परिवेश का पर्याय है जिसके अन्तर्गत समाज, धर्म राजीनीति संस्कृति आदि सब कुछ समाहित है। व्यवस्था ही किसी देश अथवा समाज की पहचान बनाती है, उसे स्थायित्व प्रदान करती है, किन्तु जब इस व्यवस्था के मूल्यों, आदर्शों एवं परम्पराओं की अवहेलना कर इसमें मनमाने ढंग से परिवर्तन किये जाते हैं तो यह विघटन की शिकार हो जाती है और कोई भी विघटित व्यवस्था कल्याणकारी नहीं हो सकती है। यही कारण है कि समकालीन हिन्दी कविता में भी ऐसी अव्यवस्थित व्यवस्था के प्रति तीव्र आक्रोश एवं असन्तोष दिखाई पड़ता है। कवि को अकम्प विश्वास है कि इस विषम व्यवस्था को दूर करने का एक ही उपाय है-वह है जनक्रान्ति। केवल जनक्रान्ति से ही अपने होने का एहसास दिलाया जा सकता है, इसीलिए उसकी रुचि केवल बैठे-बैठे कविता करने तक सीमित नहीं है, अपितु वह आगे बढ़कर एक दावानल भड़कानाप चाहता है-
पुनश्च के नाम पर कविता लिखकर अपने को
बहलाना मेरा शगल नहीं
शगल तो यह भी नहीं कि
राह चलते बिम्ब या प्रतीक से
टकराऊँ और फिर उसके या अपने की खून की नुमाइश
करते हुए किसी युद्ध की कहानियाँ सुनाऊँ।
एक जंगल है सिर की जगह पर और एक
माचिस है मेरे हाथ में कलग के नाम पर। चाह है
कि एक दावानल भड़काऊँ ताकि अपने होने का
एहसास दिला सकूँ, मंजूर करने की राह पहचान सकूं।
- जीवन का वास्तविक निरूपण- कोई भी रचना तभी जीवन्त और प्राणवान बन सकती है, जब उसका जुड़ाव जीवन से हो। जीवन की तीव्र उत्कट अनुभवों की आँच से तपे बिना साहित्य-सर्जना सम्भव नहीं है। चूँकि रचनाकार अपने परिवेश के प्रति आबद्ध होता है, अतः यह आवश्यक है कि बदलते मानव मूल्यों के साथ-साथ कविता का तेवर भी परिवर्तित हो। जहाँ तक समकालीन हिन्दी कविता का प्रश्न है इसमें जीवन की निर्मम वास्तविकताओं को अत्यन्त ईमानदारी से निरूपित किया गया है। अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने को तत्पर यह कविता जीवन की विसंगतियों को बेपर्द करना चाहती है।
नयी कविता
नयी कविता भारतीय स्वतन्यता के बाद लिखी गयी उन कविताणों को कहा गया, जिनमें परम्परागत कविता से आगे नये भावयोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प- विधानों का अन्वेषण किया गया। यह अन्वेषण साहित्य में कोई नयी वस्तु नहीं है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो प्रायः सभी नये वाद या नयी-नयी धाराएँ अपने पूर्ववर्ती वादों या धाराओं की तुलना में कुछ नवीन अन्वेषण की प्यास लिए दिखायी पड़ती है। यह साहित्य की नवीनता सदैव श्लाध्य है। यदि वह अपना सम्बन्ध बदलते हुए सामाजिक जीवन के मूल सत्यों से बनाये रखे। इस प्रकार नित नवीनता की एक परम्परा गतिमान रही है। फिर भी नयी कविता नाम स्वतन्त्रता के बाद लिखी गयी उन कविताओं के लिए रूत हो गया, जो अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में पूर्ववर्ती प्रगतिवाद प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट हैं।
नयी कविता की प्रवृत्तियों की परीक्षा करने पर उसकी सबसे पहली विशिष्टता जीवन के प्रति उसकी आस्था में दिखायी पड़ती है। आज की क्षणवादी और लघु-मानववादही दृष्टि जीवन-मूल्यो के प्रति नकारात्मक नहीं, स्वीकारात्मक दृष्टि है। नयी कविता में जीवन को पूर्ण स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। मनोविज्ञान द्वारा उद्घाटित सत्यों ने यह प्रमाणित किया है कि हम क्षणों में जीते हैं। क्षणों की अनुभूतियों सम्पूर्ण जीवनानुभूति की बाधक नहीं, साधक है। क्षणों को सत्य मान लेने का अर्थ होता है जीवन की एक एक अनुभूति को एक-एक व्यथा को, एक-एक सुख को, सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार करना। लघु मानव तत्व की जो बात नयी कविता में उठायी गयी है, उसे भी जीवन की पूर्णता के ही सन्दर्भ में देखना होगा। लघु मानव का अर्थ है-वह सामान्य मनुष्य जो अपनी सारी संवेदना, भूख-प्यास और मानसिक आँच को लिए दिये उपेक्षित था। इस लघु मानव का अर्थ यदि मनुष्य की लघुता की खोज-खोजकर सत्य रूप में उसकी प्रतिष्ठा करने से है, तो निश्चय ही यह अतिवादी प्रतिक्रियावादी और असत्य जीवन-दृष्टि है। स्वस्थ नयी कविता ने कभी भी इस अर्थ को स्वीकार नहीं किया।
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